इतिहास

प्रभुता के सिद्धान्त | प्राचीन भारत में राज्य एवं धर्म का सम्बन्ध

प्रभुता के सिद्धान्त | प्राचीन भारत में राज्य एवं धर्म का सम्बन्ध

प्रभुता का सिद्धान्त

प्रभुता या सम्प्रभुता राज्य की वह शक्ति है जिसके ऊपर या जिससे बढ़कर राज्य के अंदर कोई भी शक्ति न हो। साथ ही वाहा तथा आन्तरिक क्षेत्र में किसी भी प्रकार के नियंत्रण में न हो। वास्तव में प्रभुता राज्य की ऐसी संजीवनी शक्ति है, जिसके अभाव में राज्य निर्जीव और निष्प्राण हो जायेगा। प्रभुता के बिना किसी राज्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती। राज्य का यही तत्व राज्य को अन्य समुदायों से सर्वोपरि बनाता है। राज्य सर्वोच्च समुदाय है और प्रभुता उसकी सर्वोच्च शक्ति है। सर्वोच्च शक्ति होने के नाते राज्य के अन्दर की अन्य समस्त संस्थायें उसके अधीन होती हैं। राज्य के बाहर भी उस पर किसी का नियंत्रण नहीं होता। प्रभुता केवल राज्य में ही निहित होती है।

सम्प्रभुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन भारत में था अथवा नहीं और प्रभुता क्या है ? इस पर भी विभिन्न विद्वानों में काफी मतभेद है। प्रसिद्ध मनीषी बोदाँ के अनुसार ‘प्रभुता’ नागरिक तथा प्रजा जनों पर प्रयुक्त की जाने वाली वह सर्वोच्च शक्ति है जो विधि द्वारा नियंत्रित नहीं होती। ग्रोशस के अनुसार “प्रभुता या सम्प्रभुता उस व्यक्ति में निहित राजनैतिक शक्ति है जिसके कार्य किसी दूसरे के अधीन न हों तथा जिसकी इच्छा को नियंत्रित नहीं किया जा सकता।’ प्रसिद्ध विचारक आस्टिन ने प्रभुता की परिभाषा देते हुये लिखा है कि, “यदि कोई निश्चित उच्च सत्ताधारी मनुष्य जो स्वयं किसी वैसे ही सत्ताधारी के आदेश पालन करने का अभ्यास न हो और किसी मनुष्य की समाज के अधिकांश व्यक्ति स्वाभाविक रूप से उसकी आज्ञा का पालन करते हों तथा वह सत्ताधारी व्यक्ति उस समाज में सम्प्रभु होता है और वह समाज एक राजनीतिक व स्वाधीन समाज होता है।”

प्राचीन भारतीय संस्कृति के पर्यवेक्षण में हम प्रभुता को जब देखने का प्रयास करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि उस समय राजपद साधारणतया निर्वाचित किया जाता था। जो धीरे-धीरे आगे चलकर आनुवंशिक हो गया और सभा एवं समिति के माध्यम से राज्य का संचालन होने लगा। प्रसिद्ध भारतीय मनीषी डा० अल्टेकर के अनुसार वैदिक काल में राजा एवं समिति में सम्मिलित रूप से प्रभुता का सिद्धान्त था। जो धीरे-धीरे केवल राजा में ही निहित हो गया। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार धर्म सम्प्रभुता राजा में ही निहित थी।

समय की गति के साथ आगे चलकर जब मौर्य युग में एकछत्र साम्राज्य की स्थापना हुई तो कौटिल्य ने राजा के लिये स्वामी शब्द का प्रयोग किया। सम्भवतः उस समय विधि के रूप में धर्म ही राज्य का सच्चा प्रभु था और राजा कार्यपालिका के रूप में था जिसे दंड नाम से जाना जाता था। यह कहना अनुचित न होगा कि उस समय प्रभुता राजा में निहित थी फिर भी सत्ता की सीमायें भी थीं क्योंकि राजा दंड देने का कार्य करता था परन्तु प्रजा उसे भी दंड दे सकती थी। दूसरे शब्दों में प्रभुता विषयक हिन्दू सिद्धान्त पर एक तर्कपूर्ण रोक विद्यमान थी।

मनु ने अपने ग्रन्थ मनुस्मृति में इस बात को स्पष्ट नहीं किया कि राजा को दंड दिये जाने का स्वरूप क्या था? लेकिन अन्य मनीषियों के ग्रन्थों से पता चलता है कि राजा को जो जुर्माना देना पड़ता था वह ब्राह्मणों को प्राप्त होता था या वरुण देवता के नाम पर जल में फेंक दिया जाता था। एक अन्य विद्वान के अनुसार उस समय प्रभुता राज्य में निहित थी। लेकिन देश में राजा की सर्वोपरि सत्ता होती थी। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि उस काल में राजा परम शक्तिशाली और प्रभुतायुक्त थे। जैसा कि हम देखते हैं कि सम्राट अशोक, समुद्रगुप्त और हर्षवर्धन के समय मे प्रभुता सम्राट में ही निहित थी। परन्तु शासक सर्वदा प्रजा के हित को ध्यान में रख कर कार्य करते थे।

प्राचीन भारत में राज्य एवं धर्म का सम्बन्ध-

यद्यपि हम देखते हैं कि प्राचीन भारत में धर्म का समाज में सर्वोपरि स्थान था किन्तु हम यह नहीं कह सकते कि उस काल में राज्य धर्म के प्रभाव से पूर्णतया मुक्त नहीं था क्योंकि ऐतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ से यह ज्ञात होता है कि जो राजा योग्य पुरोहित और ब्राह्मण की सेवा नहीं करते उनका हवन भगवान नहीं ग्रहण करते। ऋग्वेद भी कहता है  कि जो राजा पुरोहित का सम्मान करता है उसे शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। इस बात का प्रमाण हमें राज्यारोहण के समय होने वाले क्रिया-कलाप से ज्ञात होता है क्योंकि राज्यारोहण के समय पुरोहित को जो सम्मान दिया जाता था उसकी महत्ता को समस्त धर्मा में स्वीकार किया गया है। यही नहीं उस समय ब्राह्मण कई प्रकार के दंड से भी मुक्त थे। इन सब तथ्यों से इस बात की पुष्टि होती है कि प्राचीन भारतीय राजनीति राज्य धर्म से प्रभावित थी। लेकिन मध्यकालीन योरोप में पोप एवं चर्च की तरह यहाँ की राजनीति धर्म से नहीं प्रभावित थी। वरन् धर्म अपने स्थान पर था और राज्य का अलग महत्व था। यद्यपि दोनों का एक दूसरे से सम्बन्ध अवश्य था, लेकिन दोनों पूर्णतया एक दूसरे से प्रभावित नहीं थे। कौटिल्य ने भी राज्य को धर्मनिरपेक्ष माना है, वैसे राज्य पर धर्म का समय-समय पर प्रभाव अवश्य पड़ता रहा है। गौतमी पुत्र सातकर्णी ने राज्य को ईश्वर प्रदत्त स्वीकार किया है तथा अशोक ने धर्म-प्रचार के लिये महापात्र नियुक्त किये थे। कुषाण सम्राट कनिष्क की मुद्राओं पर भी धार्मिक सम्प्रदायों के चिह्न दृष्टिगोचर होते हैं। गुप्त सम्राट् भी यद्यपि वैष्णव थे परंतु उनके संरक्षण में समस्त धर्मों को अपने विकास का पूर्ण अवसर प्राप्त था। सम्राट् हर्षवर्धन ने भी समय- समस्त धर्मों को संरक्षण प्रदान किया था। यही नहीं राजपूत काल में भी हमें यही धारणा देखने को मिलती है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन भारत में राज्य धर्म निरपेक्ष था, राजा समस्त धर्मों अनादर नहीं करता था। परन्तु धर्म शासन के कार्यों में बाधा भी नहीं बनता था। इस प्रकार प्राचीन भारत में राज्य एक धर्म निरपेक्ष संस्था के रूप में था। राज्य में सभी धर्म के लोगों को अपने विकास का पूर्ण अवसर प्राप्त था।

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Pankaja Singh

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