अर्थशास्त्र

नगद मजदूरी एवं असल मजदूरी | असल मजदूरी और वास्तविक मजदूरी में अन्तर | वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले तत्व

नगद मजदूरी एवं असल मजदूरी | असल मजदूरी और वास्तविक मजदूरी में अन्तर | वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले तत्व

नगद मजदूरी एवं असल मजदूरी-

‘नगद मजदूरी’ से अभिप्राय उस मजदूरी का है, जो श्रमिक को द्रव्य के रूप में मिलती है। इसके विपरीत, ‘असल मजदूरी’ से आशय उस कुल क्रय-शक्ति का है जो किसी श्रमिक को अपने व्यवसाय से प्राप्त होती है। प्रो. टॉमस के शब्दों में “वास्तविक मजदूरी से आशय मजदूर को व्यवसाय से प्राप्त शुद्ध लाभों का है। अर्थात उन आवश्यक, आराम एवं विलास सम्बन्धी वस्तुओं की मात्रा का है, जो कि उसे सेवाओं के बदले में प्राप्त होती है।”

असल मजदूरी और वास्तविक मजदूरी में अन्तर-

‘वास्तविक’ तथा ‘नगद’ मजदूरी का अन्तर स्पष्ट है। यदि किसी एक श्रमिक की मजदूरी 100 रुपया प्रति महीना है तथा दूसरे की 70 रुपया प्रति महीना तथा साथ ही यदि उसे निःशुल्क चिकित्सा, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की सुविधा आदि प्राप्त है, तो हम कहेंगे कि पहले श्रमिक की ‘नगद’ मजदूरी अधिक है जबकि दूसरे की ‘वास्तविक’ मजदूरी अधिक है, क्योंकि पहले व्यक्ति की मजदूरी का एक बड़ा भाग बच्चों की पढ़ाई, मकान का किराया तथा डाक्टर आदि की फीस इत्यादि में चला जायेगा जबकि दूसरे को इस पर कुछ भी व्यय नहीं करना पड़ता। एडम स्मिथ ने कहा है, ” श्रम वास्तविक मजदूरी आवश्यक एवं आराम सम्बन्धी वस्तुओं की वह मात्रा है जो कि उसके द्वारा प्राप्त की जाती है किन्तु नगद मजदूरी प्राप्त होने वाले द्रव्य की मात्रा है। एक मजदूर खुशहाल है या नहीं, इसे जानने के लिए उसकी वास्तविक मजदूरी पर ध्यान देना चाहिए, न कि नगद मजदूरी पर।”

द्राव्यिक मजदूरी और वास्तविक मजदूरी सदा एक दिशा में नहीं चलती अर्थात ऐसा हो सकता है कि द्राव्यिक मजदूरी तो बढ़े किन्तु वास्तविक मजदूरी घटे या विषमता तब देखने में आती है जबकि वस्तु-कीमतें द्राव्यिक मजदूरी की अपेक्षा अधिक तेजी से बढ़ती है।

उदाहरणार्थ, भारत में आजकल नगद मजदूरी तो ऊँची है लेकिन मजदूरी नीची। इसका कारण यह है कि मजदूर में वृद्धि कीमतों में हुई वृद्धि के अनुपात से कम है। यही कारण है कि लोग कहते सुने जाते हैं कि सन 1948 में 100 रुपये से जितनी वस्तुएँ एवं सेवाएँ प्राप्त की जा सकती थीं उतनी आज 1, 000 रुपये में भी नहीं की जा सकीं। अत: एक व्यक्ति जिसे 1948 में 100 रुपये मिलते थे, वह सन 2001 में 1, 000 रुपये मिलने पर भी उतना प्रसन्न एवं सन्तुष्ट नहीं है। यदि उनका पारितोषिक 10 गुना हुआ है, तो मूल्य उससे भी 15-16 गुने हो गये हैं। अत: उसका जीवन यापन व्यय बढ़ गया और रहन-सहन में गिरावट हुई।

वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले तत्व-

वास्तविक मजदूरी को निम्नलिखित तत्व निर्धारित करते हैं-

  1. द्रव्य की क्रय शक्ति- एक छोटे शहर में बहुत बड़े शहर की अपेक्षा वस्तुएँ और सेवाएँ प्रायः कम मूल्य पर क्रय की जा सकती हैं या उसी द्रव्य के बदले अधिक मात्रा में प्राप्त की जा सकती हैं। अतः वहाँ वास्तविक मजदूरी अधिक होती है।
  2. कार्य का स्वभाव- कुछ कार्य कठिन होते हैं (जैसे-कोयला खान में मजदूरी का कार्य,जबकि कुछ कार्य सरल (कारखाने में मजदूरी का कार्य)। कुछ व्यवसायों में कार्य दशाएँ (जैसे-कार्य घण्टे, छुटिटयाँ) अन्य व्यवसायों से श्रेष्ठ होती हैं (जैसे-आफिस क्लर्क की अपेक्षा बैंक क्लर्क का कार्य)। इसी प्रकार कुछ व्यवसायों में नियमित रोजगार प्राप्त होता है (जैसे वस्त्र मिलों में)। किन्तु कुछ में अनियमित रूप से रोजगार मिल पाता है (जैसे-चीनी मिलों में) स्पष्ट है कि सरल, श्रेष्ठ कार्य दशाओं व नियमित रूप से रोजगार प्रदान करने वाले व्यवसायों की वास्तविक मजदूरी कठिन, खराब कार्यदशाओं व अनियमित रोजगार वाले व्यवसायों की अपेक्षा अधिक होगी।
  3. व्यावसायिक व्यय- कुछ व्यवसायों में कार्य करने वाले व्यक्तियों को अपनी कार्य कुशलता का स्तर बनाये रखने के लिए कुछ व्यय करने होते हैं, जैसे कि एक प्रोफेसर को नवीनतम साहित्य क्रय करना पड़ता है ताकि वह अपने ज्ञान को अद्यतन रख सके। वास्तविक मजदूरी की गणना के लिए इस व्यय को घटना आवश्यक है।
  4. सामाजिक प्रतिष्ठा- अन्य बातें समान रहते हुए उन व्यवसाय में संलग्न व्यक्तियों की वास्तविक मजदूरी अधिक होती है जिनको समाज में आदर की दृष्टि से देखा जाता है, भले ही उनमें नगद मजदूरी कम मिले।
  5. कार्य के घण्टे, अवकाश एवं अन्य दशाएँ- जिन व्यवसायों में लम्बे घण्टों तक कार्य करना पड़ता है या कम छुट्टियाँ मिलती हैं या आश्रितों को काम मिलने के अवसर नहीं हैं उनमें नगद मजदूरी अधिक होते हुए भी वास्तविक मजदूरी उन व्यवसायों की अपेक्षा कम मानी जायेगी जिनमें कि कार्य के घण्टे कम हैं या पर्याप्त अवकाश मिलता है या आश्रितों को काम मिलने का अवसर होता है।
  6. उज्जवल भविष्य- अन्य बातें समान रहते हुए उन व्यवसाय में संलग्न व्यक्तियों की वास्तविक मजदूरी अधिक होती है जिनको समाज में आदर की दृष्टि से देखा जाता है, भले ही उनमें नगद मजदूरी कम मिले।
  7. प्रशिक्षण काल एवं व्यय-कुछ व्यवसायों में कार्य करने के लिए लम्बी अवधि तक प्रशिक्षण लेना पड़ता है और बहुत व्यय होता है, जैसे कि डाक्टर, अध्यापक, इंजीनियर इत्यादि के व्यवसाय। इनमें वास्तविक मजदूरी की गणना करते समय अन्य बातों के साथ-साथ प्रशिक्षण अवधि तक के व्यय को भी दृष्टिगत रखना चाहिए।
  8. बिना भुगतान के अतिरिक्त कार्य (बेगार)- कुछ व्यक्तियों को (जैसे-सरकारी कार्यालय के चपरासियों को) अपने नियमित कार्य-घण्टों के अलावा एक-दो घण्टे (सरकारी अफसरों के घर पर) बेगारी करनी पड़ती है, जिसके फलस्वरूप उसकी वास्तविक मजदूरी कम हो जाती है।
  9. अतिरिक्त सुविधाएँ- कुछ व्यवसायों में श्रमिक को नगद मजदूरी के अतिरिक्त निःशुल्क डाक्टरी सेवा, सस्ते राशन इत्यादि की सुविधाएँ भी प्राप्त होती हैं। स्पष्ट है कि उसकी वास्तविक मजदूरी अधिक होगी, अपेक्षाकृत उन श्रमिकों के जिनको समान नगद मजदूरी मिलती है लेकिन अतिरिक्त सुविधाएँ कुछ भी नहीं।
  10. अतिरिक्त आय- कुछ व्यक्तियों को अन्य स्रोतों से आय प्राप्ति करने का अवसर रहता है, जैसे-अध्यापक को मासिक वेतन के अतिरिक्त टयूशन पढ़ा कर आय बढ़ाने का मौका मिलता है। वास्तविक मजदूरी को ज्ञात करने हेतु इसके अतिरिक्त आय को भी ध्यान रखना चाहिए।
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Pankaja Singh

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