इतिहास

मौर्य कालीन मूर्तिकला | मौर्य युगीन कला की विशेषताएँ | मौर्यकालीन मूर्तियों का विषय

मौर्य कालीन मूर्तिकला | मौर्य युगीन कला की विशेषताएँ | मौर्यकालीन मूर्तियों का विषय

मौर्य कालीन मूर्तिकला (Mauryan Sculpture)-

भारतीय कला के इतिहास में मौर्य युग अत्यन्त विख्यात है। वस्तुतः मौर्यकाल से ही, भारतीय कला का वास्तविक इतिहास प्रारम्भ होता है। मौर्य साम्राज्य के प्रथम दो सम्राटों-चन्द्रगुप्त एवं बिम्बिसार को साम्राज्य का विस्तार करने में संलग्न रहने के कारण कला का विकास करने के लिये बहुत कम समय मिल सका। सम्राट अशोक के कलिंग में विजयी होने के पश्चात् युद्ध का परित्याग कर दिया तथा उसने उसके बाद का समय, कला के माध्यम से बौद्ध धर्म का प्रचार करने में ही व्यतीत किया। सम्राट अशोक के समय के धर्म का प्रचार करने में ही व्यतीत किया। सम्राट अशोक के समय में धर्म एवं राज्याश्रय प्राप्त कर कला, उन्नति के चरम शिखर पर पहुंच गयी। वास्तव में अशोक से ही प्राचीन भारतीय कला के इतिहास का प्रारम्भ होता है। Gokhley ने अपनी पुस्तक “Ancient India” में लिखा है -“It is only with Ashoka that we can properly begin the history of the art of Ancient India.”

अशोक के काल की मूर्तिकला का प्रतिनिधित्व उसके स्तम्भों शीर्षस्थ पशु प्रतिमायें करती हैं। ये पशु मूर्तियाँ उसके काल की पाषाण मूर्तिकला के भव्य उदाहरण हैं।

सारनाथ के स्तम्भ शीर्ष के सिंह, इस देश की मूर्तिकला में अकेले हैं। उनके समान न पहले कुछ था न बाद में कुछ हो सका। उनकी शालीनता, प्रकृति विरुद्ध शान्त मुद्रा उस अशोक की राजनीति के अनुरूप ही थी, जिसने ऐश्वर्य एवं राजस्व की परम्परा ही परिवर्तित कर दी।

इन पर हुई चमकीली पॉलिश को देखकर अनेक अंग्रेज यात्रियों ने इन्हें संगमरमर, पीतल अथवा अन्य किसी धातु से निर्मित समझा।

अशोक के स्तम्भ के ऊपर के भाग में उल्टा कमल का फूल बना हुआ है, जिसमें पत्तियां अत्यन्त कलात्मक ढंग से बनाई गयी है। पुष्प के ऊपर अंगूठी के घेरे के समान गोल और कहीं- कहीं पर रस्सी के सदृश ऐठी हुई किनारी बना हुई है। इसमें चक्र को विशेषकर अत्यन्त भव्य बनाया है जो धर्म चक्र का प्रतीक है। सारनाथ के शीर्ष के सम्बन्ध में श्री सत्यकेतु विद्यालंकार ने लिखा है-“सिंह की चार मूर्तियाँ हैं। मूर्तिकला की दृष्टि से इनमें कोई भी कमी एवं दोष नहीं हैं। पहले इन मूर्तियों की आँखें मणियुक्त थीं, अब उनमें मणियाँ नहीं हैं।…..सिंह की चार  मूतियों के नीचे चार चक्र हैं, चक्रों के मध्य हाथी, सौड़, अश्व एवं सिंह अंकित है। इन चक्रों और प्राणयों को चलती हुई दशा में बनाया गया है। इनके नीचे का भाग विशाल घण्टे की तरह का है।” शीर्षस्थ पशु-कला का विकास, बसरा में रामपुरवा में अधिक एवं सारनाथ के सिंहों से और अधिक प्राप्त होता है।

श्री बी० ए० स्मिथ के अनुसार भी-“विश्व के किसी भी देश में इतनी भव्य अथवा इनकी समानता करने वाली पशुओं की मूर्तियों के अंकन पाना कठिन है। इनके अन्दर कल्पना एवं यथार्थता का सुन्दर एवं सफल मिश्रण किया गया है और उनका प्रत्येक भाग दोषों से दूर है।”

श्री वी०जी० गोखले के शब्दों में-“The lion is no ordinary lion a denizen of the frightening wild roaring of an evenings across a mountain spur in search of prey but a symbol of dignitied srength and noble determination.”

श्री वी० एन० लूनिया ने लिखा है- “इन सिंहों की तथा पशुओं की आकृतियों सुन्दर, देखने योग्य तथा गौरवपूर्ण है जिनमें कल्पना वास्तविकता का सुन्दर समन्वय है। सिंहों के गठीले अंग-प्रत्यंग समान रूप से विभाजित हैं तथा ये कलापूर्ण चातुर्य से गढ़े हुए हैं। उनकी लहराती हुई, लहरदार केश राशि का एक-एक केश अत्यन्त सूक्ष्मता एवं भव्यता से प्रदर्शित किया गया है। इनमें इतनी सजीवता, नजीवता एवं आकर्षण है कि आज ही के बने प्रतीत होते हैं।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि मौर्यकाल के साम्य, के सामान विश्व में कहीं भी इस प्रकार के स्तम्भ परिलक्षित नहीं होते।

मौर्य युग की मिट्टी से निर्मित कुछ मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं। इन मूर्तियों का निर्माण केवल हाथों से ही किया जाता था। अधिकांशतः मूर्तियाँ काली मिट्टी से बनाई जाती थीं। अथवा उन पर काली पालिश कर दी जाती थी। कुछ मूर्तियाँ स्लेटी रंग की भी प्राप्त हुई हैं। मौर्य युग की स्त्री-मूर्तियाँ ही अधिक संख्या में प्राप्त हुई हैं। पृथु श्रोणी पर मोटी सी रशना एवं पीठ पर लहराती हुई माला इन मूर्तियों की प्रमुख विशेषता है। कभी-कभी इन मूर्तियों का चेहरा पशु- पक्षी के समान तथा नाक चोंच जैसी दिखाई देती है। मौर्य युग की मिट्टी की मूर्तियाँ में शरीर निर्वस्त्र लेकिन अल्प आभूषणों से अलंकृत किया जाता था। इनकी आँखें उकेर कर बनाई जाती थीं। तथा शरीर पर छोटे-छोटे गोल निशान भी बना दिये जाते थे। मथुरा संग्रहालय के मूर्तिकक्ष में प्रदर्शित मातृवेवी की मूर्ति ऐसी है। इन मूर्तियों में आभूषणों को पृथक् से चिपकाया जाता था।

मौर्य युग से पहले मिट्टी की पूर्तियों के निर्माण में साँचे का बहुत कम प्रयोग किया जाता था। प्रारम्भ में केवल पुख के भाग को बनाने हेत. साँचे का प्रयोग किया जाता था तथा हाथ से निर्मित शरीर पर, वह मुंह चिपका दिया जाता था। यही कारण है कि इन मूर्तियों के मुंह सुडौल एवं सुन्दर हैं। लेकिन कालान्तर में, सिर के ऊपरअलंकृत केश विन्यास एवं अलंकारों को भी साँचे में ढालकर निर्मित किया जाने लगा, परन्तु शरीर अब भी हाथों से ही बनाया जाता था।

मौर्य युग में भी मिट्टी की मूर्तियाँ बनाने का यही तरीका प्रचलित था, लेकिन उसमें नवीनता आ गई। अब मूर्तियों में मुख ‘मानव मुख’ के समान बनाया जाने लगा, पशु या पक्षी के समान नहीं। शरीर के अंगों में स्तनों एवं नाभि को पूर्ण रूप से प्रदर्शित किया गया है। तथा केशों की सजावट में कलात्मक अलंकरण दिखाई देते हैं। इस समय के मूर्तियों के आभूषणों की संख्या में भी वृद्धि हो गई थी तथा स्त्री मूर्तियों के अतिरिक्त पुरुष मूर्तियां भी मिलने लगी थीं। विदेशी युवकों की मूर्तियाँ, इस सम्बन्ध में देखने योग्य हैं। मिट्टी के अतिरिक्त, हाथी आदि पशुओं की मूर्तियाँ भी इस युग में निर्मित होने लगी थीं। मूर्तियों पर काली चमकदार पालिश परिलक्षित होती है। मूर्तियों पर पालिश मथुरा के अतिरिक्त अन्य किसी स्थान पर उत्खनन में प्राप्त मूर्तियों पर नहीं पाई गई है। भगवत शरण उपाध्याय के अनुसार-“इसी प्रकार, मौर्ययुगीन मिट्टी के ठीकरों का मूर्तन भी अत्यन्त सुन्दर हुआ है। साँचे पर ढले ठीकरों पर अभिरा स्त्री मूर्ति रेखाओं द्वारा अपनी नैसर्गिक छटा में आकलित हुई है। वह कैश की विभिन्न वेणियों को संभार लिये सूक्ष्म वस्त्र सहित रेखान्वित हुई है। उसकी समता केवल आने वाले युग की परिणति में है।”

मौर्य युग में, मनुष्यों, यक्ष-यक्षणियों, गन्धों, देवी-देवताओं आदि की मूर्तियाँ बनाई जाती थीं। मौर्यकाल की मूर्तियों में, विदिशा (बेसनगर) से प्राप्त यक्षिणी की प्रतिमा, पटना व दीदारगंज में प्राप्त यक्ष की मूर्तियाँ तथा अन्य प्रतिमायें, भरतपुर के निकट नोहगाँव में प्राप्त यक्ष प्रतिमा, बम्बई से प्राप्त यक्ष-यक्षिणी की प्रतिमायें, मथुरा के निकट परखम में प्राप्त यक्ष प्रतिमा, परखम के समीप बरोंदा में प्राप्त भग्न यक्ष की प्रतिमा, विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। यक्षों की कल्पना, लोक जीवन से उत्पन्न हुई थी तथा गांवों में उनकी उपासना होती थी। व्यक्ति जिसे उच्च एवं बड़ा समझता है तथा उसी की ही आराधना करता है। उसकी कभी- कभी विशालता एवं महानता प्रकट करने हेतु अत्यन्त भव्य आकार में बलिष्ठ शरीर में चित्रित करता है। मथुरा के निकट परखम से प्राप्त यक्ष मूर्ति, लगभग सवा दो मीटर ऊँची है तथा भूरे बलुए रितीले) प्रस्तर की है। इस मूर्ति के ऊपर सुन्दर चमकीली मौर्यकालीन पॉलिश है। इस मूर्ति में यक्ष बलिष्ठ एवं स्थूलकाय है, उसका पेट भी कुछ बाहर की ओर निकला हुआ है। वह घुटनों के नीचे तक धोती पहने हुए है। कटि में दुपट्टा बँधा हुआ है, जिसका एक किनारा लटका हुआ है। उसके गले में अनेक लड़ियों की माला है, जिसके मध्य में, चौकोर ठप्पे बने हुए हैं। इस माला के अतिरिक्त कण्ठा भी है। यह यक्ष मूर्ति मथुरा संग्रहालय में हैं। बरोंदा से प्राप्त यक्ष की मूर्ति की छाती पर दुपट्टा बँधा हुआ है। गले में मोटा कण्ठा है, जिसके चार फुन्दे पीछे पीठ कर लटके हैं। पटना से प्राप्त. या प्रतिमाओं का भी इस प्रकार की है। दीदारगंज से प्राप्त, चैवरधारिणी स्त्री की मूर्ति उत्तम है। इस मूर्ति में नारी के दाहिने हाथ में पाँधर है, गले में मालायें हैं, हाथ चूड़ियों से भरा है, मस्तिष्क पर मुकुट है, तथा खुले बाल पीछे पीठ पर लटक रहे हैं। स्त्री प्रतिमा के मस्तिष्क पर किरीट पहली बार दिखाई देता है। इसके पश्चात् की मूर्तियों में वह प्राप्त नहीं हुआ है। चैवरधारिणी मूर्ति में मौर्ययुग की प्रौढ़ता परिलक्षित होती है। मूर्ति का प्रत्येक अंग सुडौल है तथा सौष्ठव एवं लालित्य का निश्रण है। बम्बई से प्राप्त यक्ष मूर्तियाँ परखम से प्राप्त यक्ष प्रतिभा के समान ही विशाल है, पर वे कोरकर निर्मित की गई हैं। ये अर्द्धचित्र के समान परिलक्षित होती हैं। इनमें यक्ष धोती पहने हैं। उनके ऊपर एक दुपट्टा बैंधा है, जिसके दोनों किनारे लटक रहे हैं। उसके निकट एक यक्षिणी खड़ी है। यह बारीक चुन्नट वाली धोती पहने हुए है। उसमें से उसके अंग दिखाई दे रहे हैं। धोती पर एक पट्टा बँधा हुआ मस्तिष्क पर सोफे के समान कोई वस्तु है। हाथों में आभूषण हैं तथा पैरों में मोटे कड़े हैं। बेसनगर की नारी प्रतिमा भी भव्य एवं आकर्षक है तथा लगभग सवा दो मीटर ऊँची है। इन मूर्तियों के अतिरिक्त मौर्यकाल की जैन तीर्थंकरों की उच्च कोटि की सजीव प्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं। ये जैन प्रतिमायें, सम्राट अशोक के पौन सम्पत्ति के शासन काल की मानी जाती है। इन प्रतिमाओं की सजीवता, भव्यता, आकृति, वेशभूषा एवं अलंकरण को देखने से यह ज्ञात होता है कि मौर्यकाल में मूर्तिकला उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गयी थी।

मौर्य युगीन कला की विशेषताएँ

मौर्यकालीन कला की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं जो इस प्रकार हैं-

(1) मौर्यकालीन कला भाव प्रकाशन में सर्वथा समर्थ हैं। यह इस कला का सर्वोच्च गुण हैं।

(2) ठोस पाषाण स्तम्भों में मौर्ययुगीन सादे स्तम्भ शीर्ष पर कलापूर्ण पशु मूर्तियों एवं उलटा कमल मनमोहक है।

(3) ये पाषाण स्तम्भ एक ही प्रस्तर से निर्मित है जो कि शिल्पियों की सूक्ष्म कला कुशलता और उसकी यथार्थता के सूचक हैं। स्तम्भों के शीर्ष में सौन्दर्य अनुपात और सूक्ष्मता का विशेष ध्यान रखा गया है।

(4) इसके अलावा मौर्ययुगीन स्मारकों की यालिश जो कि आज भी वैसी ही है, अन्य विशेषता है।

(5) चुनार के पत्थर का प्रयोग हुआ है।

भातीय स्थापत्य कला के इतिहास में मौर्ययुग अद्वितीय है। मौर्ययुगीन अनुपम स्मारक भारतीय कला की संग्रहणीय निधि है। परवर्ती युग में मौर्य कला जैसी कला का उदय नहीं हुआ; सम्भवतः इसका कारण परवर्ती कला में मौर्य-युग जैसी कला को संरक्षण न मिलता रहा हो, जो भी कारण सही, किन्तु यह सत्य हैं कि मौर्य-युग जैसी कला के दर्शन बाद में नहीं होते हैं।

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Pankaja Singh

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