इतिहास

निःशस्त्रीकरण की समस्या | निःशस्त्रीकरण की समस्या हल करने के प्रयास

निःशस्त्रीकरण की समस्या | निःशस्त्रीकरण की समस्या हल करने के प्रयास

निःशस्त्रीकरण की समस्या

मनुष्य को सदा से यह इच्छा रही है कि झगड़ों का निबटारा शान्तिपूर्वक उपायों से किया जाये, परन्तु इन उपायों की असफलता पर युद्ध ही एक माध्यम रह जाता है। नेपोलियन के युद्धों से तंग आकर भी इस सम्बन्ध में विभिन्न प्रयास किये गये थे।

प्रथम महायुद्ध के बाद भी यूरोप के सभी देशों ने यह अनुभव कर लिया था कि अस्त्र-शस्त्रों तथा सेनाओं में वृद्धि के फलस्वरूप विश्व में यह भंयकर महायुद्ध हुआ है। अतएव युद्ध समाप्त होने के याद यूरोप के सभी देशों के सामने यह समस्या थी कि भविष्य में युद्ध रोकने के लिये राज्यों की सेनाओं, अस्त्र-शस्त्रों तथा युद्धोपयोगी अन्य वस्तुओं में किस प्रकार कमी की जाये। इस समस्या को इतिहास में ‘निःशस्त्रीकरण की समस्या’ कहते हैं। इस समस्या को हल करने के लिये यूरोप क विभिन्न राज्यों ने सामूहिक रूप से निम्नलिखित प्रयत्न किये थे-

  1. पेरिस का शान्ति सम्मेलन-

विश्व का प्रथम महायुद्ध जर्मनी को साम्राज्यवादी आकांक्षाओं का फल था। अतएव सबसे पहले 1919 में विश्व के सभी राज्यों ने पेरिस को शान्ति परिषद् में जर्मनी के निःशस्त्रीकरण के सम्बन्ध में विचार किया था। उन्होंने यह तय किया कि जर्मनी और उसके मित्रो की सेनाओं में कमी की जाये और तय किया जाये कि जर्मनी और उसके साथी कितनी-कितनी सेनायें अधिक से अधिक रख सकते हैं। इसके अतिरिक्त परिषद में यह भी विचार किया गया था कि विश्व शान्ति की सुरक्षा के लिये यूरोप के अन्य राज्यों को भी अपनी सेनाओं में कमी करनी चाहिये। इस परिषद् में विश्व के सभी राज्य इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके थे कि विविध राज्य केवल उतनी ही सेनायें रखें जितनी कि उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये आवश्यक है।

  1. विभिन्न मतभेद-

पेरिस की शान्ति परिषद् में यह तय हो गया कि सभी राज्य केवल उतना ही सेनायें रखें जितनी कि उनकी सुरक्षा के लिये आवश्यक है किन्तु ब्रिटेन, अमेरिका आदि महान राष्ट्रों के लिये अपनी सेनाओं को कम करने की भी समस्या थी। अपने महान साम्राज्यों की रक्षा करने के लिये उनको विशाल सेना रखने की आवश्यकता थी। अत: वे आसानी से शान्ति परिषद में किये गये निर्णय को कार्यान्वित नहीं कर सकते थे। इधर फ्रांस को भी भय था कि यदि उसकी सुरक्षा को गारण्टी न दी गई तो जर्मनी किसी भी समय अपनी शक्ति बढ़ाकर फ्रांस पर आक्रमण कर देगा। ऐसो दशा में फ्रांस के लिये भी सेना में कमो करना सम्भव नहीं जान पड़ता था। इस प्रकार विश्व के महान् राष्ट्रों में पेरिस को शान्ति परिषद् के निर्णय पर मतभेद था। इसके अतिरिक्त मतभेद का प्रश्न यह भी था कि कौन देश कितनी सेना किस प्रकार की रखे। महायुद्ध में सबसे अधिक हानि नौसेना द्वारा हुई थी। जर्मनी को पनडुब्बियों ने भारी नुकसान किया था और जंगी जहाज़ों के कारण युद्ध अधिक भयंकर हो गया था। अतएव सबसे पहले नौ-सेना नियन्त्रण करने का प्रश्न था। इस प्रश्न से ब्रिटन, अमेरिका सम्बन्धित थे। ये बड़े राष्ट्र अपनी नौसैनिक शक्ति का कम करने के पक्ष में नहीं थे। इन सब प्रश्नों पर बड़ी बहस होता रहा और मनमुटाव बढ़ता गया जिसका प्रधान कारण परिस को शान्ति परिषद् की कमियाँ थी।

  1. नौसेना पर नियन्त्रण-

ऊपर लिखा गया है कि बड़े-बड़े जंगी जहाजों के कारण युद्ध में भारी नुकसान हुआ था। अतएव राष्ट्र संघ के सदस्य राज्यों ने सबसे पहले सामुद्रिक शक्ति पर नियन्त्रण करने का निश्चय किया। 1921-22 में ‘वाशिंगटन’ में एक कांफ्रेंस नौसेना के सम्बन्ध में हुई। इस कांफ्रेंस में दस वर्ष के लिये निश्चित कर दिया गया कि अमेरिका 5, ब्रिटेन 5, जापान 3 और फ्रांस तथा इटलो प्रत्येक 1.67 के अनुपात से जंगी जहाज रख सकते हैं। यह निश्चय बड़े-बड़े जंगी जहाजों के लिये कर दिया था। अभी छोटे-छोटे जहाजों को नियन्त्रित करने की समस्या थी।

  1. जेनेवा सम्मेलन-

ब्रिटेन के छोटे जहाजों की संख्या बढ़ रहा था जिससे विश्व के अन्य देशों को भारी परेशानी थी। अतएव राष्ट्रसंघ के सदस्य राष्ट्रों ने 1927 में छोटे-छोटे जहाजों को सेना पर नियन्त्रण करने के लिये एक दूसरो नी-सेना कांफ्रेंस जेनेवा में बुलाई। इस कांफ्रेंस में यह प्रस्ताव पेश हुआ कि छोटे छोटे जहाजों की संख्या भी निश्चित की जाये। किन्तु ब्रिटेन ने इस प्रस्ताव का घोर विरोध किया। उसका कथन था कि “एक विशाल साम्राज्य की रक्षा के लिये ब्रिटेन को अपने जहाज रखना अत्यन्त आवश्यक है।” ब्रिटेन के विरोध के कारण जेनेवा कांफ्रेंस सफल न हो सकी।

  1. नौसेना नियन्त्रण में कठिनाइयाँ-

अभी तक विश्व के राज्यों ने नौ सेना के नियन्त्रण के लिये दो बार प्रयत्न किये थे। वाशिंगटन को कांफ्रेंस में तय कर दिया गया था कि इस वर्ष के लिये अमेरिका, ब्रिटन, जापान, फ्रांस और इटली निश्चित अनुपात में जंगी जहाज रख सकते हैं। 1927 में जेनेवा कांफ्रेंस में छोटे जहाजों के नियन्त्रण की समस्या थी जिसका ब्रिटेन ने विरोध किया। इस विरोध के परिणामस्वरूप जेनेवा कांफ्रेंस असफल हो गई थी। अब 1930 में अमेरिका, ब्रिटेन, जापान. फ्रांस और इटली के प्रतिनिधि तीसरी बार फिर नौ-सेना के नियन्त्रण को समस्या पर विचार करने के लिये एकत्रित हुए। इन प्रतिनिधियों को यह बैठक ‘लंदन’ नगर में हुई। इस बैठक में दो विशेष निर्णय हुए-

(अ) वाशिंगटन में किये गये समझौते की अवधि दस वर्ष के लिये 1937 तक बढ़ा दी  जाये।

(ब) अमेरिका को भी बिटेन के छोटे जहाजों की संख्या के बराबर ही अपने जंगी जहाजों की संख्या बढ़ाने का अधिकार दे दिया जाये।

उक्त दोनों निर्णय विश्व शान्ति के लिये आवश्यक माने गये। अतएव उनके मानने में कोई भी परेशानी नहीं थी। किन्तु इसी बीच में जापान ने अपनी माँग पेश करते हुए कहा कि उसको भी ब्रिटेन और अमेरिका के बराबर नौसेना रखने का अधिकार दे दिया जाये। इस प्रश्न पर मतभेद हो गया। अन्त में यह निर्णय हुआ कि यदि कोई राज्य सुरक्षा की दृष्टि से अपनी नौसेना में वृद्धि करना चाहता है तो उसको ऐसा करने का अधिकार है। इस अधिकार के मिलते ही नौसेना के नियन्त्रण की समस्या जटिल हो गई। इसके परिणामस्वरूप थोड़े दिनों में ही विश्व के राज्यों के पास बड़े बड़े जंगी जहाज दिखाई देने लगे। अब इन राज्यों को पूँजी अधिक से अधिक मात्रा में जंगी जहाजों के निमाण में व्यय होने लगी।

उक्त वर्णन से स्पष्ट है कि सभी राज्य तीन बार नौसेना को संख्या को निश्चित करने के लिय एकत्रित होने पर भी अपने कार्य में सफल नहीं हुए।

  1. स्थल सेना पर नियन्त्रण-

राज्यों को स्थल सेना पर नियन्त्रण करने के लिये एक कमीशन की नियुक्ति की गई जिसको यह कार्य सौंपा गया कि वह यह रिपोर्ट करे कि किन-किन राज्यों को सुरक्षा को दृष्टि से कितनी सेना की आवश्यकता है और राष्ट्रों के पास किस-किस प्रकार की कितनी सेनायें है। कमीशन के लिये यह कार्य सुगम था कि वह पता लगा ले कि किस राज्य में कितनी सेना एवं अस्त्र-शस्त्र हैं। किन्तु राज्यों के पास कुछ अस्थायी सेना भी होती है जिसका पता लगाना कमोशन के लिये कठिन था। फिर भी पाँच वर्षों तक कमीशन अपनी रिपोर्ट बनाने में संलग्न रहा। पाँच वर्ष के बाद कमीशन ने अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें निम्नलिखित सिफारिशें की गई-

(i) यह तय कर दिया जाय कि प्रत्येक राज्य में स्थल सेना में अधिक से अधिक कितने सैनिकों की भर्ती की जाय।

(ii) यह निश्चित कर दिया जाय कि कौन राज्य अस्त्र-शस्त्रों पर अधिक से अधिक कितना खर्च कर सकता है।

(iii) यह सिफारिश को गई कि युद्ध में जहरीली गैसों और रासायनिक द्रव्यों का प्रयोग न किया जाय।

(iv) विविध राज्यों के निःशस्त्रीकरण की देख-रेख के लिये एक कमीशन की नियुक्ति की जाय।

कमीशन की रिपोर्ट में नि:शस्त्रीकरण के सिद्धान्तों का उल्लेख कर दिया गया किन्तु उसमें यह तय नहीं किया गया कि किस राज्य को कितनी सेना रखनी चाहिये।

  1. निःशस्त्रीकरण सम्मेलन-

इंगलैंड के प्रतिनिधि श्री हैन्डरसन को अध्यक्षता में राष्ट्रसंघ के सव सदस्य राज्यों के प्रतिनिधि 1932 में जेनेवा में एकत्रित हुए और वहाँ उन्होंने कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार निःशस्त्रीकरण की समस्या पर विचार किया। वायु सेना, जंगी जहाज और युद्ध में विनाश करने वाले साधनों के नियन्त्रण की समस्या सबके सामने थी। सभी प्रतिनिधि इस बात पर सहमत थे कि ऐसे साधनों का प्रयोग न किया जाये जो विध्वंसकारी हों और आत्म-रक्षा के लिये उचित साधनों एवं हथियारों का शस्त्रीकरण किया जाये। इस कांफ्रेंस में इन बातों पर केवल बहस हुई। यह तय नहीं किया गया कि कौन-कौन से अस्त्र-शस्त्र सुरक्षा के लिये आवश्यक हैं और किन किन अस्त्र-शस्त्रों का युद्ध में परित्याग कर दिया जाये। इसके अतिरिक्त, राज्यों में नि:शस्त्रीकरण के तरीकों पर भी मतभेद था।

(1) फ्रांस चाहता था कि राज्यों की सेना में तथा हथियारों में कमी करके अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये राष्ट्र संघ की देख रेख में एक हथियारों से सुसज्जित अन्तर्राष्ट्रीय सेना का संगठन किया जाये किन्तु फ्रांस के इस प्रस्ताव का इंगलैंड और अमेरिका ने घोर विरोध किया।

(2) इंगलैंड का कथन था कि पनडुब्बियाँ विनाशकारी हैं और जंगी जहाज आत्म सुरक्षा के लिये आवश्यक है। अतएव पनडुब्बियों पर नियन्त्रण लगाया जाये और जंगी जहाजों के निर्माण में वृद्धि की जाये। अन्य देशों के सदस्यों ने इंगलैंड के इस मत का घोर विरोध किया।

(3) जर्मनी के प्रतिनिधि का कथन था कि वर्साय की सन्धि में जो प्रतिबन्ध जर्मनी की सेना की वृद्धि पर लगाये गये हैं उन्हों के अनुपात में अन्य राज्यों की सेना में कमी की जाये या जर्मनी को भी अपनी सेना, अस्त्र-शस्त्र आदि बढ़ाने का अधिकार दे दिया जाय।

जेनेवा कांफ्रेंस में कई महीनों तक वाद-विवाद होता रहा किन्तु राज्यों के प्रतिनिधियों में कोई विशेष समझौते नहीं हो सके। फिर भी निम्नलिखित बातें तय की गयीं-

(अ) यह निश्चय किया गया कि जंगी जहाजों की संख्या प्रत्येक राज्य के लिये तय की जाये।

(ब) प्रत्येक राज्य को चाहिये कि एक खास वजन से अधिक की तोपें और टैंकों का प्रयोग न करें।

(स) युद्धों में रासायनिक पदार्थों के प्रयोग को रोका जाये।

  1. नि:शस्त्रीकरण में असफलता-

सब राज्यों ने बहुमत से उक्त तीन बातों का निर्णय किया था परन्तु फिर भी कुछ ऐसी बातें थीं जिनके कारण निःशस्त्रीकरण की समस्या का अन्त न हो सका।

(i) सदस्यों में इस बात का निर्णय न हो सका कि कौन-कौन अस्त्र-शस्त्र आत्म सुरक्षा के लिये प्रत्येक राज्य के लिये आवश्यक हैं और किन-किन अस्त्र-शस्त्रों को युद्ध के लिये विनाशकारी समझा जाये। वैसे भी पूरी तरह से यह तय कर पाना कि कौन से अस्त्र-शस्त्र सुरक्षात्मक (Defensive) हैं और कौन से आक्रामक बड़ा कठिन था। इस निर्णय के अभाव में प्रत्येक राज्य अपनी सुरक्षा का बहाना करके सेना एवं अन्य युद्धोपयोगी शस्त्रों में वृद्धि करने लगा। इससे सभी राज्य एक-दूसरे को शंका की दृष्टि से देखने लगे।

(ii) जेनेवा कांफ्रेंस में यह निर्णय नहीं किया गया कि किस वजन से अधिक की तोंपें और टैंक न रक्खे जायें। इस निर्णय के अभाव में राज्यों को भारी से भारी तोपों और टैंकों के रखने का बहाना मिल गया।

(iii) यह भी तय नहीं किया गया कि कौन-कौन द्रव्य रासायनिक हैं और किस-किस द्रव्य का प्रयोग न किया जाये। इस निर्णय के अभाव के कारण किसी भी राज्य को अवसर था कि रासायनिक द्रव्यों का निर्माण करता रहे।

(iv) इन्हीं दिनों जापान ने मंचूरिया और इटली ने अबीसीनिया पर अधिकार कर लिया। राष्ट्रसंघ इन मामलों में निर्बल राष्ट्रों के लिये कुछ भी न कर सका। इससे राष्ट्रसंघ के सदस्यों में भारी असन्तोष फैल गया।

(V) अन्तराष्ट्रीय सुरक्षा को समस्या और नि:शस्त्रीकरण को समस्या का सुलझाना इसलिये असम्भव था कि परिस को शान्ति-परिषद् में जर्मनी और उसके साथियों के साथ न्याय नहीं किया गया था। यदि उनके साथ भी मनुष्यता का व्यवहार किया जाता तो जर्मनी में उग्र राष्ट्रीयता का उदय होने का अवसर न मिलता। निःशस्त्रीकरण के सम्बन्ध में भी जोते और राष्ट्रों के बीच भेद किया जा रहा था। जोते हुए राष्ट्र हारे राष्ट्रों पर तो निःशस्त्रीकरण को थोपना चाहते थे परन्तु अपने लिये उन प्रतिबन्धों को मानने को तैयार नहीं थे।

(vi) राष्ट्र संघ के सदस्य राज्यों में शक्ति की समानता नहीं थी। ब्रिटेन आदि राज्य बड़े-बड़े साम्राज्य के स्वामी थे। नि:शस्त्रीकरण की प्रत्येक योजना उनके लिये घातक थी। सेना एवं जंगी जहाजों में कमी करना उनके लिये आत्म सुरक्षा को खतरे में डालना था। अतएव वे निःशस्त्रीकारण की प्रत्येक योजना का विरोध करते थे। यदि बहुमत से कोई चीज स्वीकार भी हो जाती तो उसमें सभी बातों पर पूर्ण रूप से निर्णय नहीं होता था. जैसे कि टैंक और तोपों के वजन का निश्चय नहीं किया गया। इस निर्णय के अभाव में शक्तिशाली राज्य अपना काम बना लेते थे।

(vii) जर्मनी, इटली और जापान भी अपनी साम्राज्य विस्तार की योजनाओं में लगे हुए थे। अतएव निःशस्त्रीकरण को समस्या का हल न हो सका था।

(viii) शक्तिशाली राष्ट्रों की देखा-देखो विश्व के अन्य छोटे-छोटे राज्य भी राष्ट्रीय भावना से परेशान थे। वे भी अपने राज्यों को सीमा बढ़ाने में लगे हुए थे। ऐसी दशा में नि:शस्त्रीकरण का होना नितान्त असम्भव था।

(ix) इसी समय इंगलैंड ने जापान और इटली की भावनाओं से भयभीत होकर उद्घोषणा कर दी थी कि बिगड़ती हुई हालत का सुधार करने के लिये ब्रिटेन को आत्म-सुरक्षा का ध्यान करते हुए अपने साधनों को इतना मजबूत बनाना चाहिये कि वह उनसे अपनी और विश्व के अन्य राज्यों की सुरक्षा कर सके। इस उद्घोषणा ने विश्व के अन्य राज्यों में बेचैनी पैदा कर दी। वे भी अपनी-अपनी सुरक्षा के लिये सेनाओं एवं अस्त्र-शस्त्रों में वृद्धि करने लगे। ऐसी दशा में युद्ध की सम्भावना बढ़ गई और नि:शस्त्रीकरण की समस्या का अन्त हो गया।

(x) निःशस्त्रीकरण की समस्या को हल करने में असफलता का महान और अन्तिम कारण यह भी था कि जर्मनी में नाजी पार्टी की सरकार हिटलर को अध्यक्षता में स्थापित हो चुकी थी। हिटलर ने उद्घोषणा कर दी थी कि जर्मनी जेनेवा कांफ्रेंस के निर्णय से कोई भी सम्बन्ध नहीं रखता। वह अपने राष्ट्र का उत्थान करने और देश की शक्तिशाली बनाने के साधनों को जुटाने में मनमानी करेगा। जर्मनो को इस उदघोषणा से निःशस्त्रीकरण के प्रश्न को हल करने की शेष आशा पर पानी फिर गया।

उक्त सब कारणों से नि:शस्त्रीकरण को समस्या को भी अन्तराष्ट्रीय सुरक्षा को समस्या की भाँति राष्ट्रसंघ हल करने में सफल न हो सका।

वस्तुत: नि:शस्त्रोकरण को समस्या का समाधान केवल परस्पर विश्वास, सद्भावना और समानता के आधार पर सम्भव है जबकि सब राष्ट्र एक-दूसरे के पति संदेह एवं शंका की पावना ग्रसित थे। एस वातावरण में नि:शस्त्रीकरण जैसे प्रश्न का कोई भी समाधान असम्भव था।

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Pankaja Singh

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