शिक्षाशास्त्र

मूल्यांकन के सिद्धान्त | मूल्यांकन प्रक्रिया | मूल्यांकन प्रक्रिया के पद

मूल्यांकन के सिद्धान्त | मूल्यांकन प्रक्रिया | मूल्यांकन प्रक्रिया के पद | Principles of Evaluation in Hindi | Evaluation Process in Hindi | Posts of Evaluation Process in Hindi

मूल्यांकन के सिद्धान्त (Principles of Evaluation)

मूल्यांकन एक वैज्ञानिक एवं सुव्यवस्थित प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के निम्नांकित प्रमुख सिद्धान्त है-

(1) जिस उद्देश्य के लिए मूल्यांकन किया जा रहा है उस उद्देश्य की ही पूर्ति के लिए मुल्यांकन उपकरण प्रयोग करना चाहिए। मूल्यांकन के अनेक उपकरण होते हैं जिनमें से प्रत्येक उपकरण मूल्यांकन के एक विशिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक होता है और दूसरे प्रकार के उद्देश्यों के अनुकूल नहीं होता है, तथा अपने निर्धारित मूल्यांकन के उद्देश्यों के अनुसार मूल्यांकन उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।

(2) जब तक मूल्यांकन का उद्देश्य भली-भांति सावधानी के साथ परिभाषित न कर दिया जाये तब तक मूल्यांकन के उपकरणों का चयन अथवा उसके विकास पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में सर्वप्रथम मूल्यांकन का ध्येय हमारे सामने स्पष्ट रहना चाहिए। उसके पश्चात् ध्येय एवं उद्देश्यों के अनुसार उनकी प्राप्ति के बारे में जानने के लिए उपयुक्त उपकरणों का चयन किया जाना चाहिए। यदि उपकरण न मिल सके तब सही उपकरण बनाने के लिए प्रयत्न किया जाना चाहिए।

(3) मूल्यांकन को प्रत्येक विधि तथा उपकरण का प्रयोग करते समय उनकी उपयोगिता के विषय में मूल्यांकनकर्ता को पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। इनकी अच्छी विशेषताओं एवं सीमाओं को ध्यान में रखते हुए इन्हें उपयोग में लेना चाहिए।

(4) एक उपकरण के माध्यम से किसी भी व्यक्ति का पूर्ण मूल्यांकन संभव नहीं होता, अतः पूर्ण मूल्यांकन हेतु मूल्यांकन की विविध विधाओं एवं उपकरणों का प्रयोग करना  चाहिए।

(5‍) मूल्यांकन करते समय मूल्यांकन कर्त्ता को अत्यन्त सावधानीपूर्वक कार्य करना चाहिए और यथासम्भव दोषों के जाल से बचने का पूरा प्रयत्न करना चाहिए।

(6) मूल्याकन के सिद्धान्तों एवं नैतिक मूल्यों का ध्यान रखना चाहिए।

(7) मूल्यांकन मात्र मूल्यांकन के लिए नहीं वरन् किसी निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाना चाहिए। साथी ही मूल्यांकन को कभी भी अन्त (End) न समझकर इसे दूसरी चीजों को प्राप्ति का साधन मानकर चलना चाहिए।

मूल्यांकन प्रक्रिया (Evaluation Process)

मूल्यांकन एक जटिल प्रक्रिया है जिसके तीन महत्वपूर्ण बिन्दु हैं- उद्देश्य, अधिगम, अनुभव तथा मूल्यांकन के उपकरण। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है उद्देश्य। इन तीन बिन्दुओं में परस्पर निर्माता का सम्बन्ध है। कुछ विद्वानों ने मूल्यांकन का तीसरी बिन्दु व्यवहार परिवर्तन (Behaviour Change) भी माना है।

मूल्यांकन प्रक्रिया के पद (Steps of Evaluation Process)

(1) अधिगम अनुभव की योजना (Planning of learning experiences ) — जब उद्देश्यों का निर्धारण हो जाता है तब अधिगम अनुभवों पर ध्यान देना चाहिए। अधिगम अनुभव से तात्पर्य एक ऐसी परिस्थिति के निर्माण से है जिसके अन्तर्गत बालक वांछित प्रक्रिया व्यक्त कर सकता है। मूल्यांकन कर्त्ता को अधिगम अनुभव निर्धारित उद्देश्यों के आधार पर बनाने चाहिए और उसी प्रकार के अनुभवों का चुनाव एवं निर्माण करना चाहिए।

एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेक अनुभवों की योजना बनानी पड़ती है। योजना बनाते समय बालक का स्तर, आयु, लिंग, परिवेश, पृष्ठभूमि आदि कारकों को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त शिक्षण सामग्री, शिक्षण विधि एवं साधनों के माध्यम से अनुभवों की व्यवस्था को जाती है।

(2) उद्देश्यों का निर्धारण एवं परिभाषीकरण (Identifying and defining objectives) — उद्देश्यों का निर्धारित करने से पूर्व बालक के समाज, विषय वस्तु को प्रकृति तथा शैक्षिक स्तर पर पण ध्यान दिया जाना चाहिए। इन सभी तथ्यों का देखते हुए मूल्यांकन के उद्देश्यों को भली-भांति स्पष्ट रूप से व्यवहार परिवर्तन के रूप में निर्धारित करने का प्रयत्न करना  चाहिए। यह मूल्यांकन कर्त्ता के मस्तिष्क में बिल्कुल स्पष्ट होना चाहिए।

इन परिवर्तनों के आने पर बालक के व्यवहार में किस तरह के परिवर्तन को आशा है। अतः उद्देश्य का निधारण एवं परिभाषा करते समय इनके निर्धारण एवं परिभाषित करने की विधि का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही मूल्यांकन की ओर बढ़ना चाहिए। उद्देश्य की परिभाषा करने में व्यवहार परिवर्तन तथा विषयवस्तु दोनों को हो महत्वपूर्ण मानना आवश्यक है।

(3) विभिन्न उपकरणों के माध्यम से साक्षियों प्रदान करना (Providing evidence through various tools of evaluation) – मूल्यांकन उद्देश्य एवं अनुभव-अधिगम की योजना बनाने के पश्चात् उपयुक्त उपकरण एक चयन अथवा विकास में लग जाता है और इन उपकरणों का प्रयोग करते हुए साक्षियाँ एकत्र करता है जिसके आधार पर प्रत्याशित व्यवहार का मुल्यांकन करने में समर्थ होता है ।

(4) व्यवहार परिवर्तन के क्षेत्र (Areas of change in behaviour)- मूल्यांकन के माध्यम से व्यवहार में परिवर्तन आते हैं। ये परिवर्तन चालक के बोलने, पढ़ने-लिखने, सोचने- समझने आदि क्षेत्रों में आते हैं। व्यवहार परिवर्तन के सभी क्षेत्रों को प्रमुख रूप से तीन पक्षों में विभाजित किया जाता है –

(क) ज्ञानात्मक पक्ष (Cognitive aspect)- यह पक्ष ज्ञान के उद्देश्य को सर्वाधिक महत्व प्रदान करता है। पो० ब्लूम (Prof. Bloom) ने ज्ञानात्मक पक्ष की विवेचना करते हुए निम्न प्रकार का ज्ञान इस प्रश्न में सम्मिलित किया है-

(1) परम्पराओं एवं मान्यताओं का ज्ञान।

(2) विशिष्ट तथ्यों का ज्ञान।

(3) मापदण्डों का ज्ञान।

(4) सिद्धान्तों एवं सामान्यीकरण का ज्ञान ।

(5) विशिष्ट तथ्यों को प्राप्त करने की विधियों का ज्ञान।

(6) घटनाओं का ज्ञान।

(7) विधियों एवं प्रणालियों का ज्ञान।

(ख) क्रियात्मक पक्ष (Conative aspect) – क्रियात्मक पक्ष मांसपेशियों एवं आंगिक गतियों को आवश्यकता से सम्बन्धित होता है। शिक्षण प्रक्रिया को दृष्टि से इस पक्ष को 6 स्तरों में बांटा गया है।

(1) कार्यवाही

(2) उत्तजेन

(3) समायोजन

(4) नियन्त्रण

(5) आदत या कौशल

(6) स्वभावीकरण।

(ग) भावात्मक पक्ष (Affective aspect) यह पक्ष बालक की रुचियों, संवेगों एवं मनोवृत्तियों से सम्बन्धित होता है। इस पक्ष के भी निम्नांकित 6 स्तर होते हैं-

(1) प्रतिक्रिया

(2) आग्रहण

(3) विचारण

(4) अनुमूल्यन

(5) चरित्रीकरण

(6) व्यवस्थापन ।

व्यवहार के ज्ञानात्मक क्रियात्मक, भावात्मक तीनों पक्षों में परस्पर सम्बन्ध रहता है। बालक के व्यवहार में परिवर्तन का मूल्यांकन इन तोनों क्षेत्रों में पृथक् रूप से तथा समन्वित दोनों प्रकार से किया जा सकता है।

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Pankaja Singh

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