शिक्षाशास्त्र

मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली के गुण | मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली के दोष

मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली के गुण | मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली के दोष

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मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली के गुण (Merits of Medieval Education System)

मध्यकालीन शिक्षा के प्रमुख गुण निम्न थे-

(1) निःशुल्क शिक्षा-

मध्यकाल में मकतबों एवं मदरसों में शिक्षा ग्रहण करने वाले शिक्षार्थियों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान की जाती थी। छात्रावासों में रहने वाले शिक्षार्थियों को भोजन भी निःशुल्क ही दिया जाता था। इस काल में शिक्षा पर व्यय का उत्तरदायित्व शासक एवं उच्चवर्गीय व्यक्तियों पर था।

(2) अनिवार्य शिक्षा-

इस्लाम धर्म का यह उपदेश था कि-“जो मनुष्य ज्ञान अर्जित करता है, वह धार्मिक कार्य करता है, जो ज्ञान की बात करता है, वह ईश्वर की प्रशंसा करता है, जो ज्ञान की खोज करता है, वह ईश्वर की उपासना करता है।” इस्लाम धर्म के उपरोक्त उपदेश के आधार पर ही मध्यकाल में शिक्षा की अनिवार्यता को समझकर मदरसों एवं मकतबों में निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की गई।

(3) कला-कौशलों की प्रगति-

मुस्लिमकालीन शिक्षा की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता थी-विभिन्न कला-कौशलों की प्रगति । इस काल में चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत एवं नृत्य कला, बागवानी इत्यादि कलायें जितनी तीव्र गति से प्रगति के पथ पर अग्रसारित हुईं उतनी किसी अन्य काल में नहीं हुईं । इन विभिन्न कलाओं की प्रगति में मुसलमान शासकों ने भी अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया।

(4) शिक्षा का संरक्षण-

मध्यकाल में शिक्षा को राज्य का विशेष संरक्षण प्राप्त हुआ। अधिकांश शासकों द्वारा इस युग में अनेक मकतबों एवं मदरसों का निर्माण कराया गया तथा शिक्षा की प्रगति हेतु धन भी खर्च किया गया। इसके अतिरिक्त, शिक्षा को अधिकाधिक प्रोत्साहन प्रदान करने हेतु शिक्षार्थियो को छात्रवृत्तियाँ प्रदान की गई। इस प्रकार मध्यकाल में राज्य का संरक्षण मिलने के कारण शिक्षा का अत्यधिक प्रसार हुआ।

(5) स्त्री-शिक्षा-

प्राचीन काल के समान इस काल में स्त्री-शिक्षा को अधिक महत्व प्रदान नहीं किया गया। इसका सर्वप्रमुख कारण था-पर्दा प्रथा का प्रचलन । लेकिन इस काल में स्त्री शिक्षा का पूर्णतः विरोध भी नहीं किया गया। इस समय एक निर्धारित आयु तक शिक्षा अर्जित करने के पश्चात् बालिकाओं को शिक्षा समाप्त कर दी जाती थी। उच्च वर्ग की स्त्रियाँ घर पर ही शिक्षा प्राप्त करती थीं।

(6) मधुर गुरु- शिष्य सम्बन्ध-

प्राचीन काल के समान मध्यकाल में भी गुरु-शिष्य सम्बन्ध अत्यन्त मधुर होते थे। गुरु शिष्य से पुत्र के समान व्यवहार करते थे।

(7) कक्षा-नायकीय पद्धति-

मुस्लिम शिक्षण संस्थाओं में कक्षा-नायकीय पद्धति प्रचलित थी। इस पद्धति के अन्तर्गत कक्षा के सबसे योग्य शिक्षार्थी को नायक बना दिया जाता था, जिसे कक्षा-नायक कहते थे। ये कक्षा नायक छोटी कक्षाओं को पढ़ाते थे। इससे अध्यापक का कार्य सरल हो जाता था। प्राचीन काल की तुलना में मध्यकाल में कक्षा नायकीय पद्धति का प्रचलन विशाल स्तर पर हुआ । नायक को ‘मानीटर’ या कक्षा का मानीटर भी कहकर पुकारा जाता था।

(8) दण्ड-व्यवस्था-

मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में दण्ड-व्यवस्था अत्यन्त कठोर थी। गलती अथवा शैतानी करने पर शिक्षार्थी को लातों एवं घूसों से मारा जाता था तथा गम्भीर अपराध करने पर उन्हें गठरी बनाकर खूटी पर लटका दिया जाता था। लेकिन योग्य शिक्षार्थियों को सम्मानपूर्वक पारितोषिक दिये जाते थे।

(9) सैनिक शिक्षा-

युद्ध-प्रेमी होने- के कारण मुस्लिम शासकों ने सैनिक शिक्षा को भी विशेष महत्व दिया। इस काल में सैनिक शिक्षा के पाठ्यक्रम का विस्तार किया तथा इसके अन्तर्गत हाथियों पर बैठकर युद्ध करना इत्यादि को भी समाविष्ट किया गया था। राजकुमारों में सैनिक पदाधिकारियों के पुत्रों हेतु सैनिक शिक्षा प्राप्त करनी अनिवार्य थी। इसमें शिक्षार्थियों को तलवार चलाना, तीर-कमान का प्रयोग, घोड़े पर चढ़ना, सैन्य संचालन, शत्रु की घेराबन्दी एवं धोखा देना, किला घेरना इत्यादि की शिक्षा प्रदान की जाती थी।

(10) साहित्य एवं इतिहास का विकास-

मुस्लिम शिक्षा साहित्य के निर्माण में भी अत्यन्त सहायक सिद्ध हुई। इस काल में सुकोमल भावनाओं से युक्त गद्य एवं पद्य रचनाएँ अधिक लिखी गई। इसका कारण था-मुस्लिम शासकों द्वारा शृंगार एवं रसपूर्ण साहित्य को विशेष संरक्षण एवं प्रोत्साहन प्रदान करना। इस काल में विद्वानों द्वारा हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों रामायण एवं महाभारत का फारसी भाषा में अनुवाद किया गया। इसके अलावा इतिहास का लेखन भी मध्यकाल में ही आरम्भ हुआ। इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं—बदायूँनी का मन्तखवउत-तवारीस तथा अबुलफजल कृत ‘अकबरनामा’ आदि । इस प्रकार साहित्य एवं इतिहास के विकास को मुस्लिम शिक्षा की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जाना चाहिये।

(11) हस्तकलाओं की शिक्षा-

मुगल शासक विलासप्रिय थे। उनका सम्पूर्ण जीवन ऐश्वर्य एवं विलासिता में ही बीता। इसी कारण मुगल काल में हस्तकलाओं की विशेष उन्नति हुयी और अनेक कारखानों की भी स्थापना की गई।

(12) चिकित्साशास्त्र की शिक्षा-

मुस्लिमकालीन शिक्षा के अन्तर्गत शिक्षार्थियों को चिकित्साशास्त्र की भी शिक्षा प्रदान की जाती थी। इस शास्त्र की शिक्षा प्रदान करने हेतु संस्कृत भाषा में लिखे ग्रन्थों का फारसी भाषा में अनुवाद किया गया। चिकित्सा के कुछ ग्रन्थों को मूलत: फारसी भाषा में ही लिखा गया। इस शास्त्र की शिक्षा किसी विशेष सेवा संस्था अथवा मदरसों में प्रदान की जाती थी।

(13) व्यावसायिक शिक्षा को प्रोत्साहन-

इस काल में व्यावसायिक शिक्षा के अन्तर्गत हस्तकलाओं को विशेष रूप से प्रोत्साहन प्रदान किया गया। शिक्षार्थियों को विभिन्न हस्तकलाओं जैसे-रेशम एवं जरी का कार्य, हाथी दाँत का कार्य इत्यादि की शिक्षा प्रदान की जाती थी। इसे प्राप्त करके शिक्षार्थी अपना जीविकोपार्जन एवं कला का विकास करते थे।

(14) सांस्कृतिक एकता में वृद्धि-

मध्यकाल में हिन्दू एवं मुसलमानों को साथ-साथ शिक्षा प्रदान के जाती थी। प्रारम्भ में मकतबों एवं मदरसों में हिन्दू बालक शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता था। लेकिन सिकन्दर लोदी ने इस व्यवस्था में परिवर्तन कर दोनों सम्प्रदायों हेतु शिक्षा को सुलभ कराया। इस प्रकार मुस्लिम शिक्षण- संस्थाओं में समस्त जातियों के बालकों द्वारा शिक्षा प्राप्त करने से जहाँ एक ओर जाति बन्धन समाप्त हुए, वहीं दूसरी ओर साँस्कृतिक एकता में भी वृद्धि हुई।

(15) चरित्र निर्माण-

मुस्लिमकालीन शिक्षा के अन्तर्गत शिक्षार्थियों के चरित्र-निर्माण पर भी ध्यान दिया जाता था। मुहम्मद साहब द्वारा आदर्श-चरित्र-निर्माण पर बल दिये जाने के कारण ही मुस्लिम शिक्षा में आदर्श-चरित्र-निर्माण पर बल दिया गया। इसीलिये मुस्लिम शिक्षा में आदर्श-चरित्र को ज्ञान प्राप्त करने की कुंजी माना गया है

(16) विशिष्ट उपाधियाँ एवं प्रमाण-

पत्र-मुस्लिमकालीन शिक्षा में शिक्षार्थियों को उपाधियाँ भी प्रदान की जाती थीं, जैसे-तर्कशास्त्र एवं दर्शनशास्त्र में शिक्षार्थियों को ‘फाजिल’ की, साहित्य के शिक्षार्थियों को ‘काबिल’ और धर्मशास्त्र के शिक्षार्थियों को ‘आलिम’ की उपाधि प्रदान की जाती थी। इसके अतिरिक्त विशिष्ट योग्यता वाले शिक्षार्थियों को विशेष प्रमाण-पत्र प्रदान किया जाता था।

मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली के दोष (Demerits of Medieval Education System)

मुस्लिम शिक्षा के प्रमुख दोष निम्न प्रकार थे-

(1) जनसामान्य की शिक्षा का अभाव-

मुस्लिमकालीन शिक्षा के अन्तर्गत जनसामान्य की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। शासकों एवं धनाढ्य वर्ग के व्यक्तियों ने धार्मिक भावनाओं से अभिप्रेरित होकर अथवा कीर्ति एवं प्रतिष्ठा के कारण मकतबों एवं मदरसों का निर्माण कराया था। इसीलिए मात्र बड़े नगरों में ही शिक्षा केन्द्र स्थापित हो सके, अत: उच्च वर्ग ही शिक्षा से लाभान्वित हो सका था। जनसामान्य की शिक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।

(2) मानसिक योग्यताओं के विकास का अभाव-

इस काल में रटने पर अत्यधिक बल दिये जाने के कारण शिक्षार्थियों में चिन्तन, तर्क, मनन इत्यादि मानसिक योग्यताओं का विकास नहीं हो पाता था। मानसिक योग्यताओं के विकास के अभाव में शिक्षार्थी शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् भी बुद्धिमान नहीं बन सका।

(3) आध्यात्मिक पक्ष की अवहेलना-

मुस्लिम शिक्षा के अन्तर्गत आध्यात्मिक पक्ष की पूर्णतः अवहेलना की गई। इस युग में शिक्षा धर्म प्रधान होने के कारण प्राथमिक स्तर से ही शिक्षार्थियों को कुरान की आयतों को याद कराया जाता था। इसलिये इस युग की शिक्षा का सर्वप्रमुख उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रचार करना था, न कि शिक्षार्थियों का आध्यात्मिक विकास करना।

(4) कठोर दण्ड-

मुस्लिम शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत दण्ड की व्यवस्था अमानवीय एवं मनोवैज्ञानिक थी। शरारत करने पर शिक्षार्थी को कठोर शारीरिक दण्ड दिया जाता था। इस सम्बन्ध में एडम महोदय ने लिखा है कि-“शिक्षार्थी को मुर्गा बनाना, उसकी पीठ अथवा गर्दन या दोनों पर निश्चित समय हेतु ईंट अथवा लकड़ी का भारी टुकड़ा रखना, उसे पैरों के बल पेड़ की शाखा से लटकाना, उसे बिल्ली अथवा अन्य किसी कष्टदायी पशु के साथ बोरे में बन्द करना, उसे भूमि पर पेट के बल लिटाकर उसके शरीर को निर्धारित दूरी तक घसीटना।” सम्भवतः इसी कठोर दण्ड व्यवस्था के कारण इस काल में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध मधुर नहीं होते थे।

(5) शिक्षा में अस्थिरता-

इस दोष के सम्बन्ध में डॉ० केई ने लिखा है कि-“शिक्षा का अनिश्चित एवं अस्थिर स्वरूप प्रमुखतः निरंकुश शासन का परिणाम था।” पैगम्बर मुहम्मद का यह कहना था कि इस्लाम धर्मानुयायियो हेतु ज्ञानार्जन करना अनिवार्य है, क्योंकि ज्ञान के अभाव में धर्म का प्रचार नहीं किया जा सकता। इस युग में ज्ञान अनिवार्य होते हुए भी शिक्षा में स्थिरता परिलक्षित नहीं होती है। इसका कारण था बार-बार नवीन शासक बनना। ऐसे में एक सम्राट के शासनकाल में शिक्षा की प्रगति होती थी, तो दूसरे के शासनकाल में शिक्षा का हास हो जाता था। इसी कारण मध्य काल में शिक्षा में अस्थिरता परिलक्षित होती है।

(6) शिक्षार्थियों का विलासप्रिय होना-

मुस्लिम शिक्षा के अन्तर्गत शिक्षार्थी जीवन में संयम की आवश्यकता को आवश्यक नहीं माना गया। इसके फलस्वरूप शिक्षार्थी प्रत्येक वस्तु का प्रयोग स्वतन्त्रतापूर्वक करने लगे, यथा-देह एवं इन्द्रिय सुख देने वाली वस्तुओं का प्रयोग आदि । इससे शिक्षार्थियों का जीवन विलासी बन गया तथा वे नैतिक मूल्यों को विस्मृत कर चुके थे।

(7) अरबी-फारसी भाषाओं की बहुलता-

मुस्लिम शिक्षा का माध्यम अरबी-फारसी भाषायें थीं। इसी कारण प्रान्तीय भाषाओं को महत्वहीन माना जाता था। अतः इस काल में प्रान्तीय भाषाओं का विकास नहीं हो सका। सम्राट अकबर ने हिन्दी भाषा और औरंगजेब ने उर्दू भाषा के विकास की ओर ही ध्यान दिया।

(8) स्त्री-शिक्षा की अवहेलना-

मुस्लिम शिक्षा के अन्तर्गत स्त्री-शिक्षा की पूर्णतः अवहेलना की गई। इसका सर्वप्रमुख कारण था-पर्दा प्रथा का प्रचलन । पर्दा प्रथा प्रचलित होने के कारण स्त्रियों को मकतबों एवं मदरसों में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। उच्च परिवार की स्त्रियाँ घर पर शिक्षा प्राप्त कर लेती थीं, लेकिन जनसामान्य की स्त्रियों के लिये ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी।

(9) केवल मुसलमानों हेतु शिक्षा-

इस्लामी शिक्षा मात्र मुसलमानों के लिये थी। मदरसों में मुसलमानों के अतिरिक्त अन्य किसी जाति के बालकों को प्रवेश नहीं दिया जाता था। यद्यपि सिकन्दर लोदी के काल में मुस्लिम शिक्षण संस्थाओं में हिन्दू बालकों को प्रवेश दिया जाने लगा था, लेकिन उनके साथ असमानता का व्यवहार किया जाता था।

(10) शिक्षा की व्यापकता का अभाव-

मुस्लिम शिक्षा में व्यापकता का अभाव था। जनसामान्य की शिक्षा में कोई रुचि नहीं थी। बड़े नगरों एवं कस्बों में ही शिक्षण-संस्थायें खोली गई थीं। अत: इस काल में शिक्षा का पूर्ण विकास नहीं हो सका। मात्र धनाढ्य एवं राजपरिवारों के व्यक्तियों को ही शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्रदान किये जाते थे। ऐसी स्थिति में शिक्षा में व्यापकता का अभाव होना, कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसके अतिरिक्त शिक्षण-संस्थाओं की संख्या कम होने के कारण भी इस काल में शिक्षा का प्रसार नहीं हो सका था।

(11) लौकिक पक्ष को अधिक महत्व देना-

इस्लाम धर्म में लोक सम्पदा पर अत्याधिक बल दिये जाने के कारण, मुस्लिम शिक्षा में सांसारिकता का समावेश हो गया। इस्लामी शिक्षा का मूल उद्देश्य भौतिक सुख एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति करना था। इस सुख एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति शिक्षार्थी शिक्षा प्राप्त कर उच्च पदों पर बैठ कर करते थे। मध्ययुग में शिक्षार्थी जीवन-दर्शन की उस गहराई तक पहुँचने में अक्षम थे जो कि प्राचीन संस्कृति की एक प्रमुख विशेषता मानी जाती है।

(12) अध्ययन में कठिनाई-

इस्लामी शिक्षा में शिक्षा का माध्यम अरबी-फारसी भाषायें थीं। ये दोनों भाषायें विदेशी थीं। अतः भारतीय मुसलमानों के लिए इन भाषाओं में पढ़ना व समझना अत्यन्त कठिन था।

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Pankaja Singh

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