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पंडित नेहरू का समाजवाद | धर्मनिरपेक्षता पर नेहरू के विचार | पंडित जवाहर लाल नेहरू के समाजवादी विचार | धर्म निरपेक्षता पर पंडित जवाहर लाल नेहरू के विचार

पंडित नेहरू का समाजवाद

पंडित नेहरू का समाजवाद | धर्मनिरपेक्षता पर नेहरू के विचार | पंडित जवाहर लाल नेहरू के समाजवादी विचार | धर्म निरपेक्षता पर पंडित जवाहर लाल नेहरू के विचार

पंडित नेहरू का समाजवाद

पं० नेहरू ने समाजवादी समाज की स्थापना का विचार दिया है पर उनका विश्वास न तो वर्गविहीन समाज की स्थापना में था और न राज्यविहीन समाज की स्थापना में। साम्यवादी और अराजकवादी दोनों ही प्रकार के समाज के विचार से सहमत नहीं थे। गाँधी जी का विश्वास अहिंसा में था उनका विश्वास अहिंसक समाज में था। अतः ऐसे समाज में राज्य के लिए कोई स्थान ही नहीं था। पर नेहरू जी का सोचना ऐसा नहीं था, उन्होंने एक व्यावहारिक विचारक होने के कारण विशुद्ध अहिंसक समाज की कल्पना नहीं की। अतः वे राज्य को आवश्यक मानते थे।

पं० नेहरू लोकतंत्री समाजवाद के समर्थक थे। वे मानते थे कि विश्व समस्याओं क समाधान का मार्ग समाजवाद में है। समाजवाद के प्रति उनका रुझान काफी पुराना था। ब्रिटेन मे अध्ययन करते समय ही वे फेबियन समाजवाद से प्रभावित हुएथ। सोवियत क्रान्ति का उन पर प्रभाव पड़ा।

निस्संदेह नेहरू समाजवाद से प्रभावित थे पर वे समाजवाद के किसी किताबी अथवा सैद्धान्तिक रूप के साथ जुड़े हुए नहीं थे। वे यह मानते थे कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था न तो भारत में गरीबी दूर कर सकती है और न सामाजिक न्याय स्थापित कर सकती है। अतः उन्होंने समाजवाद मार्ग का अवलम्बन किया, पर ऐसा करते समय वे अतिवाद की सीमा तक नहीं गये। उनका समाजवादी चिन्तन लचीला था। इसका मूल कारण यह है कि नेहरू लोकतंत्र के आदर्श और विचार से अपने को पृथक् नहीं कर सके। उनके लिए लोकतन्त्र श्रेष्ठ प्रणाली थी। वे केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं अपितु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लोकतांत्रिक परम्पराओं और व्यवहार के समर्थक थे। वे मानते थे कि लोकतन्त्र समस्याओं को हल करने का एक शांतिपूर्ण उपाय है। वे कभी भी हिंसा तानाशाही और विचारों की स्वतन्त्रता को सीमित करने वाली पद्धति या प्रणाली के समर्थक नहीं रहे। प्रायः लोगों का यह सोचना कि लोकतंत्र और समाजवाद दोनों एक-दूसरे से भिन्न होते हैं पर पं० नेहरू के लिये ऐसा कुछ नहीं है। वे मानते थे कि सच्चा लोकतंत्र आर्थिक विषमताओं के अभाव के बिना स्थापित नहीं हो सकता है, आर्थिक विषमता बिना समाजवाद के दूर नहीं की जा सकती। अतः उन्होंने लोकतांत्रिक मूल्यों और समाजवाद का समन्वय किया तथा अपना लक्ष्य लोकतान्त्रिक  समाजवाद घोषित किया। उन्होंने आर्थिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता को एक विडम्बना माना। समाजवाद की व्याख्या करते हुए उन्होंने 1955 में अवाड़ी अधिवेशन में जिसमें कि काँग्रेस ने समाजवादी समाज रचना के सिद्धान्त को स्वीकार किया। कहा “समाजवाद” का अर्थ धन का – वितरण नहीं है और न ही केवल जनकल्याणकारी राज्य का निर्माण है। समाजवादी अर्थ-व्यवस्था मात्र से ही लोक कल्याणकारी राज्य सम्भव नहीं बन सकता। आवश्यकता इस बात की है कि देश में उत्पादन बढ़ाया जाय, धन की वृद्धि हो और फिर अर्जित धन का समुचित रूप से वितरण किया जाए।

मैक्स एडलर की भाँति नेहरू भी नैतिक समाजवादी थे। नेहरू के लिए समाजवाद केवल आर्थिक सिद्धान्त अथवा समुचित वितरण व्यवस्था मात्र नहीं है अपितु वह जीवन दर्शन है, जो सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में निश्चित मूल्यों और दृष्टि को विकसित करता है। उन्होंने कहा था कि संसार की तथा भारत की समस्याओं का समाधान केवल समाजवाद द्वारा ही संभव दिखाई देता है और जब मैं इस शब्द का प्रयोग करता हूँ तब केवल मानवीय नाते से ही नहीं, बल्कि वैक्षानिक, आर्थिक दृष्टि से भी करता है। किन्तु समाजवाद आर्थिक सिद्धान्त से भी अधिक महत्वपूर्ण यह जीवन दर्शन है और इसलिये मेरी दृष्टि से निर्धनता, चारों ओर फैली हुई बेरोजगारी, भारतीय जनता का अधःपतन तथा दासता को समाप्त करने का मार्ग समाजवाद को छोड़कर अन्य किसी प्रकार से सम्भव नहीं दीखता। पं० नेहरू के समाजवादी विचारों में नियोजित अर्थ-व्यवस्था को सर्वाधिक महत्व है। उन्हीं के प्रयत्नों के फलस्वरूप काँग्रेस में राष्ट्रीय नियोजन समिति गठित हुई। 1956 में काँग्रेस में राष्ट्रीय योजना समिति के वे अध्यक्ष बने। इस रूप में उन्होंने, औद्योगीकरण द्वारा सुदृढ़ भारत की सुकल्पना की थी। स्वतन्त्र भारत में योजना आयोग की स्थापना उनके ही प्रयत्नों से हुई नियोजन द्वारा विकास की प्रक्रिया उन्होंने प्रारम्भ की. उनके लिए योजना का अभिप्राय केवल यह नहीं है कि हम कुछ कारखाने स्थापित कर लें या कुछ मामलों में उत्पादन में वृद्धि कर ले। कारखानों की स्थापना और उत्पादन में वृद्धि आवश्यक है। लेकिन कुछ अधिक महत्व के साथ हमे वह प्राप्त करना है जिससे समाज एक विशेष किस्म के ढाँचे में धीरे-धीरे विकास करे।

स्माजवाद के समर्थक होने और सोवियत साम्यवादी क्रान्ति से प्रभावित होने के बावजूद उन्होने समाजवाद के पाश्चात्य या अतिवादी रूप को स्वीकार नहीं किया। वे भारतीय परिस्थितियों में व्यावहारिक मार्ग अपनाने के समर्थक थे। इसी कारण उन्होंने लोकतांत्रिक और मध्यम मार्ग अपनाकर अपनी व्यावहारिक सूझ-बूझ का परिचय दिया।

धर्मनिरपेक्षता पर नेहरू के विचार

धर्मनिरपेक्षता पं० नेहरू के राजनीतिक चिन्तन का केवल एक भाग नहीं था अपितु उनका जीवन आदर्श था। उन्होंने सदैव ही अपने को साम्प्रदायिक विद्वेष और तनावों से दूर रखा। उन्होंने ऐसी नीतियों और कार्यक्रमों को कार्यान्वित किया जिसके द्वारा पूरा समाज साम्प्रदायिक तनावों से मुक्त रह सके। उन्होंने गहराई के साथ साम्प्रदायिकता के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चरित्र और आयामों को समझा तथा स्वतंत्रता आन्दोलन के समय से ही इसके विरोध में तीव्र अभियान प्रारम्भ किया। वे इस बात की निरन्तर कोशिश करते रहे कि धर्म को आर्थिक, सामाजिक परिवर्तनों की प्रक्रिया से दूर रखा जाय तथा संकुचित धार्मिक विश्वासों को राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक नहीं बनने दिया जाय।

पं० नेहरू को धार्मिक कट्टरपन से विढ़ थी। धार्मिक उन्माद और कहरपन के कारण ही भारत का विभाजन हुआ था। धार्मिक कट्टरता व्यक्तियों और समुदायों में नफ़रत और विद्वेष की भावना पैदा करती है जिसके कारण खूनी संघर्ष होते हैं। अतः धार्मिक सहअस्तित्व अत्यन्त आवश्यक है। पं० नेहरू का प्रारम्भिक जीवन सांस्कृतिक, उदारवादी वातावरण में व्यतीत हुआ, साथ ही राष्ट्रीय आन्दोलन में उन्हें महात्मा गांधी का सम्पर्क और नेतृत्व मिला। अतः उन्होंने अपने आपको सदैव ही आर्थिक उन्माद और धार्मिक कट्टरपन से अलग रखा। वे कभी भी धार्मिक भावनाओं में नहीं आये। वैचारिक दृष्टि से पं० नेहरू नैतिक समाजवादी ६ । अतः उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष को मूलतः धार्मिक न मानकर सामाजिक, आर्थिक माना। पं० नेहरू धार्मिक राष्ट्रीयता से भी प्रभावित नहीं थे। भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है फिर भी पं० नेहरू का यह विश्वास था कि जब तक सभी धर्मों के नागरिक एक-दूसरे के धर्म के प्रति आदर और सम्मान नहीं रखेगे तब तक धर्मनिरपेक्षता के आदर्श को स्थापित नहीं किया जा सकता। हमें पारस्परिक सहिष्णुता  और विश्वास का वातावरण बनाना ही पड़ेगा। यही कारण है कि उन्होंने स्वयं को धार्मिक मामलों से अलग रखा । पंडित नेहरू के अनुसार राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होना चाहिए। राज्य को बिना किसी धार्मिक भेदभाव के अपने नागरिकों को समान मौलिक अधिकार और समान अवसर देना चाहिये और उनके साथ समान व्यवहार करना चाहिए। पं० नेहरू सभी नागरिकों के लिए समान विधि संहिता बनाए जाने के समर्थक थे। विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, सम्पत्ति सभी के सम्बन्ध में धार्मिक मत-मतान्तरों से परे सभी नागरिकों को समान कानून हों ऐसा वे चाहते थे।

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म-विरोध नहीं है, नास्तिकता या धर्महीनता भी धर्मनिरपेक्षता नहीं है। पं० नेहरू के लिए धर्मनिरपेक्षता सभी धर्मों के प्रति समान आदर भाव है। पं० नेहरू धर्मराज्य के विरोधी थे। आधुनिक संदर्भ में यदि इस बात को समझा जाय तो यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार पाकिस्तान तथा बंगलादेश ने इस्लाम को राष्ट्रीय धर्म घोषित किया है, पं० नेहरू का चिन्तन और मान्यतायें इन व्यवस्थाओं को स्वीकार नहीं कर सकतीं। राज्य का कोई एक धर्म नहीं होना चाहिये। इससे नागरिक समानता के आदर्श का हनन होता है तथा अन्य धर्मों के मानने वालों में भय पैदा होता है। वे अपने को द्वितीय श्रेणी का नागरिक अथवा असुरक्षित अनुभव करते हैं।

पं० नेहरू ने लोकतन्त्र और राष्ट्रीय एकता के लिए धर्मनिरपेक्षता को आवश्यक माना। वे मानते थे कि व्यक्ति का सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़ापन धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त के लिए समस्या है। जब तक व्यक्ति सामाजिक दृष्टि में प्रगतिशील नहीं होगा तब तक उसका दृष्टिकोण सीमित बना रहेगा। इसमें व्यापक दृष्टिकोण विकसित नहीं होगा। परिणामतः कट्टरता बनी रहेगी। यह कट्टरता ही धार्मिक विभेदों और असहिष्णुता को जन्म देती है। अतः धर्मनिरपेक्ष राज्य का काम यही नहीं है कि वह धर्मों के सम्बन्ध में असंलग्न रहे पर उसका यह भी काम है कि वह उन विचारों, मान्यताओं और आस्थाओं का विकास करे जो कट्टरता और संकुचितता तथा धार्मिक विभेदों और जातीय सीमाओं को समाप्त करे। राष्ट्रीय एकता के लिए भी यह आवश्यक है कि हम छोटे-छोटे घेरों को तोड़कर ऊपर उठे। पं० नेहरू धार्मिक संकीर्णता और अंधविश्वास के तो विरोधी थे ही पर उन्हें धर्म के वैज्ञानिक और स्वस्थ दृष्टिकोण से कोई चिढ़ नहीं थी। धर्म यदि मनुष्यों को बाँटता है और उनमें कट्टरता लाता है, तो वह बुरा है। धर्म यदि मानवमात्र की एकता के लिए कार्य करता है और व्यापक मानवीय मूल्यों को विकसित करता है तथा व्यापक दृष्टिकोण विकसित करता है, तो ठीक है।

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Pankaja Singh

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