प्रायद्वीपीय भारत | प्रायद्वीपीय भारत की संरचना एवं उच्चावच
प्रायद्वीपीय भारत
दक्षिण भारत का प्राचीन पठार प्रायद्वीपीय भारत तक ही सीमित न होकर मध्यवर्ती भारत तक विस्तृत है। कच्छ की खाड़ी से अरावली के पश्चिम में सीमा बनाते हुए उत्तर में दिल्ली के निकट तक आगे गंगा के मैदान के समानांतर, पूर्व में राजमहल की पहाड़ियों तक प्रायद्वीप का विस्तार है। शिलांग का पठार भी प्रायद्वीप का भाग है। राजमहल की पहाड़ियों और शिलांग के पठार के मध्य प्राचीन प्रायद्वीपीय शैलों पर कम गहरी कछारी मिट्टी का आवरण है। पठार की कठोर शैलों का विस्तार उत्तर पश्चिम में पर्याप्त दूरी तक है। नमक श्रेणी (Salt Range) के निकट पाकिस्तान में किराना पहाड़ियाँ प्राचीन कठोर शैलों के ही विस्तार हैं।
प्रायद्वीपीय भारत की संरचना को अध्ययन की सुविधा के लिए निम्न समूहों में बाँटा जा सकता है-
(अ) आर्कियन समूह (Archaeon Group)-
रवेदार एवं परिवर्तित नीस से निर्मित इस समूह की संरचना प्रायद्वीप के उत्तर-पूर्व में उड़ीसा, असम, मध्य प्रदेश तथा छोटा नागपुर में पायी जाती है। संभवतः इसी का विस्तार पश्चिम में बुंदेलखंड तक है। उत्तर पश्चिम में अरावली और राजस्थान के प्रदेश में यह कहीं-कहीं बिखरी हुई पायी जाती है। आर्कियन समूह को निम्न तीन उपभागों में रखा जा सकता है-
(i) बंगाल नीस इसका विस्तार बंगाल, बिहार, उड़ीसा एवं कर्नाटक में मिलता है।
(ii) बुंदेलखंड नीस- इसका पर्याप्त निक्षेप प्रायद्वीप के उत्तरी भाग में मिलता है।
(iii) नीलगिरि नीस- इसे चार्कोनाइट सिरीज के नाम से भी कहा जाता है।
(ब) धारवाड़ एवं अरावली समूह (Dharwar & Arawalli Group)-
वाडिया महोदय ने भारत की अति प्राचीन एवं परिवर्तित परतदार शैलों को धारवाड़ नाम द्वारा संबोधित किया है। धारवाड़ एवं परिवर्तित तलछटीय अर्कियन में कोई अंतर नहीं है। धारवाड़ समूह के क्रम की एक विशेषता यह है कि यह रॉकरी अभिनतियों में आर्कियन नीस के किनारे-किनारे पायी जाती हैं। इस प्रकार इनका संबंध नीस तथा शिस्ट शैलों से अधिक है। यह सँकरी अभिनतियाँ निम्नलिखित क्षेत्रों में पायी जाती है-
(i) मैसूर-धारवाड़-बेलारी क्षेत्र- इसका विस्तार नीलगिरि से मदुरा होते हुए श्रीलंका तक है।
(ii) छोटा नागपुर पठार के उत्तरी व दक्षिणी किनारे पर
(iii) पश्चिम की ओर नागपुर के निकट ।
(iv) अरावली पहाड़ियों में
कर्नाटक प्रदेश की यह शैलें दक्कन लावा प्रदेश से कावेरी नदी तक विस्तृत हैं। इनमें भारत को महत्त्वपूर्ण स्वर्ण खादानें स्थित हैं। यह मैसूर के निकट तीन संकरी-पेटियों में पायी जाती हैं। इनके द्वारा यहाँ की लगभग 6840 वर्ग किलोमीटर भूमि ढँकी है। बिहार एवं उड़ीसा में पाये जाने वाला यह समूह लौह-अयस्क से परिपूर्ण है इसी कारण धारवाड़ शैलों का आर्थिक महत्त्व बहुत अधिक है।
इसी समूह की शैलें अरावली श्रेणियों में भी पायी जाती है। इन श्रेणियों का निर्माण विश्व की अति प्राचीन अभिनतियों में से एक में हुआ है। 1200-1500 मीटर ऊँची यह शृंखला आज भी भारत के प्रायद्वीप का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। अरावली श्रेणियों का निर्माण धारवाड़ काल के अंतिम भाग में हुआ था बाद में ये नीचे धँस गई, तत्पश्चात क्रैबियन काल में इनका दोबारा उत्थान हुआ है। इस प्रकार अरावली क्रम संसार का अतिप्राचीन पर्वतीय क्रम माना गया है।
(स) कुडप्पा समूह (Kussappa Group)-
धारवाड़ काल के अंतिम भाग में पृथ्वी पर अनेक भू-हलचलें हुईं और इसके परिणामस्वरूप ही अरावली के समान किंतु अधिक ऊँची पर्वत श्रेणियों का निर्माण हुआ। तत्पश्चात् उनका अपरदन हो गया। उसके काफी समय बाद अन्य शैलों का निक्षेप प्रारंभ हुआ। यह निक्षेप धारवाड़ में ही कटाव और मोड़ द्वारा बनायी गई अभिनतियों में ही हुआ। इसी निक्षेप को ही कुडप्पा क्रम से संबोधित किया जाता है।
इस समूह का निक्षेप संभवतः बहुत ही विशाल भू-अभिनतियों में हुआ था। यह निक्षेप स्लेट, कार्टज एवं चूने के प्रस्तर की आकृतियों में कुछ स्थान पर 700 मीटर की गहराई तक पाया जाता है। कुडप्पा समूह धारवाड़ समूह से बिलकुल पृकि है। इस समूह की विशाल पेटी प्रायद्वीप के पूर्वी भाग में कृष्णा एवं पेनार नदियों के मध्कय तथा महानदी की ऊपरी घाटी में पायी जाती है। नेलामलाई एवं वेली-कोण्डा पहाड़ियों के स्थान पर कुडप्पा समूह अधिक संश्लिष्ट है। अरावली के निकट का दिल्ली कार्टजाइट इसी समूह का अंग है।
(द) विन्ध्यन समूह (Vindhyae Group)-
यह समूह भी प्रायद्वीप के कई भागों में पाया जाता है, यथा-
(1) कृष्णा-पेनार घाटी के निचले भाग में कुडप्पा के ऊपर इनका विस्तार है।
(2) मुख्य रूप से यह प्रायद्वीप के उत्तरी भाग में चंबल से सोन तक विस्तृत है। यह केवल प्राचीन बुंदेलखंड नीस के समीप ही नहीं मिलती है।
(3) अरावली के पश्चिम में विन्ध्य काल के लावा द्वारा निर्मित शैलों के क्रम जोधपुर के आस-पास भी है।
उक्त समूह में शेल चूने का प्रस्तर और बलुआ प्रस्तर पाया जाता है। यहीं के लाल बलुए प्रस्तर का उपयोग मुगलकालीन इमारतों में काफी किया गया है। अरावली के पश्चिम भाग स्थित इस क्रम को छोड़कर शैलें बहुत ही उल्टी-पुलटी हैं अथवा बहुत कम परिवर्तित हुई हैं।
(घ) गोण्डवाना समूह (Gondwana Group)-
इस समूह की शैलों का निर्माण गहरे बेसिनों में तथा झीलों में ही हुआ है। यह निम्न तीन भागों में मुख्य रूप से पाये जाते हैं- (1) पेनगंगा एवं गोदावरी के निचले भाग में, (2) महानदी एवं ब्राह्माणी नदियों के मध्य तलचिर से नर्वदा एवं सोन नदियों के शीर्ष भागों तक एवं (3) दामोदर घाटी में
उक्त समूह में मोटी परतें, बालू प्रस्तर शेल व चीका की मिट्टी मिलती है। गोण्डवाना का सर्वाधिक महत्त्व कोयले की प्राप्ति के कारण है। भारतवर्ष का 90 प्रतिशन कोयला इसी समूह की शैलों में पाया जाता है। गोण्डवाना समूह की समानता अफ्रीका, आस्ट्रेलिया एवं दक्षिण अफ्रीका में देखने को मिलती है जिससे यह प्रमाणित होता है कि उक्त भूखंड कभी परस्पर जुड़े हुए थे।
(घ) दक्कन लावा (decean Larva)-
प्रायद्वीप के उत्तरी-पश्चिमी भाग में बसाल्ट द्वारा निर्मित पठार की अति प्रौढ़ भू-रचना लगभग पाँच लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर विस्तृत है। दरारों में से होकर लावा का प्रवाह क्रिटेशियस युग के अंतिम भाग में हुआ था। लावा निक्षेप की औसत मोटाई 600-1500 मीटर के मध्य है किंतु अधिकतम गहराई 3000 मीटर तक पायी जाती है।
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