शिक्षाशास्त्र

मनोविकृत्यात्मक विधि | परीक्षणात्मक विधि | विकासात्मक विकास

मनोविकृत्यात्मक विधि | परीक्षणात्मक विधि | विकासात्मक विकास

मनोविकृत्यात्मक विधि-

यह विधि एक प्रकार से मनोविश्लेषणात्मक विधि की सहयोगिनी है। दोनों में अन्तर यही है कि इसका प्रयोग केवल मानसिक विकार वाले लोगों के लिए होता है। मनोविकृति विज्ञान का तात्पर्य है मन को क्रियाओं एवं प्रक्रियाओं में शारीरिक एवं मानसिक अव्यवस्था या रोग से उत्पन्न विकारों दोषों एवं रोगों का क्रमबद्ध अध्ययन । इस विधि का प्रयोग असामान्य व्यक्तियों जैसे पागलों, मानसिक रोगग्रस्त लोगों की मानसिक क्रियाओं के विश्लेषण में होता है। बालकों के असाधारण व्यवहार तथा उनके मानसिक कष्टों एवं रोगों की भी जानकारी इसी विधि से होती है। इससे उनके जटिल व्यवहारों को समझना संभव होता है। उपचार एवं सुधार का प्रयत्न सरल एवं सम्भव होता है।

(क) गुण(i) यह विधि भी मनोविश्लेषणात्मक विधि के समान मानसिक रोगों के उपचार एवं व्यक्तित्व के सही व्यवस्थापन में होती है।

(ii) इसके द्वारा बालकों एवं प्रौदों के मानसिक रोगों का भी ज्ञान होता है और इसके लिये उचित व्यवस्था की जाती है।

(iii) मानसिक विकास करना शिक्षा का लक्ष्य होता है जो इस विधि की सहायता से सम्भव होती है।

(ख) दोष- (i) यह विधि जटिल होती है। सभी लोग इसका प्रयोग नहीं कर सकते हैं।

(ii) इसके लिये विशेष प्रकार की ट्रेनिंग होती है और सभी लोग ट्रेनिंग नहीं ले सकते हैं। केवल मनोरोगवेत्ता ही इसमें सफल होता है।

(iii) इसके लिए प्रयोगशाला एवं चिकित्सालय की आवश्यकता पड़ती है जिसकी व्यवस्था के लिये काफी धन की आवश्यकता पड़ती है।

परीक्षणात्मक विधि-

आधुनिक काल में ननोविज्ञान एवं शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में परीक्षणों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। प्रवेश, चुनाव, वर्गीकरण, निर्देशन, मूल्यांकन आदि के लिये परीक्षण का प्रयोग बड़ी मात्रा में किया जाता है। इसलिये परीक्षणात्मक विधि भी बन गई है। परीक्षणों के आधार पर व्यक्ति की बुद्धि उपलब्धि, अभिक्षमता, व्यक्तित्व, रुचि, अभिवृत्ति आदि की जाँच की जाती है। परीक्षणात्मक विधि वह तरीका है जिससे व्यक्तिगत विशेषताओं को जाँचने का प्रयत्न होता है।

(क) गुण- (i)  वैयक्तिक भिन्नताओं को जानने की यह उत्तम विधि है। फलस्वरूप उसी के अनुसार बालक की रुचि, योग्यता, अभिक्षमता और अभिवृत्ति पर आधारित शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है।

(ii) इस विधि से व्यक्तिगत, व्यावसायिक, शैक्षिक सभी प्रकार के निर्देशन देना सरल होता है। इससे व्यक्ति को अपने जीवन में सफलता प्रदान की जाती है।

(iii) यह विधि शिक्षित एवं अशिक्षित सभी के लिये उपयोगी बताई गई है। शिशु, बालक, किशोर, युवा, प्रौढ़ सभी अवस्थाओं के लिये परीक्षण बने हैं। सभी क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाले परीक्षण तैयार हो जाने से इस विधि की सर्वाधिक उपयोगिता है।

(iv) मौखिक, लिखित एवं क्रियात्मक ढंग के परीक्षण होने से इस विधि से सभी ढंग से काम लेना सम्भव है। क्रियात्मक एवं रचनात्मक परीक्षणों के निर्माण कार्य विधि की व्यावहारिकता पाई जाती है।

(v) यह विधि विश्वसनीय है, प्रामाणिक है और वैज्ञानिक है, इसलिये सही परिणाम मिलते हैं और उस पर आँख मूंद कर काम किया जा सकता है।

(vi) इस विधि ने प्रयोगात्मक विधि की तरह ही मनोविज्ञान एवं शिक्षा मनोविज्ञान को एक विधायक एवं विश्लेषक विज्ञान बना दिया है।

(vii) नैदानिक एवं उपचारी परीक्षण का प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में विशेषकर होता है। इससे शिक्षण में सहायता एवं सफलता मिलती है।

(ख) दोष- (i)  यह विधि खर्चीली कही जाती है जिससे गरीब देश में इसका प्रयोग कम हो रहा है।

(ii) प्रमाणीकृत एवं अध्यापक निर्मित दो प्रकार के परीक्षण होने से दो मानक तैयार हो जाते हैं, और किसे विश्वसनीय कहें और किसे नहीं, यह संकट उपस्थित हो जाता है।

(iii) इसका प्रयोग बड़ी सावधानी, धैर्य एवं ट्रेनिंग के साथ करना पड़ता है। इसलिए सभी लोग न तो परीक्षण निर्माण कर पाते हैं और न प्रयोग ही।

(iv) प्रत्येक देश की परिस्थिति एवं समस्या के अनुसार यहाँ के लोग परीक्षण तैयार करते हैं अतएव दूसरे देश में उसकी उपयोगिता एवं सार्थकता नहीं हो पाती है। हरेक देश के अलग-अलग प्रमाणीकृत परीक्षण होने से इनमें सर्वव्यापकता नहीं पाई जाती है। इसके परिणामों में भी विभिन्न पाई जाती है।

दोषों के होते हुये भी इस विधि की उपयोगिता शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पाई जाती है और बढ़ती भी जा रही है। केवल शिक्षा ही नहीं समस्त व्यवसाय एवं कार्ग के लिये परीक्षण बनाये गये हैं जिससे इसका महत्त्व बहुत पाया जाता है।

विकासात्मक विकास-

मनुष्य के व्यक्तिगत अथवा जातीय विकास का अब मनोविज्ञान अध्ययन करने लगा है जिससे विकासात्मक विधि का भी निर्माण किया गया है। इस विधि से व्यक्ति के निजी तौर पर अथवा सामूहिक रूप से किये गये शारीरिक बौद्धिक, भावात्मक विकास का अध्ययन किया जाता है। समय-समय पर होने वाले विकास का निरीक्षण करते हैं और विश्लेषण एवं व्याख्या होती है। शिक्षा मनोविज्ञान में वंशानुक्रम एवं विकास की अवस्थाओं का अध्ययन इसी विधि की सहायता से होता है।

“विकासात्मक विधि वह विधि है जो गर्भावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक व्यक्ति में होने वाले शारीरिक, मानसिक एवं व्यावहारिक परिवर्तन का अध्ययन करती है।

(क) गुण- (i)  यह विधि व्यक्ति के विकास का क्रम से अध्ययन करती है, यह व्यवस्थित और तथ्यों का पूर्ण विश्लेषण करने वाली विधि है।

(ii) इसके द्वारा मनोविज्ञान तथा शिक्षा मनोविज्ञान का कार्य पूरा किया जाता है। क्योकि यह विधि मनुष्य की मानसिक स्थिति एवं व्यवहार को स्पष्ट करती है।

(iii) यह विधि विभिन्न अवस्थाओं में मनुष्य की विशेषताएँ प्रकट करती है और उसी के अनुकूल पर्यावरण प्रदान करके उसे शिक्षित बनाया जा सकता है। यह विधि मानव के संस्कारों का निर्माण करती है।

(iv) इस विधि से वैयक्तिक भिन्नताएँ ज्ञात की जाती हैं, मनुष्यों का वर्गीकरण करके उनकी आवश्यकताअरों, मूल प्रवृत्तियों, संवेगों, स्थाई भावों एवं क्रियात्मकता के अनुसार विभिन्न प्रकार के कार्यों, व्यवसायों में लगाया जा सकता है।

(v) इस विधि से विभिन्न प्रजातियों की विशेषताओं को जानकर हम अपनी प्रगति का विकास कर सकते हैं।

(ख) दोष- (i)  यह विधि लम्बे समय तक अध्ययन करती है इसलिये इसमें समय अधिक खर्च होता है।

(ii) दूसरी सीमा इसकी यह है कि मनुष्य जाति के सम्बन्ध में इसके लिये बहुत समय तक रुकना पड़ेगा जिससे अध्ययन पूरा न भी हो।

(iii) समय अधिक तो लगता है ही, साथ-साथ शक्ति एवं धन भी व्यय करना पड़ता है। कुछ विशेष ढंग के निरीक्षकों को नियुक्त करना पड़ता है।

(iv) एक कठिनाई यह भी पड़ती है कि इसमें विविध साधनों का प्रयोग काना पड़ता है जो सभी के वश की बात नहीं है, अतएव काफी कार्यकर्ताओं की जरूरत पड़ती है।

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Pankaja Singh

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