इतिहास

मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव | क्या मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव था | क्या मौर्य कला विदेशी प्रभाव के अन्तर्गत विकसित हुई

मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव | क्या मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव था | क्या मौर्य कला विदेशी प्रभाव के अन्तर्गत विकसित हुई

मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव

मौर्य युगीन कला की अनपी एक अलग विशेषता है जिसके कारण ज्यादातर विद्वान भारतीय कला पर विदेशी प्रभाव को स्वीकार करते हैं। पर्सी ब्राउन का कहना है कि “अपने आरम्भिक काल में ही मौर्य राज्य अपनी पश्चिमी सीमा के बाहर अपने से अधिक विकसित एवं उन्नत सभ्यता की ओर दृष्टिपात कर रहा था और स्थापत्य के लिए प्रेरणा ग्रहण कर रहा था।“ डा०विसेन्ट स्मिथ ने लिखा है कि “वास्तुकला और मूतिकला में अचानक प्रस्तर का प्रयोग बहुत अंशों में विदेशी सम्भवतः पर्सिया का परिणाम है।”

नीहार रंजन राय के शब्दों में इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि प्रेरणा विदेश (बाहर) से मिली है।

बेन्जामिन रौ लैण्ड के अनुसार-“मौर्य संस्कृति की भाँति मौर्य कला भी अधिकांश में विदेशी हैं।

श्री रामप्रसाद चन्दा के अनुसार-“फारस के पाषाण भवनों की प्रतिकृति में ही अशोक ने वास्तुकला में प्रस्तर का प्रयोग किया और इस कार्य में उसने विदेशी कलाकारों से सहायता ली।”

भगवत शरण उपाध्याय का कहना है कि “ईरानी मिस्त्री संस्कृति का प्रभाव भारतीय संस्कृति पर है, लेखन कला पर है किन्तु इससे भी अधिक महत्त्व कोई ईरानी प्रभाव भारतीय मूर्तिकला पर पड़ा है।

उपर्युक्त विद्वान लेखकों की इस मान्यता का आधार क्या है? यह एक विचारणीय प्रश्न है। डा० स्पूनर ने इस सम्बन्ध में कई तर्क दिये हैं जिसका सार इस प्रकार है-

(1) मौर्य भवनों का निर्माण डेरियस के पेरीमहल और सूसा के महलों की नकल पर हुआ है। पर्सिया के बड़े-बड़े महलों की छत पाषाण-स्तम्भों पर आधुत है। इसी भांति अशोक की भवनों की छत भी पाषाण-स्तम्भों पर आधृत थी। स्तम्भों की दूरी भी पर्सिया के महलों के स्तम्भों पर आधारित है। महाभारत के ‘मय’ दानव को वे ईरानियों के “आहुरमजद” मानते हैं। डा० स्मिथ भी स्पूनर के समान ही कुम्हार को हाल के पर्सिया के हाल की नकल पर बना मानते हैं।

(2) स्तम्भ का चिकना भाग पर्सियन शैली से प्रभावित है।

(3) चमकदार पालिश भी फारस के कलाकारों की देन है।

(4) स्तम्भ के ऊपर घण्टे की आकृति का शीर्ष भी विदेशी है।

(5) अशोक के अभिलेखों की शैली सम्राट दरायुश के अभिलेखों की शैली के समान है। पहले लेख में अन्य पुरुष का प्रयोग किया गया है और बाद में उत्तम पुरुष का । उपयुक्त आधारों पर ही अशोक की कला पर विदेशी प्रभाव को स्वीकार किया जाता है। डा० विन्ध्येश्वरी प्रसाद सिंह ने इस प्रभाव को इन शब्दों में स्वीकार किया है-

“मौर्य साम्राज्य की स्थापना के दो-ढाई सौ वर्ष पहले ईरान के ककूकमोनियनवंश का राज्य स्थापित हो चुका था।…..इसके संरक्षण में कला की अत्यधिक उन्नति हुई। प्राचीन ईरानी कलाकारों ने पत्थरों के बने विशाल राजभवनों का निर्माण किया। सूसा, पार्सियोलिस और इकबतना के सुन्दर भवनों की प्रशंसा यूनानी विजेताओं ने मुक्त कण्ठ से की तथा पुरातत्व विज्ञान ने इसकी पुष्टि की। अशोक के अभिलेखों की शैली और सम्राट दरायुश के अभिलेखों की शैली एक है। पहले अन्य पुरुष और फिर उत्तम पुरुष का व्यवहार उल्लेखनीय है। अशोक का उल्टे कमल द्वारा स्तम्भ शिरोभाग ईरान के घण्टीनुमा स्तम्भ के आधार (Base) से इतना मिलता शिरोभाग ही माना जाता था। पर्सिया के राजभवनों में बड़े-बड़े हाल थे जिनकी छत पाषाण स्तंभों पर टिकी थी। स्तंभों को ध्यान में रखकर अशोक ने स्वतंत्र खड़े स्तंभ का निर्माण कराया होगा। कुम्हरार में जो 80 स्तंभों वाले हाल के अवशेष मिले हैं, वही ईरानी प्रेरणा की ही अभिव्यक्ति माने गए हैं। मौर्यकालीन पाषाण स्मारकों पर जो आइने-सी चमक है, वह अकमेनियम भवनों पर भी मिलती है। अशोक के स्तम्य शीर्ष  पर जो पशु-मूर्तियाँ बनी हैं उनके भी आदर्श ईरानी ही प्रतीत होते हैं, विशेषकर सिंह का मुख और उसके आयल जिस निश्चयात्मक शैली के उदाहरण हैं, उसका इतिहास अवश्य ही पुराना है और वे किन्हीं अभ्यास कलाकारों की कृतियाँ हैं।…..मौर्य स्तम्भशिराओं पर या आसन पर कुछ ऐसे चित्र खुदे हैं, जैसे-छोटे. ताड़-वृक्ष, मनके (Beads) ऐंठी रस्सी, यूनानी पौधे (Acanthus) और पत्तियाँ-जिससे यूनानी कला के प्रभाव का भी अनुमान किया गया है। …..उसने वहाँ के कुछ कलाकारों को अवश्य ही बुलाया होगा और उनके द्वारा भारतीय शिल्पकला के कलाकार प्रशिक्षित किए गए होंगे। इस प्रकार मौर्यकालीन पाषाण-स्मारकों की उत्कष्ट कला और विलक्षण ‘चमक’ को समझना आसान हो जाता है। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद इस कला का अचानक अन्त हो जाना भी युक्तिसंगत है, क्योंकि यह कला भारतीय परम्परा पर नहीं, वरन् विदेशी अनुकरण पर राजकीय प्रेरणा और निर्देश पर आधारित थी।”

यद्यपि जायसवाल जैसे भारतीय विद्वानों ने भारतीय कला पर विदेशी प्रभाव के सिद्धान्त का खंडन किया है, किन्तु भारतीय विद्वानों ने मौर्यकला पर विदेशी यूनानी-ईरानी प्रभाव को स्वीकार किया है। नीहार रंजन राय मौर्यकला को कमल वनस्पतियों को सुरक्षित रखने वाले शीशे के कृत्रिम भवन (Hot house plant) में उत्पन्न और पल्लवित मानते हुए-मौर्य साम्राज्य की समाप्ति के साथ कृत्रिम भवन की समाप्ति स्वीकार करते हैं, क्योंकि भारतीय वातावरण में वह विदेशी पौधा सूख कर नष्ट हो गया है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि मौर्यकला (वस्तु-मूर्ति) पर ईरानी और यूनानी प्रभाव को अधिकांश विद्वानों ने स्वीकार करते हुए मौर्य तथा यूनानी कला का साम्य देखा है। इन कलाओं में अनेक तत्वों के समान होने पर भी दोनों में असमानता भी पर्याप्त है। वह इस प्रकार है-

विदेशी कला

  1. ईरानी स्तम्भ एक पत्थर से निर्मित न होकर तीन या अधिक जोड़ों से निर्मित हैं, उन पर गाढ़ा मोटा पीला रंग चढ़ाया गया है।
  2. विदेशी कला सप्रयोजन है। ईरानी पाषाण-स्तम्भ न होकर भवनों का भार वहन करते हैं। इस प्रकार ईरानी स्तम्भ स्थापत्य कला के अंग हैं।
  3. सम्राट् दरायुश के शत-स्तम्भ भवन के सभी स्तम्भों पर भी रेखाएँ उत्कीर्ण हैं।
  4. ईरानी स्तम्भ के ऊपरी भाग पर घण्टाकृति बनी रहती है।
  5. ईरानी स्तम्भ के शीर्ष भाग पर दो चार पशुओं की पीठ-सटी.मूर्तियाँ बैठी हुई हैं। इन मूर्तियों में अश्व मूर्तियाँ हैं, अथवा अमानवीय पशु प्रधान मूर्तियाँ हैं। भारतीय वृषभ का अभाव है।
  6. विदेशी कला केवल भौतिक सौन्दर्य को ही जानती है।

मौर्य कला

  1. मौर्यकालीन स्तम्भ स्वतन्त्र रूप में प्रतिष्ठित हों अथवा भवनों के अभिन्न अंग हों, किन्तु वे एक प्रस्तर से बने हुए हैं। कला की दृष्टि से कलाकार की लगन और मनोयोग के परिणाम है।
  2. मौर्य कला ‘कला के लिए’ इस सिद्धान्त की समर्थक है। अशोक के स्तम्भ स्वतन्त्र स्मारक के रूप में खड़े हैं।
  3. मौर्य स्तम्भ बहुत अधिक सामान्य है; उन पर ‘ओप’ तो है, किन्तु नक्काशी नहीं।
  4. मौर्य कला में स्तम्भ के ऊपरी भाग पर घण्टा है, अथवा कमल की पंखुड़िया, इस पर विद्वानों में मतभेद है। हैवेल तथा कुमार स्वामी ने मौर्य स्तम्भों के शिरोभाग पर घण्टे की अपेक्षा उल्टे कमल की पंखुड़ियों के चित्र स्वीकार किये हैं।
  5. मौर्य कला में पशु मूर्तियाँ स्वाभाविक हैं, मूर्तियों के बैठने का ढङ्ग समान है, इसके अतिरिक्त मौर्य स्तम्भ शीर्ष के सिंह के अयाल तथा उनके मुँह बहुत कुछ मिलते- जुलते हैं।
  6. इसके विपरीत भारतीय कला अपनी कल्पना की उन्मुक्त उड़ान से स्वर्गीय सौन्दर्य को वसुधा पर ही उतारने में कृत-संकल्प रहती है।

इस प्रकार यद्यपि मौर्य कला तथा विदेशी कला के स्तम्भों में अन्तर है फिर भी यह सत्य है कि ईरानी और यूनानी कला-परम्पराओं (जैसे छोटे ताड़ वृक्ष, दानों और ऐठी रस्सी) को भी मौर्यकालीन कलात्मक कृतियों में देखा जा सकता। इसके अतिरिक्त हमें यह बात भी विस्मृत नहीं कर देनी चाहिए कि ‘मगध में ताड़ वृक्षों की बहुतायत है, और नीचे से ऊपर तक गाय दुमाकर स्तम्भ ताड़ वृक्ष के आदर्श पर ही बनाये गये हैं।’

यह भी सम्भव है कि मौर्य कला के इन स्तम्भ-स्मारकों की प्रेरणा व पृष्ठभूमि में वैदिक रूप हों, जो कि यज्ञ के स्मारक रूप में स्थापित किये जाते थे। इसके अतिरिक्त भारतीय संस्कृति में घट से निसृत कमल का प्रतीक के रूप में प्रयोग अति प्राचीन है। यही कमल मौर्य स्तम्भों में भी अंकित हैं। इन स्तम्भों में पशुओं का बैठाया जाना भी प्राग्वैदिक ही है। वैदिक यज्ञों की पशु-बलि ने भी सम्भवतः यहाँ प्रेरणा का कार्य किया है। बौद्धों ने इन्हें यक्ष-यक्षिणी के रूप में स्वीकार किया है।

हैवेल ने इसका अंकन भातीय आदर्श, परम्परा एवं भावना के अनुरूप ही स्वीकार किया है।

इस प्रकार मौर्य कला के इन स्मारकों के अध्ययन के फलस्वरूप हम इस निष्कर्ष पर सहज ही पहुँचते हैं कि मौर्य कला का क्रमिक किन्तु तेजी से विकास हुआ है। भखरा स्तम्भ, लौरिया, नन्दनगढ़ स्तम्भ, सारनाथ का स्तम्भ क्रमिक विकास के सूचक हैं। यह भी सम्भव है कि मौर्य कला की अशोकीय राजकीय कलाकृतियों के निर्माण में विदेशी कलाकारों का सहयोग रहा हो किन्तु यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियों का अंकन सर्वथा भारतीय कलाकारों की प्रतिभा का परिणाम है। इन मूर्तियों के आधार पर हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि मौर्य- काल में भारतीय शिल्पी प्रस्तर की मूर्तियों और भवनों के निर्माण में कुशल हो चुके थे। जिमर साहब ने ठीक ही लिखा है-“अशोक के राज्य में सहसा अद्भूत और तदनन्तर तीव्र गति से विकास प्राप्त कृतियों की पूर्णता एवं अनुपम अवस्था से यह प्रत्यक्ष है कि शताब्दियों पूर्व भारतीय धार्मिक कला की वेगवती धारा तीव्र गति से प्रवाहित हो रही थी। जिन शिल्पियों ने साँची के महान् स्तूप को अत्यन्त अलंकृत तोरणों, भरहुत के ध्वस्त तथा अमरावती और बोधगया के मन्दिरों का निर्माण किया, उन्होंने अत्यन्त कुशलतापूर्वक नये धर्म की विशिष्ट आवश्यकताओं और किम्वदन्तियों को प्रधानतः अपनी परम्परागत कला चेष्टाओं में आत्मसात् कर पाषाण पर उत्कीर्ण (रूपान्तरित) कर लिया है।

शताब्दियों से जो भारतीय कला यत्र-तत्र बिखरी विभिन्न रूपों में जीवन श्वास से ले रही थी, दुढ़ महत्त्वाकांक्षी और कला प्रेमी वैभवपूर्ण मौर्य सम्राटों के काल में अपने पूर्ण विकास को प्राप्त हुई। यह भी सच है कि मौर्यकाल के पूर्व भारतीय कला में काष्ठ प्रयोग होता था। परिणामतः शीघ्र नष्ट हो जाने वाले काष्ठ के स्मारक आज उपलब्ध नहीं हैं। एक तथ्य यह भी ध्यान देने योग्य है कि प्राचीन प्रागैतिहासिक काल से ही भारतीय संस्कृति समकालीन विश्व की संस्कृतियों से आदान-प्रदान करती रही थी, इसलिए एक-दूसरे देश की संस्कृति-सभ्यता- कला आदि का प्रभाव विभिन्न देशों की संस्कृति एवं कला से सहज ही खोजा जा सकता है।

डा० विन्ध्येश्वरी प्रसाद सिंह ने इस तथ्य का बहुत ही प्रामाणिक विवेचन किया है। उनका कहना है कि, ‘बसाढ़ में पाई गई पंख युक्त स्त्री मूर्ति पर यूनानी और रोपन प्रभाव नहीं है, बल्कि सुमेरी प्रभाव मानना अधिक उपयुक्त होगा। प्राचीन सुमेरी मन्दिरों के द्वार पर द्वारपाल के रूप में कांसे या मिट्टी की बनी सिंह-मूर्ति प्रतिष्ठित की जाती थी। एक चतुर्भुजाकार चौखटे (abacus) पर बैठे हुए सिंह और उसके अयाल का चित्रण अशोक-स्तम्भ के सिंह-शिरोभाग से भिन्न नहीं है।….प्राचीन सुमेर के ‘इश्नुमा’ नामक नगर राज्य के पूर्व राज्यकालं (Early dynastic period) की एक बेलन के आकार की मुहर पर हाथियों और गैंडे का चित्र उत्कीर्ण है, जो अशोक के समय की लोमश ऋषि गुहा (बारबर, गया) के प्रवेश द्वार पर उत्कीर्ण हाथियों की याद दिलाता है।…..असीरिया की कला सुमेर और बेबीलोनिया की कला पर ही विकसित हुई…..असीरिया की कला में अत्यन्त विशाल और ओजस्वी सांड़ और सिंहों की मूर्तियाँ प्रभावोत्पादक हैं। अशोक कालीन मूर्तियों में ऐसे शरीर और भाव का समावेश है। असीरियन सिंह मूर्ति में सिंह के अयाल का विधिवत् या रूढ़-चित्रण अशोक कालीन सिंह मूर्तियों के अयाल से बहुत भिन्न नहीं, डा० साहब के उद्धरण के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर शीघ्र पहुंच जाते हैं कि-

“मौर्यकाल की पाषाण कला-कृतियों में उपलब्ध विदेशी तत्व भारतीय कला में बहुत पहले ही स्थान प्राप्त कर चुके थे, किन्तु प्राचीन भारत की कलाकृतियों काष्ठनिर्मित होने के कारण आज हमारे पास सुरक्षित नहीं हैं। दूसरी ओर मौर्य-सम्राट अशोक ने अपने धर्म प्रचार और आदर्श को चिरस्थायी बनाने के लिए प्रस्तर को अपनाया-वैभवपूर्ण सम्राटों को इस कार्य में किसी प्रकार की बाधा न थी। अतः “चुनार की पहाड़ियों को काटकर, बलुआ पत्थर की विशाल चट्टानों को पाटलिपुत्र लाया गया और राज्य के प्रत्यक्ष संरक्षण में स्तम्भ और शिरोभाग बनाये गये जिन्हें दूर-दूर तक भेजकर अनेक स्थानों पर खड़ा किया गया। अशोक ने इन कामों के लिए पर्याप्त यातायात और यन्त्र विद्या (Engineering Skill) के विकास की भी पूरी चेष्टा की होगी।

निष्कर्ष यह है कि मौर्य कला पर यूनानी ईरानी प्रभाव को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है, किन्तु यह प्रभाव प्रत्यक्ष न होकर संस्कृतियों के सम्पर्क के माध्यम से है तथा सीधे ही यूनानी प्रभाव न होकर ईरानी या असीरिया के माध्यम से अधिक हो सकता है। इसके अतिरिक्त एक बात और भी है कि ईरान का पड़ोसी भारत ईरानी कला से पूर्णतः परिचित था, किन्तु उसका परिचय असीरिया और सुमेर की प्राचीनतम कला परम्परा से भी अवश्य ही था। अतः यह कहना अधिक तर्कसंगत है कि पश्चिमी एशिया की संस्कृतियों का भारतीय कला पर प्रभाव पूर्व-मौर्ययुगीन है और वह विचारों के आदान-प्रदान का परिणाम है।

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Pankaja Singh

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