इतिहास

मुगल साम्राज्य के पतन का कारण औरंगजेब | Aurangzeb was the reason for the downfall of the Mughal Empire in Hindi

मुगल साम्राज्य के पतन का कारण औरंगजेब | Aurangzeb was the reason for the downfall of the Mughal Empire in Hindi

मुगल साम्राज्य के पतन का कारण औरंगजेब

बाबर द्वारा स्थापित मुगल साम्राज्य अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब के शासनकाल में प्रगति के पथ पर बढ़ता गया, किन्तु औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही विघटन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी। शाहजहाँ के शासनकाल में मुगल साम्राज्य अपने गौरव की चरम सीमा पर पहुंच चुका था, लेकिन लगभग एक सौ पचास वर्षों के गौरवपूर्ण अस्तित्व के पश्चात् मुगल साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर हुआ और कालान्तर में इसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया ।इसके पतन के निम्नलिखित कारण थे-

  1. मुगल सम्राट का दोषपूर्ण चरित्र- मुगलों को शासन व्यवस्था, सम्राट की व्यक्तिगत योग्यता उसके वैयक्तिक गुणों पर आधारित थी, इसलिए शासन-व्यवस्था की स्थिति तथा कार्य-क्षमता सम्राट के व्यक्तिगत चरित्र पर निर्भर थी। जब सम्राटों का चरित्र गिरना आरम्भ हो गया तब साम्राज्य की विश्रृंखलता का प्रारम्भ होना आवश्यक था। औरंगजेब के उत्तराधिकारी बहुत दुर्बल थे। उनमें वे गुण नहीं थे जो बाबर, अकबर, शाहजहाँ और औरंगजेब में थे। औरंगजेब का उत्तराधिकारी बहादुरशाह प्रथम एक असावधान सम्राट था जो साम्राज्य के प्रबन्ध में विशेष दिलचस्पी नहीं रखता था। उसका उत्तराधिकारी जहाँदारशाह राजनीति में सर्वथा अयोग्य था। फर्रुखसियर बहुत कायर और अयोग्य राजकुमार था और मुहम्मदशाह को ‘रंगीला’ होने का कलंक लगा हुआ था। अहमदशाह और उसके उत्तराधिकारी भी इनसे अच्छे नहीं थे। अतः औरंगजेब के उत्तराधिकारी सभी के सभी आलसी थे जिन्हें अपने कर्तव्यों की अपेक्षा अपने सुखों और विलासिता का अधिक ध्यान था। वे सदैव आलस्य और विलासिता में अनुरक्त रहते थे और साम्राज्य के कामों में तनिक भी दिलचस्पी नहीं लेते थे। वे अपने स्वार्थी तथा विवेकशून्य मत्रियों के हाथों को कठपुतलियाँ थे क्योंकि समस्त शासन-व्यवस्था सम्राट के व्यक्तिगत चरित्र पर निर्भर थी, इसलिए औरंगजेब के उत्तराधिकारियों के चरित्र की दुर्बलता से मुगल-साम्राज्य को बहुत बड़ा धक्का लगा।
  2. मुगल सरदारों की चरित्रहीनता- मुगल साम्राज्य के पतन का दूसरा कारण मुगल सुरदारों का चरित्रहीन होना भी था। अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के इतिहास-निर्माण में बैरम खाँ, मुनीम खाँ, मुजफ्फर खाँ और रहीम खानखाना, एतमादुद्दौला और महावत खाँ तथा आसफ खां और सादुल्ला खाँ थे, किन्तु बाद के मुगल सम्राटों की चरित्रहीनता के कारण उनके सरदारों के चरित्र का भी पतन हो गया। विदेशी मुसलमानों ने भारत का धन लूटकर खूब मौज किया था। अतः ये विलासी और आलसी बन गये थे और अनेक स्त्रियों के रखने के कारण उनका नैतिक पतन हो चुका था। सरदारों के जीवन में शराब, स्त्री, स्वार्थ, षड्यंत्र, पदलोलुपता आदि की प्रधानता थी। परिणामस्वरूप उनका शारीरिक, चारित्रिक और बौद्धिक हास्य हो रहा था। मुगल सम्राट के परिवार में शायद ही कोई ऐसा रह गया था जो अपने युग के गौरव को एक या दो पीढ़ी से अधिक रख सका था। यदि किसी अमीर अथवा सरदार के महत्वपूर्ण कार्यों का विवरण तीन पृष्ठों में लिखा जाता तो उसके बेटों के लिए एक ही पृष्ठ पर्याप्त था। मुगल सरदारों और अमीरों का पतन शाहजहाँ के समय में ही आरम्भ हो गया था; जब वे कन्धार तथा मध्य एशिया के अभियानों में असफल हो गये थे। औरंगजेब के समय में उनकी कायरता और भी स्पष्ट हो गयी जब वे मराठों, राजपूतों एवं सिक्खों के विरुद्ध लड़ने में असमर्थ रहे। सर यदुनाथ सरकार के विचारानुसार, मुगल अमीरों और सरदारों की मनसबदारी में निर्धारित जाब्ती प्रथा का मौलिक दोष मुगलों के राजनैतिक शरीर पर एक ऐसा भयानक रोग था जिसने मुगल साम्राज्य को अत्यधिक दुर्बल बना दिया जो अन्त में उसके पतन का कारण बना।”
  3. 3. दोषपूर्ण सैनिक संगठन- मुगल साम्राज्य के पतन का एक कारण मुगल सेना का हास्य और आध्यात्मिक पतन भी था। मुगलों का शासन सैनिक शक्ति पर निर्भर था, परन्तु मुगलों का सैनिक संगठन अत्यन्त ही दोषपूर्ण था। सम्राट का सैनिकों के साथ सीधा सम्पर्क नहीं था, अपितु वे मनसबदारों पर निर्भर करते थे। आवश्यकता पड़ने पर मनसबदार धोखा दे देते थे। इसके अतिरिक्त, मुगल सेना में अच्छे सैनिक मध्य एशिया से आते थे, जो बहुत ही लड़ाकू और बहादुर होते थे परन्तु औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगलों का इन देशों से कोई सम्बन्ध नहीं रहा, जिसके फलस्वरूप मुगल सेना में अच्छे सैनिकों की कमी हो गयी। भारत के धन, शराबखोरी और आराम ने मुगल सेना पर बहुत बुरा प्रभाव डाला। इस अवनति को रोकने के लिए प्रबन्ध नहीं किया गया। फलतः मुगल सेना अशक्त हो गयी थी। बल्ख और बदख्शां तथा कान्धार में शाहजहाँ के राजत्वकाल में मुगलों की असफलता से संसार में यह प्रसिद्ध हो गया था कि मुगल-सेना-यंत्र पुरुषत्वहीन हो गया है। नादिरशाह के जघन्य अत्याचार से मुगल-सैनिकों को दुर्बलता स्पष्ट हो गयो। मुगल-शासन का प्रमुख कार्य था आन्तरिक और बाहरी शान्ति बनाये रखना और राजस्व एकत्र करना। जब सरकार इन दोनों कार्यों में असफल रही तो प्रजा का उसके प्रति विश्वास उठ जाना कोई असाधारण बात नहीं थी।

इसके अतिरिक्त मुगल सेना का संगठन भी दोषपूर्ण था। उसमें तुर्क, अफगान, उजबेगी, पारसी, राजपूत, आदि विभिन्न जातियों के सैनिक सम्मिलित थे। उनका साम्राज्य के प्रति कोई विशेष अनुराग भी नहीं था। वे प्राय: अपने जातीय हितों के लिए साम्राज्य के हितों की अवहेलना कर देते थे।

  1. साम्राज्य का आर्थिक दीवालियापन- प्रत्येक साम्राज्य की सत्ता आर्थिक दृढ़ता पर निर्भर करती थी। आर्थिक दृष्टि से भी मुगल-साम्राज्य अत्यधिक दुर्बल हो गया था। अकबर ने जिस ठोस अर्थनीति का अनुसरण कर साम्राज्य की आर्थिक स्थिति सुधारी थी, वह खत्म हो गयी थी।

अकबर ने मुगल साम्राज्य की अर्थ-व्यवस्था को ठीक किया था। कृषि और व्यापार की उन्नति से राज्य समृद्ध हो गया था, किन्तु उसके बाद साम्राज्य का आर्थिक ढाँचा बिगड़ने लगा।

सरकार ने उत्पादकों पर कर का इतना बोझ लाद दिया था कि उससे वे बिलकुल दब गये थे। दरबार अनुपयोगी उत्पादों के इनाम में बहुत अधिक रुपया खर्च करने लगा था। अकबर के शासनकाल में भूमि का लगान किसानों से सीधा लिया जाता था, किन्तु उसके पुत्र और पौत्र के शासनकाल में यह पद्धति हटा दी गयी और औरंगजेब तथा उसके उत्तराधिकारियों के शासन-काल में तो यह प्रथा लगभग समाप्त कर इसके स्थान पर ठेकेदारी प्रथा जारी कर दी गयी थी। इसका परिणाम यह हुआ कि किसानों को लगान बहुत अधिक देना पड़ता था और उनके पास खाने-पहनने को बहुत कम रह जाता था। अतः किसानों में खेती करने के लिए कोई उत्साह बाकी न रह गया।

इसके अतिरिक्त शाहजहाँ ने सुन्दर इमारतों के निर्माण में तथा वैभव-प्रदर्शन करने के शौक में इतना अधिक धन खर्च किया कि राजयकोष खाली हो गया था। इस कमी को पूरा करने के लिए उसे भूमि-कर बढ़ाना पड़ा। किसान अधिक भूमि कर देने में असमर्थ थे और निर्दयी अफसरों तथा गवर्नरों ने उनकी विपत्ति और अधिक बढ़ा दी। दरबार का अपव्यय देश को रसातल की ओर ले जा रहा था। औरंगजेब तथा उसके उत्तराधिकारियों के समय में मुगल सरकार धीरे-धीरे दीवालिया होने लगी। औरंगजेब के दक्षिण-युद्धों ने साम्राज्य की अवस्था को और भी बिगाड़ दिया। शाहआलम द्वितीय के समय मुगल सरकार इतनी अधिक दीवालिया हो चुकी थी। कि “हरम की रसोई में तीन दिनों तक आग न जली और एक दिन जब शाहजादियाँ भूख को और अधिक बर्दाश्त कर न सकी तो पर्दे की कहर प्रथा को तोड़कर महल से निकलकर शहर की ओर भागीं, लेकिन किले के दरवाजे बन्द थे, इस कारण वे एक दिन और एक रात मर्दानखाने में बैठी रहीं जिसके पश्चात् कठिनाई से उन्हें अपने कमरे में जाने के लिए बाध्य किया गया।” आर्थिक सम्पन्नता के नष्ट हो जाने से मुगल-साम्राज्य खोखला हो गया था और उसका पतन स्वाभाविक था।

  1. उत्तराधिकार के नियम का अभाव- मुसलमानों में उत्तराधिकार के नियम का अभाव था। फलस्वरूप सिंहासन के लिए विद्रोह, षड्यंत्र आदि हुआ करते थे। इन विद्रोहों की परम्परा-सी बन गयी थी। हुमायूँ और अकबर के समय में भी विद्रोह हुए, पर जहाँगीर के काल से उत्तराधिकार के नियम के अभाव में गृहयुद्धों ने उम रूप धारण कर लिया था। जहाँगीर के काल में खुसरो और खुर्रम में विद्रोह हुए। शाहजहाँ के जीवन-काल में बड़े ही उग्र रूप में गृह युद्ध आरंभ हो गया था। काफी धन-जन की हानि के पश्चात् औरंगजेब शासक हुआ था। इस प्रकार के गृह-युद्धों ने मुगलों को सैनिक शक्ति का नाश कर दिया और दूसरी शक्तियों को आगे बढ़ने का अवसर मिल गया था। यही औरंगजेब के बाद हुआ। उसकी मृत्यु के बाद से जो निरन्तर उत्तराधिकार युद्ध आरम्भ हुए, उनसे न केवल मुगल साम्राज्य दुर्वल हुआ, बल्कि मुगल-सम्राट विभिन्न शक्तिशाली सरदारों के हाथों में कठपुतली बन गये। बहादुरशाह, जहाँदारशाह, फर्रुखसियार आदि युद्ध के बाद ही गद्दी पर बैठे थे। उत्तराधिकार का यह युद्ध बादशाह के सम्मान और साम्राज्य की सुरक्षा के लिए विनाशकारी सावित हुआ। बी० ए० स्मिथ ने लिखा है, “निरन्तर उत्तराधिकार युद्धों से जो अराजकता उत्पन्न हुई, वह निःसन्देह शाही ढाँचे को बर्बाद करने में सहायक थी।”
  2. स्वेच्छाचारी शासन- विदेशी लोग थे और भारत भूमि पर उनका एक विदेशी राज्य था। वे सब प्रकार से स्वेच्छाचारी शासक थे और अकबर को छोड़कर अन्य किसी भी मुगल सम्राट ने प्रजा के हित के लिए कोई भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं किया। अतः उनके राज्य को प्रजा की ओर से स्वतः प्राप्त होने वाली सार्वजनिक सहायता प्राप्त न हो सकी; उसकी नींव कच्ची रही। विदेशी होने के कारण वे प्रजा में न तो राष्ट्रीय भावनाओं को जगा सके और न ही उसे मुगल साम्राज्य की रक्षा के लिए प्रेरित कर सके। ऐसा साम्राज्य केवल सैन्य-शक्ति के आधार पर ही टिका रह सकता है। अतः जब तक मुगल सम्राट शक्तिशाली रहे, तब तक मुगल साम्राज्य भी ठीक रहा, परन्तु जब मुगल सम्राट दुर्बल हो गये और जब मुगल-सेना दुर्बल तथा अयोग्य सेनापतियों के हाथ में पड़ गयी तब मुगल साम्राज्य का पतन आवश्यक हो गया।
  3. दलबन्दी- मुगल साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण अमीरों और सामन्तों की दलबन्दी थी। सम्राट निकम्मे और मूर्ख थे, जो सामन्तों का पथ-प्रदर्शन नहीं कर सकते थे। सामन्त दो दलों में विभाजित थे। एक दल उन अमीरों का था जिनका जन्म भारत में हुआ था या जो यहाँ बहुत समय से रह रहे थे। अफगान, अमीर, सैयद भाई आदि इसी हिन्दुस्तानी या हिन्दू-मुस्लिम दल (Indo-Muslim Party) के थे। इस दल के सामन्त हिन्दू-मददगारों विशेषकर राजपूतों पर निर्भर थे। इसके विपरीत दूसरा दल विभिन्न जातियों और वर्णों के विदेशी सामन्तों का था, जिन्हें मुगल कहते थे। यह दल भी दो दलों में बँटा था-पुरानी पार्टी, जिसके समर्थक सुन्नी थे और ईरानी-पार्टी जिसमें शिया-सम्प्रदाय के लोग थे। ये विभिन्न दल आधुनिक राजनीतिक दल के समान नहीं थे। इन तीनों दलों में परस्पर संघर्ष चला करता था। फलतः शाही दरबार सही अर्थ में षड्यंत्रकारियों और विश्वासघाती का अड्डा बन चुका था। दरबारियों को आन्तरिक अराजकता अथवा विदेशी आक्रमण से समाज्य की सुरक्षा का जरा भी ध्यान नहीं था। प्रत्येक दल एक-दूसरे के विरुद्ध सम्राट को भड़काने पर लगा रहता था और संकटकाल में विदेशी आक्रमणकारियों के साथ पत्रालाप भी किया करता था।
  4. विदेशी हमले- अशान्ति एवं अराजकता की स्थिति में विदेशी हमले को प्रोत्साहन मिला। पश्चिमोत्तर सौभा असुरक्षित थी। अतः 1738 में नादिरशाह के और 1747 में अहमदनगर अब्दाली के हमले हुए। नादिर ने खुद लूट-पाट की। अब्दाली ने तो 1747 और 1761 के बीच कई बार हमला किया। इन विदेशी हमलों ने दुर्बल मुगल-साम्राजय को और भी अधिक अकझोर दिया। धन का बहुत नुकसान हुआ। अब तक जर्जर मुगल-साम्राज्य के ऊपर जो एक पर्दा था वह पर्दा अब हट गया। इविन का कथन है कि इन आक्रमणकारियों ने उस आडम्बर का अन्त कर दिया जिसके कारण लोगों को अलंकृत लाश एक शक्तिशाली राक्षस की तरह दिखाई पड़ती थी।

नादिर और अहमदनगर के हमलों के फलस्वरूप अफगानिस्तान और पंजाब पर मुगलों का अधिकार नहीं रह गया। अतः मुसलमानों में लड़ाकू वीर सैनिकों का अभाव था।

  1. साम्राज्य की विशालता- औरंगजेब के समय में मुगल-साम्राज्य बहुत विस्तृत और अप्रबन्यनीय हो गया था- दक्षिण को रियासतों के मिल जाने से साम्राज्य का विस्तार इतना अधिक बढ़ गया कि उसे वश में रखना कठिन हो गया। उन दिनों जबकि यातायात के साधन अधिक विकसित नहीं थे, एक केन्द्र से इतने बड़े शासन का प्रबन्ध करना असम्भव था। औरंगजेब के जीवनकाल में ही देश के विभिन्न प्रान्तों में विद्रोह होने आरम्भ हो गए थे। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके दुर्बल उत्तराधिकारी साम्राज्य को संभाल न सके और फलस्वरूप कई प्रान्त स्वतन्त्र हो गये। अवध ने सआदत खाँ के नेतृत्व में स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली। अली वर्दी खाँ बंगाल, बिहार और उड़ीसा का स्वतन्त्र शासक बन गया। निजाम-उल-मुल्क ने दक्षिण में अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया। रूहेलों और राजपूतों ने भी अपने-अपने प्रदेशों को स्वतन्त्र करा लिया।
  2. नौ-सेना का अभाव- मुगल सम्राट नौ-सेना की ओर विशेष ध्यान नहीं देते थे और न हो उसे कोई महत्व देते थे। वे इस बात को न समझ सके कि नौ-सेना साम्राज्य को स्थिरता के लिए नितांत आवश्यक थी और इसलिए उन्होंने अपनी नौ सेना के संगठन के लिए कोई प्रयत्न न किया। इसका परिणाम यह हुआ कि साम्राज्य उन यूरोपियनों का सामना न कर सका जिनका सागर पर पूर्ण अधिकार था। सागर पर प्रभुत्व रखने के कारण ही यूरोपियन लोग और विशेषकर अंग्रेज भारतीय राजनीति तथा व्यापार में प्रमुखता प्राप्त कर सके और समय आने पर ऐसा प्रहार किया जिसकी क्षति-पूर्ति किसी प्रकार भी नहीं हो सकती थी।
  3. मुगल-शासन का पुलिस स्वरुप मुगल सरकार सदैव पुलिस सरकार बनी रही। अकबर के शासनकाल को छोड़कर मुगल सरकार अपने दो ही कर्तव्य समझती थी-देश में भीतरी और बाहरी शान्ति सुरक्षा रखना और लगान वसूल करना । किन्तु जब सरकार निकम्मी हो गई और देश की बाहरी और भीतरी सुरक्षा न रख सकी, तब वह सरकार कहलाने योग्य ही नहीं रही। जो सरकार विद्रोहों को दबाने में तथा विदेशी आक्रमणों से जनता को बचाने में असफल हो गई, जनता ने उस सरकार की अवहेलना करना शुरू कर दी। महत्वाकांक्षी प्रान्तीय राज्यपालों ने सरकार की इस दुर्बल अवस्था का लाभ उठाकर अपने स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिए। मुहम्मदशाह के शासनकाल के आरम्भ में निजाम-उल-मुल्क ने दक्षिण में जाकर अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया और वहाँ पर मराठों से मिलकर साम्राज्य के विरुद्ध कुचक्र चलाने लगा। अलीवर्दी खाँ ने बंगाल में और शुजात खाँ ने अवध में अपने स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया। रूहेला-अफगानों ने रूहेलखण्ड में अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली और साम्राज्य के विरुद्ध विदेशी आक्रमणकारियों की सहायता करने लगे। मुगल साम्राज्य को इस विश्रृंखलता से लाभ उठाकर सिक्खों ने पंजाब में और मराठों ने महाराष्ट्र में बड़ी तेजी से अपनी शक्ति को बढ़ाना आरम्भ किया।
  4. ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना- ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना से भी मुगल साम्राज्य पर आघात पहुंचा। आरम्भ में यह कम्पनी एक व्यापारिक संस्था थी, परन्तु बाद में इसके व्यवस्थापकों ने यहाँ की आन्तरिक स्थिति से लाभ उठाकर प्रभुत्व-शक्ति स्थापित कर ली। जिस प्रकार पठान मुगलों के युद्ध कौशल, सैन्य-व्यवस्था तथा शतों का सामना नहीं कर सके, उसी प्रकार मुगल भी अंग्रेजों का मुकाबला नहीं कर सके । इस प्रकार मुगल-राज्य का हास्य और अन्त में पतन बहुत कारणों से हुआ जिनमें सबसे मुख्य निरंकुश, स्वार्थी और फिजूल खर्च, सामन्तशाही का एकछत्र राज्य और असमान आर्थिक व्यवस्था थी । फलस्वरूप, राज्य की आय के मुख्य स्रोत-जनता की परिस्थिति बराबर बिगड़ती गयी। इन दो महान् दुर्गुणों के साथ धार्मिक अत्याचारों ने ऐसी अवस्था पैदा कर दी जिसके कारण साम्राज्य विदेशियों के आक्रमणों को सफलता से रोक नहीं सका और आन्तरिक षड्यन्त्रों का शिकार बन गया।
  5. बौद्धिक पतन- अठारहवीं शताब्दी में मुस्लिम जाति मुगल सरदार तथा मध्यम वर्ग का बौद्धिक हास हो गया था। मुगलों ने शिक्षा को ओर विशेष ध्यान नहीं दिया था। इस कारण राज्य में योग्य प्रबन्धक, राजनीतिज्ञ और शिक्षक का अभाव था। जब तक मुगल साम्राज्य को बाहर से इस क्षेत्र में सहायता मिली, उसका काम चला लेकिन यह क्रम हमेशा कायम नहीं रहा। अत: योग्य व्यक्ति के अभाव में साम्राज्य की बौद्धिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती थी। शिक्षा के अभाव में योग्य व्यक्ति का मिलना मुश्किल हो गया।
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Pankaja Singh

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