मजदूरी का अर्थ एवं परिभाषा | भृत्ति का अर्थ एवं परिभाषा | मजदूरी को प्रभावित करने वाले तत्व या घटक | एक आदर्श मजदूरी पद्धति की विशेषतायें या सिद्धान्त

मजदूरी का अर्थ एवं परिभाषा | भृत्ति का अर्थ एवं परिभाषा | मजदूरी को प्रभावित करने वाले तत्व या घटक | एक आदर्श मजदूरी पद्धति की विशेषतायें या सिद्धान्त | Meaning and definitions of wages in Hindi | Meaning and definitions of recess in Hindi | Factors or factors affecting wages in Hindi | Characteristics or principles of an ideal wage system in Hindi

मजदूरी या भृत्ति का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Wages)

सामान्य मजदूरी से आशय किसी कर्मचारी को उसके द्वारा किये गये कार्य के लिये दिये गये भुगतान से होता है। यह भुगतान दैनिक, साप्ताहिक, मासिक आदि किसी भी रूप में हो सकता है। इसके सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने अपने विचार निम्न प्रकार प्रकट किये हैं-

बेन्थम के शब्दों में, “भृत्ति से आशय सेवायोजक द्वारा श्रमिक की सेवा के प्रतिफल में उसे चुकाई जाने वाली धनराशि से है।”

पी० एच० स्टोयेफ के अनुसार, “उस श्रम के पारिश्रमिक को, जोकि उपयोगिता का सृजन करता है, मजदूरी कहते हैं।”

बेन्हम के शब्दों में, “मजदूरी एक ठहराव के अन्तर्गत दिया गया वह धन है जो नियोजक द्वारा श्रमिक को उसकी सेवाओं के बदले में दिया जाता है।”

विभिन्न विद्वानों के उपर्युक्त विचारों के अध्ययन एवं विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि “मजदूरी कर्मचारी के उस परिश्रम का प्रतिफल है जो उसने अपने सेवायोजन के लिये किया है।”

मजदूरी को प्रभावित करने वाले तत्व या घटक

(Factors Affecting Wages)

सामान्यतया मजूदरी की दरों को प्रभावित करने वाले प्रमुख घटक या तत्व निम्नलिखित हैं-

(1) श्रमिकों की माँग एवं पूर्ति (Demand and Supply of Workers) – अर्थशास्त्र के सिद्धान्त के अनुसार किसी भी वस्तु का मूल्य उसकी माँग एवं पूर्ति की शक्तिया द्वारा निर्धारित होता है। श्रमिकों की मजूदरी की दर भी इस सिद्धान्त से अछूती नहीं हैं। यदि श्रमिकों की माँग उनकी पूर्ति की अपेक्षा अधिक होती है तो मजदूरी की दरें ऊँची रहती हैं और यदि माँग पूर्ति की अपेक्षा नीची रहती है तो मजदूरी की दरें भी नीची ही रहती हैं।

(2) उद्योग की भुगतान क्षमता (Payment Capacity of the Industry) – यद्यपि श्रमिकों की मजदूरी दरों पर माँग एवं पूर्ति का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है फिर भी किसी विशेष उपक्रम की मजदूरी देने की क्षमता भी भृत्ति दरों को प्रभावित करती है क्योंकि उद्योग की क्षमता से अधिक दी जाने वाली भृत्ति दरें अधिक समय तक नहीं रह सकती।

(3) जीवन निर्वाह लागत (Cost of Living) – भृत्ति दरों पर जीवन निर्वाह लागत का भी प्रभावकारी असर पड़ता है। प्रत्येक श्रमिक इतनी मजदूरी अवश्य चाहता है कि उससे परिवार का पालन-पोषण सुचारू रूप से चल सके। ऐसा न होने की स्थिति में वह संस्था को अवनी सेवायें पूर्ण कुशलता के साथ प्रदान नहीं कर पाता। अतः जीवन निर्वाह लागत के घटने अथवा बढ़ने का प्रभाव मजदूरी दरों पर भी पड़ता है।

(4) अन्य उपक्रमों में प्रचलित मजदूरी दरें (Wages-rates in Other Industries) चाहें अल्पकाल में विभिन्न उपक्रमों में दी जाने वाली मजदूरी की दरें अलग-अलग क्यों न रहें परन्तु दीर्घकाल में इनमें समानता की प्रवृत्ति पाई जाती है क्योंकि जिन कारखानों में मजदूरी की दरें उसी प्रकार के कारखानों की अपेक्षा कम कर दी जाती है तो उनमें काम करने वाले श्रमिक अधिक मजदूरी के लालच में काम छोड़कर जाने लगते हैं और परिणामस्वरूप कम मजदूरी देने वाले कारखानों में भी मजदूरी की दरें बढ़ाना आवश्यक हो जाता है।

(5) सौदा करने की क्षमता (Bargaining Capacity) – मजदूरी की दरें श्रमिकों के सौदा करने की क्षमता पर भी निर्भर करती है। यदि श्रम-संघों की सौदा करने की क्षमता अधिक है तो मजदूरी की दरें ऊँची होती है और विपरीत स्थिति में मजदूरी की दरें नीची रह जाती हैं।

(6) व्यक्तिगत कारण (Personal Reasons) – कभी-कभी मजदूरी की दरों में व्यक्तिगत कारणों से भी प्रभाव पड़ जाता है। ये व्यक्तिगत कारण वैयक्तिक गुण, शिक्षा, प्रशिक्षण, अनुभव आदि हो सकते हैं।

(7) कार्य की प्रकृति (Nature of Work) – जो कार्य खतरनायक प्रकृति के होते हैं उनमें मजदूरी की दरें ऊँची रहती हैं और जो कार्य सामान्य प्रकृति के होते हैं उनमें मजदूरी की दरें अपेक्षाकृत नीची रहती हैं।

(8) राजकीय हस्तक्षेप (State Interference) – समाज कल्याण के दृष्टिकोण से मजदूरी की दरों के सम्बन्ध में सरकार भी अपना हस्तक्षेप रखती है जिससे समय-समय पर सरकारी नियमों के अनुसार मजदूरी की दरें भी प्रभावित होती रहती हैं।

एक आदर्श मजदूरी पद्धति की विशेषतायें या सिद्धान्त

(Characteristics of Principles of an ideal Wages System)

एक आदर्श मजदूरी पद्धति में निम्न विशेषतायें होनी चाहिये अर्थात् वह निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित होनी चाहिये-

(1) न्यूनतम मजूदरी (Minimum Wages)- एक आदर्श मजूदरी भुगतान प्रणाली में न्यूनतम की व्यवस्था होनी चाहिये, जिससे पूंजीपति श्रमिकों का शोषण न कर सकें। श्रमिकों को इतनी मजदूरी अवश्य मिलनी चाहिये कि वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। “वे जीने के लिये काम करें, न कि काम के लिये जीयें।”

(2) सरलता एवं सुगमता – मजदूरी भुगतान पद्धति सरल एवं सुगमत होनी चाहिये जिससे प्रत्येक साधारण श्रमिक अपनी मजदूरी का हिसाब आसानी से समझ सके एवं पूँजीपति भी श्रम-व्यय (Labour Cost) आसानी से निकाल सके।

(3) योग्यता के अनुसार मजदूरी – प्रत्येक श्रमिक को उसकी योग्यता के अनुसार मजदूरी दी जानी चाहिये। गधे-घोड़ों को एक ही लकड़ी से हाँकने का नियम लागू नहीं किया जाना चाहिये। कुशल श्रमिकों को अकुशल श्रमिकों की अपेक्षा अधिक मजदूरी मिलनी चाहिये, जिससे श्रमिकों को अपनी कुशलंता बढ़ाने का उत्साह रहे।

(4) प्रेरणा- मजदूरी भुगतान पद्धति ऐसी होनी चाहिये जिससे श्रमिकों को अपनी कुशलता बढ़ाने की प्रेरणा मिलती रहे अर्थात् अधिक उत्पादन करने वाले श्रमिकों को, उसके अतिरिक्त उत्पादन पर बोनस या अधिक मजदूरी देनी चाहिये।

(5) स्थायित्व (Stability) – मजदूरी भुगतान प्रणाली मे स्थायित्व होना चाहिये। इससे श्रमिकों जीवन में सुरक्षा का अनुभव होगा और वे अपने कार्य को दत्तचित होकर कर सकेंगे। मजूदरी में परिवर्तन करने से श्रमिकों का उसमें विश्वास नहीं रहता तथा वे विरोध भी करते हैं।

(6) लोच (Elasticity) – आदर्श मजदूरी भुगतान प्रणाली लोचदार होनी चाहिये, जिससे मजदूरी आवश्यकतानुसार घटाई-बढ़ाई जा सके।

(7) समयानुकूल भुगतान- श्रमिकों को उचित समय पर मजदूरी का भुगतान किया जाना चाहिये। मजदूरी भुगतान का समय न तो इतना लम्बा हो जिससे श्रमिक मजदूरी पाने के लिये छटपटाता रहे और न इतना छोटा हो कि जिससे फिजूल खर्ची की आदत पड़े।

(8) औद्योगिक शान्ति (Industrial Peace) – मजदूरी भुगतान प्रणाली ऐसी होनी चाहिये, जिससे औद्योगिक शान्ति स्थापित हो। इसके लिये श्रमिकों को उद्योग के लाभ का भाग मिलना चाहिये तथा प्रबन्ध में श्रमिकों का भी भाग रहना चाहिये।

(9) प्रतिकूल प्रभाव नहीं- मजूदरी भुगतान की पद्धति ऐसी होनी चाहिये जिसका श्रमिकों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।

(10) मितव्ययी – मजदूरी भुगतान की पद्धति अधिक व्ययशील नहीं होनी चाहिये।

(11) निश्चित आधार – आदर्श मजदूरी भुगतान की पद्धति में मजदूरी के निर्धारण का एक निश्चित आधार होना चाहिये।

(12) सन्देह रहित- मजदूरी भुगतान की पद्धति ऐसी होनी चाहिये जिससे श्रमिकों को सन्देह न हो।

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