शिक्षाशास्त्र

प्राच्य-पाश्चात्य विवाद का मुख्य कारण | Main Cause of Orientalists Anglieist Controversy in Hindi

प्राच्य-पाश्चात्य विवाद का मुख्य कारण | Main Cause of Orientalists Anglieist Controversy in Hindi

प्राच्य-पाश्चात्य विवाद का मुख्य कारण (Main Cause of Orientalists Anglieist Controversy)

इस विवाद का कारण 1813 के ‘आज्ञा-पत्र’ की 43वीं धारा में प्रयोग किये गये दो शब्द थे-‘साहित्य व भारतीय विद्वान’ । प्राच्यवादियों व पाश्चात्यवादियों ने इन दोनों शब्दों की व्याख्या दो विभिन्न प्रकार से की। इस व्याख्या पर प्रकाश डालते हुए, डॉ० श्रीधरनाथ मुखोपाध्याय ने कहा है-“प्राच्यवादियों का कहना था कि इस धारा के ‘साहित्य’ शब्द के अन्तर्गत आते हैं केवल अरबी व संस्कृत साहित्य व भारतीय विद्वान” का अर्थ है–इन दोनों भाषाओं में से किसी एक भाषा का भारतीय विद्वान । पाश्चात्यवादियों का मानना था कि इन दोनों शब्दों का अर्थ इतना संकीर्ण नहीं है। ‘साहित्य’ में अंग्रेजी का प्रमुख स्थान है।

(1) प्राच्यवादी (Orientalists)

प्राच्यवादी दल में कम्पनी के पुराने व अनुभवी कर्मचारी थे। इसमें सर्वप्रथम, वारेन हेस्टिंग तथा जानेथन डंकन का था, जिन्होंने ‘कलकत्ता मदरसा’ और ‘बनारस संस्कृत कॉलेज’ की सृष्टि करके, प्राच्यवादी नीति के पक्ष में अपना विचार प्रकट किया था। लॉर्ड मिंटो भी इसी नीति का पोषक था। इस नीति को बंगाल की ‘लोक शिक्षा समिति के अधिकांश सदस्यों का समर्थन मिला था। इन सदस्यों में दो मुख्य थे-‘समिति’ का मंत्री, विल्सन व बंगाल का शिक्षा सचिव, प्रिन्सेप । प्रिंसेप प्राच्यवादी दल का नेता भी था।

कम्पनी के उपर्युक्त सभी कर्मचारी व प्राच्यवादी-नीति के अन्य पोषक उच्च कोटि के कूटनीतिज्ञ थे। उनका मानना था कि भारतवासियों को विभाजित रखकर ही उन पर शासन किया जा सकता था। अत: वे इस देश के निवासियों को अरबी, फारसी और संस्कृत पर आधारित शिक्षा प्रदान करके अनेक धर्मों और जातियों में विभाजित रखना चाहते थे। विल्सन इस बात का घोर विरोधी था कि भारतीय अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करके उसके देशवासियों से समानता करने का दावा करें। प्रिन्सेस का विचार था कि भारतीयों में अंग्रेजी पर अधिकार प्राप्त करने की क्षमता नहीं है

सन् 1813 के आज्ञा-पत्र ने शिक्षा के लिए एक लाख रुपये वार्षिक व्यवस्था तो कर दी. पर व्यय करने की विधि निश्चित न करके कई विवाद खड़े कर दिये, जिनमें से मुख्य थे-

(1) शिक्षा नीति का उद्देश्य क्या हो- इस विषय पर विचारधाराएँ थीं-डंकन, हेस्टिंग, भिन्टो विल्सन जैसे प्राच्यवादियों की दृष्टि में हिन्दुओं व मुसलमानों का प्राचीन साहित्य उपयोगी था। अतः उसका अध्ययन हिन्दुओं और मुसलमानों को ही नहीं, पाश्चात्य विद्वानों को भी करना चाहिये था। दूसरी विचारधारा मिशनरियों, चार्ल्स ग्रांट, मैकाले जैसे लोगों की थी, जो भारतीय संस्कृति के स्थान पर पश्चिमी संस्कृति लाना चाहते थे. क्योंकि मैकाले ने कहा था, एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की केवल एक अलमारी भारत व अरब के सम्पूर्ण देशी साहित्य के बराबर मूल्यवान थी। तीसरी विचारधारा के प्रतिनिधि थे-राजा राममोहन राय, जगन्नाथ शंकर सेठ सरीखे भारतीय कर्नल जर्विस जैसे अंग्रेज जो चाहते थे कि भारत के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान का भी अध्ययन किया जाये व आधुनिक पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान का भी।

राजनैतिक दृष्टि से स्थिति यह थी कि जब तक कम्पनी केवल व्यापारिक संस्था रही, उसने प्राय: केवल अंग्रेजों को नौकरी में रखा, पर राजनैतिक शक्ति बनने पर उसने भारतीयों को भी नौकरियाँ दीं, क्योंकि ऐसा न करने से भारतीयों में असन्तोष फैलने का खतरा था फिर इससे प्रशासन व्यय में भी कमी हो गई।

(2) शिक्षा सबको दी जाये अथवा कुछ को- इस विषय में तीन विचार थे–पहला,शिक्षा केवल अभिजात वर्गों यानी राजाओं, नवाबों, सरदारों आदि को दी जाए, क्योंकि सरकार बदलने का सबसे ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव इसी वर्ग पर पड़ा है। अत: इसे शिक्षा व नौकरी देकर अपना वफादार बनाना जरूरी है। दूसरा, शिक्षा केवल राजाओं आदि को नहीं बल्कि समाज के उच्च प्रभावशाली वर्गों को भी दी जाये, क्योंकि इनकी संस्कृति स्वभावतः निम्न वर्गों तक पहुँच जाएगी। तीसरा, थोड़े से व्यक्तियों को अच्छी शिक्षा यानी अंग्रेजी के द्वारा शिक्षा दी जाये, फिर ये चाहे किसी भी वर्ग के हों और शेष जनता को भारतीय भाषाओं द्वारा शिक्षा देने का काम इन लोगों पर छोड़ दिया जाये।

(3) देशी भाषाओं एवं देशी शिक्षा संस्थाओं के प्रति कम्पनी का रवैया क्या हो-देशी शिक्षा संस्थाएँ सार्वजनिक शिक्षा का काम कर रही थीं। अत: माउंट स्टुअर्ट, एलफिस्टन, एड्म, थॉमसन जैसे लोगों की यह मांग थी कि कम्पनी इन्हें सहयोग दे जबकि दूसरे लोगों का यह मानना था कि कम्पनी का काम पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान व अंग्रेजी भाषा का प्रसार करना होना चाहिए।

(4) शिक्षा-प्रसार का साधन क्या हो– कुछ लोगों का मानना था कि शिक्षा-प्रसार का उत्तरदायित्व सरकार का है तो कुछ व्यक्तियों की राय थी कि इसे वैयक्तिक प्रयासों पर छोड़ देना चाहिये। इसी में मिशनरियों को शिक्षा-प्रसार व धर्म-प्रचार की छूट देने की बात भी उठ खड़ी हुई।

उस भारतीय साहित्य का विनाश हो जायेगा, जिसमें अनेक युगों का ज्ञान संचित है। तीसरा टी० एस० सिक्वेरा के शब्दों में, “जब भारतीयों की अपनी स्वयं की एक प्राचीन और भव्य संस्कृति है तब उनको अन्य देश की भाषा और साहित्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए बाध्य करना दोषपूर्ण नीति है।”

प्राच्यवादियों ने उपर्युक्त तर्क उपस्थित करके इस बात पर जोर दिया कि भारतीयों की प्राचीन शिक्षा, साहित्य व संस्कृति को सुरक्षित रखना आवश्यक है। अतः उनकी शिक्षा प्रणाली को प्रोत्साहित किया जाये व उनमें पाश्चात्य ज्ञान का कदापि प्रसार न किया जाये।

(II) पाश्चात्यवादी (Anglieist)

पाश्चात्यवादी दल में कम्पनी के नवयुवक कर्मचारी व मिशनरी थे। वे सम्पूर्ण देश में यत्र-तत्र बिखरे हुए थे। इसलिए दल का न तो कोई संगठित स्वरूप था व न उनका कोई नेता ही था। फिर भी, उन्होंने प्राच्यवादियों की नीति का जमकर विरोध किया। उन्होंने यह विचार प्रकट किया कि प्राच्य शिक्षा प्रणाली मरणासन्न अवस्था को प्राप्त कर चुकी है तथा उसे पुनर्जीवन प्रदान करना मानव प्रयास से बाहर की बात है। इसके अलावा, उन्होंने यह घोषित किया कि अरबी, फारसी और संस्कृत साहित्यों से पुरातन और निरर्थक विचारों के सिवा किसी प्रकार का उपयोगी ज्ञान नहीं मिलता है। अत: भारतीयों का मानसिक विकास करने के लिए उनको अंग्रेजी माध्यम से पाश्चात्य ज्ञान व विज्ञानों से अवगत कराया जाना बहुत जरूरी है।

यहाँ इस बात का उल्लेख करना असंगत न होगा कि पाश्चात्यवादियों ने भारतीयों में यूरोपीय ज्ञान व विज्ञानों के प्रसार का समर्थन किसी निस्वार्थ भावना से नहीं, वरन् निजी हित की भावना से प्रेरित होकर किया। उन्हें अपने व्यापारिक व प्रशासकीय कार्यालयों के लिए अंग्रेजी शिक्षित ‘बाबू वर्ग’ की जरूरत थी। उन्हें यह बात असह्य थी कि उनके देशवासी इंग्लैंड से आकर इस निम्न वर्ग में सम्मिलित हों। अत: उन्होंने यही अधिक विवेकपूर्ण समझा कि भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार करके बाबू वर्ग का निर्माण किया जाये।

इस प्रकार,प्राच्यवादियों और पाश्चात्यवादियों का विवाद 1834 तक चलता रहा। अन्त में जनवरी 1835 में ‘लोक शिक्षा समिति के मंत्री ने दोनों दलों के वक्तव्यों को भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिंक के सामने रखा।

आकलैण्ड का ‘विवरण-पत्र’ 1839 एवं ‘प्राच्य-पाश्चात्य’ विवाद का अन्त (Auckland’s Minute 1839 and End of Orientalists Anglieist Controversy)

(अ) विवरण-पत्र का आधारभूत कारण

सन् 1835 में जैसे ही लॉर्ड विलियम बैंटिक ने त्याग-पत्र देकर इंग्लैण्ड के लिए प्रस्थान किया, वैसे ही प्राच्यवादियों ने पुनः अपने मत के समर्थन के लिए सरकार के विरुद्ध आवाज उठाई क्योंकि वे मैकाले के ‘विवरण-पत्र’ तथा बैंटिक के ‘आज्ञा-पत्र’ से असन्तुष्ट थे। लॉर्ड आकलैण्ड के गवर्नर जनरल पद पर भारत आने पर समस्या गम्भीर हो चुकी थी। लगभग 4 वर्ष तक विभिन्न मतों का अध्ययन करने के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि वाद-विवाद का मुख्य कारण आर्थिक सहायता है। उसने प्राच्य एवं पाश्चात्यवादियों को सन्तुष्ट करने के लिए 14 नवम्बर, 1839 में एक ‘विवरण-पत्र लिखा।

(ब) विवरण-पत्र में सरकार की भावी-नीति की रूपरेखा

आकलैण्ड ने सोचा कि यदि प्राच्यवादियों को शिक्षा सम्बन्धी व्यय के लिए कुछ अधिक आर्थिक सहायता दी जाये तो उनका मुख बन्द किया जा सकता है। इसके लिए उसने विवरण-पत्र में निम्नांकित विचार प्रकट किये-

(1) देशी शिक्षालयों को पहले की भाँति ही चलने दिया जाये और उन्हें उतनी ही आर्थिक सहायता दी जाये जितनी पहले दी जाती थी।

(2) प्राच्य विद्यालयों को आर्थिक सहायता पहले प्रदान की जाये और बाद में अंग्रेजी विद्यालय को।

(3) देशी विद्यालयों में पढ़ने वाले समस्त छात्रों में से 1/4 को छात्रवृत्तियाँ प्रदान की जायें।

(4) योग्य अध्यापकों को अधिक वेतन देकर उन्हें अपने कार्य में आकृष्ट किया जाये।

(5) निश्चित धनराशि में लाभप्रद प्राच्य पुस्तकों का मुद्रण एवं प्रकाशन किया जाये।

(6) जब देशी विद्यालय प्राच्य विषयों के शिक्षण कार्य को ठीक करने में समर्थ हो जायें तो वे अंग्रेजी की कक्षायें भी प्रारम्भ कर सकते हैं।

(स) प्राच्य-पाश्चात्य विवाद का अन्त

उक्त योजना को कार्यान्वित करने में यद्यपि सरकार का 31,000 रु० वार्षिक व्यय बढ़ गया, किन्तु प्राच्य शिक्षा समर्थक सन्तुष्ट हो गये और अंग्रेजी भाषा के द्वारा यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान का प्रसार करने के लिए एक लाख रु. से अधिक प्रदान कर पाश्चात्य शिक्षा-समर्थकों को भी शान्त कर दिया। आकलैण्ड का अंग्रेजी शिक्षा की ओर विशेष झुकाव होने के कारण ढाका, बनारस, पटना, इलाहाबाद, आगरा, दिल्ली तथा बरेली में अंग्रेजी कॉलेजों की स्थापना की। इस प्रकार आकलैण्ड के विवरण-पत्र द्वारा प्राच्य-पाश्चात्य विवाद का अन्त हो गया।

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Pankaja Singh

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