इतिहास

मैटर्निख का जीवन-परिचय | मैटर्निख की विचारधारा | मैटर्निख की गृहनीति | मैर्टीनख तथा वियना सम्मेलन

मैटर्निख का जीवन-परिचय | मैटर्निख की विचारधारा | मैटर्निख की गृहनीति | मैर्टीनख तथा वियना सम्मेलन

(1) मैटर्निख का जीवन-परिचय

मैटर्निख इस युग की समस्त सन्तति और नीति का नायक था। उसकी प्रतिभा का परिचय हमें उसके नाम से सम्बन्धित ‘मैटर्निख युग’ से हो जाता है। 19वीं शताब्दी के राजनीतिज्ञों में उसका नाम सर्वोपरि था। उसकी नीति का कायल आस्ट्रिया ही नहीं वरन् मध्य यूरोप के अधिकांश राज्य भी थे।

उसका जन्म एक उच्च घराने में हुआ था। उसके पिता पवित्र रोमन सम्राट के यहाँ उच्च अधिकारी थे। वे राईन नदी के किनारे पश्चिमी जर्मनी में एक विशाल जागीर के स्वामी थे। उस जागीर को नेपोलियन ने जब्त कर लिया था। मैटर्निख प्रारम्भ से ही क्रान्तिकारी विचारों के विरुद्ध था। फ्रांस की क्रान्ति के समय वह टांसबर्ग विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण कर रहा था। जब वह फ्रांस के भगोड़ों से करुण गाथा सुन्ता था तो उसको बहुत कष्ट होता था। जब उसने आतंक के राज्य (Reign of Terror) के अत्याचारों को सुना तो उसकी विचारधारा क्रान्तिकारियों के विरुद्ध हो गई । नेपोलियन ने जब उसकी पैतृक जागीर को छीन लिया तो उसकी आत्मा हाहाकार कर उठी, वह व्यक्तिगत रूप से क्रान्ति का शत्रु हो गया तथा उसका दमन करने का प्रयल करता रहा।

हेजेन ने लिखा है, ” मैटर्निख के जीवन का बहुत बुड़ा पहलू अहम की भावना थी। उसकी मान्यता थी कि संसार का भार उसके कंधे पर है और उसका जन्म यूरोप के जर्जरित समाज को उभारने के लिए है।”

“उसका विश्वास था कि उसने नियम के विरुद्ध कोई आचरण नहीं किया है और न जीवन में उसने कोई भूल ही की है। वह कहता था कि उसकी अनुपस्थिति पर वह अपने अभाव का एक रिक्त स्थान बनायेगा।”

वह बड़े गौरव के साथ कहता था कि सब लोग उसकी ओर आशा से देखते हैं उसको यह भी आश्चर्य था कि जब सभी नहीं सोचते या काम नहीं करते या नहीं लिखते हैं, वह अकेला क्यों सोचता है, लिखता है और कर्त्तव्य-परायण है।

(2) मैटर्निख की विचारधारा-

इस प्रकार की विचारधारा का आधार फ्रांस राज्य क्रान्ति से जनित घृणा की भावना मात्र थी, जिसने उसे एक प्रतिक्रिया की मूर्ति बना दिया। वह कहता था कि क्रान्ति एक संक्रामक रोग है। भयानक क्रान्ति से शीघ्र ही पिण्ड छुड़ा लेना चाहिये। प्रजातंत्रीय विचारों के अंतर्गत वह ज्वालामुखी के दर्शन करता था, जिसे वह हर दृष्टि से दमन करना चाहता था। देवत्व के अधिकारों तथा यथावत् परिस्थिति का पोषक होने के नाते वह निरंकुश शासन-प्रणाली का पक्षपाती था। उसके अपने शब्दों में, “प्रजातंत्रीय शासन-व्यवस्था अंधकार में प्रकाश कभी नहीं ला सकती।”

उसका यह भी कहना था, “जैसा चल रहा है चलने दो, परिवर्तन पागलपन है।”

उसका विवाह आस्ट्रिया के चान्सलर प्रिंस कानिज (Prince Kaunitg) की पौत्री से हुआ था। इस सम्बन्ध के कारण उसके अधिकार तथा प्रतिष्ठा दोनों का उत्थान हुआ। धीरे-धीरे उसकी पदोन्नति होती गई और यूरोप के राजाओं तथा राजनीतिज्ञों से उसका परिचय भी बढ़ता चला गया। ऐसी सुविधा के कारण अचानक ही उसे तत्कालीन यूरोप की राजनीतिक पूरा-पूरा ज्ञान हो गया।

भाग्यवश 1809 में उसे आस्ट्रिया का चान्सलर बना दिया गया। वह अपने पद पर 1848 तक रहा।

(3) मैटर्निख की गृहनीति-

आस्ट्रिया साम्राज्य का चांसलर होते ही उसने अपनी प्रतिक्रियावादी नीति का प्रयोग शुरू कर दिया। वियना में एक अवसर पाकर उसने सीमा को बढ़ा लिया जिसमें आस्ट्रिया, हंगरी, बोहेमिया, पौलैण्ड का पश्चिमी भाग, वर्तमान यूगोस्लाविया तथा उत्तरी इटली के कई भाग सम्मिलित थे। इस लम्बे-चौड़े साम्राज्य में अनेक जातियों के लोग रहते थे। वे अलग-अलग भाषाएँ बोलते थे। इन जातियों में पोल (Poles), जर्मन, मगयार (Magyars), सर्वे (Serbs), चेक (Czech), क्रोट (Croats) तथा स्लोवाक (Slovaks), आदि मुख्य थे।

यह विशाल भू भाग मध्यकालीन सामाजिक संस्थाओं का प्रतीक था जिसमें उच्च कुलोत्पन्न सामंत तथा पादरियों का प्रभाव बढ़ा हुआ था। इस व्यवस्था में न तो किसान खुश थे और न मजदूर। उच्चाधिकारी सामंत तथा पादरी अपने स्वार्थ साधन में लगे रहते थे, नीची श्रेणी के व्यक्तियों के प्रति न्याय नहीं होता था। इन लोगों को अलग न्यायालयों द्वारा पृथक् से दंड दिया जाता था। प्रेस, पाठशाला, विश्वविद्यालय, नाटकघर, बाजार आदि स्थानों पर पुलिस का कड़ा पहरा रहता था। विदेश जाने या आस्ट्रिया साम्राज्य में आने पर प्रतिबंध लगे हुए थे।

ऐसी दशा में जब मैटर्निख के हाथ में बागडोर आयो तो उसने प्रतिशोध तथा दृढ़ संकल्पों के विचारों को सामने रखा।

(4) मैर्टीनख तथा वियना सम्मेलन-

मैर्टीनख ने अपनी उग्र नीति द्वारा प्रधानता प्राप्त करने के बाद यूरोप में प्रभुत्व स्थापित करने का सुअवसर ढूंढा। उसने अपने प्रयत्नों से आस्ट्रिया की राजधानी में नैपोलियन के पतन के बाद उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर विचार करने के लिए यूरोप के राजाओं तथा राजनीतिज्ञों की बैठक बुलायी, जिसमें लाखों रुपया व्यय किया गया।

मैटर्निखू अपने व्यक्तित्व के बल पर इस सम्मेलन का अध्यक्ष नना । वियना सम्मेलन में प्रस्तावित् मौलिक विचार उसके मस्तिष्क की सूझ थी। उसने विशेष रूप से अपनी बुद्धि के द्वारा यूरोप के नक्शे को इस ढंग से बदला जिससे आस्ट्रिया की सीमा अत्यधिक बढ़ जाये। फ्रांस का जो वैभव नेपोलियन ने बनाया था, वही मैटर्निख ने 1815 में आस्ट्रिया को दिलाया और यूरोप के सभी कूटनीतिज्ञ आस्ट्रिया को सम्मान की दृष्टि से देखने लगे। मैटर्निख ने यह स्थिति वियना सम्मेलन में अपने प्रभाव द्वारा प्राप्त की।

(5) मैटर्निख तथा संयुक्त राज्य-व्यवस्था-

वियना सम्मेलन के निर्णयों को स्थायी रूप देने के लिए मैटर्निख ने यूरोप में एक संयुक्त जाल बिछाया। पवित्र संघ की घोषणा का अनुमोदन बाहरी रूप से करके उसने रूस से सहयोग प्राप्त कर लिया। चतुर्मुख मंडल का जन्मदाता तो मैटर्निख ही था। उसने इस मंडल के एक सूत्र में यूरोप के सभी राष्ट्रों को बाँधा तथा यूरोप की राजनीतिक संस्थाओं पर अपना प्रभुत्वं स्थापित किया। जिस कुचक्र से उसने आस्ट्रिया में शासन स्थापित किया था उसी कुचक्र का प्रयोग उसने मित्र राष्ट्रों के लिए भी किया। यदि कहीं भी क्रान्ति की लहर उठती थी तो वह संयुक्त व्यवस्था के सदस्यों की बैठक करके उसको दबा देता था। 1815 से 1825 तक होने वाले सभी सम्मेलनों में उसने नायक का काम किया।

(6) मैटर्निख तथा जर्मनी-

नेपोलियन की विजयों ने जर्मनी को छिन्न-भिन्न कर दिया था। मैटर्निख ने वियना सम्मेलन के निर्णय पर जर्मनी के 39 राज्यों को एक संघीय व्यवस्था का रूप दिया। इसकी राज्य परिषद् में जर्मनी के राजाओं द्वारा भेजे गए प्रतिनिधि होते थे। ये सभी प्रतिक्रियात्मक नीति का पालन करते थे। मैटर्निख ने इस व्यवस्था से जर्मनी में स्वेच्छाचारी शासन प्रणाली को सुदृढ़ किया। जब उदारवादी दल इस व्यवस्था के विपरीत वैधानिक शासन स्थापित करने का प्रयत्न करता था तो मैटर्निख अपने प्रयत्नों द्वारा उसमें बाधा डालना शुरू कर देता था।

परन्तु अधिक समय तक मैटर्निख राष्ट्रीय आन्दोलन को नहीं दबा सका। कई गुप्त संस्थाएं राष्ट्रीय आन्दोलन को बढ़ा रही थीं। जर्मनी के देशभक्तों ने भी इसमें भाग लिया। बाट वर्ग में लीपजिग के युद्ध तथा लूथर की पुण्य स्मृति में उत्सुकता के साथ वे उत्सव मनाने लगे। इस कार्य से युवकों में एक नया जोश आया।

मैटर्निख ने ऐला शेपल में एकत्र होने वाले चतुर्मुख मित्रमंडल से ऐसे आन्दोलनों को कुचलने की स्वीकृति प्राप्त कर ली। दूसरे ही वर्ष उसने कार्ल्सवाद में जर्मन राज्य परिषद् का अधिवेशन बुलाया और वहाँ भी उसने कठोरता का परिचय दिया। छात्रों के आन्दोलन रोकने के लिए निरीक्षको को लगाया गया प्रेस की स्वतंत्रता नष्ट कर दी गयी। जिन जर्मन राज्यों में वैध-शासन की स्थापना हो गयी थी, उन्हें उलट दिया गया। इस प्रतिक्रियावादी नीति से उदारवाद को गहरा आघात पहुँचा। इस नीति के फलस्वरूप जर्मनी का विकास रुक गया।

(7) मैटर्निख तथा इटली-

नेपोलियन ने इटली को जीत कर छोटे-छोटे राज्यों के स्थान पर एक बड़े राज्य की स्थापना की थी। परन्तु नेपोलियन के पतन के पश्चात् वियना निर्णय ने इटली में प्राचीन देशों के राज्य फिर से स्थापित कर दिए। इस पर परिस्थिति का लाभ मैटर्निख ने उठाया । उत्तरी और मध्य इटली के भागों में आस्ट्रिया को सत्ता स्थापित हो गयी।

यह दशा इटली में उदारवादी दल में खलबली मचाने वाली थी। स्थान-स्थान पर आस्ट्रिया के राज्य तथा प्राचीन राजवंशों के राज्यों को समाप्त कर वैध शासन की मांग बढ़ने लगी। देश भर में गुप्त समितियों का प्रभाव क्षेत्र बढ़ गया। चारों ओर अराजकता के चिन्ह दिखाई देने लगे। 1820 तथा 1821 में क्रमशः नेपल्स तथा पीडमाण्ड में देश भक्तों द्वारा क्रान्ति की भीषण अग्नि जल उठी। मैटर्निख ने इस आग को शान्त करने के लिए लेवेख की कांग्रेस में रूस तथा प्रशा के प्रतिनिधियों से अनुमति ले लो। अब सैनिक शक्ति से आन्दोलन को कुचला गया और नये संविधानों को भंग कर दिया गया। 1830 की क्रान्ति के फलस्वरूप मीडेना में फिर से विद्रोह की आग भड़क उठी। पर मैटर्निख ने इस बार भी उदारता का परिचय नहीं दिया। यही दशा सन् 1848 की क्रान्ति के समय भी हुई।

(8) मैटर्निख की वैदेशिक नीति-

मैटर्निख अपनी वैदेशिक नीति के द्वारा अपनी तथा अपने देश की प्रतिष्ठा को बढ़ाना चाहता था। वह नेपोलियन के विकास को एक बाधा समझता था, परन्तु वह यह जानता था कि अपनी स्वतंत्र शक्ति से उसको नहीं दबाया जा सकता। वह यह भी जानता था कि नेपोलियन को खुले रूप में नाराज करना गलत होगा। इस दशा को ध्यान में रखकर नेपोलियन ने मध्यवर्ती मार्ग को अपनाया, जिससे नेपोलियन का पतन भी हो जाये और आस्ट्रिया को कोई हानि पहुँचे-यह कार्य नेपोलियन के जीवित होने के समय किए गए थे-1810 से 1813 तक उसने रूस को फ्रांस के विरुद्ध आगे किया और वह उसकी आड़ में पतन का मार्ग बनाता रहा।

एक ओर उसने नेपोलियन को प्रसन्न रखने के लिए आस्ट्रिया की राजकुमारी का विवाह नेपोलियन के साथ करने की वकालत की, दूसरी ओर उसने रूस के जार को गुप्त रूप से सहायता देने का वचन दिया। इस नीति से उसने आस्ट्रिया की सेना को सदैव सतर्क रखा।

नेपोलियन के पतन के पश्चात् इस द्विविध नीति के कारण आस्ट्रिया का पलड़ा राजनीतिक दल में भारी हो गया।

जब वियना सम्मेलन खत्म हुआ तो उसने निर्णयों को स्थायी रखने के लिए तथा रोप में उदारवादी दलों का दमन करने के लिए उसने संयुक्त व्यवस्था (Concert of Europe) का नेतृत्व किया। अपनी वैदेशिक नीति में उसने सदा राजसत्तात्मक शासन-व्यवस्था को स्थिर रखने के पोषक-तत्वों को प्रधानता दी। उसने स्पेन के अमरीको उपनिवेशों में होने वाले विद्रोहों को दबाने का प्रयत्न किया, परन्तु कैनिंग तथा मुनरो के रुख के कारण वह सफल न हो सका।

मैटर्निख रूस की सहायता से अपनी प्रतिक्रियावादी नीति को सफल बनाना चाहता था, परन्तु जब यूनान के मामले में रूस अपना नेतृत्व स्थापित करना चाहता था तब उसने रूस के प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

इस प्रकार मैटर्निख अपने ढंग का कूटनीतिज्ञ पुरुष था ।

मैटर्निख का पतन (Fall of Metternich)

मैटर्निख अपनी प्रतिक्रियावादी नीति पर चलकर बराबर प्रभावशाली बनता रहा, परन्तु भीतर ही भीतर मध्य यूरोपीय भाग में जन-आन्दोलन को आग बढ़ती जा रही थी। उसकी प्रतिक्रियात्मक नीति से आस्ट्रिया विशेष रूप से पीड़ित था। सन् 1848 का वर्ष आस्ट्रिया के भाग्य-विधान के लिए बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ। वहाँ मैटर्निख के विरोध में प्रदर्शन होने लगे और आस्ट्रिया की पार्लियामेंट ने भी उसका खुल्लम-खुल्ला विरोध करना शुरू कर दिया। पार्लियामेंटे की बैठक के समय जनता की भीड़ ने राजमहल को घेर लिया और मैटर्निख के विरोध में नारे लगने लगे। मैटर्निख को अपना पद छोड़ना पड़ा अन्त में जन-आन्दोलन के कारण उसे वेश बदलकर इंगलैण्ड भागना पड़ा।

यह घटना एक व्यक्ति का पतन न होकर यूरोप की सारी व्यवस्था का पतन लाने वाली घटना थी।

निष्कर्ष (Conclusion)

मैटर्निख ने जिस नीति का अनुसरण किया था, वह आस्ट्रिया की परिस्थिति के अनुकूल थी। उस नीति की सार्थकता शक्ति-संतुलन और तुर्की की समस्या के संदर्भ में अध्ययन की जा सकती है। एलिसन फिलिप्स के शब्दों में, “वह मैटर्निख था जिसने आस्ट्रिया नीति को बल और निश्चयता दी, जिसके कारण वह पीछे जाकर अपने को नेपोलियन का विजेता मानने लगा।

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Pankaja Singh

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