मिल के आर्थिक विचार | मिल द्वारा प्रतिष्ठित आर्थिक सिद्धान्तों का समर्थन | मिल द्वारा प्रतिष्ठित सम्प्रदाय से मतभेद | मिल के आर्थिक विचारों की प्रमुख विशेषतायें

मिल के आर्थिक विचार | मिल द्वारा प्रतिष्ठित आर्थिक सिद्धान्तों का समर्थन | मिल द्वारा प्रतिष्ठित सम्प्रदाय से मतभेद | मिल के आर्थिक विचारों की प्रमुख विशेषतायें

मिल के आर्थिक विचार

(Economic Ideas of Mill)

एडम स्मिथ से लेकर जान स्टुअर्ट मिल के पहले तक जितने भी अर्थशास्त्री हुए उन्होंने प्रतिष्ठित विचारधारा में जहां-तहां कुछ संशोधन करके उसे उसी रूप में अपनाया, जिस रूप में स्मिथ छोड़ गया था। लेकिन इसको लोकप्रियता पर फ्रेन्च समाजवादियों एवं जर्मन ऐतिहासिक संप्रदाय की कटु आलोचना का बहुत बुरा असर पड़ने लगा था। वास्तव में एक गतिशील समाज में इसकी संस्थाओं का नवीन ज्ञान एवं अनुभव के सन्दर्भ में जाँचते रहना आवश्यक है और पिछले परिणामों एवं विष्कर्षों में तदनुसार परिवर्तन करने की भी जरूरत होती है। जान स्टुअर्ट मिलकठीक इसी आवश्यकता के सामने आये और इस आवश्यकता को भली प्रकार पूरा किया। उन्होंने प्राचीन सिद्धांतों को अधिक प्रभावशाली भाषा में, अधिक वैज्ञानिक शुद्धता तथा अधिक रोचकता के साथ प्रस्तुत किया। तभी तो कहा जाता है कि मिल के साथ प्रतिष्ठित सिद्धान्त उनति की पराकाष्ठा पर पहुंच गए।

मिल के आर्थिक विचारों को भली-भांति समझने के लिये हम मिल के आर्थिक विचारों को अग्रलिखित तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं :-

(A) प्रतिष्ठित सिद्धान्त के समर्थन के रूप में (As follower of Classical Doctrine)

(B) प्रतिष्ठित सिद्धांतों से मतभेद (Difference with the classical Doctrine)

(C) समाजवादी विचार (Socialistic Thought)

(A) मिल द्वारा प्रतिष्ठित आर्थिक सिद्धान्तों का समर्थन

(Mill’s Support of Classical Economic Doctrines)

सन् 1848 में Principles of Political Economy का प्रकाशन होने तक हम मिल को प्रतिष्ठित शाखा का पूर्ण अनुयायी पाते हैं। उन्होंने इस पुस्तक में प्रतिष्ठित शाखा के ‘दुर्ग’ को आलोचकों के ‘आक्रमणों’ से बचाने का भरसक प्रयास किया तथा मुंह-तोड़ उत्तर देने की कोशिश भी की। इस दिशा में उनके विचार निम्नलिखित हैं-

  1. स्वहित का सिद्धान्त (Law of Self-Interest)- प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपना कल्याण चाहता है और कम-से-कम त्याग करके अधिक से अधिक आर्थिक कल्याण का उपयोग करना चाहता है। यह भावना मनुष्य माता के गर्भ से लाता है और मृत्युपर्यन्त रखता है । इसके अतिरिक्त वे यह भी कहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति अपना भी भला करता है और समाज का भी। अर्थात्, मनुष्य व समाज के हित परस्पर विपरोत नहीं माने जाते थे। उन्होंने अपने स्वहित के सिद्धान्त को प्राकृतिक और सर्वव्यापी बताया।

इसके विपरीत, आलोचकों का मत था कि स्वहित का नियम स्वार्थपरता को जन्म देता है और स्वार्थपरता असामाजिक है। सरल शब्दों में, व्यक्ति और समाज के हित एक-दूसरे के विरोधी हैं। अतः यदि हम समाज का आर्थिक कल्याण चाहते हैं, तो वैयक्तिक हित को छोड़ना होगा।

किन्तु, मिल ने प्रतिक्षित अर्थशास्त्रियों को व्यक्तिवादी विचारधारा का समर्थन किया और बताया कि यह मान लेना गलत है कि वह व्यक्ति, जो अपने स्वार्थ की मूर्ति करता है, अवश्य ही दूसरों को हानि पहुंचाता है। वास्तव में, जब व्यक्ति अपना नुकसान किये बिना दूसरे व्यक्ति का कुछ हित करता है, तो उसे हार्दिक प्रसन्नता एवं आत्म सन्तोष होता है। इस प्रकार, ‘व्यक्तिवाद’ का अर्थ स्वार्थपरता नहीं है और सहानुभूति रहित स्वार्थपरता तो कदापि नहीं है। वास्तव में व्यक्ति और समाज दोनों ही प्रसन्न रह सकते है बशर्ते सभी अपने हितों को एक सोपा तक पूर्ति करें। मिल का यह भी कहना था कि “शिक्षा एवं जनमत प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में उसके अपने सुख तथा सम्पूर्ण समाज को भलाई के बीच एक अपृथकनीय सम्बन्ध स्थापित कर देते हैं।”

मिल ने लगान, व्याज और मजदूरी में संघर्ष वास्तविक माना, लेकिन आशा की कि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की सही अनुभूति से वह समाप्त हो जायेगा।

  1. स्वतन्त्र प्रतियोगिता का सिद्धान्त (Law of Free Competition)- चूंकि व्यक्ति अपना हित सबसे अच्छी तरह जानता है, इसलिए, प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री व्यक्ति को प्रत्येक क्षेत्र में पूर्ण स्वतन्त्रता मिलने के पक्षपाती थे। इसी से उन्होंने स्वतन्त्र व्यापार, पूर्ण प्रतिस्पर्धा, पेशे की स्वतन्त्रता आदि विचारों का प्रतिपादन किया। मिल ने प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के इन विचारों को स्वीकार किया। उसका कहना था कि व्यक्ति को कार्य करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। कारण, ऐसी स्वतन्त्रता के फलस्वरूप उपभोक्तओं को वस्तुएँ सस्ती मिलती हैं और उत्पादकों द्वारा अधिकतम उत्पादन किया जाता है। उसके मत में प्रतियोगिता पर लगाया गया प्रत्येक बन्धन एक बुराई तथा बढ़ावा देने का प्रत्येक प्रयास एक अच्छाई था।

इस विषय पर वे समाजवादियों के मत से, जो प्रतियोगिता के विरुद्ध थे, सहमत न थे। मिल ने बताया कि समाजवादी जिस दोष का संकेत करते हैं उसका मूल कारण स्वतन्त्रता होना नहीं है, वरन् पूर्णस्पर्धा या पूर्ण स्वतन्त्रता का अभाव होना है। इस अपूर्णता को समाप्त करके सब को सुखी बनाया जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि जहाँ मिल को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में इतना विश्वास था, वहाँ वे कुछ सीमा तक सरकार के हस्तक्षेप के पक्ष में भी थे। वे कोलरिज (Coleridge) की इस धारणा से सहमत नहीं थे कि सरकार को कोई कार्य नहीं करना चाहिए। उनका कहना था कि सरकार के विषय में यह मत इस कारण दिया गया था कि उन दिनों यूरोप में निकम्मी एवं स्वार्थी सरकारों का शासन था। मिल का मत था कि अनेक बातों में व्यक्ति को कार्य करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए, किन्तु कुछ बातों में सरकार को हस्तक्षेप करना होगा, जैसे-धोखेबाजी को रोकना, हिंसा को दबाना, दुर्बलों की रक्षा करना आदि । वास्तव में सरकार डिफेन्स आदि के अतिरिक्त भी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में लोगों के भौतिक कल्याण बढ़ाने में सहायता.कर सकती है। मिल का मत था कि जब तक हस्तक्षेप से किसी बड़े लाभ की आशा न हो, तब एक सरकार को ‘अ-हस्तक्षेप की नीति’ (Policy of Non-intervention) अपनानी चाहिए। इस प्रकार, न्यूनतम सरकार हस्तक्षेप के विषय में मिल एडम स्मिथ मतैक्य रखते थे।

  1. जनसंख्या का सिद्धान्त (Law of Population)- अधिकांश परम्परावादी विद्वान् यह स्वीकार करते थे कि जनसंख्या खाद्यान्न से अधिक तेजी से बढ़ती है और प्राकृतिक दुष्परिणामों से बचने के लिए व्यक्तियों (विशेषतः श्रमिकों) को नैतिक संयम से काम लेना चाहिए।

समाजवादियों ने इस विचार की आलोचना करते हुए बताया कि खाद्यान्न की पूर्ति भी तेजी से बढ़ाई जा सकती है, जनसंख्या उतनी तेजी से नहीं बढ़ती है जितना कि माल्थस समझते थे। नैतिक संयम अप्राकृतिक है और धनिकों को श्रमिकों का शोषण करने का अवसर देता है।

किन्तु मिल ने जनसंख्या नियम पर प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के विचारों का पूर्ण समर्थन किया। आलोचनाओं का उत्तर देते हुए उसने अपनी पुस्तक Principles of Political Economy” में लिखा है कि “यह तर्क बेकार है कि प्रत्येक बच्चा जो पैदा होता है वह एक मुंह तथा दो हाथ लेकर आता है, क्योंकि नये आने वाले के लिए भी उतना ही भोजन चाहिए जितना कि पुराने लोगों के लिए और नये हाथ उतना पैदा नहीं कर सकते जितने कि पुराने।”

वास्तव में, मिल को जनसंख्या की वृद्धि के दुष्परिणामों में माल्थस से भी अधिक विश्वास था। वह माल्थस से अधिक जोरदार शब्दों में प्रतिबन्धक रोकों का समर्थन करता था। इस अर्थ में उसे नव माल्थसवादी’ (Neo-Malthusian) कहा जा सकता है। मिल का विश्वास था कि स्त्रियों को पूर्ण स्वतन्त्रता तथा समान अधिकार देकर जनसंख्या को तेजी से बढ़ने से रोका जा सकता है। उसने यह भी कहा कि लोगों को तब तक बच्चे पैदा नहीं करना चाहिए, जब तक उनके पास पालन-पोषण करने के पर्याप्त साधन न हों। मिल श्रमिक वर्ग को बार-बार चेतावनी देते हैं कि उनका आर्थिक दशा में सुधार तभी हो सकता है, जबकि वे अपने बच्चों की संख्या में वृद्धि होने पर रोक लगायें। इस धुन में मिल इतना आगे बढ़ गये कि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के पक्षपाती होते हुए भी वे विवाहों का तब तक निषेध करने का कानून बनाने का सुझाव देने लगते हैं जब तक कि सम्बन्धित व्यक्तियों में परिवार का पालन करने की सामर्थ्य न हो।

  1. माँग एवं पूर्ति का नियम (Law of Demand and Supply)-पुराने प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के अनुसार वस्तुओं और सेवाओं की कीमत का निर्धारण माँग एवं पूर्ति के नियम द्वारा होता है । मिल ने इस नियम का समर्थन करते हुए उसे एक अधिक वैज्ञानिक रूप देने का प्रयास किया। उसने कहा कि वस्तु का मूल्य ‘सीमान्त’ (Margin) पर अर्थात्, उस बिन्दु पर नियम होता है, जहाँ माँग एवं पूर्ति का सन्तुलन हो जाता है। यह सत्य है कि माँग और पूर्ति का प्रभाव कीमत पर पड़ता है, किन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि कीमत का भी माँग और पूर्ति पर प्रभाव पड़ता है।

इसके अतिरिक्त, मिल ने अर्थशास्त्र को ‘सामान्य मूल्य’ (Normal Value) सम्बन्धी धारणा भी प्रदान की। सामान्य मूल्य वह है, जो उस सीमा पर निर्धारित होता है जहाँ कि पूर्ति का मांग से  सन्तुलन हो जाता है। केवल यह मूल्य ही स्थाई है तथा अन्य सब मूल्य इसके इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं। इस प्रकार, मूल्य के विश्लेषण में ‘सन्तुलन’ का विचार देकर मिल ने पुराने प्रतिष्ठित माँग-पूर्ति के सिद्धान्त को एक वैज्ञानिक निश्चितता प्रदान की, जो इनमें पहले नहीं थी। इस किंचित संशोधन के अलावा मिल समझते थे कि माँग और पूर्ति का नियम अपने में पूर्ण है और उसमें कोई उन्नति करने को नहीं रह गई है।

लेकिन उसकी यह धारणा गलत थी, क्योंकि मूल्य का अध्याय कभी बन्द नहीं हो पाया। बहुत शीघ्र इसकी पुनः परीक्षा हुई तथा आस्ट्रियन अर्थशास्त्रियों ने इस पर अपने विचार प्रकट किये।

  1. मजदूरी का नियम (Law of Wages)- मजदूरी के सम्बन्ध में दो नियम दिये जाते थे-‘मजदूरी कोष सिद्धान्त’ (Wage Fund Theory) और ‘जीवन निर्वाह सिद्धान्त’ (Law of Subsistence) । मजदूरी कोष सिद्धान्त के अनुसार दैनिक मजदूरी का निर्धारण श्रमिकों की मांग और पूर्ति पर निर्भर है। ‘श्रम की माँग’ से अभिप्राय काम करने की इच्छा रखने वाले मजदूरों की संख्या और ‘श्रम की पूर्ति’ का अभिप्राय श्रमिकों को जीवित रखने के लिए आवश्यक पूँजी (अर्थात् मजदूरी कोष) से था। श्रमिकों की पूर्ति बढ़ने पर मजदूरी कम हो जाती है और श्रमिकों की मांग बढ़ने पर बढ़ जाती है। इस नियम का समर्थन करते हुए मिल ने लिखा है कि “मजदूरी पूंजी के कोष और मजदूरों की संख्या के अनुपात पर निर्भर होती है।”

इन शब्दों से यह स्पष्ट है कि श्रमिकों की मजदूरी केवल दो तरह से बढ़ाई जा सकती है-(i) मजदूरी कोष को बढ़ा करके, जिसमें पूँजी की रकम बढ़नी आवश्यक है, और (ii) श्रमिकों की जनसंख्या को सीमित करके। पहला तरीका श्रमिकों के हाथ में नहीं है और दूसरा तरीका उनके हाथ में है अर्थात उन्हें अपनी जनसंख्या तेजी से नहीं बढानी चाहिए।

उक्त सिद्धान्त दैनिक या अल्पकालीन मजदूरी के विषय में था। दीर्घकालीन मजदूरी के विषय में कहा जाता था कि इसका निर्धारण श्रमिक के जीवन निर्वाह की लागत द्वारा होता है। यह मजदूरी का जीवन-निर्वाह सिद्धान्त है। मिल ने इस सिद्धान्त का समर्थन अपने सभी प्रतिष्ठित सहयोगियों की अपेक्षा अधिक जोरदारी से किया। उसका कहना था कि दीर्घकाल में मजदूरी केवल इतनी होगी कि श्रमिक अपने जीवन का निर्वाह भर कर ले। यदि मजदूरी इससे अधिक हुई, तो जनसंख्या बढ़ जायेगी, श्रमिकों की संख्या भी बढ़ेगी और फलत: मजदूरी गिर कर जीवन- निर्वाह स्तर पर आ जायेगी, इसके विपरीत, यदि मजदूरी कम हुई, तो जनसंख्या घट जायेगी, श्रमिकों की संख्या भी कम होगी तथा मजदूरी बढ़कर जीवन-निर्वाह स्तर पर आ जायेगी।

किंतु जब मिल ने यह अनुभव किया कि मजदूरी के उक्त सिद्धान्तों का यह अर्थ निकलता है कि मजदूर स्वयं अपनी दशा सुधारने में असमर्थ है, तब उसे बहुत दुःख हुआ और उसने मजदूरों को अपना संगठन करने का परामर्श दिया। उसके इस विद्रोह से प्रतिष्ठित शाखा को काफी धक्का पहुंचा।

  1. लगान का नियम (Law of Rent)- मिल ने रिकार्डो के लगान सिद्धान्त को स्वीकार किया। उसका भी यह मत था कि लगान सीमान्त भूमि के द्वारा निश्चित होता है क्योंकि समान मात्रा को उत्पन्न करने में सीमान्त भूमि का उत्पादन-व्यय अधिक होगा तथा बढ़िया भूमि का उत्पादन-व्यय कम होगा। चूंकि उपज की कीमत सीमान्त भूमि की उत्पादन लागत के बराबर होगी, इसलिए बढ़िया भूमि को बचत प्राप्त होती है। यह बचत ही ‘लगान’ है। मिल ने तनिक आगे बढ़कर इस नियम को उद्योगों पर भी लागू किया। उन्होंने बताया है कि सभी व्यवस्थापक समान रूप से कुशल नहीं होते। तैयार माल की कीमत भी सबसे कम कुशल व्यवस्थापक भी उत्पादन लागत के बराबर होती है। अत: अधिक कुशल व्यवस्थापकों को भी कुछ अतिरिक्त लाभ मिलता है, जो कि लगान से बहुत कुछ साम्य रखता है।”
  2. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का नियम (Theory of International Trade)– रिकार्डो ने तुलनात्मक-लगान सिद्धान्त का प्रतिपादन कर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का कारण और ढंग बताया था। उसके सिद्धान्त की यह आलोचना की जा रही थी कि वह वस्तु के मूल्य निर्धारण की अधिकतम और न्यूनतम सीमाओं का तो संकेत करता है लेकिन यह स्पष्ट नहीं करता कि वास्तव में वस्तु का मूल्य कितना और किस प्रकार निर्धारण होगा। मिल ने माँग एवं पूर्ति का विचार प्रदान करके यह बताने का प्रयास किया कि किसी समय, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में एक वस्तु की कीमत क्या होगी। उसने ‘अन्तर्राष्ट्रीय माँग समीकरण’ (Equation of International Demand) द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय विनियम का अनुपात मालूम किया और बताया कि जब किसी देश को उस मात्रा से अधिक वस्तु प्राप्त होती है, जो कि वह स्वयं अपने देश में उतने ही श्रम एवं पूँजी द्वारा पैदा करता है तब उसे विदेशी व्यापार लाभदायक होता है। उसने तुलनात्मक लागत की मान्यताओं को हटाकर इसका सत्य होना प्रदर्शित किया। इस प्रकार उसने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धान्त को अधिक व्यापक बनाया।
  3. लाभ का सिद्धान्त- राष्ट्रीय उत्पादन में श्रमिकों के हिस्से की व्याख्या करने के पश्चात् मिल ने लाभ की व्याख्या की है। मिल के अनुसार लाभ पूँजीपति के आत्मत्याग का प्रतिफल है। स्मिथ तथा संस्थापित अर्थशास्त्रियों के समान मिल ने भी लाभ तथा ब्याज में कोई अन्तर नहीं स्पष्ट किया है यद्यपि उनका कहना था कि लाभ की दर ब्याज की दर से सदैव अधिक होती है। उद्यमकर्ता के लाभ में उसका जोखिम देखभाल की सेवाओं का पारितोषिक भी सम्मिलित होता है। लाभ के सम्बन्ध में मिल रिकार्डों के विचार से सहमत थे उद्यमका का लाभ श्रमिकों की उत्पादकता पर निर्भर करता है। लाभ और मजदूरी में परस्पर सम्बन्ध बताते हुए मिल कहते हैं, “लाभ की दर मजदूरी पर निर्भर करती है, मजदूरी कम होने पर लाभ में वृद्धि होती है तथा मजदूरी अधिक होने पर लाभ में कमी होती है।”

(B) मिल द्वारा प्रतिष्ठित सम्प्रदाय से मतभेद

(Difference with Classical Doctrine)

जान स्टुअर्ट मिल ने जहाँ एक ओर प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के विचारों का समर्थन किया वहीं दूसरी ओर इनका मतभेद भी काफी रहा था। उन्होंने प्रतिष्ठित सम्प्रदाय के विचारों का समर्थन किया था वहीं दूसरी ओर उनका मतभेद भी इनसे काफी रहा था। उन्होंने प्रतिष्ठित सम्प्रदाय के विचारों की आलोचना भी की थी। मिल के विचार निम्नलिखित विषयों पर प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों से भिन्न रहे।

  1. अर्थशास्त्र की परिभाषा एवं विषय क्षेत्र (Definition and Scope of Economics)- प्रतिष्ठित सम्प्रदाय के अर्थशास्त्रियों की धन परिभाषा और अर्थशास्त्र को एक विज्ञान माना था। इसके विपरीत जे०एस० मिल ने इसे धन का विज्ञान मानने के साथ ही इसके नैतिक एवं व्यावहारिक पहलू को मान्यता प्रदान करते हुए अर्थशास्त्र को विज्ञान के साथ कला भी माना है। अर्थशास्त्र उद्देश्य यह बताना नहीं है कि धन को किस प्रकार अर्जित किया जाय वरन् इससे भी बढ़कर इसका उद्देश्य मानव-कल्याण में वृद्धि का रास्ता दिखाना है। इस प्रकार मिल ने अर्थशास्त्र के विषय क्षेत्र को व्यापक बना दिया था अर्थात् मिल के विचारानुसार अर्थशास्त्र को वास्तविक पहलू के अलावा आदर्शात्मक तथा कला के पहलू का भी अध्ययन करना चाहिए। उनके इस विचार को मार्शल तथा पोगू ने अपनाया था और अर्थशास्त्र की धन सम्बन्धी परिभाषाओं की आलोचना से मुक्त करके इसे एक नई दिशा प्रदान की थी।
  2. अर्थशास्त्र के नियम (Economic Laws)- प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का विश्वास था कि आर्थिक नियम सार्वभौमिक (universal) होते हैं। मिल ने इस विचारधारा का खण्डन करके यह बताया था कि प्राकृतिक नियम तथा आर्थिक नियम प्रकृति के आधार पर पृथक् होते हैं क्योंकि दोनों के विषय अलग अलग हैं। मिल के अनुसार आर्थिक नियम सापेक्षिक होते हैं अर्थात् समय तथा स्थान के साथ इनके स्वभाव और प्रकृति में परिवर्तन होता रहता है।
  3. अर्थशास्त्र की अध्ययन प्रणाली (Method of Study of Economics)- प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र के अध्ययन की निगमन प्रणाली (deductive method) को अपनाया था। यद्यपि आरम्भ में मिल ने भी निगमन प्रणाली का समर्थन किया था परन्तु आगस्टे काम्टे के प्रभाव में आने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि अर्थशास्त्र जैसे सामाजिक विज्ञान के लिए केवल निगमन पद्धति का अपनाना इसकी प्रगति में बाधक सिद्ध होगा। बाद में मिल ने आगमन प्रणाली को अपनाने की सलाह दी थी। परन्तु अन्त में वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि अर्थशास्त्र के अध्ययन में इन दोनों अध्ययन प्रणालियों का प्रयोग जरूरी है।
  4. समाज की प्रगति का उत्पादन तथा वितरण का प्रभाव (Effect of Progress of Society on Production and Distribution)- मिल ने स्थिर समाज के स्थान पर एक गत्यात्मक समाज (dynamic society) की कल्पना की है। गत्यात्मक प्रगतिशील समाज ऐसे समाज को कहते हैं जिसमें सभ्य व्यक्ति रहते है तथा धन की प्रगति तथा लोगों की भौतिक समृद्धि का उच्च स्तर होता है। इस समाज में उत्पादन तथा जनसंख्या में भी वृद्धि होती रहती है तथा प्रकृति के ऊपर मनुष्य की शक्तियों का विकास होता रहता है। मनुष्य के ज्ञान का विकास होने के कारण उसका भौतिक वस्तुओं के गुणों के सम्बन्ध में भी ज्ञान निरन्तर बढ़ता रहता है।
  5. आर्थिक जीवन में राज्य का महत्त्व (Importance of State Interference in Economic Life)- यद्यपि मिल कुछ स्थितियों में आर्थिक जीवन में सरकारी हस्तक्षेप के पक्ष में थे परन्तु एडम स्मिथ के समान साधारणत: वे आर्थिक जीवन में सरकारी हस्तक्षेप के समर्थक नहीं थे। उनका कहना था कि राज्य का आर्थिक जीवन में हस्तक्षेप करना केवल उसी सीमा तक उचित है जहाँ तक यह हस्तक्षेप आर्थिक नियमों के मुक्त कार्य में बाधक सिद्ध नहीं होता है।
  6. आर्थिक प्रगति तथा विकास की सीमा- मिल ने बड़े विश्वास तथा दृढ़ता के साथ लिखा है कि “यदि उत्पादन की कला में सुधार नहीं हो तथा यदि धनी देशों से संसार के आकृष्ट भूमि वाले देशों को पूँजी का अधिक निर्यात नहीं हो तो संसार के सबसे अधिक धनी तथा सम्पन देश भी शीघ्र स्थिरावस्था को प्राप्त कर लेंगे।”

परन्तु यह होते हुए भी मिल, माल्थस तथा रिकार्डों के समान निराशावादी नहीं थे।

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