शिक्षाशास्त्र

प्रश्नावली विधि | प्रयोगात्मक विधि | मनोविश्लेषणात्मक विधि

प्रश्नावली विधि | प्रयोगात्मक विधि | मनोविश्लेषणात्मक विधि

प्रश्नावली विधि-

इसके नाम से ही इस विधि का आशय मालूम होता है। प्रश्नों के द्वारा कार्य करने की विधि प्रश्नावली विधि कही जाती है। इसे अंग्रेजी में Questionnaire  Method कहा जाता है। प्रो० जेम्स ड्रेवर ने लिखा है-प्रश्नावली (प्रश्न+अबली) या समूह प्रश्नों की एक श्रृंखला कुछ मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, शैक्षिक आदि प्रसंगों के बारे में होती है जिसका लक्ष्य किसी समस्या के सम्बन्ध में व्यक्तियों के समूह से दत्त सामग्री प्राप्त करना होता है। अब स्पष्ट हो जाता है कि बहुत से प्रश्नों की सहायता से कुछ समस्या के बारे में दत्त सामग्री इकट्ठा करने की विधि को प्रश्नावली विधि कहते हैं। यह विधि एक प्रकार से कुछ अन्य विधियों का भी प्रयोग करती है। मनोवैज्ञानिकों के विचार में अन्तर्निरीक्षण विधि, निरीक्षण विधि तथा तुलना विधि का अनुप्रयोग इस विधि में होता है। इससे स्पष्ट है कि यह विधि अधिक लाभदायक होती है क्योंकि एक समस्या के बारे में बहुत लोगों से कई प्रश्न किये जाते हैं और समस्या तथा उसके समाधान का पूर्ण चित्र प्रकट होता है।

(क) गुण- (i)  इस विधि का प्रयोग व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों ढंगों से होता है; अतएव व्यापकता पाई जाती है।

(ii) इस विधि से दत्त-सामग्री एकत्र करने में समय की बचत होती है। एक समय में एक साथ काफी सामग्री मिल जाती है।

(iii) प्रायः सभी प्रकार की समस्याओं के लिये इस विधि का प्रयोग किया जाता है; अतएव इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत बताया जाता है। साधारण रूप से सभी लोग इसका प्रयोग करते पाये गये हैं।

(iv) यह विधि खर्चीली कम होती है क्योंकि इससे कम लेने में कोई विशेष ज्ञान की जरूरत नहीं पड़ती है। प्रश्नावली के शुरू में कुछ अनुदेश दिये रहते हैं, उन्हें विषयों को समझा दिया जाता है और प्रश्नावली बाँट दी जाती है। पुनः उत्तर लेकर उन्हें वापस ले लिया जाता है। अतएव सरल विधि है।

(ख) दोष- (i)  कभी-कभी उत्तर देने वाले अपनी वास्तविक प्रतिक्रिया को नहीं प्रकट करते हैं और गलत उत्तर भी देते हैं। ऐसी दशा में उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।

(ii) अपने भाव को छिपाने की प्रवृत्ति उत्तर देने वाले में पाई जाती है जिससे नकारात्मक उत्तर अधिक मिलते हैं। इससे भी सही ज्ञान नहीं मिलता है।

(iii) उत्तर देने वाले को यदि सही उत्तर नहीं मालूम रहता तो वह अनुमान का भी प्रयोग करता है। इस कारण भी वास्तविकता का बोध नहीं हो पाता है।

(iv) एक बड़ी कठिनाई प्रश्नों के निर्माण में पाई जाती है। इससे विधि की जटिलता बढ़ जाती है।

प्रयोगात्मक विधि-

प्रयोग तथा सम्भव प्रयोगकर्ता द्वारा नियन्त्रित दशाओं में एक वैज्ञानिक प्रयोजन के लिये निरीक्षण होता है योग एक नियन्त्रित एवं सप्रयोजन निरीक्षण है। अतएव प्रयोगात्मक विधि भी एक प्रकार से निरीक्षणात्मक विधि है, अन्दर केवल इतना है कि प्रयोग की विधि में प्रयोगकर्ता को अधिक स्वतन्त्रता रहीं रहती है, वह नियन्त्रण के साथ कार्य करता है।

प्रयोगात्मक विधि से कार्य करने का एक विशेष तरीका होता है। इसमें (क) पहले किसी व्यवहार का क्रिया का चुनाव करते हैं और उसका अध्ययन किया जाता है। (ख) फिर उसका प्रयोजन बताया जाता है। (ग) उसे अध्ययन करने के लिये एक प्राक्कल्पना (Hypothesis) तैयार करते हैं। (घ) प्राक्कल्पना के आधार पर व्यवस्थित ढंग से तथ्य संग्रह करते हैं। (ङ) संगृहीत तथ्यों का विश्लेषण, वर्गीकरण एवं निष्कर्ष निकालते हैं। (च) अन्त में प्राक्कल्पना की सत्यता सिद्ध करते हुए सिद्धान्त बनाते हैं। इस प्रकार से प्राप्त सिद्धान्तों को पुनः प्रयोग करके सत्यता को और भी स्पष्ट करते हैं। इन बातों से स्पष्ट है कि प्रयोगात्मक पद्धति से काम करने में एक व्यवस्था पाई जाती है।

(क) गुण- (i)  यह विधि वैज्ञानिक है क्योंकि इसमें एक निश्चित क्रम से अध्ययन किया जाता है।

(ii) इस विधि से प्राप्त परिणाम अधिक विश्वसनीय एवं प्रामाणिक माने जाते हैं क्योंकि काफी जाँच के बाद परिणाम निकाले जाते हैं।

(iii) प्रयोग से प्राप्त सिद्धान्तों को व्यापक रूप से सभी जगह काम में लाया जाता है, अतएव यह विधि सर्वव्यापी (Universal) कही जाती है।

(iv) प्रयोग से परिणामों की दृढ़ता और उसमें बारीकी पाई जाती है। इससे वैज्ञानिकता बढ़ती जाती है।

(v) इस विधि से सिद्धान्त निरूपण होता है जिससे विषय बोध किया जाता है।

(vi) इस विधि के प्रयोग से मनुष्य की अनुभूति और उनके व्यवहारों से सम्बन्ध रखने वाली समस्याओं का समाधान सरलतापूर्वक किया जा सकता है, फलस्वरूप मानव- विकास में योगदान होता है।

(ख) दोष- (i)  प्रयोग करने में एक कृत्रिम वातावरण को उत्पन्न करना पड़ता है जिसमें कठिनाई पड़ती है और अस्वाभाविकता भी आती है। कृत्रिम वातावरण से कृत्रिम परिणाम मानव व्यवहार के सम्बन्ध में मिलने की सम्भावना रहती है।

(ii) प्रयोज्य को पूर्व दशा में लाने में कठिनाई होती है क्योंकि ठीक वही दशाएँ नहीं होती हैं और प्रयोज्य अपने व्यवहार को सँभालने की कोशिश भी करने लगता है। जैसे यदि एक बार क्रोध में किसी ने गाली दिया तो प्रयोग में दूसरी बार वह गाली नहीं दे सकता है।

(iii) प्रयोग करने के लिये आवश्यक नियंत्रण की दशा को लाना कठिन है। कारण यह कि मनुष्य एक सजीव प्राणी है और उस पर हर समय उसके वातावरण का प्रभाव नये ढंग से पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में नियन्त्रित दशा बदल जाती है।

(iv) प्रयोग करने के लिये प्रयोगशाला, प्रयोगकर्ता एवं प्रयोग सामग्री की जरूरत पड़ती है। इससे यह विधि खर्चीली होती है, समय भी काफी लगता है।

(v) समय अधिक लगने पर कभी-कभी प्रयोज्य को मानसिक ऊब आने लगती है और इसके कारण उसकी प्रतिक्रियायें सही-सही नहीं भी होती हैं। इससे परिणाम में अशुद्धि आने की सम्भावना रहती है।

(vi) इस विधि से मनुष्य की सभी मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करना सम्भव नहीं होता है। उदाहरण के लिए, सीखने की प्रक्रिया का प्रयोग चूहे, बिल्ली, कुत्ते पर भी किया गया और तुलनात्मक निष्कर्ष निकाले गए हैं।

(ग) प्रयोगात्मक विधि की उपयोगिता और इसका महत्त्व- प्रयोगों के कारण मनोविज्ञान एवं शिक्षा मनोविज्ञान के विषय विज्ञान की श्रेणी में आ गए हैं। इससे यह विधि का महत्त्व मालूम होता है। इसकी उपयोगिता इस बात से भी सिद्ध होती है कि बार-बार प्रयोग किए जा सकते हैं और परिणाम की सत्यता व स्पष्टता मालूम की जा सकती है। शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में इसकी उपयोगिता बालकों की व्यक्तिगत भिन्नता, उसकी प्रतिभाशीलता, उनकी कमजोरियों की जानकारी उनके चुनाव एवं वर्गीकरण आदि में पाई जाती है। इस प्रकार से उनकी रुचि, योग्यता, अभिक्षमता के आधार पर शिक्षा देना भी सरल होता है। असमान्य बालकों की समस्याएँ भी इस विधि से जानी जा सकती हैं और उन्हें शिक्षक दूर करने की कोशिश कर सकता है। व्यक्तित्व के सुसमायोजन में भी प्रयोगात्मक विधि सहायक होती है। शिक्षक अपने कार्य के बारे में भी बहुत कुछ ज्ञान कर लेता है। अपनी मानसिक एवं भौतिक स्थितियों के बारे में वह प्रयोग से लाभ उठाता है, इससे अध्यापन-कुशलता से परिवर्तन करना सम्भव होता है। बालकों के मार्ग-निर्देशन में भी इसी विधि से सहायता मिलती है। शिक्षण-विधियों को सुधारने के लिए, पाठ्यक्रम- निर्माण के लिए, विद्यालय व्यवस्था में सुधार लाने के लिए भी प्रयोगात्मक विधि उपयोगी पायी गई है।

मनोविश्लेषणात्मक विधि-

शिक्षा-मनोविज्ञान में गौण रूप से प्रयोग की जाने वाली विधि मनोविश्लेषण की विधि है। मनोविश्लेषण (मनः+विश्लेषणा अर्थात् मन का विश्लेषण) में एक प्रकार से मनुष्य की आन्तरिक स्थिति का स्पष्ट अध्ययन होता है। प्रो० अर्नेस्ट जोन्स ने लिखा है कि “मनोविश्लेषण का अर्थ कुछ विशेष श्रेणी के मनोतंत्रीय रोग-ग्रस्त लोगों का वियना के प्रो० सिग्मंड फ्रायड द्वारा निकाली गई चिकित्सा की विशेष विधि।”

इस विधि में “मन के अधिक गहरे तहों की खोज” की जाती है। हम मनुष्य बहुत संवेदनशील होते हैं और जो भी प्रभाव हमारे मन पर अच्छा या बुरा पड़ता है उसकी छाप मन पर पड़ती है और वह अपने भीतर इसे रखे रहता है। इनके समूह को भाव-ग्रंथियाँ कहा जाता है। ये भाव-ग्रंथियाँ हीनता, वरिष्ठतः यौन सम्बन्धी होती हैं जिनका प्रभाव व्यक्तित्व पर पड़ता है। प्रायः देखा जाता है कि कक्षा में कुछ तेज लड़के चुप बैठे रहते हैं; उनमें हीनता की भाव ग्रंथि होती है, उन्हें दबाया गया है इसीलिए वे शान्त रहते हैं। इसी प्रकार कुछ लड़के उद्दण्ड होते हैं, उनमें भी भाव-ग्रंथि पायी जाती है। आन्तरिक दशा जानने के लिए हम मनोविश्लेषण की विधि का प्रयोग करते हैं। मनोविश्लेषणात्मक विधि मनुष्य की गूढ़तर मनोदशाओं की खोज एक विशिष्ट प्रविधि है।

प्रो० फ्रायड ने कहा कि आत्म ज्ञान के लिए हमें मन का अध्ययन करना जरूरी है। मन उसकी आन्तरिक शक्तियों का पुंज होता है। मनुष्य जो भी व्यवहार करता है वह उसके मन की दशा को प्रकट करता है। मनुष्य का मन ज्ञात या चेतन और अज्ञात या अचेतन ढंग से उसके व्यवहार में प्रकट होता है। उसका अचेतन अंश बड़ा होता है और सभी व्यवहार में उसकी प्रतिक्रिया पाई जाती है। यह अचेतन मन “दबी हुई भावनाओं’ के द्वारा बनाता है जो भीतर-ही-भीतर क्रियाशील रहता है। मनुष्य इसकी चेतना नहीं रखता है। मनोविश्लेषणात्मक विधि से यह स्पष्ट होता है। इस विधि से हम मनुष्य के अन्तः स्थिति, दबी हुई भावनाओं, इच्छाओं, प्रतिक्रियाओं का विश्लेषण करते हैं जिसके फलस्वरूप व्यक्ति के कुसमायोजन दूर होते हैं, मानसिक विकार समाप्त होते हैं और मन स्वस्थ होता है।

(क) गुण- (i)  यह विधि मन की वास्तविक खोज करती है और मनुष्य की सही आन्तरिक स्थिति का पता लगाती है। आन्तरिक शक्तियाँ ज्ञात होती हैं।

(ii) इस विधि से भाव-ग्रंथियों तथा विकारों को दूर किया जाता है, वातावरण के साथ अच्छे ढंग से समायोजन करने में सहायता मिलती है और व्यक्तित्व का सही विकास होता है।

(iii) इस विधि से शिक्षार्थियों की कमजोरियों व बुराइयों को दूर किया जा सकता है और शिक्षा के क्षेत्र में उन्हें आगे बढ़ाया जा सकता है।

(iv) इस विधि में विश्वास, सहानुभूति एवं प्रेम के साथ अध्ययन होने से अध्ययन किए जाने वाला व्यक्ति अपने मन की बातों को अपने आप प्रकट कर देता है। इससे सुधार होता है।

(ख) दोष- (1) यह अत्यन्त जटिल विधि है और बिना विशेष प्रशिक्षण के इसका प्रयोग करना सम्भव नहीं है। यही कारण है कि इसका दुरुपयोग होता है।

(ii) सभी देशों में इस प्रकार के विशेषज्ञ नहीं होते हैं, विशेषकर अपने देश में। इसमें यह अनुपयुक्त और अनुप्रयुक्त विधि कही जाती है।

(iii) इस विधि से अध्ययन करने में धन, समय, धैर्य एवं शक्ति अधिक खर्च होती है जिसके लिए विषयों को तैयार नहीं पाया जाता है।

(iv) समाज भी इस प्रकार की विधि पर ध्यान नहीं देता है जिसके कारण इस विधि के द्वारा उपचार लेने की वह इच्छा नहीं रखता है। कमियों के होते हुये भी यह निश्चय है कि यह विधि अत्यन्त उपयोगी है।

प्रो० अर्नेस्ट जोन्स ने लिखा है कि “सभी लड़के मनोरोग की एक अवस्था से गुजरते पाये जाते हैं । इसलिये विश्लेषण द्वारा बालक के विकास का मार्ग अधिक सुरक्षित एवं काम दुखद बना दिया गया है । भविष्य में मनोपचारात्मक विश्लेषण का महत्वपूर्ण भाग निश्चय ही इस क्षेत्र में होगा।”

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Pankaja Singh

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