नगर नियोजन की अवधारणा | नगर नियोजन की आवश्यकता | नगर नियोजन का महत्व | Concept of town planning in Hindi | Need for town planning in Hindi | Importance of town planning in Hindi
नगर नियोजन की अवधारणा
नगरों में जनसंख्या के भारी दबाव के कारण अनेक समस्याओं ने जन्म लिया, उनमें आवासीय समस्या सर्वाधिक विकराल रूप में खड़ी हो गई। आवास निर्माण में मनमानी व आपाधापी के कारण अन्य कई समस्याओं ने जन्म लेना आरम्भ कर दिया। गन्दगी, आवागमन व यातायात में अवरोध- जैसी अनेक समस्याएँ उठ खड़ी हुईं। अनेक समाजशास्त्रियों एवं सरकारी तंत्र का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ। नगर-नियोजन आवश्यक समझा जाने लगा। नगर के विस्तार के लिए सर्वप्रथम निर्माण योजना तैयार की जाये, तब उस योजना के अनुसार निर्माण कार्य सम्पन्न हो, तो बहुत सी समस्याओं से निजात मिल सकती है।
प्रमुख समाजशास्त्री स्नीइडर में लिखा है, “सामान्यतया नगर एक विशाल विक्रय केन्द्र के बाहर की ओर विस्तृत भवनों, मकानों व दुकानों की कतारें हैं जो गन्दी बस्तियों, मध्यम श्रेणी के कटिबन्धों व भिन्न दूरस्थ उपनगरों से गुजरता हुआ अंत में ग्रामीण क्षेत्र में विलीन होता चला जाता है। इस संकुल के मध्य विभिन्न प्रकार की वैमनस्यता व विरोधाभास पाया जाता है।”
फैक्ट्रियों व कारखाने निवास स्थानों के मध्य में लग जाते हैं, उनका कचरा यत्र-तत्र बिखरता रहता है। कैमिकल्स युक्त गन्दा पानी मार्ग में कीचड़ युक्त हो जाता है। धुएँ का प्रदूषण व्याप्त रहता है। मशीनों की खरखराहट व थरथराहट वायु प्रदूषण एवं ध्वनि प्रदूषण को बढ़ाती है। मकान बनाते समय गलियों व सड़कों की भूमि भी मकान में ले लेते हैं। गलियाँ सँकरी रह जाती हैं, गलियाँ नहीं बनाते। गन्दा पानी गलियों में छोड़ देते हैं। घर का कूड़ा भी कूड़ेदान में नहीं डालते, गली व सड़क पर ढेर लगा देते हैं। गन्दे पानी व कूड़े का सम्मिश्रण कीचड़ व बदबू का वह आलम बन जाता है कि वहाँ से निकलना दूभर हो जाता है। बीमारियों के कीटाणु फैलने लगते हैं। संक्रामक रोगों का प्रसार होने लगता है। सड़क यातायात में अवरोध उत्पन्न हो जाता है। दुर्घटनाएँ घटित होने लगती हैं, जाम लग जाते हैं।
संक्षेप में जनसमुदाय के लिए जो नगरों में रहते हैं आर्थिक, सामाजिक नैतिक तथा स्वास्थप्रद परिस्थितियों का पुनः निर्माण नगर नियोजन कहलाता है।
नगर नियोजन की आवश्यकता
सामाजिक जीवन में बुरी तरह प्रदूषित हो जाता है, तब नगर-नियोजन की आवश्यकता अनुभव होती है। मास्टर प्लान किया जाता है। नगरों में अव्यवस्थित निर्माणों को तोड़ा जाता है, तोड़-फोड़ होती है। अतिक्रमण साफ कराये जाते हैं कितने धन की हानि होती है। कितने ही लोगों के व्यापार छिन जाते हैं। कईयों के आवास गृह टूट जाते हैं, सिर ढकने को छत नहीं रहती। तब यह विचार किया जाता है कि प्रारम्भ से ही यदि यह अनियमित निर्माण रोक दिये जाते थे तो आज यह हानि नहीं होती।
नगर नियोजन ही एकमात्र उपाय है जो तोड़-फोड़ से होने वाली हानि से बचा सकता है। अब नगरीय जीवन से सम्बन्धित वैज्ञानिक, सामाजिक विचारक व समाज सुधारक एवं प्रशासक नगरीय नियोजन को आते आवश्यक मानते हैं। नगर नियोजन के अन्तर्गत औद्योगिक क्षेत्र नगर के आवासीय क्षेत्रों से दूर-दूर अलग क्षेत्रों में बनाये जाते हैं। स्कूल, कॉलेज, प्रशासनिक कार्यालय भी आवासीय क्षेत्रों से अलग, परन्तु दूर नहीं होते, निकट होते हैं ताकि आवासीय क्षेत्र में निवास करने वाले अपने आवश्यकताओं की पूर्ति आसानी से बिना अधिक दूरी तय किये कर सकें। आवासीय कॉलोनियों भी व्यवस्थित रूप से निर्मित की जाती हैं। आने-जाने के लिए गलियाँ, सड़के, नालियाँ, सेनेटरी लेनस आदि सभी नियमों के अन्तर्गत होनी चाहिए। अतिक्रमण को किसी भी दशा में प्रोत्साहित नहीं होने देना चाहिए। बिना मानचित्र की स्वीकृति के कोई निर्माण नहीं होने देना चाहिए। मानचित्र स्वीकार करते समय नियमों के पूर्ण पालन पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
नगर नियोजन एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। फिर भी सीमित साधनों के रहते भारत सरकार इस कार्य में पूर्णतः कार्यरत है। प्रथम पंचवर्षीय योजना में ही नगर नियोजन कार्यक्रम आरम्भ हो गया था, जो प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में निरन्तर जारी रहा। आज दसवीं पंचवर्षीय योजना आरम्भ होने जा रही है। इसमें भी नगर नियोजन पर पूरा ध्यान दिया जा रहा है।
नगर नियोजन के अन्तर्गत दो प्रकार के कार्यक्रम आते हैं। एक निर्माण व दूसरा विध्वंस निर्माण के अन्तर्गत कार्यक्रम नवीन निर्माण के उद्देश्य से प्रारम्भ होते हैं। विध्वंस के कार्यक्रम पूर्व में हो चुके अनियमित व अव्यवस्थित निर्माण कार्यों को ध्वस्त करने का होता है। प्रथम कार्य में धन व भूमि की आवश्यकता होती है, जिसकी व्यवस्था शासन येन-केन कर लेता है, परन्तु द्वितीय कार्य, जिसके अन्तर्गत तोड़-फोड़ का अभियान चलाना पड़ता है, अत्यन्त दुर्गम व कठिन कार्य है। तोड़-फोड़ के कारण सम्पत्ति व धन तथा जायदाद की बहुत हानि होती है, जिसके लिए जन-आक्रोश व विरोध का सामना करना पड़ता है। प्रशासन व सत्ताधारी दल की आलोचना होने लगती है। इसलिए इस प्रकार के कार्य बीच में ही रोक दिये जाते हैं, जो अतिक्रमण आदि ध्वस्त किये जाते हैं, फिर उसी रूप में बनकर खड़े हो जाते हैं।
राजनेताओं की इच्छा में कमी, जनता से लोकप्रियता की चाह, मनोबल की कमी, अधिकारियों को मास्टर प्लान के अन्तर्गत कार्य करने से रोक देती है। अधिकारियों में इतनी शक्ति नहीं रह गयी है कि वे राजनेताओं की इच्छा की अवहेलना कर सकें। प्रथम कार्य जिसके अन्तर्गत निर्माण कार्य आते हैं, वह तो क्रियान्वित हो जाते हैं, परन्तु अतिक्रमण एवं अनियमित निर्माण को तोड़ने में हमारी सरकारें असफल प्रमाणित हुई हैं।
यदि अनियमित निर्माण एवं अतिक्रमण को प्रारम्भ में ही रोक दिया जाये व दोषी व्यक्ति को दंडित किया जाये तो इस सामाजिक कोढ़ से छुटकारा मिल सकता है, परन्तु शासन स सम्बन्ध में पूर्णतया असफल है, जिसके कई कारण हैं-
- सत्तारूढ़ राजनैतिक दल अधिकारियों का सहयोग नहीं देते।
- अधिकारियों में सक्रियता का अभाव है।
- भ्रष्टाचार की अधिकता।
- राजनैतिक व्यक्ति अपनी शक्ति एवं प्रभाव का प्रयोग कर सरकारी भूमि पर आधिपत्य स्थापित कर लेते हैं।
- कानून में भी वह कड़ाई नहीं है, जिससे भयभीत होकर नगरवासी अनियमित कार्य न करें।
आप किसी भी नगर में जायें, जाम और भीड़-भाड़ सब सड़कों पर मिलेगी। सड़क यदि 120 फीट चौड़ी है तो भी यातायात में अवरोध, यदि 60 फीट चौड़ी है तो भी अवरोध। 60 फीट चौड़ी सड़क पर खड़े होकर देखिये तो 10-15 फीट चौड़ी सड़क ही आवागमन के लिए दिखाई देगी। बाजारों में तो स्थिति और भी कष्टदायक है। पैदल चलने के लिए सड़क की पटरी तो है ही नहीं, दुकानदारों ने दुकानें आगे बढ़ाकर सम्पूर्ण फुटपाथ अपनी दुकान में मिला लिया है। उसके आगे दुकानदार के स्कूटर और फिर ग्राहकों के स्कूटर और मोटर साइकिल दोनों ओर से यही स्थिति, अब निकलने वाला कहाँ होकर निकले, लग गया जाम। इस स्थिति को सुधारने के लिए नगर-नियोजन को कड़ाई से पालन करना होगा। जनता इतनी स्वच्छंद हो चुकी है कि वह कोई नियम-कानून, मान-मर्यादा की बात सुनने को तैयार नहीं। सिवाय कड़ाई के नगर- नियोजन हो ही नहीं सकता।
प्रायः देखा गया है कि महानगरों में तो नगर-नियोजन कार्यक्रम सफलता से चल रहे हैं। अन्य बड़े नगरों में भी कुछ हद तक कार्य हो रहे हैं, परन्तु छोटे नगरों में कोई नियम-कानून लागू ही नहीं होता। कानून सबके लिए है, परन्तु छोटे नगरों में और कहीं-कहीं बड़े नगरों में भी और अब तो महानगर भी इस समस्या से अछूते नहीं रहे, वे भी अतिक्रमण से ग्रस्त हैं। अस्थायी अतिक्रमण जिसके अन्तर्गत सड़क तक अपने सामान को रखना एवं स्थायी अतिक्रमण, जिसके अन्तर्गत सरकारी भूमि पर निर्माण कराकर उस पर अपना स्वामित्व स्थापित करना।
भारत के कुछ नगरों में तो नगर नियोजन की स्थिति इतनी कलुषित है कि विचारशील व्यक्ति जब देखता है कि सड़क की भूमि पर सरकार ने मार्केट बनाकर खड़े कर दिये हैं, जिसके कारण यातायात अवरूद्ध हो रहा है तो सोचता है कि क्या इस नगर में किसी का शासन है ही नहीं। कैसे अधिकारी व राजनेता एवं बुद्धिजीवी व्यक्ति या मीडिया के पत्रकार इस नगर की दुर्दशा देखकर अपनी आँखे बन्द कर लेते होंगे, जहाँ शासन ने ही सड़कों की भूमि पर मार्केट बनाकर खड़े कर दिये हैं।
मन्दिर बनाकर या मूर्ति खड़ी कर सरकारी भूमि पर कब्जे किये जा रहे हैं। यह देखना और रोकना तो शासन का कर्त्तव्य है। यदि सरकार इस कर्त्तव्य का पालन नहीं कर पा रही है तो नगर नियोजन का क्या औचित्य रह पायेगा।
भारत में नगर नियोजन के अन्तर्गत कई नवीन नगरों की स्थापना होती रहती है। चंडीगढ़, नई दिल्ली, टाटानगर, नोएडा, नयी मुम्बई आदि कई नगरों का निर्माण नगर विकास के अन्तर्गत हुआ। कई प्राचीन नगरों का पुर्ननिर्माण व विकास नगर नियोजन के माध्यम से हुआ। जहाँ-जहाँ भी विकास प्राधिकरण (Development Authorities) के अधिकारी नियुक्त किये गये, नगरों व कॉलोनियों आदि के निर्माण नियमित मानचित्रों के आधार पर किये गये। बाद में भी विकास प्राधिकरण उस नवीन विकसित क्षेत्रों पर दृष्टि रखता है कि कहीं नियमों का उल्लंघन तो नहीं हो रहा। निवासी लोग अपनी सीमा से आगे बढ़कर सरकारी भूमि की सीमा में तो घुसपैठ नहीं कर रहे।
एक प्रशासनिक अधिकारी जिस नगर में भी नियुक्त होते थे, वहाँ के निवासियों से कहते थे कि, “आप अपनी सीमा के अन्दर रहिए। यदि आप अपनी सीमा से बाहर निकलकर हमारी (सरकारी क्षेत्र) सीमा में दाखिल होंगे तो निश्चय ही हम (सरकारी तंत्र) आपको अपनी सीमा से बाहर खदेड़ते हुए आपकी सीमा तक पहुँच जायेंगे, हो सकता है, ऐसे में आपको अपनी सीमा के अन्तर्गत भी कुछ हानि उठानी पड़े।“
नगर नियोजन नियमों का पालन कराने के लिए भारत सरकार को कड़े नियम बनाने होंगे व कड़ाई से उनका पालन कराना होगा। राजनैतिक हस्तक्षेप व दबाव पर रोक लगानी होगी। यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी प्रभावशाली व्यक्ति अपने प्रभाव का अथवा अधिकारों का दुरूपयोग करते हुए नगर नियोजन के नियमों का उल्लंघन न कर सके।
सन् 1975-76 व सन् 1976-77 के दो वर्षों में देश में आपातकालीन (Emergency ) शासन रहा। उस दौरान देश में राजनैतिक गतिविधियाँ समाप्त हो गई थीं। किसी राजनीतिज्ञ का प्रभाव प्रयुक्त नहीं हो पा रहा था। सरकारी कर्मचारी व अधिकारी भी निष्पक्ष रूप से ईमानदारी व पूर्ण कर्तव्यनिष्ठा के साथ अपने काम को अन्जाम नहीं दे पा रहे थे। उस दौरान देश के प्रायः हर छोटे बड़े नगर में मास्टर प्लान लागू किया गया। वर्षों से चले आ रहे अतिक्रमण शासन ने रातारात साफ करा दिये। सड़के चौड़ी हो गई। बाजारों में दुकानदारों ने दुकानों के आगे रखे तखते व सामान के ढेर हटाकर दुकान के अन्दर रख लिए। लगता था कि पूरा देश अनुशासित हो गया। कानून-नियमों का पालन स्वतः ही प्रत्येक व्यक्ति करने लग गया था।
प्रसिद्ध गाँधीवादी सन्त विनोबा भावे ने कहा था कि, “आपातस्थिति अनुशासन पर्व है।”
बाजारों व आवासीय बस्तियों में लाल गेरू रंग फीते में लगाकर सड़क सीमा अंकित कर दी जाती थी। बिना किसी रोक-टोक व विरोध के एक साथ पूरी सीमा की सफाई हो जाती थी। अतिक्रमण का निशान ही नहीं बचता था। आज भी यदि नगरों की व्यवस्था बनानी है तो नगर नियोजन कार्यक्रम सन् 1975-76 के अनुरूप ही क्रियान्वित करने होंगे। जहाँ तक नगर नियोजन द्वारा नगरों का निर्माण कार्य कराने का प्रश्न है, देश में कई नगरों में कार्य हुए हैं। इन्दौर, जयपुर, अजमेर, उदयपुर, कोटा, अलवर, दिल्ली, नई दिल्ली, कानपुर, जमशेदपुर, टाटानगर, बोकारो, भिलाई, पिलानी, सूरत, बड़ोदरा, नागपुर, अहमदाबाद, राजकोट, जामनगर, अमृतसर, जम्मू, लुधियाना, पटियाला, जालंधर, अम्बाला, फरीदाबाद, गुड़गाँव, मेरठ आदि कई नगरों का विकास व निर्माण नगर-नियोजन के अन्तर्गत हुआ। इस सम्बन्ध में कार्य करने वाली संस्थाएँ निम्नलिखित हैं-
- सिटी इम्प्रेवमेंट ट्रस्ट।
- डेवलपमेंट ओथॉरिटी (विकास प्राधिकरण)
- हेल्थ इंजीनियरिंग विभाग।
- नगर विकास विभाग।
- नगर नियोजन विभाग।
- टाउन प्लानिंग डिपार्टमेन्ट।
- राजस्थान ट्रेड इन्फॉरमेशन केन्द्र।
- कई नगरों व महानगरों की नगरपालिकाएँ व महापालिकाएँ (नगर निगम) ।
- नगरीय सामुदायिक विकास योजना।
- भवन-निर्माण परियोजना।
अन्य देशों की तुलना में भारत नगर आयोजन का कार्य काफी पिछड़ा हुआ है। सरकारी तंत्र की निष्क्रियता, भ्रष्टाचार व राजनैतिक दबाव तो मुख्य कारण है ही, एक और विवशता भी है। अधिकांशतः यह कार्य नगरों की स्वायत्तशासी संस्थाओं को सौंप दिया जाता है। उनका उत्तरदायित्व भी है कि नगर का नियमन देखते रहें व अनियमितता को तुरन्त रोके, परन्तु प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत सौंपी गयी सत्ता के अधिकार नगरपालिका के अध्यक्ष व नगर निगम के मेयर एवं उनके सभासद साथी, जिस जनता को वोट लेकर इन उच्च पदों पर पहुंचे हैं, उसी जनता के अनियमित कार्यों को तुड़वा सकें। इसका वे साहस नहीं बटोर पाते उन्हें फिर चुनाव लड़ने पड़ते हैं, फिर उसी जनता के दरवाजे पर वोट माँगने जाना है, उसी समाज में रहना है, जिन्दगी उन्हीं के बीच में काटनी है, कैसे उनके अनियमित निर्माण को रोक पायेंगे या तोड़ पायेंगे? फिर विरोध का सामना करने के लिए उनकी सुरक्षा का भी क्या इंतजाम है आदि।
नगर नियोजन का महत्व
औद्योगीकरण के कारण नगरीकरण को बल मिलता है। इससे अनेक आर्थिक तथा सांस्कृतिक समस्याओं का जन्म होता है। इसमें प्रमुख समस्यायें हैं पेयजल की व्यवस्था, यातायात के साधनों की व्यवस्था, आवास तथा सफाई की व्यवस्था आदि। इन सभी से सम्बन्धित क्रियाओं में समन्वय आवश्यक होता है। इस प्रकार के समन्वय को प्राप्त करना ही नगर नियोजन का उद्देश्य तथा महत्व है। ऐसा अनुमान है कि भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया में और अधिक वृद्धि होगी। तदनुसार नगर की समस्याओं में और अधिक वृद्धि होगी। 1961 की जनगणना के अनुसार केवल 18 प्रतिशत व्यक्ति नगरों में निवास करते थे। 1981 तक ऐसी आशा की जाती थी कि 23 प्रतिशत व्यक्ति नगरों में निवास करने लगे थे। इससे स्पष्ट होता है कि नगर की समस्याओं में वृद्धि होगी। यदि नगरों का विकास अव्यवस्थित रूप से होता रहा तो नागरिक समस्याओं में और अधिक वृद्धि होगी। अतः नगर नियोजन की विशेष आवश्यकता है। इससे नगर के विकास को एक वांछित दिया दी जा सकती है।
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