परम्परागत सामाजिक संरचना एवं संस्थाओं का आधुनिकीकरण | समकालीन भारत में परम्परागत सामाजिक संरचना एवं संस्थाओं का आधुनिकीकरण | समकालीन भारत में आधुनिकीकरण की नई दिशायें | समकालीन भारत में कानूनों का आधुनिकीकरण
परम्परागत सामाजिक संरचना एवं संस्थाओं का आधुनिकीकरण
समकालीन भारत में परम्परागत सामाजिक संरचना एवं संस्थाओं का आधुनिकीकरण
समकालीन भारत में परम्परागत सामाजिक संरचना एवं संस्थाओं के आधुनिकीकरण को हम निम्न रूपों में प्रस्तुत कर सकते हैं-
(1) ब्रिटिश शासन काल में पश्चिमी शिक्षा का प्रारम्भ होने और सार्वजनिक प्रशासन एवं कानून में होने वाले परिवर्तनों ने इस एक शताब्दी काल में ऐसे व्यक्तियों का एक वर्ग उत्पन्न कर दिया जो पश्चिमी शिक्षा प्राप्त थे। विशेषकर उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कोलकत्ता, मुम्बई,एवं चेन्नई जैसे बड़े-बड़े नगरों में हम इस नये वर्ग के दर्शन कर सकते थे। इस वर्ग को मोटे तौर पर बुद्धिजीवी वर्ग कहा जा सकता है। लेकिन इनमें से अनेक ने भारतीय संस्कृति का भी गहन अध्ययन किया और यहाँ की प्राचीन परम्परा को ढूंढ निकाला। इन्होंने ही भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन, हिन्दू सामाजिक सुधारों एवं हिन्दू पुनरुत्थान में सक्रिय भाग लिया। इसी वर्ग ने जन-समूह का संग्रहण करके देश को आजादी दिला दी। इसी वर्ग में ऐसे असाधारण व्यक्तित्व वाले व्यक्ति थे जिन्होंने आधुनिक भारत की नीतियों को बनाने में काफी महत्वपूर्ण योगदान दिया और आज भी दे रहे हैं। इस वर्ग के व्यक्तियों ने पुनर्जागरणवाद, सुधारवाद एवं पश्चिमीवाद में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया। बी.बी. मिश्र ने इस वर्ग के विकास का तथा भारतीय इतिहास में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका अपनी पुस्तक ‘दी इण्डियन मिडिल क्लासेज’ (The Indian Middle Classes) में अच्छा चित्रण किया है। स्वतन्त्रता के पश्चात् शैक्षणिक सुविधाओं का अत्यधिक विस्तार हुआ है। साक्षरता मिटाने के लिए वयस्कों को दी जाने वाली शिक्षा सुविधाओं में, तकनीकी यथा व्यावसायिक शिक्षा (Vocational Education) में बड़ी तेजी से विकास हुआ है। उच्च शिक्षा भी काफी नागरिकों को उपलब्ध है। लेकिन शिक्षा का इतना विस्तार होनो के बाद भी एक छोटा-सा वर्ग अब भी ऐसा है जो शिक्षित वर्ग वालों का है।
वस्तुतः यह शिक्षित वर्ग ही मुख्य रूप से नगरीय वर्ग है जिसको सरकारी उद्योग,व्यापार,प्रशासन,इत्यादि अनेक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण पद प्राप्त हैं। यही वर्ग भारत में आधुनिकीकरण लाने के लिए प्रयत्नशील रहा है और इसी ने नियोजित विकास की योजनाओं द्वारा देश में सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन लाने का कार्य किया है।
(2) हमारे यहाँ आधुनिकीकरण के अनेक आदर्श पाश्चात्य देशों से लिए गये हैं, किन्तु उनका स्वरूप अधिकांशतः देशी है, यहाँ के शिक्षित वर्ग को पश्चिमी दिशा मिली थी, फिर भी उन्होंने आश्चर्यजनक ढंग से परम्परागत धार्मिक एवं सांस्कृतिक विचारों का पोषण किया। उन्होंने भारत के वर्तमान और भावी विकास में परम्परावाद एवं आधुनिकतावाद दोनों के ही मूल्यों एवं विश्वासों का सम्मिलन करने का प्रयास किया। इसके फलस्वरूप हमारे यहाँ कोई विशेष संघर्ष की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई। इस रूप में शिक्षित वर्ग के लोग एक तरफ प्राचीन परम्परा एवं लौकिकीकरण की नयीं व्याखाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं तो दूसरी विवेकशीलता, समानता एवं कुशलता जैसी वैज्ञानिक मनोवृत्तियों को अपना रहे हैं। इस उभरती हुई परिस्थिति ने पहले के उन अनुसन्धान परिणामों पर पुनः अवलोकन करने की आवश्यकता अनुभव करा दी जिनमें परम्परागत मूल्यों एवं आधुनिक विज्ञान, तकनीकी, वैचारिकी एवं प्रगति के बीच किसी प्रकार के तालमेल को स्वीकार नहीं किया गया।
(3) मिल्टन सिंगर ने उन परिवर्तनों की व्याख्या की है जो भारतीय संस्कारों एवं विश्वासों में तो आ रहे हैं किन्तु आधुनिकीकरण में बाधक नहीं हैं। यह परिवर्तन निरन्तर होते आये हैं और होते रहेंगे। भारत कभी अमेरिका या यूरोप की कार्बन कापी नहीं बन पायेगा। अपितु आधुनिकीकरण में निहित समस्त परिवर्तनों को अपने में समेटता रहकर अपनी पृथकता बनाये रखेगा।
(4) देश में औद्योगिकरण एवं नगरीकरण ने एक तरफ तो सार्वजनिक प्रशासन एवं विकास सेवाओं का विकास किया, तो दूसरी तरफ उद्योगों में सार्वजनिक क्षेत्र का। इसके फलस्वरूप देश के लाखों करोड़ो व्यक्तियों को नया रोजगार मिला जिसके परिणामस्वरूप परम्परागत प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों में शिथिलता आ गयी है। इसका एक परिणाम यह भी हुआ है कि व्यक्तियों को अपने नातेदारी समूह अथवा ग्रामीण समुदाय की परम्परागत निष्ठा राज्य अथवा नौकरी देने वाली संस्थाओं के प्रति हो गयी। औद्योगिक नगरों में निजी संस्थाओं या सार्वजनिक संगठनों द्वारा निवास के लिए मकानों की व्यवस्था होने में भी प्राचीन सामाजिक निषेधों को छिन-भिन्न किया, विशेष रूप से उन निषेधों को जो पवित्रता तथा उच्च जाति वर्ग के प्रति सम्मान से सम्बद्ध थे। जिन करबो व शहरों में मकानों की कमी थी वहाँ युवक-युवतियों ने अपने अलग एकाकी परिवार स्थापित कर लिए और गाँवों के संयुक्त परिवार सदस्यों को पीछे छोड़ दिया। इसका परिणाम यह हुआ है कि घर के बड़े-बूढ़े लोगों के न होने से अनेक परम्परागत धार्मिक संस्कारों एवं पारिवारिक पुरोहितों का महत्व कम हो गया। इतना ही नहीं, परम्परा से चली आ रही अवकाश बिताने की गतिविधियों में भी परिवर्तन आ गये हैं। समाजीकरण एवं सामाजिक नियन्त्रण की अनौपचारिक प्रक्रिया का स्थान औपचारिक संरचनाओं ने ले लिया है, प्राथमिक सम्बन्धों के स्थान पर द्वैतीयक सम्बन्ध स्थापित होने लगे हैं। और काम करने के नियमित घण्टों की व्यवस्था ने जीवन के नये प्रतिमान विकसित कर दिये।
समकालीन भारत में आधुनिकीकरण की नई दिशायें
(New Dimensions of Modernization in Contemporary India)
(1) भारत की समकालीन सामजिक संरचना पूरी तरह भारतीय परम्परा का प्रतिनिधित्व नहीं करती- भारत की ‘सांस्कृतिक विरासत’ (Cultural Heritage) अपने में काफी समृद्ध है कला, धर्म, दर्शन एवं साहित्य में इसके योगदान के प्रति हम उदासीन नहीं हो सकते। हमें तो केवल परम्परा की काई को ही हटाना चाहिए। भारत का धर्मशास्त्र लचीला है, इसमें देश एवं काल के अनुसार परिवर्तन आ सकते हैं। भारतीय परम्परा के अनेक तत्वों को हमें छोड़ना पड़ेगा जो बदलते हुए परिवेश के साथ मेल नहीं खाते, जैसे जीवन का चक्रीय सिद्धान्त, कर्म सिद्धान्त, संस्तरण व्यवस्था, खण्डात्मकता, परलोकवाद, पवित्र-अपवित्र की भावना, पुरुषों की प्रधानता तथा परिवारवाद। किन्तु हम ऐसे परम्परागत सकारात्मक तत्वों को ले सकते हैं जैसे कर्तव्यनिष्ठा एवं अनुशासन की भावना, क्योंकि आधुनिकीकरण वाले समाज के लिये वह आधारभूत आवश्यकतायें होंगी। इसी प्रकार निःस्वार्थ सेवा का सिद्धान्त आधुनिकीकरण वाले समाजों के लिए एक अच्छा आधार प्रस्तुत करेगा। अपरिग्रह (Non Possession) जैसे सिद्धान्तों में थोड़ा परिवर्तन करना होगा ताकि हम हर प्रकार के स्वामित्व को अस्वीकार न करें। इसी प्रकार हमें संस्थाओं एवं मूल्यों में निहित पवित्रता की भावना में भी परिवर्तन लाना होगा, क्योंकि बदलते परिवेश में इनमें भी परिवर्तन लाना अनिवार्य है। इस प्रकार प्रोफेसर दुबे ने भारत में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में पाये जाने वाले अनेक प्रतिरोधों की चर्चा की है और यह बतलाया है कि आज का भारत परम्परा एवं आधुनिकता की दुनिया में फंस गया है। आज के भारत के सामने एक द्वन्द्व है कि किस सीमा तक अपनी परम्परा को छोड़ दे तथा किस रूप में आधुनिकता को धारण करे।
(2) भारतीय समाज में नेता एवं प्रशासक राष्ट्रीय विकास की जो योजनाएँ बनाते हैं उनमें अनेक परम्परागत प्रतिरोध आकर खड़े हो जाते हैं- परम्परा से हमारा सामाजिक संगठन खण्डात्मक तथा सापदायिक प्रकार का है जिसके फलस्वरूप हमारी नीतियों और प्रयत्नों में राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित नहीं हो पाता। जो नीति निर्धारित लौकिक साध्य- साधनों को आधार मानकर आगे बढ़ना चाहते हैं उनके मार्ग में हमारे सामाजिक जीवन में पाई जाने वाली पवित्रता की भावना आकर सामने खड़ी हो जाती है। इस कारण विवेक के विकास में एक प्रकार का अवरोध उत्पन्न हो जाता है तथा व्यक्ति को एक ‘सीमित वातावरण’ (Limited Environment) में ही क्रियाशील होना पड़ता है। धर्म के अनेक अच्छे सिद्धान्तों को विवेक से आधुनिकीकरण के साथ मिलाया जा सकता है किन्तु प्रत्येक हिन्दू संस्कारों से इस प्रकार बँधा होता है कि यह भी सम्भव नहीं होता।
समकालीन भारत में कानूनों का आधुनिकीकरण
(Modernization of Legislation in Contemporary India)
भारत के परम्परागत कानून धार्मिक ग्रन्थों पर आधारित रहे हैं। कृषक समाज में ये कानून याददाश्त और सामाजिक मूल्यों पर आधारित हैं। हिन्दू कानून परिवार, जाति, क्षेत्र से सम्ब्धित थे। परम्परागत कानूनों के अन्तर्गत अधिकार, कर्तव्य, सम्पत्ति तथा दण्ड था। सम्पत्ति परिवारों और वंश से सम्बन्धित थी। ‘ब्रिटिश काल’ (British Period) में परिवर्तन लाने के कारण कानून का क्षेत्र विस्तृत हो गया, सम्पत्ति को खरीदने एवं बेचने का अधिकार व्यक्ति को प्राप्त हुआ। ब्रिटिश कानून समानता (Equality) पर आधारित था तथा कानून सभी स्थानों पर एक सा लागू हुआ। भारतीय वकील भी प्रशिक्षित होकर अदालतों में आये तथा भारतीय न्यायाधीश भी बने। प्रारम्भ में अधिकतर न्याय व्यवस्था अंग्रेजों के हाथ में रही और ग्रामों में न्याय पंचायतों और अनौपचारिक संगठनों के पास। 1777 में गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने यह आज्ञा दी कि विवाह, उत्तराधिकार और जाति तथा धर्म के मामले में न्याय का आधार मुसलमानों के लिए कुरान पर आधारित हो तथा हिन्दुओं के लिए पण्डितों एवं शास्त्रियों की राय ली जाए। किन्तु गवाह, व्यापारिक मुकदमे, समझौतों सम्बन्धी मुकदमे और अन्य अपराधों पर ब्रिटिश निर्णय ही सर्वोच्च रहा।
1781 में ब्रिटिश जज अपने विवेक से निर्णय देने लगे, फिर भी स्थानीय विशेषज्ञों (Local Specialitsts) का महत्व बना रहा। 1860 में ‘भारतीय अपराध संहिता’ (Indian Penal Code or I.RC.) बनाई गयी जो 1872 तक विकसित हुई। नये कानून उद्योग व्यवसाय से सम्बन्धित थे जो प्रचलित परम्पराओं के विरोधी नहीं थे।
व्यक्तिगत कानून भी परिवर्तित हुए किन्तु उसका बहुत अधिक विरोध नहीं हुआ।1829 में सती-प्रथा-निरोधक नियम बनाया गया। 1850 में धर्म की स्वतन्त्रता का कानून बना। 1856 में ‘विधवा पुनर्विवाह अधिनियम’ बना तथा 1930 में पास हुआ। धर्म-परिवर्तन की स्वतंत्रता कानून का मुख्य आधार हिन्दुओं का ईसाई बनाना था।
सम्पत्ति सम्बन्धी कानूनों में मुख्यतया भूमि सम्बन्धी कानून कठिनाई से स्वीकार किये गये। ब्रिटिश काल में अधिकतर कानून दोहरी व्यवस्था में रहे, किन्तु स्वतन्त्रता के उपरान्त कानूनों का रूप औपचारिक एवं सत्ता-समर्पित हो गया। व्यक्तिगत कानून सामान्य जीवन में अधिक प्रभावशाली नहीं हैं। बाल विवाह का कानून प्रभावी नहीं हुआ, ‘विधवा पुनर्विवाह’ (Widow remarriage) को प्रोत्साहन नहीं मिला। उच्च जातियों में विवाह-विच्छेद अभी भी सामाजिक अपराध की दृष्टि से देखा जाता है। महिलाओं में सम्पत्ति का अधिकार केवल कानूनी है। छुआछूत को कानूनी मान्यता नहीं है किन्तु सामाजिक मान्यता अब भी है। भारत में कानून के समाजशास्त्र का अध्ययन बहुत कम हुआ है जिसकी वर्तमान समय में आवश्यकता अनुभव की जाती है।
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