मध्य पाषाण काल | नवपाषाण काल | अन्त्येष्टि संस्कार | भारत के मध्य पाषाण काल | उत्तर पाषाणकाल

मध्य पाषाण काल | नवपाषाण काल | अन्त्येष्टि संस्कार | भारत के मध्य पाषाण काल | उत्तर पाषाणकाल

मध्य पाषाण काल

मध्य पाषाण युग का आरम्भ ई0 पू0 8 हजार के आस-पास हुआ। यह पुरापाषाण और नव पाषाण युग के बीच का संक्रमण काल है। धीरे-धीरे तापक्रम बढ़ा और मौसम गर्म और सूखा होने लगा। इस परिवर्तन से मनुष्य का जीवन प्रभावित हुआ, पशुपक्षी तथा पेड़-पौधों की किस्मों या प्रजातियों में परिवर्तन हुआ, औजार बनाने की तकनीक में परिवर्तन हुआ और मनुष्य छोटे पत्थरों का उपयोगकर्ता ही रहा, पर शिकार कर्ने की तकनीक में परिवर्तन हुआ; अब न केवल बड़े बल्कि छोटे जानवरों का भी शिकार होने लगा। ये भौतिक एवं पारिस्थितिक परिवर्तन पत्थर पर हुई चित्रकारी से भी प्रतिबिम्बित होते हैं।

भारत में मध्य-पाषाण काल के विषय में जानकारी सर्वप्रथम 1857 ई0 में हुई जब सी0 एल0 कार्लाइल ने विन्ध्य क्षेत्र से लघु पाषाण उपकरण खोज निकाले। इसके पश्चात् देश के विभिन्न भागों से इस प्रकार के पाषाण उपकरण खोज निकाले गये।

प्रमुख औजार

मध्य-पाषाण युग के औजार छोटे पत्थरों से बने हुए हैं। इनको माइक्रोलिथिक या सूक्ष्म पाषाण कहा गया है। इनकी लम्बाई 1 से 8 सेमी तक है, कुछ सूक्ष्म औजारों का आकार ज्यामितीय है; इसमें ब्लेड, क्रोड, नुकीले त्रिकोण और नव चन्द्राकार प्रमुख ज्यामितीय औजार हैं। कुछ स्थानों से हड्डी तथा सींग के बने हुए उपकरण भी मिलते हैं; पाषाण उपकरण चर्ट, फ्लिंट, कैलसिडोनी, स्फटिक, जैस्पर, कार्नेलियन, अगेट जैसे कीमती पत्थरों से निर्मित है।

भारत में मानव अस्थि-पंजर मध्य पाषाण काल से ही सर्वप्रथम प्राप्त होने लगता है, इस काल के कुछ प्रमुख औजारों का विवेचन निम्नलिखित है-

  1. ब्लेड (Blade)- यह एक प्रकार का विशेषीकृत पत्थर होता है। इसकी लम्बाई- चौड़ाई से दुगनी होती है। इसका उपयोग काटने के लिए किया जाता है। मध्य पाषाण युगीन औजार बनाने की तकनीक को फ्लूटिंग कहा जाता है।
  2. क्रोड (Crode)- यह आकार में बेलनाकार होता है जिसकी पूरी लम्बाई में फ्लूटिंग के निशान होते हैं और इसमें एक सपाट प्लेटफार्म होता है।
  3. नुकीला औजार (Point)—यह एक प्रकार का टूटा तिकोना ब्लेड होता है। इसके दोनों सिरे ढलवा तथा ढालदार होते हैं। इसके सिरे सरल रेखीय या वक्ररेखीय भी हो सकते हैं।
  4. त्रिकोण (Triangle)- इसमें साधारणतया एक शिरा एवं एक आधार होता है और शिरे को धारदार बनाया जाता है। इसका उपयोग काटने के लिए किया जाता है या इसे तीर के अग्र भाग में भी लगाया जाता है।
  5. नव चन्द्राकार (Lunate)- यह औजार भी एक तरह का ब्लेड होता है, लेकिन इसका एक सिरा वृत्ताकार होता है। इसका उपयोग अवतल कटाई के लिए किया जा सकता है। ऐसे दो औजारों को मिलाकर तीर का अग्र भाग तैयार किया जा सकता है।

समलम्ब औजार (Trapeze)— यह भी एक ब्लेड के समान दिखाई पड़ता है। इसके एक से अधिक सिरे धारदार होते हैं। किसी-किसी समलम्ब औजार के तीन सिरे धारदार होते हैं। इसका उपयोग तीर के अग्रभाग के रूप में होता होगा।

प्रमुख स्थल

(क) राजस्थान

यहाँ पचपद्र नदी घाटी और सोजत इलाके में सूक्ष्म औजार काफी मात्रा में मिले हैं। यहाँ पाई गई एक महत्वपूर्ण बस्ती तिलवारा है। तिलवारा में दो सांस्कृतिक चरण पाये गये हैं। पहला चरण मध्य पाषाण युग का प्रतिनिधित्व करता है, तथा इस चरण की विशेषता सूक्ष्म औजारों का पाया जाना है। दूसरे चरण में चाक पर बने हुए मिट्टी के बर्तन और लोहे के टुकड़े इन सूक्ष्म औजारों के साथ पाये गये हैं।

भीलवाड़ा जिले में कोठारी नदी के तट पर स्थित बागौर भारत का सबसे बड़ा मध्यपाषाणिक स्थल है। यहाँ 1968 से 1970 तक वी० एन० मिश्र ने उत्खनन कार्य करवाया था। यहाँ तीन सांस्कृतिक अवस्थायें पायी गयी हैं। रेडियो कार्बन डेटिंग से अवस्था एक या संस्कृति की सबसे प्रारम्भिक अवस्था का समय 5000 ई० पूर्व से 2000 ई0 पू0 निश्चित किया गया है। पूरे स्थल में जंगली और पालतू दोनों प्रकार के पशुओं की जली हुई अस्थियाँ मिली हैं। तीन चरणों से सम्बन्धित कलें भी प्राप्त हुई हैं। यहाँ मानव कंकाल भी मिला है। झोपड़ियों और खड्जों द्वारा फर्शों के साक्ष्य भी प्राप्त हुए हैं। यहाँ का उद्योग मुख्य रूप से फलकों पर आधारित है। पत्थर की वस्तुओं में छल्ला-पत्थर भी शामिल है।

(ख) गुजरात

यहाँ ताप्ती, नर्मदा, माही और साबरमती नदियों के आसपास कई मध्य पाषाणयुगीन स्थल प्राप्त हुए हैं, इनमें अक्वज, बलसाना, हीरपुर और लंघनाज महत्वपूर्ण स्थल हैं। इनमें से एच0 डी० शांकलिया द्वारा उत्खनित लंघनाज स्थल की विशेषता यह है कि शुष्क क्षेत्र में उद्घाटित यह पहला स्थल है जिससे मध्य पाषाणिक संस्कृति के विकास के क्रम का पता चलता है। यहाँ रेत के ठोस टीलों के 100 से अधिक स्थल मिले हैं। लंघनाज में तीन सांस्कृतिक अवस्थायें पायी गयी हैं। पहले चरण में सूक्ष्म पाषाण उपकरण, करें और पशुओं की हड्डियाँ मिली हैं। सूक्ष्म औजारों में ब्लेड, त्रिकोणीय औजार, अर्ध-चन्द्राकार औजार, खुरचनी और तक्षणी प्रमुख हैं। यहाँ से 14 मानव कंकाल भी प्राप्त हुए हैं।

(ग) उत्तर प्रदेश

यहाँ इलाहाबाद प्रतापगढ़ क्षेत्र में स्थित सराय नहर राय अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थल हैं। यहाँ का उत्खनन कार्य जी0 आर0 शर्मा द्वारा सम्पन्न हुआ। यहाँ एक छोटी बस्ती के साक्ष्य मिले हैं। इसके अतिरिक्त अनेक छोटी भट्ठियां, एक बड़ी सामुदायिक भट्ठी, झोपड़ी का फर्श और कई कब्रें मिली हैं। यहीं से स्तम्भगर्त के भी प्रमाण मिले हैं। स्तम्भगर्त का अर्थ है-रहने के फर्श पर ऐसे गर्त जिनमें स्तम्भ गाड़े गये हैं और उन पर छत बनाई गई है। यहाँ से ढेर सारे नर कंकाल भी प्राप्त हुए कुछ अस्थि तथा सींग निर्मित उपकरण भी मिले हैं। शवाधानों से तत्कालीन मृतक संस्कार विधि पर प्रकाश पड़ता है। समाधिस्थल में शवों का सिर पश्चिम तथा पैर पूर्व की ओर है।

प्रतापगढ़ जिले में स्थित महदहा अन्य प्रमुख मध्यपाषाण कालीन स्थल है। यहाँ की खुदाई 1978-80 के बीच की गई। यहाँ से भी स्तम्भ-गर्त के साक्ष्य पाये गये। यहां हड्डियों की अनेक कलात्मक वस्तुयें पायी गयी हैं इसमें मृग श्रृंग के छल्लों की माला और हड्डियों के आभूषण शामिल हैं। यहाँ से बारहसिंगा, भैंस, हाथी, गैंडा, सुअर, कछुए और पक्षियों के अवशेष भी मिले हैं। यहाँ से अनेक ऐसे शवाधान मिले हैं जिनमें दो व्यक्तियों को एक साथ दफनाया गया है।

महदहा से 5 किमी0 उत्तर-पश्चिम की ओर दमदमा (पट्टी तहसील) पुरास्थल है। 1982 ई0 से 87 तक यहाँ उत्खनन कार्य किया गया। यहाँ से ब्लेड, फलक, ब्युरिन (तक्षणी) आदि बहुत से लघु पाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। हड्डी तथा सींग के उपकरण.एवं आभूषण भी मिले हैं। इनके साथ-साथ 41 मानव शवाधान तथा कुछ गर्त चूल्हे प्रकाश में आये हैं। विभिन्न पशुओं जैसे भेड़, बकरी, गाय, बैल, भैंस, हाथी, गैंडा, सुअर आदि की हड्डियां प्राप्त हुई हैं। कुछ पक्षियों, मछलियों, कछुए आदि की हड्डियां भी मिली हैं।

उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जनपद में स्थित चौपानी माण्डो नामक पुरातात्विक स्थल से पूर्व पाषाणिक काल से लेकर उत्तर मध्य पाषाणिक काल तक की संस्कृतियों का एक अनुक्रम देखने को मिलता है। यहाँ हाथ के बने अनगढ़ किस्म के मृभाण्ड भी मिले हैं। यहाँ झोपड़ी के गोल फर्श भी मिले हैं। उत्तरवर्ती चरण का एक फर्श पत्थरों से बना हुआ है। इस चरण में सरकण्डे और बांस के निशान वाले पकी मिटटी के पिण्ड भी मिले हैं जिनसे लगता है कि मिट्टी और बांस की टट्टी की दीवारें बनाई जाती थीं। अन्य अवशेषों में हथौड़ा, पत्थर, छिलाई में प्रयुक्त होने वाले पत्थर, छिद्रयुक्त गोल पत्थर आदि शामिल हैं।

जीवन शैली

मध्य-पाषाण कालीन मानव का जीवन पूर्व पाषाण कालीन मानव की अपेक्षा भिन्न था। यद्यपि वे अब भी अधिकांशतः शिकार पर ही निर्भर थे, तथापि इस काल के लोग माय, बैल, भेड़, बकरी, भैंसें आदि का शिकार करने लगे थे। पशुओं से धीरे-धीरे उनका परिचय बढ़ रहा था। अपने अस्तित्व के अन्तिम चरण तक वे मृद्भाण्डों का निर्माण करना भी सीख गये थे। सरायनहरराय तथा महदहा की समाधियों से इस काल के लोगों की अन्त्येष्टि संस्कार विधि के विषय में जानकारी मिलती है। ज्ञात होता है कि वे अपने मृतकों को गाड़ते थे तथा उनके साथ खाद्य सामग्रियाँ, औजार, हथियार भी साथ रखते थे। सम्भवतः यह किसी प्रकार लोकोत्तर जीवन में विश्वास का सूचक था।

पत्थर की गुफाओं की दीवारों पर बनाये गये चित्रों और नक्काशियों से मध्य-पाषाण युग के सामाजिक जीवन और आर्थिक क्रिया-कलाप से सम्बन्धित जानकारी मिलती है। भीमबेटका, आदमगढ़, प्रतापगढ़, मिर्जापुर, मध्य-पाषाण युग की कला और चित्र कला की दृष्टि से समृद्ध है। ये पश्चिमोत्तर पाकिस्तान में चारगुल से लेकर पूर्व में उड़ीसा तक और उत्तर में कुमाऊ की पहाड़ियों से लेकर दक्षिण में केरल तक पाये जाते हैं। शैलचित्रों के कुछ महत्वपूर्ण स्थल हैं-उत्तर प्रदेश में मुरहना पहाड़, मध्य प्रदेश में भीम बेटका, आदमगढ़, लाखा जुआर और कर्नाटक में कुपागल्लू। इन चित्रों से शिकार करने, भोजन जुटाने, मछली पकड़ने और अन्य मानवीय क्रिया- कलापों की भी झलक मिलती है। भीमबेटका में काफी चित्र बने मिले हैं। इनमें बहुत से जंगली जानवरों जैसे जंगली सुअर, भैंसें, बन्दर और नीलगाय के चित्र बने मिले हैं। आदमगढ़ की शैलाश्रय श्रृंखला की गैंडे के शिकार वाले चित्र से पता चलता है कि बड़े जानवरों का शिकार बहुत से लोगों द्वारा मिलकर किया जाता था। पशुओं का चित्रांकन मोटी रेखाओं द्वारा किया गया है और उनके शरीर को कई बार पूर्णतः अथवा अंशतः आड़ी रेखाओं से भरा गया है। इन तीनों तरीकों के उदाहरण उत्तर प्रदेश में मुरहना पहाड़, मध्य प्रदेश में भीम बेटका, आदमगढ़ की गुफाओं और शैलश्रयों में खींचे गये पशुओं के चित्र देखे जा सकते हैं। चित्र बनाने में गहरे लाल, हरे, सफेद और पीले रंगों का उपयोग किया गया है। इन चित्रों और नक्काशियों से यौन सम्बन्धों, बच्चों के जन्म, बच्चे के पालन पोषण और शव दफन से सम्बन्धित अनुष्ठानों की भी झलक मिलती है। इन सब बातों से यह संकेत मिलता है कि मध्य पाषाण युग में पुरापाषाण युग की अपेक्षा सामाजिक संगठन अधिक सुदृढ़ हो गया था। ऐसा प्रतीत होता है कि मध्यपाषाण युग के लोगों का धार्मिक विश्वास पारिस्थितिकी और भौतिक परिस्थितियों से प्रभावित था।

नवपाषाण काल

नवपाषाण या नियोलिथिक शब्द का प्रयोग सबसे पहले सर जान लुबाक ने 1865 में प्रकाशित पुस्तक प्रीहिस्टारिक टाइम्स में किया था। उन्होंने इस शब्द का प्रयोग उस युग को बताने के लिए किया था जिस युग में पत्थर के उपकरण अधिक कुशलता से और अधिक रूपों में बनाये गये और उन पर पालिश भी की गई। बाद में डी गार्डेन चाइल्ड ने नवपाषाण ताम्रपाषाण संस्कृति को अपने आप में पर्याप्त अन्न उत्पादक अर्थव्यवस्था बताया और माइल्स वर्किट ने इस बात पर जोर दिया कि निम्नलिखित विशिष्ट विशेषकों को नवपाषाण संस्कृति माना जाना चाहिए-

  1. कृषि कार्य, 2. पशुओं को पालना, 3. पत्थरों के औजारों का घर्षण और उन पर पालिश करना, 4. मृद्भाण्ड बनाना

नव पाषाण की संकल्पना में इधर कुछ वर्षों में परिवर्तन हुआ है। एक आधुनिक अध्ययन में उल्लेख किया गया है कि नवपाषाण शब्द उस पूर्व धातु चरण संस्कृति का सूचक होना चाहिए जब यहाँ रहने वालों ने अनाज उगाकर और पशुओं को पालतू बनाकर भोजन को विश्वस्त पूर्ति की व्यवस्था कर ली थी और एक स्थान पर टिक कर जीवन बिताना आरम्भ कर दिया था, फिर भी घर्षित पत्थर के औजार नवपाषाण संस्कृति की सर्वाधिक अनिवार्य विशेषता है। वनस्पति- कृषिकरण एवं पशुओं के पालने से एक स्थान पर टिक कर जीवन बिताने के आधार पर ग्राम समुदायों की शुरुआत हुई साथ ही कृषि प्रौद्योगिकी की शुरुआत हुई। इसके अतिरिक्त प्रकृति पर और अधिक नियंत्रण तथा प्राकृतिक साधनों का दोहन हुआ।

विश्व के संदर्भ में नव पाषाण युग 9 हजार ई० पू० से प्रारम्भ होता है, लेकिन भारत में इसकी शुरुआत 7 हजार ई० पू० में हुई। खेती पर आधारित नवपाषाण कालीन संस्कृति का प्रारम्भिक साक्ष्य भारत पाक क्षेत्र के पश्चिमोत्तर भाग में बुनियादी तौर पर क्वेटा घाटी में लोरालाई और जोब नदियों की घाटियों में प्राप्त होता है। किले गुल मोहम्मद, गुमला, राना धुंडई, अंजीरा, मुण्डीगाक और मेहरगढ़ जो कच्छी मैदान में स्थित है के पुरातात्वीय स्थलों से 7000 से 5000 ईसा पूर्व के समय का साक्ष्य मिलता है। इससे पता चलता है कि मेहरगण में लगभग 7000 ईसापूर्व में बसने शुरू हो गये थे। खेती और पशुपालन के प्रादुर्भाव के साथ धर्म और समाज के क्षेत्रों में उन कर्मों से सम्बन्धित अन्य आचार व्यवहारों का भी विकास हुआ-उदाहरण के लिए हमें मरणोपरान्त जीवन, मृत्यु के बाद पुनरुज्जीवन, आत्मा के देहान्तरण और पुनर्जन्म चक्र के सम्बन्ध में विश्वास जैसी नयी अवधारणाओं के उदय देखने को मिलते हैं। स्थायी बसाव के फलस्वरूप नई नयी दस्तकारियों जैसे मृद्भाण्ड पाने की कला का विकास हुआ। यद्यपि पशु- पालन की शुरुआत मध्य पाषाण काल से ही हो गई थी, परन्तु इस काल में जंगली पशुओं को अत्यधिक संख्या में पालतू बनाया गया। भारत में गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, कुत्ता आदि का पालन किया जाने लगा। घोड़ा पालन के विषय में विद्वान एक मत नहीं हैं।

पूर्व में मानव शरीर ढकने के लिए पशु-चर्म, पत्तों एवं छालों का प्रयोग करता था, परन्तु इस काल में उसने वस्त्र निर्माण सीख लिया। भीमबेटका में प्रयुक्त रंग इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि वस्त्रों को रंगने की शुरुआत हो गई थी।

अग्नि का उपयोग इस काल की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। अग्नि के उपयोग से भोजन पकाये जाने की तकनीक प्रारम्भ हुई। अग्नि ने अन्धकार में प्रकाश फैलाया, शरीर में ऊर्जा का संचार भी अग्नि के कारण सम्भव हुआ। नव पाषाण युग के अन्तिम दौर में धातुओं के उपयोग की शुरुआत हुई, ताँबा सर्वप्रथम इस्तेमाल होने लगा; इसी कारण यह काल ताम्रकाल कहलाया। मनोरंजन के साधनों में नृत्य गान एवं आखेट प्रमुख रहा होगा। भीमबेटका के चित्र लोगों में इस कला के प्रति रुचि प्रकट करते हैं।

अन्त्येष्टि संस्कार

इस काल में अन्त्येष्टि संस्कार के निम्नलिखित रूप दिखाई पड़ते हैं-

सिस्ट समाधि- एक आयताकार खाई को चारों ओर पाषाण से सन्दूक की आकृति बनाकर मृतात्मा की अस्थियां रखी जाती थीं। अस्थियों के साथ हथियार, औजार और आभूषण आदि रखे जाते थे। समाधि में एक से अधिक व्यक्तियों की अस्थियाँ रखी जा सकती थीं। ब्रह्मगिरि के उत्खनन में ऐसे अवशेष देखने को मिले हैं। पुदुकूकोटा शिस्ट समाधि में कुछ परिवर्तन बीच में एक छेद वाला पत्थर रखकर किया गया।

पिट सर्कल- ग्रेनाइट पत्थरों से 8 से 12 फिट का वृत्त जिसकी गहराई 6 से 8 फिट होती थी। सम्भवतः, शुरू में लकड़ी की अर्थी पर शव रखा जाता था। शव के गल जाने पर अस्थियाँ एकत्र कर समाधि में रखी जाती थी। अस्थियों के साथ आभूषण, मृद्भाण्ड आदि उपलब्ध हुए हैं। ब्रह्मगिरि (मैसूर) के उत्खनन में ही ऐसी समाधियों के अवशेष मिले हैं।

वैर्नसर्कल- पाषाणों से निर्मित समाधि में अस्थि पात्र एवं भस्मपात्र रखे जाने की परम्परा थी। इस प्रकार की समाधियाँ चेत्रई के चिंगल क्षेत्र में देखी गई है।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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