राजनीति विज्ञान

प्रदत्त विधायन क्या है? | प्रदत्त विधायन विकास के कारण | प्रदत्त विधायन की उपयोगिता | पदत्त विधायन के दोषों को दूर करने के उपाय | प्रदत्त विधायन का भविष्य

प्रदत्त विधायन क्या है?  | प्रदत्त विधायन विकास के कारण | ब्रिटेन में प्रदत्त विधायन | फ्रांस से प्रदत्त विधायन | अमेरिका में प्रदत्त विधायन | भारत में प्रदत्त विधायन | प्रदत्त विधायन की आलोचना | प्रदत्त विधायन की उपयोगिता | पदत्त विधायन के दोषों को दूर करने के उपाय | प्रदत्त विधायन का भविष्य

प्रदत्त विधायन (प्रदत्त विधायन क्या है? )

प्रदत्त विधायन का इतिहास बड़ा प्राचीन है। 1832 के अधिनियम द्वारा प्रदत्त विधायन या प्रशासकीय विधि में असाधारण वृद्धि हुई है। प्रथम विश्व युद्ध के काल में प्रदत्त विधायन का अधिक विकास हुआ एवं सुरक्षा नियमों के अन्तर्गत कार्यपालिका को व्यापक अधिकार प्रदान किये गये। व्यवस्थापिका द्वारा अपनी विधि निर्माण शक्ति को कार्यपालिका एवं उसके अधिकारियों को हस्तान्तरित किया गया और इस प्रकार अधिनियम के अधीन हम कह सकते हैं कि कार्यपालिका द्वारा जो कानून बनाये गये उन्हें ही प्रदत्त विधायन के नाम से पुकारा जाता है। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि कार्यपालिका द्वारा निर्मित विधि या नियम प्रदत्त विधायन कहलाता है। विधि निर्माण कार्यपालिका नहीं करती, यह कार्य व्यवस्थापिका का ही है। परन्तु विशेष परिस्थितियोंवश अथवा कारणवश निश्चित सीमा के अन्दर विधि निर्माण का अधिकार वर्तमान युग में कार्यपालिका को दिया गया है। अतः हम कह सकते हैं कि प्रदत्त विधायन व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित विधि की तुलना में कार्यपालिका द्वारा निर्मित अधीनस्थ विधायन है। कार्यपालिका द्वारा निर्मित विधि, नियम या आदेश प्रदत्त विधायन कहलाते हैं।

प्रदत्त विधायन विकास के कारण

प्रदत्त विधायन के विकास के निम्नलिखित कारण हैं:-

(1) राज्य के कार्य क्षेत्र में वृद्धि के साथ-साथ व्यवस्थापिका के कार्यों में असाधारण वृद्धि हुई है। साथ ही समयाभाव के फलस्वरूप व्यवस्थापिका अपने बढ़े हुये दायित्वों को निभाने में असफल रहती है। व्यवस्थापिका में महत्वपूर्ण विधेयकों से सम्बन्धित सिद्धान्तों पर विचार मात्र होता है तथा उन सिद्धान्तों के विषय में नियम एवं कानून बनाने का दायित्व विभाग के कर्मचारियों को सौंपा जाता है।

(2) अनेक विधियों का सम्बन्ध जटिल एवं तकनीकी मामलों से होता है। इन विधियों के निर्माण करने की अपेक्षित योग्यता व्यवस्थापिका के सदस्यों में नहीं होती; अतः इस सम्बन्ध में तकनीकी विशेषज्ञों से परामर्श एवं सहयोग लिया जाता है जिसे विभागीय अधिकारी ही प्राप्त कर सकते हैं।

(3) व्यवस्थापिका का अधिवेशन सदैव नहीं होता तथा अनेक समस्यायें प्रतिदिन उत्पन्न होती रहती हैं; अतः इन समस्याओं के समाधान हेतु विधि बनाने के लिए प्रदत्त विधायन अपनाया जाता है।

(4) कभी कभी महत्वपूर्ण विषयों पर अमरीकन कांग्रेस कार्यपालिका को नियम बनाने का अधिकार न देकर आयोगों को सौंप देती है।

यदि कोई प्रशासकीय नियम संसदीय अधिनियमों की धाराओं के विरुद्ध होता है या प्रदत्त सत्ता का अतिक्रमण करता है तो ऐसी परिस्थिति में न्यायालय उसे अवैध घोषित कर सकते हैं अन्यथा न्यायालयों को इन नियमों के संदर्भ में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होता और ये नियम संसदीय विधि की भाँति ही प्रभावकारी होते हैं।

ब्रिटेन में प्रदत्त विधायन

ब्रिटेन में पार्लियामेन्ट को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। वह सभी प्रकार के कानून बनाती है। उसका प्रदत्त विधायन पर भी नियन्त्रण होता है। महत्वपूर्ण विषयों से सम्बन्धित विभागीय नियम तभी वैध माने जाते हैं जबकि पार्लियामेन्ट उन पर अपनी स्वीकृति देती है। ब्रिटेन में प्रदत्त विधायन का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। पार्लियामेन्ट के अधिवेशन सदैव नहीं होते और दिन-प्रतिदिन ऐसे नियमों की आवश्यकता पड़ती है जिनको लागू करना आवश्यक होता है। पार्लियामेन्ट की स्वीकृति हेतु ऐसे नियम उसके समक्ष रखे जाते हैं। इनमें से कुछ विशेष नियमों पर पार्लियामेन्ट की स्वीकृति अनिवार्य होती है और शेष नियम पार्लियामेन्ट के सम्मुख एक निश्चित अवधि तक रहने के पश्चात् स्वयं कानून बन जाते हैं और संसदीय कानूनों की भाँति प्रभाव रखते हैं। कुछ नियम तो ऐसे होते हैं जिनको पार्लियामेन्ट के सामने रखने की आवश्यकता ही नहीं होती। अमरीका और फ्रांस में इंग्लैण्ड की भाँति प्रदत्त विधायन पर पार्लियामेन्ट का नियन्त्रण नहीं होता। पार्लियामेन्ट में बहुधा किसी नियम पर विचार भी नहीं होता। यदि किन्हीं नियमों को न्यायालय किसी विधि के अतिक्रमण के कारण अवैध घोषित कर देता है तो उस पर विचार किया जाता है।

फ्रांस से प्रदत्त विधायन

फ्रांस में दो प्रकार के प्रशासकीय नियम प्रचलित हैं-(अ) साधारण नियम और (ब) प्रशासकीय नियम । यहाँ भी अन्य देशों की भाँति प्रदत्त विधायन का विकास तेजी से हुआ है। तृतीय गणराज्य द्वारा प्रदत्त नियम जारी करने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है। चतुर्थ गणराज्य में यह शक्ति प्रधानमन्त्री को प्रदान कर दी गई है। फाइनर के मत में यह परिवर्तन विशेष महत्व रखता है। फ्रांस में तीसरे और चौथे गणराज्यों की अस्थिर सरकारों के लिये उत्तरदायी, विद्रोही और असहयोग करने वाली पार्लियामेन्ट के कारण प्रदत्त विधायन एक अनिवार्यता बन गई थी। वित्तीय मामलों में इन नियमों का व्यापक प्रयोग किया गया था।

अमेरिका में प्रदत्त विधायन

अमेरिका की शासन-पद्धति का आधार शक्ति-पृथक्करण है। अमेरिका में शक्तियों का पृथक्करण असम्भव है। विधि निर्माण की शक्ति कांग्रेस में निहित है, अत: किसी अन्य संख्या या निकाय को इसका प्रदत्तीकरण संवैधानिक दृष्टि से असंभव है। परन्त परिस्थितियोंवश प्रदत्त विधायन अमेरिका में भी दिखलाई पड़ता है। अमेरिका में प्रदत्त विधान पर व्यवस्थापिका का नियन्त्रण न होकर न्यायपालिका का नियन्त्रण होता है। यहाँ के न्यायालय पृथक्करण के विरुद्ध नहीं होते किन्तु उन्होंने सत्ता प्रदत्तीकरण को समाप्त करने का प्रयत्न किया है। शासन द्वारा निर्मित नियमों की समीक्षा कांग्रेस द्वारा नहीं की जाती और सभी प्रदत्त नियमों, आदेशों और उपनियमों को न्यायालयों में चुनौती दी जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रशासकीय विधियों को संवैधानिक माना है। यहाँ पर ब्रिटेन की भाँति प्रदत्त विधायन से सम्बन्धी संसदीय समितिया नहीं होती।

भारत में प्रदत्त विधायन

भारत में इंग्लैण्ड-जैसी संसदीय व्यवस्था है। परन्तु यहाँ संसद् इतनी शक्तिशाली नहीं है जितनी इंग्लैण्ड की । संसदीय विधियाँ संविधान द्वारा मर्यादित होती हैं। यदि संसद द्वारा निर्मित कोई कानून संविधान के किसी प्रावधान के विपरीत है तो उसे निम्नलिखित तीन परिस्थितियों में असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है:-

(अ) प्रयोजन करने वाला अधिनियम अवैधानिक हो।

(ब) प्रदत्त विधान संविधान का अतिक्रमण करता हो।

(स) प्रदत्त विधान अपने मूल विधान के उपबन्धों के प्रतिकूल हो।

भारत में प्रदत्त विधायन का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा। 1962 संकटकालीन स्थिति की घोषणा के पश्चात् सुरक्षा नियमों को जारी किया गया था। इनके अन्तर्गत कार्यपालिका को विधि निर्माण की व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गई थीं। प्रदत्त विधायन पर संसदीय नियन्त्रण हेतु 1953 में एक समिति का निर्माण किया गया था जिसे ‘अधीनस्थ विधान समिति’ कहते हैं। इस समिति का मुख्य कार्य यह देखना होता है कि कार्यपालिका द्वारा निर्मित नियम या विनियम अथवा आदेश प्रत्योजित करने वाली मूल विधि के अनुरूप है या नहीं। समिति के प्रदत्त विधायन सम्बन्धी कई व्यवस्थाओं की निन्दा भी की है। 1970 की आपातकालीन स्थिति की घोषणा के पश्चात् प्रदत्त विधायन का क्षेत्र और भी व्यापक हो गया है।

प्रदत्त विधायन की आलोचना-

विभिन्न विद्वानों ने प्रदत्त विधायन की आलोचना की है। रैम्जे म्योर का मत है कि इसके फलस्वरूप कार्यपालिका की सत्ता बहुत बढ़ जाती है और मन्त्रियों का निर्णय अन्तिम हो जाता है।

(1) प्रशासकीय अधिकारियों को विधि-निर्माण की शक्ति देने से उसकी निरंकुशता बढ़ने की आशंका रहती है तथा नागरिक स्वतंत्रता के हनन की सम्भावना बढ़ जाती है।

(2) प्रदत्त विधायन के कारण व्यवस्थापिका अपने दायित्वों के प्रति उदासीन हो जाती है।

(3) प्रत्येक प्रदत्त विधि का पूर्ण निरीक्षण एवं नियन्त्रण अत्यन्त कठिन होता है।

(4) प्रदत्त विधायन में सामान्य जनता के हितों का ध्यान नहीं रखा जाता है।

(5) प्रदत्त विधियों द्वारा न्यायपालिका की शक्ति पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है।

(6) अधिकारियों का दृष्टिकोण एकांगी होता है।

(7) प्रदत्त विधायन में शीघ्र परिवर्तन सम्भव होता है जिससे अराजकता और अस्थिरता की सम्भावना रहती है।

(8) इनकी प्रकाशन की ठीक व्यवस्था न होने के कारण जनता इनसे अनभिज्ञ रह सकती है।

प्रदत्त विधायन की उपयोगिता-

इसके निम्नलिखित लाभ हैं:-

(1) प्रदत्त विधायन के कारण व्यवस्थापिका अतिरिक्त कार्यभार से मुक्त हो जाती हैं तथा महत्वपूर्ण नीतियों पर ध्यान दे पाती है।

(2) व्यवस्थापिका इतनी व्यस्त होती है कि प्रदत्त विधायन न हो तो कई राज्यों में शासन चल ही न सके।

(3) विधियों की तकनीकी एवं बारीक तथ्यों की जानकारी व्यवस्थापिका को नहीं होती। इनका ज्ञान अधिकारियों को ही होता है।

(4) विधियों को कार्यरूप अधिकारी देते हैं और वे उनकी कमियों से परिचित होते हैं। प्रदत्त विधायन के माध्यम से वे इन कमियों को दूर करने का कार्य करते हैं।

(5) संकटकाल में सफलता से उस आपदा का सामना करने हेतु कार्यपालिका को विधि-निर्माण की शक्ति प्रदान की जानी चाहिये।

(6) सम्बन्धित पक्षों में परामर्श सरल और सम्भव होता है।

पदत्त विधायन के दोषों को दूर करने के उपाय

(1) व्यवस्थापिका द्वारा विधि निर्माण शक्ति का प्रदत्तीकरण अस्पष्ट नहीं होना चाहिए। बल्कि उसके क्षेत्र और शक्ति की निश्चित सीमा होनी चाहिए जिससे आवश्यकता के समय उनकी समीक्षा की जा सके तथा उनपर नियंत्रण रखा जा सके।

(2) कार्यपालिका को महत्वपूर्ण विषयों पर विधायन का अधिकार देना उचित नहीं है। उसे सामान्य उद्देश्य हेतु विधि-निर्माण की शक्ति प्रदान की जानी चाहिए।

(3) प्रदत्त विधायन को निर्माण से पहले और बाद प्रकाशित किया जाना चाहिये जिससे सम्बन्धित पक्षों से परामर्श मिल सके।

(4) प्रदत्त विधायन की संसद् द्वारा समीक्षा की जानी चाहिये। व्यवस्थापिका को यह देखना चाहिये कि कोई विधायन विधि विरुद्ध तो नहीं है।

(5) न्यायालयों द्वारा भी प्रदत्त विधायन की समीक्षा की जानी चाहिए और उन्हें यह देखना चाहिए कि प्रशासकीय अधिकारी प्रदत्त शक्ति के क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण तो नहीं कर रहा है। प्रदत्त विधायन को न्यायालय अवैधानिक घोषित कर सकता है।

प्रदत्त विधायन का भविष्य-

प्रदत्त विधायन का महत्व और क्षेत्र दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही है। आधुनिक युग में राज्य का उत्तरदायित्व कल्याणकारी राज्य होने के कारण बहुत बढ़ गया है। मनुष्यों का जीवन अत्यन्त जटिल होता जा रहा है और व्यवस्थापिका के कार्यों में निरन्तर वृद्धि हो रही है। इस स्थिति में प्रदत्त विधायन का महत्व और उपयोग बढ़ना स्वाभाविक है। इसका धीरे-धीरे विरोध कम हो गया है तथा इसे लोकतन्त्रीय पद्धति का आवश्यक अंग मान लिया गया है।

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Pankaja Singh

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