शिक्षाशास्त्र

मिशनरियों द्वारा शिक्षा का आरम्भ | यूरोपीय ईसाई मिशनरियों के शैक्षिक कार्य | भारतीय शिक्षा में मिशनरियों की देन

मिशनरियों द्वारा शिक्षा का आरम्भ | यूरोपीय ईसाई मिशनरियों के शैक्षिक कार्य | भारतीय शिक्षा में मिशनरियों की देन

मिशनरियों द्वारा शिक्षा का आरम्भ (Introduction of Modern Education of Missionaries)

यूरोप के व्यापारियों के भारत में आने के पश्चात् ईसाई मिशनरियों का आगमन भी हुआ था। इन मिशनरियों ने ईसाई धर्म के प्रचार के साथ अनेक शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना भारत में की थी।

डॉ० टी० एन० ऐलेने ने कहा है, “शिक्षा संस्थाओं ने मिशनरियों को भारतीयों से सम्पर्क करने और उन्हें अपने धार्मिक ग्रन्थों से अवगत कराने का अवसर प्रदान किया।”

इन स्थितियों का लाभ उठाते हुये मिशनरियों ने अनेक विद्यालयों की स्थापना की जिनमें पाश्चात्य पद्धति पर आधारित शिक्षा दी जाती थी। अतः हम कह सकते हैं कि भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रारम्भ मिशनरियों ने किया था।

नुरूल्ला तथा नायक ने कहा है, “मिशनरियों को भारत में आधुनिक शिक्षा के प्रवर्तक होने का सम्मान प्राप्त था।

यूरोपीय ईसाई मिशनरियों के शैक्षिक कार्य

यूरोपीय ईसाई मिशनरियों के शैक्षिक कार्यों का संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता है-

(1) पुर्तगालियों का प्रयास –

पुर्तगाली सबसे पहले भारत में आये थे। उन्होंने ही भारत में आधुनिक शिक्षा का शिलान्यास किया था। ईसाई धर्म के प्रचारकों में सबसे अधिक उल्लेखनीय नाम सेंट फ्रांसिस जेवियर का है। 1524 ई० में यहाँ उनका आगमन हुआ था। वे गाँवों में पैदल घूमकर घण्टी बजाते हुये धर्म का प्रचार करते थे। उन्होंने 157 ई० में बम्बई (मुम्बई) के निकट बान्द्रा में सेण्ट एनी विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। आज भी अनेक संस्थायें हैं जिनसे उनका नाम जुड़ा हुआ है। इनके बाद डी० नोबोली भारत आये थे। वह ब्राह्मणों की पोशाक में रहते थे और अपने को पाश्चात्य ब्राह्मण बतलाते थे।

पुर्तगालियों ने अनेक प्रारम्भिक विद्यालयों की स्थापना की। ये विद्यालय बम्बई (मुम्बई) गोवा, ड्यू, लंका, चटगाँव तथा हुगली में स्थापित किये गये थे। इन विद्यालयों में पुर्तगाली, ईसाई धर्म, गणित, स्थानीय भाषा तथा कारीगरी की शिक्षा दी जाती थी। इन विद्यालयों में निर्धनों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाती थी।

पुर्तगालियों ने अनेक उच्च शिक्षा के केन्द्रों की स्थापना भी की थी। इन केन्द्रों में से प्रमुख जेसुयट कॉलेज था। इसकी स्थापना 1575 ई. में की गयी थी। इसमें लगभग 300 छात्रों को शिक्षा दी जाती थी। एक अन्य कॉलेज सेट एन कॉलेज था, जो बम्बई (मुम्बई) के निकट बांद्रा में खोला गया था।

इन कॉलेजों में ईसाई धर्म, लैटिन, तर्कशास्त्र, व्याकरण और संगीत की शिक्षा दी जाती थी। सत्रहवींशताब्दी में पुर्तगालियों के पतन के कारण इनके शिक्षा के केंद्र लगभग समाप्त हो गए थे। पुर्तगाली शिक्षा बाद में केवल गोवा, दमन और दीव में ही रह गई थी।

(2) फ्रांसीसी यों के शिक्षा प्रयास-

1664 ई. में फ्रांसीसियों शिष्यों ने भारत में अपनी कंपनी स्थापित की थी।इन विद्यालयों में प्रवेश के लिए किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं था। सभी जाति या संप्रदाय के लोग इन में प्रवेश ले सकते थे। इन विद्यालयों में भारतीय शिक्षकों की नियुक्ति हुई थी। यह विद्यालय स्थानीय भाषाओं में शिक्षा दिया करते थे। इन विद्यालयों में अनिवार्य रूप से सभी बालकों को ईसाई धर्म की शिक्षा दी जाती थी। ईसाई धर्म की शिक्षा देने के लिए  एक अध्यापक रहता था। फ्रांसीसियों ने पांडिचेरी में एक माध्यमिक विद्यालय खोला था। इस विद्यालय में फ्रेंच भाषा भी पढ़ाई जाती थी। बाद में फ्रांसीसियोंके विद्यालय को अंग्रेजों ने अपने अधिकार में ले लिया था।

(3) डचों के शिक्षा प्रयास-

डच 17 वीं शताब्दी में भारत आए थे। इन्होंने बंगाल में चिनसुरा और हुगली तथा मद्रास में नागापटनम में अपने कारखाने खोले थे। इन कारखानों में काम करने वाले कर्मचारियों तथा अन्य लोगों के लिए डचों ने विद्यालय खोले थे। इन विद्यालयों में ईसाई धर्म या अन्य किसी धर्म की शिक्षा नहीं दी जाती थी। डॉ.  प्रिडिक्स के अनुसार डचों ने लंका में एक कालेज भी खोला था।

(4) दिनों के शिक्षा प्रयास

दोनों ने 17 वींशताब्दी में भारत में प्रवेश किया था। इन्होंने अपना उद्देश्य शिक्षा का प्रसार करना बताया था। शिक्षा प्रसार के साथ-साथ ये धर्म का प्रचार भी किया करते थे। इन्होंने बाइबिल का तमिल भाषा में अनुवाद कराया था। शिक्षा का माध्यम स्थानीय भाषाएं थी। इन्होंने फोर्ट सेंट डेविड, त्रिचनापल्ली और तंजौर में प्राथमिक विद्यालय खोले थे। इन विद्यालयों में तमिल और तेलुगू भाषा में शिक्षा दी जाती थी। इन विद्यालयों में अन्य भाषाओं की अतिरिक्त अंग्रेजी पढ़ानें की व्यवस्था भी की गई थी। सन 1716 में डेनों ने ट्रानक्यूबर में शिक्षक प्रशिक्षण के लिए महाविद्यालय की स्थापना भी की थी।

(5) अंग्रेजों के शिक्षा प्रयास

सन 1698 में अंग्रेजों ने भारत में शिक्षा कार्य प्रारम्भ किया था। सन् 1698 के आदेशानुसार इन्होंने मद्रास, मुंबई (मुंबई) तथा बंगाल  में चैरिटी स्कूलों की स्थापना की थी। अंग्रेज मिशनरियों ने बंगाल को अपने कार्य का केंद्र बनाया था। उन्होंने कलकत्ता (कोलकाता) और श्रीरामपुर में दाद आश्रित विद्यालय खोले थे। श्रीरामपुर के मिशनरियों के तीन प्रमुख नेता थे जिनके नाम केरे,वार्ड तथा मार्शमैन थे।

इन लोगों को श्रीरामपुर त्रिमूर्ति के नाम से जाना जाता था। इन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों के नामधर् ‘निवेदक’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित की थी, जिसमें मुसलमानों के पैगम्बर मोहम्मद साहब और हिंदू धर्म की आलोचना की गयी थी। इस पुस्तक से हिन्दुओं और मुसलमानों में उत्तेजना की लहर दौड़ गई थी इस पुस्तक से हिन्दुओं और मुसलमानों की क्रोधाग्नि को शान्त करने के लिये लिव लार्ड मिंटू ने तीन पादरियों को बन्दी बनाकर कलकत्ता (कोलकाता) बुला लिया और उनका प्रेस जब्त कर लिया। इस कार्य के विरोध में इंग्लैण्ड में आन्दोलन चलाया गया था।

(6) अंग्रेज ईसाई मिशनरियों के शैक्षिक कार्य-

आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के विकास में सबसे अधिक योगदान अंग्रेज ईसा मिशनरियों का रहा। 1613 में इस देश में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ब्रिटेन का प्रवेश हुआ। ऐसा उल्लेख मिलता है कि इंग्लैण्ड से ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रत्येक जहाज के साथ एक पादरी आता था। इन पादरियों का उस समय एक ही उद्देश्य था-ईसाई धर्म एवं संस्कृति का प्रचार। इस कार्य के लिए इन्होंने बंगाल को अपना केन्द्र बनाया। इन्होंने यह कार्य दो माध्यमों से करना शुरू किया-एक शिक्षा के माध्यम से और दूसरा दीन- हीनों की सेवा के माध्यम से। इस कार्य के सम्पादन के लिए इन्हें इंग्लैण्ड के अनेक मिशनरी संगठनों से पैसा प्राप्त होता था, साथ ही इस देश में कार्यरत ईस्ट इण्डिया कम्पनी का संरक्षण एवं आर्थिक सहयोग प्राप्त था।

अंग्रेज ईसाई मिशनरियों ने यहाँ कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में अनेक धर्मार्थ विद्यालयों (Charity schools) की स्थापना की। इनमें दो प्रकार के विद्यालय थे-एक ऐसे जिनमें अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा दी जाती थी और दूसरे ऐसे जिनमें स्थानीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा दी जाती थी। पर दोनों प्रकार के विद्यालयों में ईसाई धर्म की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी।

भारतीय शिक्षा को मिशनरियों की देन (Contribution of Missionaries to Indian Education)

मिशनरियों के योगदान भारतीय शिक्षा के इतिहास में सदैव चिरस्मरणीय रहेंगे। यद्यपि मिशनरियों के विरुद्ध परोपकारिता की भावना से स्कूल संचालित नहीं किये थे, इनका उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार करना था फिर भी इन लोगों ने स्कूल की कार्य प्रणाली तथा संगठन में कुछ ऐसे महत्वपूर्ण सुधार किये जिसके कारण स्कूल के स्वरूप तथा संरचना के विषय में हमारी धारणायें स्पष्ट हो सकीं।

मिशनरियों के योगदान भारतीय शिक्षा के लिये निम्न हैं-

(1) मिशन स्कूलों में जो शिक्षा प्रदान की जाती थी, वह पूर्णतया निःशुल्क थी। इस प्रकार से मिशनरियो ने भारत में सबसे पहले निःशुल्क प्रारम्भिक शिक्षा की प्रथा चलाई जिसके लिये हम आज भी प्रयत्नशील हैं।

(2) मिशनरियों ने ही सर्वप्रथम हम लोगों को स्कूल, एक नवीन अवधारणा प्रदान की। इसके पहले स्कूल क्या और किसे कहते हैं ? इन प्रश्नों के सम्बन्ध में हमारे विचार सुस्पष्ट नहीं थे। मिशनरियों के पूर्व की देशी पाठशालाओं की स्थिति अत्यन्त सोचनीय थी। ये पाठशालायें अधिकांशतः टूटे-फूटे मकानों, गौशाला, अस्तबल या किसी जमींदार अथवा ताल्लुकेदार के मकान के एक हिस्से में लगा करती थीं। इस प्रकार स्कूल क्या है और स्कूल के कार्य क्या हैं? ये बातें जनसाधारण को समझ में नहीं आती थीं। मिशनरियों ने सबसे पहले स्कूल को सर्वाधिक शिक्षा का केन्द्र माना और भारत में सर्वाधिक शिक्षा की बुनियाद डाली।

(3) मिशनरियों ने भारतीयों के सामने स्कूल की स्पष्ट रूप-रेखा रखी और विशेष रूप से पाठशाला भवन का नक्शा इन लोगों ने हम लोगों के सामने पहली बार रखा। पाठशाला भवन कैसा होना चाहिये? खेल के लिये मैदान, पुस्तकालय, विज्ञान के लिये प्रयोगशाला आदि बातों को हम लोगों ने मिशनरियों से ही सीखा और लिया है।

(4) शिक्षा तथा धर्म प्रचार के लिये इन लोगों ने स्थान-स्थान पर मिशन स्कूलों की स्थापना की जिसमें अंग्रेजी भाषा के माध्यम से बालकों को शिक्षा दी जाती थी। ऐसे मिशन स्कूल आज भी भारतवर्ष में विद्यमान हैं जहाँ की कार्यकुशलता तथा कार्य पद्धति अब भी हम लोगों के लिये अनुकरणीय है।

(5) मिशनरियों के पूर्व भारत में मौखिक शिक्षा का प्रचलन था किन्तु इन लोगों की शिक्षा लेखन एवं पुस्तक अध्ययन पद्धति द्वारा होती थी। इन लोगों ने ‘प्रेस’ भी स्थापित किया था। इसलिये मुद्रित पुस्तकें तथा लेखन सामग्री आदि की व्यवस्था सबसे पहले मिशनरियों ने ही की जिनका अनुसरण हम आज भी कर रहे हैं।

(6) इनका पाठ्यक्रम विस्तृत, व्यावहारिक एवं उपयोगी था जिसमें ईसाई धर्म के साथ-साथ अंग्रेजी, स्थानीय भाषायें, व्याकरण, गणित, इतिहास तथा भूगोल आदि विषय सम्मिलित थे।

(7) पाठशाला प्रबन्ध तथा प्रशासन के विषय में भी मिशनरियों का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इन लोगों ने हमें टाइम टेबुल की भी अवधारणा सबसे पहले प्रदान की।

(8) मिशनरियों ने हम लोगों को कक्षा-प्रणाली की भी अवधारणा प्रदान की। कक्षाओं में बैठने की व्यवस्था के लिये टेबुल, डेस्क, बैन्च, चॉक, डस्टर आदि का प्रयोग इन लोगों ने ही किया और हम लोगों को सिखाया।

(9) इन लोगों ने भारत में निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली का आरम्भ किया। परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थी को ही अग्रिम कक्षा में प्रवेश दिया जाता था।

(10) पाठशाला में प्रवेश से लेकर परीक्षा तक के विभिन्न रिकार्ड किस प्रकार रखने चाहियें, इसकी सीख हमें मिशनरियों से ही प्राप्त हुई। उपस्थिति रजिस्टर, प्रवेश-पत्र आदि प्रपत्रों को हम लोगों ने मिशनरियों से ही ग्रहण किया है।

(11) मिशन स्कूलों में एकल शिक्षक-प्रणाली के स्थान पर बहुशिक्षक-प्रणाली का प्रयोग किया।

(12) स्कूलों में रविवार को अवकाश रहता है। इसकी शुरुआत मिशनरियों द्वारा की गयी।

(13) मिशनरियों ने सबसे पहले शिक्षकों के प्रशिक्षण पर जोर दिया और इसके निमित्त प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना की।

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Pankaja Singh

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