शिक्षाशास्त्र

लोकाचार का सामान्य विचार | लोकाचार के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य | लोकाचार के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य | लोकाचार के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम | लोकाचार के अनुसार परीक्षा की विधि

लोकाचार का सामान्य विचार | लोकाचार के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य | लोकाचार के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य | लोकाचार के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम | लोकाचार के अनुसार परीक्षा की विधि

लोकाचार या लोक-व्यवहार का सामान्य विचार-

व्यावहारिकतावादी दर्शन की प्रवृत्ति के फैलने से समाज में पाये जाने वाले आदर्श, संस्कार और आचार पर बल दिया गया। दूसरे शब्दों में जनता में तोकाचार या लोक व्यवहार का उद्भव हुआ। लोकाचार का तात्पर्य समाज के लोगों का साधारण आचरण, क्रिया-कलाप से होता है। आज का भारतीय समाज जनतांत्रिक हो गया है जिसके फलस्वरूप स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुता, सामाजिक न्याय प्रत्येक व्यक्ति को मान्य हो गया। यह अवश्य है कि वैयक्तिक आचार- विचार पर अधिक जोर दिया गया और इसका दुरुपयोग भी हुआ। वैयक्तिक ढंग से लोग आगे बढ़ाने का प्रयास करने लगे। शिक्षा में भी वैयक्तिक विकास को प्रधानता दी गई। प्रत्येक छात्र को अपने ढंग से आगे बढ़ने की स्वतंत्रता व समान अवसर की सुविधाएँ दी जाने लगी। समाज में सभी लोग आगे बढ़े इससे समानता की भावना लोगों में आयी। समाज के सभी वर्गों के लोगों को समान सुविधाएँ देने का प्रयास हुआ। अपने भारतीय समाज में हरिजन, पिछड़ी जातियों, जनजातियों आदि को ऊपर उठाने का प्रयास किया गया । समाज के लोग इस प्रकार उन मान्यताओं, आदर्शों और मूल्यों का पालन करने लगे जो जीवन के लिए उपयोगी होते हैं। इस प्रकार लोकाचार या लोकव्यवहार का सामान्य अर्थ होता है समाज के प्रचलित आचार-विचार का दैनिक जीवन के कार्यों में प्रयोग।

लोकाचार या लोक व्यवहार संस्कृति का एक अंश है। लोकाचार हमारे रहन-सहन और चिन्तन के तरीकों में, हमारे दैनिक अन्तर्सम्पर्क में, मनोरंजन एवं आनन्द-उत्सव में हमारी प्रकृति एवं प्रवृत्ति का प्रकाशन है। लोकाचार हमारे सामाजिक जीवन का, उनकी उपलब्धियों का, प्रगति का आधार होता है। लोकाचार का प्रयोग समाज के सभी क्षेत्रों में होता है। आर्थिक, व्यावसायिक, राजनैतिक, शैक्षिक सभी क्षेत्र इससे प्रभावित होते हैं। पूरी सामाजिक व्यवस्था के लिए लोकाचार का सहारा लेना पड़ता है। अपने देश में सामाजिक व्यवस्था का एक विघटन होता पाया जा रहा है जिसके पीछे हमारा लोक व्यवहार कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए जनतंत्र में चुनाव का जो दृश्य देखने को मिलता है उससे अनुशासनहीनता, समय-शक्ति-धन का दुरुपयोग, नैतिकता का हास्य, व्यक्तिगत लोभ-लालच, पदलोलुपता आदि प्रकट होती है। इनमें लोकाचार का प्रत्यक्ष प्रकाशन पाया जाता है। इससे स्पष्ट है कि लोकाचार हमारी संस्कृति का एक अंश, प्रगट अंश है और सामाजिक व्यवस्था के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण आधार भी है।

लोकाचार मनुष्य के अनुभवों पर आधारित है न कि अनुभव-निरपेक्ष है अर्थात् पहले से निश्चित नहीं है जैसा कि आचरण सिद्धान्त होते हैं। तथ्य तो यह है कि “जो हमारे हृदय को अधिक रुचे और जो हमारे जीवन के लिए उपयोगी प्रतीत हो उसे स्वीकार कर लेना चाहिये।” यहाँ पर बुद्धिवादी और हृदयवादी दोनों प्रवृत्तियाँ काम करती हैं। भारतीय विचारकों ने भी कहा है ‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, ना ब्रूयात् सत्यमप्रियम्’ अर्थात् सत्य बोलो, प्रिय बोलो लेकिन सत्य अप्रिय न बोलो। यह वास्तविक लोकाचार या व्यवहार है।

तोकाचार या लोक व्यवहार की पद्धति एक प्रकार से वैज्ञानिक या प्रयोगात्मक कही गई है। लोकाचार सामाजिक योग्यता पर बल देता है क्योंकि समाज में रहते हुए व्यक्ति स्वतंत्र चिन्तन, स्वानुभव और तत्काल की परिस्थिति के अनुकूल कार्य करता है। उसे सामाजिक प्रयोग का अवसर मिलता है और जीवन की समस्याओं को हल करने का अभ्यास वह करता है। यही वास्तविक व्यवहार और आचरण की पद्धति सत्य ज्ञान देती है। भारतीय परिस्थिति में इस प्रकार के आचार-व्यवहार की कुशलता का प्रयत्न गाँधीजी के शैक्षिक सिद्धान्तों में सांकेतित पाया जाता है।

लोकाचार अथवा लोक व्यवहार का शैक्षिक निहितार्थ-

लोकाचार का शैक्षिक निहितार्थ क्या है? इस प्रश्न के उत्तर में हम लोकाचार दर्शन के अनुसार शिक्षा का अर्थ, उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं पाठन-विधि पर कुछ विचार देने का प्रयत्न करेंगे।

(अ) लोकाचार के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य

लोकाचार दर्शन संसार में रहने वाले लोगों का एक प्रयोगात्मक एवं उपयोगी दृष्टिकोण कहा जा सकता है। इस विचार से लोकाचार दर्शन के अनुसार शिक्षा वह अनुभव और ज्ञान है जो मनुष्य के दैनिक जीवन में उचित एवं उपयोगी ढंग से व्यवहार करने के योग्य बनाता शिक्षा इस प्रकार व्यावहारिक जीवन का साधन है और सफलतापूर्वक जीवन-व्यतीत करने की प्रक्रिया भी है। एक दूसरी दृष्टि से लोकाचार दर्शन के अनुसार शिक्षा मनुष्य को समाज का वास्तविक और उपयोगी सदस्य बनाती है और उसे परिस्थिति के अनुकूल जीवन व्यतीत करने की योग्यता प्रदान करती है। अस्तु लोकाचार दर्शन के अनुसार शिक्षा का अर्थ वास्तविक एवं वर्तमान जीवन के अनुभव, व्यवहार आचरण व ज्ञान है तथा इसे प्रदान करने की प्रयोगात्मक प्रक्रिया भी है।

(ब) लोकाचार के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य

शिक्षा के उद्देश्य पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि लोकाचार दर्शन शिक्षा को व्यवहार और अनुभव से जोड़ता है। ऐसा होने पर शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है मानव शक्ति का सदुपयोग जिससे वर्तमान जीवन सुखमय एवं सफल हो सके।

शिक्षा का दूसरा उद्देश्य भी हमारे सामने लोकाचार दर्शन प्रस्तुत करता है। यह उद्देश्य है उचित, उपयोगी और परिस्थिति के साथ सुसमायोजन की क्षमता, योग्यता और अनुभूति प्रदान करना, आज के जनतंत्र में इसकी आशा की जाती है कि मनुष्य समानता, स्वतन्त्रता एवं सफलता का जीवन व्यतीत करे। शिक्षा के द्वारा ही यह सम्भव है।

शिक्षा का तीसरा उद्देश्य लोकाचार दर्शन के अनुसार मनुष्य को सही आचरण, सही क्रियाओं और सही ढंग से प्रयोग की स्वतन्त्रता प्रदान करना, इस परिवर्तनशील क्षमता में हम अपनी शक्ति का प्रयोग आत्म-स्वातंत्र्य की सुविधा के कारण कर सकते हैं। इसलिए लोकाचार दर्शन के अनुसार शिक्षा का एक उद्देश्य उपर्युक्त प्रकार की व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रदान करना भी है।

लोकाचार दर्शन के अनुसार शिक्षा का चौथा उद्देश्य है विभिन्नता में सामंजस्य और ऐक्य स्थापित करने की क्षमता प्रदान करना । प्रायः व्यक्तियों, तथ्यों, वस्तुओं, परिस्थितियों में अनिवार्य सम्बन्ध नहीं पाया जाता है। ऐसी स्थिति में सफलता मिलना कठिन है। फलस्वरूप शिक्षा मनुष्य को ऐसी विभिन्नता में एकता की ओर ले जाने की कोशिश करती है और एक क्षमता, योग्यता एवं क्रिया विधि भी प्रदान करती है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य कुछ ऐसे विचार एवं क्रिया के उपकरण खोजता है जिनकी सहायता से उचित गम्भीरता के साथ चिन्तन एवं निर्णय करता है और अधिक उपयोगी निष्कर्ष निकालता है। यह निष्कर्ष सामंजस्य ऐक्य की स्थापना के रूप में पाया जाता है।

(स) लोकाचार के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम

भारतीय दर्शन एवं शिक्षा के क्षेत्र में लोकाचार या लोक व्यवहार एक नया दर्शन है। इसके अनुसार शिक्षा जो उद्देश्य हैं उनकी पूर्ति शिक्षा के पाठ्यक्रम द्वारा अवश्य होनी चाहिये। इस दृष्टि से निम्नलिखित विषय एवं क्रियाएँ पाठ्यक्रम में रखनी चाहिए-

(i) भाषा- देशी और विदेशी दोनों प्रकार की भाषाएँ हों। इसी विचार से हिन्दी, संस्कृति, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जर्मन तथा प्रादेशिक बोलियों के अध्ययन की व्यवस्था व सुविधा भारत में की गई है।

(ii) विज्ञान और गणित- जीवन के सुख एवं विकास के लिए विज्ञान के विषय को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। आज हाई स्कूल तक भारत में विज्ञान व गणित को अनिवार्य विषय बनाने की नीति इसीलिए अपनाई गई है।

(iii) तकनीकी व व्यावहारिक विषय- विज्ञान के साथ प्रगति एवं उत्पादन की दृष्टि से तकनीकी ज्ञान, इन्जीनियरिंग, कृषि, उद्योग-धन्धे, वाणिज्य व व्यावसायिक विषय आदि की शिक्षा आवश्यक समझी जा रही है और इनकी ओर लोगों की प्रवृत्ति मोड़ी गई है।

(iv) सामाजिक विज्ञान- आधुनिक विचारों के आधार पर सामाजिक विज्ञान में इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र, अर्थशास्त्र व सामाजिक सम्बन्धो का ज्ञान दिया जाना लोकाचार के लिए अनिवार्य समझा जाता है। अतएव इन सभी विषयों को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है।

(v) सामान्य ज्ञान- कुछ शिक्षाविदों के मतानुसार लोक व्यवहार के लिए एवं परिस्थितियों के अनुकूल व्यवहार के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा के पाठ्यक्रम में “सामान्य ज्ञान’ जैसा विषय भी शामिल किया जावें। इससे सामंजस्य एवं ऐक्य लाने की सम्भावना होती है।

(vi) उदार विषय- कुछ अन्य शिक्षाविदों का कहना है कि जीवन की पूर्णता एवं उपयोगिता उदार विषयों के अध्ययन में छिपी होती है। इस दृष्टि से संगीत, कला, साहित्य, अभिनय, खेल-कूद-मनोरंजन, नैतिक आचरण की शिक्षा आदि पाठ्यक्रम में रखे जावें।

(vii) क्रियात्मक विषय-‌ लोकाचार एवं लोक व्यवहार तभी सम्भव होता है जब क्रियात्मक एवं प्रयोगात्मक विषय हो । क्रियात्मक एवं प्रयोगात्मक पाठ्यक्रम के विचार से सभी विषयों के व्यावहारिक पक्ष पर बल दिया जाना चाहिये। समाज सेवा योजना, एन०सी०सी०, स्काउटिंग, पर्यटन एवं भ्रमण, पर्वतारोहण आदि की क्रियाओं को भी लोकाचार के लिये आवश्यक समझा जा रहा है।

(द) लोकाचार के अनुसार परीक्षा की विधि

लोकाचार दर्शन व्यावहारिकता पर बल देता है ऐसी स्थिति में निम्नलिखित शिक्षा की विधियों के प्रयोग पर उसका ध्यान है-

(i) स्वक्रिया विधि और आत्मानुभव विधि जिसमें शिक्षार्थी को अपने द्वारा सीखने और कार्य करने की स्वतन्त्रता होती है।

(ii) प्रयोगात्मक विधि जो एक प्रकार से वैज्ञानिक विधि है और आधुनिक विज्ञान एवं तकनीकी तथा व्यावसायिक शिक्षा में इसका प्रयोग होता है।

(iii) बल केन्द्रित शिक्षा विधि जिसमें खेल पद्धति तथा इन्द्रिय प्रशिक्षण भी शामिल है। उपर्युक्त विधियों के साथ में विधि भी जुड़ी हुई है।

(iv) सह-सम्बन्ध की विधि जिसमें एक विषय को केन्द्र बनाते हैं और उसी के साथ- साथ सभी विषयों की शिक्षा देते हैं। उदाहरण के लिए बेसिक शिक्षा योजना में हस्त कौशत को केन्द्र मानकर भाषा, गणित, विज्ञान, कला आदि की शिक्षा देते हैं।

(v) सहयोगी विधि जिसमें सभी लोग मिल जुलकर एक साथ होकर शिक्षा लेते व देते हैं। इससे स्वाभाविक एकता, सामंजस्य, समानता की भावना का विकास होता है।

निष्कर्ष-

लोकाचार या लोक व्यवहार का दर्शन एक नवीन दृष्टिकोण है जिसमें आदर्शवाद, प्रकृतिवाद एवं यथार्थवाद के दृष्टिकोणों का समन्वय पाया जाता है। लोकाचार दर्शन एक सामाजिक दर्शन है जिसका आधार समानता, भ्रातृत्व एवं सामाजिक न्याय है। लोकाचार दर्शन की पृष्ठभूमि वास्तविक जीवन है, क्या उचित है क्या नहीं यह लोकाचार दर्शन संकेत करता है। इस विचार से नीतिशास्त्र का एक अंग है। लोकाचार दर्शन के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य, उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं शिक्षा-विधि इसी संदर्भ में प्रकट किये गये हैं। लोकाचार दर्शन आज के भारत में पनप रहा है इसलिए इस पर अधिक गहराई से सोचने-विचारने की आवश्यकता है। इस दिशा में शोध होना अनिवार्य है तभी हम अच्छे ढंग से इस सम्बन्ध में विचार करने में समर्थ हो सकेंगे।

शिक्षाशास्त्र महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!