शिक्षाशास्त्र

पर्यावरण शिक्षा पाठ्यक्रम के आधारभूत बिन्दु | पर्यावरण शिक्षा : पाठ्यक्रम के सैद्धान्तिक आधार

पर्यावरण शिक्षा पाठ्यक्रम के आधारभूत बिन्दु | पर्यावरण शिक्षा : पाठ्यक्रम के सैद्धान्तिक आधार

पर्यावरण शिक्षा पाठ्यक्रम के आधारभूत बिन्दु

(Fundamental Aspects of Environment Education Curriculum)

पर्यावरण शिक्षा मानवीय क्रियाकलाओं के उन पहलुओं से संबंधित है जो मानव एवं उसके जैव-भौतिक पर्यावरण के अन्तर्सम्बन्धों और मानव की इस अन्तर्सम्बन्ध को समझने की क्षमता की व्याख्या करते हैं। मानव का स्वयं से, उसके सहभागियों से तथा पर्यावरण से तालमेल स्थापित करना ही पर्यावरण शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य है। पर्यावरण शिक्षा के विद्यार्थियों में समस्याओं के समाधान के लिए विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण विकसित करना भी आवश्यक है। पर्यावरण शिक्षा के विषय विस्तार में निम्न बिन्दुओं को दृष्टिगत रखना अनिवार्य है-

(1) जनसंख्या की समस्या-

भारत में पृथ्वी के कुल भू-भाग का 2.5% भाग एवं कुल जनसंख्या का 1/2 भाग स्थित है। भारत देश की मात्र 30% जनसंख्या ही शहरों में रहती है शेष 70% गाँवों में निवास करती है। देश में जनसंख्या के सापेक्ष संसाधनों की कमी है। पिछले कुछ दशकों में जनसंख्या में वृद्धि अत्यंत तीव्र गति से हुई है। भारत में जनसंख्या 178 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है जो, किसी-किसी स्थान पर बढ़कर 2728 व्यक्ति प्रतिवर्ग कि. मी. है। उष्ण-कटिबंधीय क्षेत्र में जहाँ वर्ण्य पदार्थों तथा वाहितमल (सीवेज) के चक्रीयकरण की समुचित व्यवस्थाएँ नहीं हैं। इतना अधिक जनसंख्या घनत्व विभिन्न बीमारियों एवं अन्य अनेक समस्याओं का कारण हो जाता है।

(2) प्राकृतिक संसाधनों का दोहन-

भारत में प्राकृतिक संसाधनों का विनाशकारी दोहन किया गया है। वनों का बड़ी मात्रा में विनाश हुआ है जिसका परिणाम मृदा अपरदन एवं बाढ़ के रूप में परिलक्षित होता है। परिणामस्वरूप बंजर भूमि का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है। भूमि से अनियंत्रित रूप से खनिज, ईंधन इत्यादि के दोहन से संसाधन धीरे-धीरे सीमित होते जा रहे हैं।

(3) जन स्वास्थ्य समस्या-

एक अनुमान के अनुसार भारत में अस्पतालों के 20% बिस्तर टाइफाइड एवं कालरा के मरीजों द्वारा घिरे रहते हैं। आए दिन हमें दूषित जल के प्रयोग से बीमार हुए समूहों की जानकारी मिलती रहती है। भारत के शहरों में लगभग 3000 मिलियन टन सीवेज प्रतिदिन उत्पन्न होता है और प्राय: इसे आसपास के किसी जल स्रोत में बिना किसी उपचार के प्रवाहित कर दिया जाता है जिससे जल की गुणवत्ता तो प्रभावित होती ही है साथ ही जलीय जंतुओं के अस्तित्व पर भी एक प्रश्न चिह्न लग जाता है,क्योंकि सीवेज में अनेक हानिकारक रोग कारक सूक्ष्मजीव भी पाए जाते हैं। यद्यपि आज विधियाँ और तकनीकी ज्ञान हमारे पास है जिससे हम इस सीवेज का उपचार कर सकते हैं परन्तु सीवेज उपचार की सुविधा हर शहर या कस्बे में उपलब्ध नहीं है।

(4) भारतीय संस्कृति का संरक्षण-

मानव की लगातार भौतिक समृद्धि प्राप्त करने की लालसा से मानवता, नैतिकता, चरित्र एवं धार्मिक भावना का क्षय हुआ है। हम अपनी सांस्कृतिक भावना का गला घोंटकर समृद्धि की ओर बढ़ रहे हैं । परिणामस्वरूप, हमारा मानसिक, सामाजिक एवं भावनात्मक पर्यावरण भी प्रभावित हो रहा है। नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन, अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, दूषित विचार इत्यादि इसके कुछ जीवंत उदाहरण हैं। इस हेतु भारतीय संस्कृति का संरक्षण एक विचारणीय बिन्दु है।

(5) प्रदूषण-

औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला जल अकार्बनिक प्रवृत्ति का होने के कारण बहुत ही हानिकारक होता है क्योंकि इसे विघटित करने की क्षमता सूक्ष्म जीवों में नहीं होती है। सामान्य रूप से औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले वर्ण्य पदार्थों को या तो सीधे ही किसी जल स्रोत में डाल दिया जाता है या मृदा पर खुला छोड़ दिया जाता है । मध्य प्रदेश में अमलाई पेपर मिल से निकलने वाले क्षारीय प्रवृत्तिक वजर्य पदार्थों का प्रभाव जल नमूने में 60 किमी तक देखा गया है । यह उदाहरण सिद्ध करता है कि अपेक्षाकृत कम औद्योगिक प्रगति वाले देश भी औद्योगिक प्रदूषण के वृहद क्षेत्र हो सकते हैं।

(6) कृषि कार्य से उत्पन्न प्रदूषण

आधुनिक कृषि कार्य में कृषि उत्पादनों, जल के अतिरिक्त वायु भी वृक्षों की अनियंत्रित कटाई, वाहनों की बढ़ती हुई संख्या व औद्योगिक इकाइयों के द्वारा उत्पन्न रसायनों से प्रदूषित हो रही है। कृषि उपज बढ़ाने के लिए जैविक रूप से सक्रिय अनेक कार्बनिक यौगिकों का उपयोग किया जा रहा है। कृषि कार्य में उपयोग किए गए कीटनाशक और खादें इत्यादि या तो जल के सतही बहाव से (Surface Run Offs) या फिर भूमि में जल के साथ रिसकर स्थानान्तरित होते हैं । कुछ वर्ष पूर्व लुधियाना (पंजाब) में धारीवाल और कलरा नामक वैज्ञानिकों ने दूध के एक नमूने में 0.26 से 1.02 ppm डी.डी. टी.  रिपोर्ट किया था जबकि दूध में इसकी उपस्थिति 0.0625 ppm से अधिक नहीं होनी चाहिए।

पर्यावरण शिक्षा : पाठ्यक्रम के सैद्धान्तिक आधार

(Environment Education: Principal Basis of Curriculum)

पर्यावरण शिक्षा पाठ्यक्रम के मुख्यतः चार आधार हैं-

(1) दार्शनिक आधार-

शिक्षा का सामान्य आधार दर्शन है। पर्यावरण शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु जिन निर्धारित पाठ्यक्रम का गठन किया जाता है वे दर्शन द्वारा प्राप्त होते हैं। विविध दार्शनिक विचारधाराओं ने पर्यावरण के प्रति अपने-अपने दृष्टिकोणों से जागृति उत्पन्न करने का प्रयास किया है । दार्शनिक आधार पर पाठ्यक्रम आदर्शवादी, प्रकृतिवादी, प्रयोगवादी या यथार्थवादी हो सकता है।

आदर्शवादी पाठ्यक्रम में पर्यावरण शिक्षा के प्रति ज्ञानात्मक, भावनात्मक तथा क्रियात्मक विकास पर बल दिया जाता है। जिसमें मानवीय विचारों तथा आदर्शों का विशेष महत्व है। आदर्शवादी प्रकृति को स्वच्छ तथा सुन्दर रखने हेतु विविध विचारों तथा आदर्शों पर बल देते हैं। अतः आदर्शवादी पाठ्यक्रम विचार केन्द्रित होता है।

प्रकृतिवादी पाठ्यक्रम पर्यावरण के प्रति बालक के स्वाभाविक विकास पर बल देता है, जिसमें बालक में आत्मप्रकाशन हेतु अनियंत्रित स्वतंत्रता पर बल दिया गया है । अर्थात् बालक को यदि स्वतंत्र रूप से प्रकृति में विचरण हेतु छोड़ दिया जाये तो वह स्वाभाविक बाल सुलभ क्रियाओं के माध्यम से पर्यावरण के प्रति भी ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करेगा। इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रकृतिवादी पाठ्यक्रम बाल केन्द्रित होता है।

प्रयोगवादी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत बालक को शिक्षा का मुख्य केन्द्र माना जाता रहा है। अर्थात् बालक की अभिरुचियों के अनुसार पाठ्यक्रम निर्मित किया जाता है। पर्यावरण शिक्षा हेतु बालक को बातचीत तथा विचारों के आदान-प्रदान द्वारा कौतुहल तथा जिज्ञासा तथ्यों के द्वारा एवं बालक की रचनात्मक एवं कलात्मक अभिरुचि के अनुसार पाठ्यक्रम निर्मित करने का आह्वान प्रयोगवाद करता है। प्रयोगवाद में पर्यावरण के प्रति कुशलता तथा सामूहिक क्रियाओं को बल दिया गया है। अर्थात् यह पाठ्यक्रम क्रियाप्रधान होता है।

यथार्थवादी पाठ्यक्रम में जीवन की व्यवहारिकता पर बल दिया जाता है। पर्यावरण का जीवन में महत्व क्या है? यथार्थवादी इस बात पर बल देता है जिससे वास्तविक जीवन की परिस्थितियों का ज्ञान होता है। यह पाठ्यक्रम क्रिया प्रधान होता है परन्तु इसमें सैद्धांतिकता के स्थान पर व्यवहारिकता को अधिक महत्व जाता है।

(2) सामाजिक आधार-

पाठ्यक्रम में उन विषयों को महत्व दिया जाना चाहिये जिनके अध्ययन से छात्रों में सामाजिकता का विकास हो।पर्यावरण के प्रति सामाजिक उदासीनता ने पर्यावरण को विनाश की कगार पर पहुँचाया है। अतः पर्यावरण शिक्षा में उन तथ्यों का समावेश होना चाहिये जिनसे शिक्षार्थी को व्यक्तिगत दायित्वों के अतिरिक्त सामाजिक दायित्वों हेतु सचेत किया जा सके । इसके लिए पर्यावरण शिक्षा में उन तथ्यों का समावेश करना चाहिये जिनसे समाज की संस्कृति, अनुभवों आदि को आने वाली संततियों को प्रदान किया जा सके तथा समाज की उन्नति एवं प्रगति हेतु एक उचित पर्यावरण का निर्माण हो सके।

(3) वैज्ञानिक आधार-

पर्यावरण शिक्षा स्वतः विज्ञान पर आधारित शिक्षा है। वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा अनेक शिक्षाशास्त्री प्रत्येक तथ्य को समझाने, सिखाने तथा स्मृति विकास कराने हेतु एक क्रमबद्ध ज्ञान को महत्व देते हैं। अतः पर्यावरण शिक्षा में भी पाठ्यक्रम निर्धारित करते समय वैज्ञानिक अभिवृद्धि को ध्यान में रखना चाहिए।

(4) मनोवैज्ञानिक आधार-

पर्यावरण शिक्षा का मुख्य आधार मनोवैज्ञानिक है क्योंकि वैज्ञानिक दृष्टि से सभी तथ्यों का कारण दिया जा सकता है किंतु मानसिक रूप से पर्यावरण के प्रति चेतना जागृत करना तथा समर्पण की भावना का विकास मनोवैज्ञानिक आधार पर ही संभव है।

यहाँ पर यह जानना अनिवार्य है कि बच्चे की विकासात्मक आवश्यकताएँ क्या हैं ? क्योंकि पाठ्यक्रम का निर्माण और विकास बच्चे के विकास की विभिन्न आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिये। मनोवैज्ञानिकों ने बच्चे के मानसिक विकास के विभिन्न स्तरों को ध्यान में रखकर किसी तथ्य या घटनाक्रम के प्रति सोच के विकास हेतु चार स्तर निर्धारित किये हैं-

(i) Sensori Motor Stage – बालक के जन्म से 2 वर्ष तक की अवस्था

(ii) Pre-Operational Stage – 3 वर्ष से 8 वर्ष तक की अवस्था

(ii) Concrete Operational Stage – 9 वर्ष से 13 वर्ष तक की अवस्था

(iv) Formal Operational Stage – 14 वर्ष से ऊपर की अवस्था।

यहाँ पर पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता के अनुसार द्वितीय व तृतीय स्तर की ही विस्तार से चर्चा की गयी है-

द्वितीय मनोवैज्ञानिक स्तर पर बच्चे कल्पना लोक में रहते हैं अर्थात् यथार्थ से दूर। इस उम्र में उनके तथ्यों को समझने की क्षमता पूर्ण विकसित नहीं होती, किसी घटना व व्यक्तित्व से वे जल्दी प्रभावित हो जाते हैं। उनमें अच्छा-बुरा सोचने की क्षमता नहीं होती ! वे किसी वस्तु की ओर आश्चर्य से देखते हैं, उसे प्राप्त करने की कोशिश करते हैं और उससे परिचित होने के पश्चात छोड़ देते हैं। वे नई चीज की खोज करना चाहते हैं उसके लिए विभिन्न सामग्री एकत्र करते हैं और कुछ समय पश्चात् उन्हें भी फेंक देते हैं। यहाँ पर मैं यह बताना आवश्यक समझता हूँ कि उपरोक्त विचार गहन अवलोकन के परिणाम हैं परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि सभी बच्चों में यह स्थिति दिखाई दे। अपवादस्वरूप कुछ बच्चे भिन्न व्यवहार भी कर सकते हैं।

इस स्तर पर पर्यावरण शिक्षा के शिक्षक खोज तथा एकत्रीकरण की अभिवृत्ति को छात्रों की रुचि के अनुसार निर्देश देकर प्रोत्साहित कर सकते हैं। अगर आप अपने बचपन के बारे में सोचे तो आप पाएंगे कि पंख, डाक टिकट, पत्तियाँ, विभिन्न रंग और आकार के पत्थर आप भी एकत्र किया करते थे। इस संग्रह के उपरान्त शिक्षक का दायित्व यह होना चाहिए कि वह कक्षा में इन संग्रहों पर विचार-विमर्श करे जिससे छात्रों में इन वस्तुओं को पहचानने की अभिवृत्ति का विकास होगा जो कि मानव मस्तिष्क के तार्किक और आधारभूत (Reasoning and Fundamental Aspects) विकास के लिए आवश्यक है। यहाँ पर हम यह भी सोच सकते हैं कि इन सब बातों की क्या आवश्यकता है? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए यदि आप स्वयं से पूछे कि किसी भी शैक्षणिक स्तर तक पढ़ लेने के बाद भी क्या सभी शिक्षार्थी अपने आसपास पाई जाने वाली सभी वस्तुओं, जीवों को पहचानते हैं ? भले ही आप एक विशिष्ट विषय में अच्छा दखल रखते हैं। पर यह भी हो सकता है कि आप अपने ही आसपास पाए जाने वाले पौधों को नहीं पहचानते हों। यही मूल समस्या है और कारण है पर्यावरण के असन्तुलित होने का। अतः शुरूआत अपने आस-पड़ोस से ही होनी चाहिए।

तृतीय मनोवैज्ञानिक स्तर पर आमतौर पर बच्चा IV से VIII तक की कक्षाओं में रहता है। मानसिक विकास की गति इस उम्र में तेज होने के साथ-साथ बच्चे में तर्कशक्ति का विकास होता है और वह यह जानने का प्रयास करते हैं कि कोई प्रक्रिया क्यों हो रही है। अतः इस स्तर पर बच्चों को छोटे-छोटे सरल प्रयोगों द्वारा प्रकृति में घटित होने वाली विभिन्न प्रक्रियाओं को समझाया जाना चाहिए।

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Pankaja Singh

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