इतिहास

मुगल शासकों के प्रान्तीय प्रशासन | मुगल शासकों के प्रान्तीय प्रशासन का आलोचनात्मक वर्णन

मुगल शासकों के प्रान्तीय प्रशासन | मुगल शासकों के प्रान्तीय प्रशासन का आलोचनात्मक वर्णन

मुगल शासकों के प्रान्तीय प्रशासन

बाबर तथा हुमायूँ ने अपने पूर्ववर्ती शासकों की प्रांतीय प्रशासनिक व्यवस्था में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया। प्रशासन के लिए साम्राज्य तीन भागों में बँटा हुआ था- (1) नियमित सरकार तथा जमींदारियाँ (2) ऐसे सरदारों के राज्य और जमींदारियां, जिन्होंने मुगल सम्राट की सत्ता को स्वीकार कर लिया था। वे निश्चित कर देते थे और इसके एवज में उन्हें आंतरिक स्वतंत्रता प्राप्त थी (3) धर्मार्थ, पुण्यार्थ, शिक्षणार्थ गुजारे के लिए संस्थाओं तथा व्यक्तियों को दान में दी गई भूमि जिसे सयूरगाल कहा जाता था।

मुगल साम्राज्य के प्रांत

मध्ययुग में प्रांतीय शासन को सुचारू रूप से संगठित करने का श्रेय अकबर को है। राज्यारोहण के प्रारम्भिक उन्नीस वर्षों में वह राजनीतिक कार्यों में इतना व्यस्त रहा कि इस तरफ उसका ध्यान नहीं गया। 1575 में उसने साम्राज्य की खालसा भूमि को एक करोड़ मालगुजारी की आय के 182 क्षेत्रों में विभाजित किया। यह प्रयोग सफल न हो सका । 1580 में साम्राज्य को सूबों में विभाजित करने का निर्णय हुआ। अबुल फजल आईन-ए-अकबरी’ में लिखता है कि सम्राट ने साम्राज्य को 12 भागों में विभाजित कर दिया और प्रत्येक को सूबा कहा गया। ये 12 सूबे (1) इलाहाबाद (2) आगरा (3) अवध (4) अजमेर (5) अहमदाबाद (6) बिहार (7) बंगाल (8) दिल्ली (9) काबुल (10) लाहौर (11) मुल्तान और (12) मालवा थे। बाद में बरार खानदेश और अहमदनगर की विजय के पश्चात् तीन सूबे और बढ़ गए। कांधार और कश्मीर, थट्टा तथा उड़ीसा विजय के पश्चात् अकबर ने अलग सूबे नहीं बनाए उसने कांधार को काबुल के सूबे में तथा थट्टा को मुल्तान के सूबे में मिला दिया। इसी तरह उड़ीसा को बंगाल के सूबे में मिला दिया गया। इस तरह उसके शासन के अंत में उसका साम्राज्य पंद्रह सूबों में विभाजित था।

जहाँगीर कांगड़ा विजय कर उसे लाहौर के सूबे में मिला दिया। उसके समय में भी पंद्रह सूबे रहे। शाहजहाँ ने थट्टा, उड़ीसा और काश्मीर स्वतंत्र सूबे बना दिये जिससे उसके काल में सूबों की संख्या अठारह हो गई। औरंगजेब ने गोलकुंडा और बीजापुर को जीतकर दो नए प्रांत बनाए। उसके राज्य के अंत में प्रांतों की संख्या सुविधानुसार दक्षिण के चार सूबों का एक शासक नियुक्त किया जाता था, जो सम्राट का पुत्र होता था।

इन सूत्रों का क्षेत्रफल स्थाई नहीं था। शासनीय आवश्यकता के अनुसार एक सूबे की सरकार या भू-भाग को दूसरे सूबे में हस्तांतरित कर दिया जाता था। उसके राजस्व, क्षेत्रफल में भी अंतर रहता था। ऐसे तो सब सूबे बराबर थे किन्तु सुरक्षा तथा शासकीय आवश्यकता के कारण कुछ सूवे अन्य सूबों से अधिक महत्वपूर्ण थे।

प्रांतीय शासन का संगठन

मुगलों का प्रांतीय शासन, केंद्रीय शासन का प्रतिरूप था। अबुल फजल के अनुसार अपने शासन के 24 वें वर्ष अपने साम्राज्य को 12 प्रांतों में विभक्त करने के समय अकबर ने प्रत्येक सूबे में एक सिपहसालार, एक दीवान, एक बख्शी, एक मीर-अदल, एक सद्र, एक कोतवाल, एक मीर-ए-बहर तथा एक बाकियानवीस नियुक्त किया। डॉ० परमात्माशरण का विचार है कि मीर-अदुल शब्द का प्रयोग प्रमुख काजी के लिए किया गया है। इसके विपरीत डॉ० कुरैशी का मत है कि सद्र तथा प्रांतीय काजी एक ही व्यक्ति था। डॉ. कुरैशी का मत सही है। इन अधिकारियों के अतिरिक्त समय तथा आवश्यकतानुसार अमीन, देसाई तथा अन्य अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी।

सूबेदार

अकबर के काल में प्रांतीय शासन के मुख्य अधिकारी को सरकारी तौर पर सिपहसालार तथा उसके उत्तराधिकारियों के काल में ‘नाजिम या नाजिम-ए-सूबा’ कहा जाने लगा। नाजिम का शाब्दिक अर्थ है व्यवस्थापक या मुंतजिम । जनसाधारण में वह सूबेदार, सूबा साहब या केवल सूबा के नाम से जाना जाता था।

सूबेदार की नियुक्ति सम्राट के शाही फरमान द्वारा होती थी। इस पद पर साधारणतया योग्यता संपन्न, अनुभवी तथा सम्राट के विश्वासपात्र व्यक्ति नियुक्त किये जाते थे। डा० परमात्माशरण के अनुसार सामान्यतः योग्यता ही नियुक्तियों का एकमात्र मान्य सिद्धान्त था और ये नियुक्तियाँ सदा ही संपूर्ण बात से सम्राटों की गहरी जानकारी और समझदारी पर प्रशंसनीय प्रकाश पड़ता है। युवा राजकुमार तथा उच्च उमरावों के अल्पायु पुत्र भी इस पद पर नियुक्त किये जाते थे। ऐसी अवस्था में उनके परामर्श के लिए एक योग्य तथा अनुभवी व्यक्ति को अतालीक (परामर्शदाता) नियुक्त किया जाता था। सूबेदार को आदेश थे कि वह अतालीक के परामर्श से कार्य करें। अल्पायु या बुद्धि के सूबेदारों के लिए अतालीक वास्तविक सूबेदार का कार्य करता था। कभी-कभी सूबेदार की सहायता के लिए परामर्शदात्री समिति भी बना दी जाती थी।

सूबेदार के पद की कोई निश्चित अवधि नहीं थी। बहुत कुछ प्रशासनिक आवश्यकता एवं सम्राट की इच्छा पर निर्भर करता था। एक व्यक्ति को एक सूबे में तीन वर्ष से अधिक सूबेदार नहीं रहने दिया जाता था।

सूबेदार के अधिकार एवं कार्य- सूबेदार प्रांत में सम्राट का प्रतिनिधि था। प्रांत में शांति एवं सुव्यवस्था स्थापित करना उसका प्रमुख कर्त्तव्य था। वह प्रांत के अन्य कर्मचारियों को सुरक्षा प्रदान करता था एवं उनके कार्य संपादन करने में उनकी सहायता करता था। शाही फरमानों में दिए गए निर्देशों तथा राजकीय नियमों को प्रांत में लागू कराने का उत्तरदायित्व उसी के ऊपर था।

अकबर कालीन फरमान में कहा है- ‘अपने कार्य में उन्हें अपने से बुद्धिमान लोगों से परामर्श लेना चाहिए। यदि बुद्धिमान उपलब्ध न हों तो अन्य लोगों से परामर्श कर लें क्योंकि कभी-कभी जो काम बुद्धिमान नहीं कर पाते निरक्षर कर देते हैं। अपने प्रशासनिक कार्यों में उसे सद्व्यवहार द्वारा सभी वर्गों के लोगों को प्रसन्न रखने तथा इस पर ध्यान देने के आदेश थे कि सबल निर्बलों को उत्पीडित न करें।

अपने प्रांत में सूबेदार बहुत से कर्मचारियों को नियुक्त एवं पदोन्नति करता एवं उच्च, अधिकारियों के लिए केन्द्र को अपनी संस्तुति भेजता था। इस संबंध में उसे निर्देश थे कि वह केवल योग्य, विश्वसनीय एवं वफादार व्यक्तियों को नियुक्त करें तथा उनके पदोन्नति की संस्तुति करें।

उसे निर्दोश थे कि वह एक जासूस पर निर्भर न करें तथा कई जासूस रखे। जिसकी सूचना गलत हो उसे दण्डित करें। इनकी सूचनाओं का चतुराई से उपयोग करना चाहिए। जिससे अत्याचारी सरकारी अधिकारियों के लुटेरेपन, डाकुओं की निर्दयता तथा अपने मित्रों और संबंधियों से, जो अपने पद और हैसियत से लाभ उठाकर अनुचित बर्ताव कर सकते थे, प्रजा को बचाया जा सके। प्राप्त सूचना के अधार पर वह प्रांत का समाचार महीने में दो बार डाक चौकी द्वारा केन्द्र में भेजता था।

सूबेदार प्रांत के सैनिकों का संचालन और निरीक्षण भी करता था। उसे निर्देश था कि वह फिजूलखर्ची तथा अपव्ययी होने से रोके। सिपाहियों को निर्देश दे कि वे व्यायाम करके शरीर को ठीक रखें । सूबेदार के महत्वपूर्ण कार्यों में न्याय प्रशासन भी था। उसे निर्देश दिए गए थे कि मुकदमे का यथाशीघ्र निर्णय करें एवं विलम्बकारी तरीकों से जनता को परेशान न करे। केवल गवाहों एवं शपों पर निर्भर न कर उसे स्वयं जोचकर तथ्य पर पहुँचना चाहिए। दंड देने में उसे नरम और क्षमाशील होने की सलाह दी गई थी। दंड देते समय भिन्न-भिन्न स्तर के लोगों में विभेद करना चाहिए। क्योंकि छोटी सी ताड़ना एक प्रतिष्ठित सज्जन पर, एक निम्नकोटि के व्यक्ति अथवा अभ्यस्त अपराधी को भयंकर ताड़ना की अपेक्षा अधिक प्रभाव डालेगी।

न्यायाधीश के रूप में नाजिम के प्रारम्भिक एवं अपीलीय दोनों अधिकार थे। प्रारंभिक मुकदमे में वह अकेला निर्णय करता था। निम्न स्तर की अदालतों से आए अपील के मुकदमे का निर्णय सूबेदार तथा प्रांतीय काजी मिलकर करते थे। प्रांतीय दीवान तथा काजी के मुकदमों का भी अपील उसकी अदालत में आती थी। मृत्युदंड देने का उसे अधिकार था। ऐसे मुकदमे वह केद्रीय न्यायालय को भेजता था। यदि उस समय अपराधी विद्रोह करे तो उसे मृत्यु दंड देने की अनुमति थी।

प्रांतीय दीवान- प्रांत में सूबेदार के पश्चात् दीवान का पद था। इसे दीवान-ए-सूबा भी कहा जाता था। यह केन्द्रीय राजत्व विभाग का प्रांत में प्रतिनिधि था। इस पद का विकास अकबर के शासन में हुआ। उसके शासन के अंत तक दीवान प्रांत का प्रभावशाली तथा सिपहसालार (सूबेदार) से एक स्वतंत्र अधिकारी बन गया।

प्रांतीय दीवान की नियुक्ति सम्राट दीवान-ए-आला की संस्तुति पर करता था। दीवान-ए-आला चुने हुए व्यक्ति की योग्यता की लिखित रपट अपनी संस्तुति के साथ समाट के सम्मुख पेश करता था । दीवान-ए-सूवा प्रांतीय वित्त विभाग का अध्यक्ष था। राजस्व विभाग के सभी कर्मचारी उसके अधीन कार्य करते थे। दस्तुरुल अमल (शासनीय मैनुअल) के अनुसार उसके प्रमुख कार्य निम्नलिखित थे-

(1) खालसा महलों की मालगुजारी वसूल करना।

(2) वसूली और बकाया का हिसाब-किताब रखना।

(3) धर्मादा (मदद-ए-माश) के लिए दी हुई जमीनों का पर्यवेक्षण।

(4) प्रांत के अधिकारियों को उनके कार्य के अनुसार वेतन निश्चित करना एवं वितरण करना।

(5) खालसा सरकारों में शाही सनदों द्वारा वितरित जागीरों के वित्तीय प्रबंध की देखरेख करना।

(6) कृषि की उन्नति को प्रोत्साहन देना।

(7) कोषागारों पर कड़ी निगरानी रखना, जिससे कोई व्यक्ति बिना प्रमाणित आज्ञापत्र के रुपया न निकाल सके।

(8) यह देखना कि कोई व्यक्ति अवबाब न वसूल करे।

(9) आमिलों के कार्यों और हिसाब किताब की कही जाँच पड़ताल एवं भ्राट अमिलों को बर्खास्त करने की संस्तुति करना।

(10) बकाया लगान तथा तकामी की वसूली करना।

(11) विभिन्न विभागों के बजट तथा व्यय पर नियंत्रण रखना।

(12) प्रांत के टकसाल की देखरेख करना।

प्रांतीय दीवान न्यायिक कार्य भी करता था। वह न्यायाधीश के रूप में राजस्व संबंधी मुकदमे का निर्णय करता था। सरकार तथा परगनों के राजस्व संबंधी मुदर्मों के लिए वह अपीलीय न्यायालय का कार्य करता था। इसके निर्णयों की अपील केन्द्र के दीवान-ए-आला के सम्मुख की जा सकती थी। प्रांत में दो समानान्तर और एक-दूसरे से स्वतंत्र संगठन थे। दीवान प्रांतीय राजस्व का अधिकारी था और वह केन्द्र के मुख्य दीवान के निर्देशन में कार्य करता था। प्रांत के राजस्व कर्मचारी अमजलगुजार में लेकर पटवारी और पटेल तक दीवान सिपहसालार के अधीन थे। इस तरह प्रांतीय प्रशासन में द्वैध शासन था। इसका प्रमुख उद्देश्य दोनों प्रांतीय अधिकारियों को संतुलित रखना था। कभी-कभी दोनों में मतभेद भी हो जाता था। ऐसे में दोनों को स्थानांतरित कर दिया जाता था। पद और हैसियत में दीवान सिपाहसालार (सूबेदार) के बराबर न था। साधारणतया उच्च मनसबदार या राजकुमार ही सूबेदार होता था। इससे सम्राट के साथ उसका निकट संपर्क रहता था। यह कार्यकारिणी का अध्यक्ष तथा सम्राट का प्रतिनिधि होता था। इससे प्रजा की दृष्टि में उसकी प्रतिष्ठा दीवान से अधिक थी।

प्रांतीय सद्र- केन्द्र के सद्र-अस-सुदूर की संस्तुति पर सम्राट प्रत्येक प्रांत में एक सद्र की नियुक्ति करता था। वह सद् अस-सुदूर के अधीन कार्य करता था। इसके कार्यकाल की निश्चित अवधि नहीं थी। इसका स्थानान्तरण सम्राट की आज्ञा से होता था। प्रांतीय सद्र अपने क्षेत्र में इस्लाम धर्म के हित के लिए उत्तरदायी था। इस संदर्भ में प्रमुख कार्य धार्मिक शैक्षणिक अनुदान तथा भूमि (मद्म-ए-माश तथा आयमा) अनुदानों का वितरण था। यह दान हिंदुओं तथा मुसलमानों दोनों को दिया जाता था। अकबर ने उनके यह अधिकार कम कर दिये थे।प्रांतीय सद् अपने प्रांत के योग्य व्यक्तियों को वजीफा या सेयूरगाल दिए जाने की संस्तुति प्रमुख सर से करता था। वह अपने पास प्रांत के विद्वानों एवं धार्मिक व्यक्तियों की सूची भी रखता एवं उनसे सम्पर्क रखता था। औरंगजेब के काल में उसकी धार्मिक नीति के परिवर्तन के कारण सद्र की शक्ति बढ़ गई थी। कभी-कभी प्रांतीय सद् तथा काजी-ए-एक ही व्यक्ति को नियुक्त कर दिया जाता था। इससे सद्र को न्यायिक अधिकार प्राप्त हो जाते थे।

काजी-ए-सूबा- प्रांत में प्रमुख न्यायिक अधिकारी काजी-ए-सूबा था। उसकी नियुक्ति सम्राट काजी-उल-कुजारा की संस्तुति पर करता था। उसे दीवानी तथा फौजदारी दोनों तरह के मुकदमों का फैसला करने का अधिकार था। वह मुसलमानों के वैवाहिक तथा संपत्ति संबंधी मुकदमों का भी फैसला करता था । न्यायिक कार्य में उसकी सहायता मौर अदल मुफ्ती काजी, मुहतसिन दरोगा-ए-अदालत करते थे । काजी-ए-सरकार की नियुक्ति काजी-ए-सूबा की संस्तुति पर होती थी।

मीर अदल- मीर अदल का पद भारत की विशेषता है। ईरान, मिस अथवा तुर्कों के समकालीन न्यायपालिकाओं तथा दिल्ली सल्तनत काल में इस अधिकारी का उल्लेख नहीं है। यह अधिकारी प्रथम बार अकबर के काल में नियुक्त हुआ था। कालांतर में यह मुगल न्यायपालिका का अंग बना रहा । प्रारंभिक काल में मीर-ए-अदल के कार्य स्पष्ट नहीं है किन्तु औरंगजेब की एक आज्ञाप्ति में मीर अदल से कहा गया है कि जो कुछ भी अदालत में पहुंचे उसे उसकी पूरी जाँच पड़ताल करनी चाहिए। जांच-पड़ताल के पश्चात् वह स्वयं निर्णय कर दे, अथवा उसकी रपट काजी को दे जिसके आधार पर वह मुकदमे का फैसला करेगा। इससे ऐसा लगता है कि कि मीर-ए-अदल तो की छानबीन कर काजी के सम्मुख रखता था जिसके आधार पर वह निर्णय करता था। गोर अदल सद तथा काजी अलग-अलग अधिकारी थे किंतु एक अधिकारी को कभी-कभी दूसरे का कार्य भी दे दिया जाता था।

प्रांतीय बख्शी तथा वाकियानवीस- केंद्रीय शासन की भांति प्रांतों में एक बख्शी था। इसकी नियुक्ति केंद्रीय बख्शी की संस्तुति पर सम्राट द्वारा होती थी। इसके नियुक्ति पत्र पर मीरबख्शी की मुहर होती थी। बख्शी का प्रमुख कार्य प्रांतीय सेना का अनुरक्षण था। सेना की भर्ती उनकी आवश्यकताओं एवं साज-सज्जा की पूर्ति घोड़ों के दाग तथा अनुशासन संबंधी नियम का विमोचन (लागू करना) उसका उत्तदायित्व था। वह प्रांत के मनसबदारों की सूची रखता। उनके सैनिकों घोड़ो, पशुओं का वार्षिक निरीक्षण कर वह उन्हें मनसब की शर्तों के पूरी होने का प्रमाणपत्र देता था। इसी आधार पर उन्हें प्रांतीय दीवान द्वारा वेतन प्राप्त होता था।

बख्शी प्रांत का वाकियानवीस’ भी था। इससे वह सम्राट के प्रांत की सभी महत्वपूर्ण घटनाओं को सूचना देता था। मालगुजारी को वसूली सैनिक अभियान, सूबे की शांति सुव्यवस्था, व्यापारियों की सुरक्षा इत्यादि सभी बातों की सूचना गुप्तचरों तथा अन्य साधनों से प्राप्त कर वह केन्द्र को भेजता था। बख्शी राजसी अधिकारियों के कार्यों के विषय में भी केन्द्र को सूचना देता रहता था। इस कार्य में वह नाजिम (सूबेदार) से स्वतंत्र सेना के लिए एक अलग गुप्तचर संगठन था। गुप्तचरों का ऐसा प्रबंध था कि यदि बख्शी कोई सूचना छिपा दे तो उसका पता सम्राट को चल जाता था और संबंधित बख्शो दंडित किया जाता था। इस समानांतर गुप्तचर विभाग से केवल बख्शी ही नहीं वरन् प्रांतीय शासन के समस्त अधिकारियों पर अंकुश रहता था।

प्रांतीय मीरबहर– प्रांत के जलमार्ग (नावराह) के अनुरक्षण के लिए मीरवहर की नियुक्ति होती थी। इसका कार्य नदियों के घाटों, पुलों का निर्माण, बंदगाहों आदि की देखभाल करना था।

कोतवाल- दिल्ली सल्तनतकाल में कोतवाल मुख्यतया पुलिस अधिकारी था जिसका कार्य नगर तथा निकटवर्ती भागों की सुरक्षा थी। रात को नगर की गश्त लगाना मार्गों की सुरक्षा नागरिकों तथा बाहर से आने वालों की सूची रखना उसका प्रमुख कार्य था। मुगल काल में साम्राज्य तथा प्रांत की राजधानी का प्रमुख अधिकारी कोतवाल कहलाता था। वह मुख्यतया नगर को पुलिस का प्रधान था। नगर की सुव्यवस्था, सुरक्षा और शांति के अतिरिक्त राजाज्ञाओं का पालन कराना भी उसका कार्य था। अबुल फजल के अनुसार इस पद के लिए उपयुक्त व्यक्ति वही हो सकता है जो शक्तिशाली, अनुभवी, क्रियाशील, विचारवान, धैर्ययुक्त, कुशल और उदार हो।

आईन-ए-अकबरी के अनुसार उसे ऐसे आदेश जारी कराने का निर्देश था जिससे निर्धारित कर के अतिरिक्त किसी वस्तु पर कर या अववाब न लगाए जाएं पुराने सिक्के गला डाले जाएं अथवा कोष में जमा कर दिए जाएं, बेकार व्यक्तियों को दस्तकारी में लगा दिया जाए। बाजार का मूल्य नियंत्रण, बांटो तथा नाप का परीक्षण, पुरुषों एवं स्त्रियों के लिए अलग-अलग पायें में और कुओं की व्यवस्था, सार्वजनिक जलमार्गों के प्रबंध के लिए सम्माननीय व्यक्तियों को नियुक्ति भी उसका कर्त्तव्य था। ऐसे मरे हुए तथा लापता व्यक्तियों की जिनका कोई उत्तराधिकारी नहीं होता, संपत्ति की सूची बनाकर वह उसे सुरक्षित रखता । बाद में वह उसके उत्तराधिकारी को दे दी जाती थी। यदि संपत्ति का कोई दावेदार नहीं होता तो वह राजसी कोष में जमा कर दी जाती थी।

कोतवाल की कचहरी को चबूतरा कहा जाता था। इटालियन यात्री मनूची कोतवाल को संपूर्ण नगर का शासन करने वाला प्रमुख दंडाधिकारी कहता है। नगर क्षेत्र में पकड़ा जाने वाला अपराधी कोतवाल के सम्मुख उपस्थित किया जाता था। वह प्रारंभिक जांच-पड़ताल करने के पश्चात् उसके संबंध में आवश्यक कार्यवाही करता था। औरंगजेब-कालीन एक फरमान में कोतवाल को निर्देश दिया गया है कि वह स्वयं प्रत्येक व्यक्ति के मुकदमे की जांच करे एवं उसे अपराधी पाने पर दंडित करे अथवा निरपराध होने पर छोड़ दे। शरीअत संबंधी अपराध होने पर उसे काजी के कचहरी में एवं राजस्व के मामले में सूबेदार या दीवान की अदालत में भेज दे। टेवर्नियर का कहना है कि, कोतवाल का दफ्तर एक प्रकार की चौकी थी। जहाँ दंडाधिकारी उस स्थान के विवादों पर न्याय करते थे। पेलसार्ट कहता है कि ‘तलाक, लड़ाई-झगड़े, धमकी आदि के मामूली मामले कोतवाल और काजी के हाथों में थे। थेवैनो स्पष्ट लिखता है कि फौजदारी के मुकदमे कोतवाल के न्यायाधीन थे। यदि किसी को उसके विरुद्ध शिकायत होती तो काजी की कचहरी में मुकदमा पेश हो सकता था। यदि काजी किसी को जेल का दंड देता तो वह उसकी आज्ञा का पालन कर उसे जेल में रखता था।

मुगलकाल के कोतवाल के बहुत से वही अधिकार थे जो उन्नीसवीं सदी तथा आधुनिक काल के शहर कोतवाल तथा नगरपालिकाओं को प्राप्त हैं। मुगलकाल में शासक तथा उच्चवर्ग नगरों में रहते थे। इस तरह कोतवाल का उत्तरदायित्व बढ़ जाता था। दिल्ली तथा आगरा के कोतवालों का मुगल उमरावर्ग एवं शासन में महत्वपूर्ण स्थान था।

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Pankaja Singh

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