लेनिन का सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवादी शासन | Lenin’s totalitarian rule of the proletariat in Hindi

लेनिन का सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवादी शासन | Lenin’s totalitarian rule of the proletariat in Hindi

लेनिन का सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवादी शासन

लेनिनवाद की मूल धारणा सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की धारणा है। लेनिन ने अपने पेम्पलेट द स्टेट एण्ड रेवोलूशन में सर्वहारा वर्ग की क्रान्ति के बाद की व्यवस्था का प्रारूप विस्तृत रूप से प्रस्तुत किया है। इसी सन्दर्भ में उसने अपने राज्य सम्बन्धी विचारों की विवेचना की है। स्टेट एण्ड रेवोलुशन में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है कि क्रान्ति के द्वारा बुर्जुआवादी राज्य को नष्ट कर उसके स्थान पर सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवादी शासन का वैसा ही स्वरूप होगा जैसा कि ‘पेरिस कम्यून’ का था। दूसरे शब्दों में, सर्वहारा वर्ग की अधिनायकवादी व्यवस्था ‘पेरिस कम्यून’ की प्रतिलिपि होगी। लेनिन की मान्यता है कि इस व्यवस्था का प्रतिपादन करने में वह मार्क्स और एंगल्स के विचारों का ही अनुसरण कर रहा है।

लेनिन ने क्रान्ति के उपरान्त जिस व्यवस्था की कल्पना प्रस्तुत की है, उसके स्बन्ध में वह दो बातें मुख्य रूप से स्पष्ट करना चाहता है। एंगल्स का यह कहना कि सर्वहारा के द्वारा सत्ता अपने हाथ में लेने से “राज्य का राज्य के रूप में अन्त कर दिया जाएगा।” उसका तात्पर्य केवल इतना ही था कि सर्वहारा के द्वारा बुर्जुआ राज्य का अन्त किया जायेगा। लेनिन बताता है कि यह काम ठीक क्रान्ति के साथ सम्भव होगा। रहा प्रश्न ‘राज्य के लोप होने का’, लेनिन के अनुसार यह क्रान्ति के तुरन्त बाद सम्भव नहीं है। इसके लिए और अधिक समय की आवश्यकता होगी। दूसरी बात यह है कि बुर्जुआ राज्य के अन्त और साम्यवादी समाज की स्थापना के बीच की स्थिति में सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवादी शासन स्थापित किया जायेगा। उसका मत था कि मार्क्स ने भी अपने क्रिटीक ऑव द गोथा प्रोग्रेम में इसी प्रकार की संग्रमणकालीन व्यवस्था, अर्थात्, ‘सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद’ का प्रतिपादन किया है।

उपर्युक्त विवेचना के द्वारा लेनिन यह स्पष्ट करना चाहता है कि (1) क्रान्ति के साथ राज्य का अन्त नहीं होगा और (2) साम्यवाद की स्थापना होने तक की संक्रमणकालीन अवस्था में राज्य को सर्वहारा वर्ग की अधिनायकवादी व्यवस्था के रूप में स्थापित करना होगा। लेनिन की मान्यता है कि सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवादी शासन की अपनी विशेषताएँ होगी। यह शासन- ‘अस्थायी होगा। इसमें “मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण’ का अन्त होगा। राज्य की बाध्यकारी शक्ति का अभी भी प्रयोग किया जायेगा, अब केवल इतना अन्तर होगा कि इस शक्ति का प्रयोग अल्पसंख्यक शोषक वर्ग के द्वारा न किया जाकर बहुसंख्यक सर्वहारा के द्वारा किया जायेगा। सम्पत्ति के भेदभाव अभी भी समाज में बने रहेंगे और व्यक्तियों को उनके ‘कार्य के अनुसार’ पारिश्रमिक दिया जायेगा, उनकी आवश्यकताओं के अनुसार नहीं। लेनिन के ही शब्दों में संक्रमणकालीन राज्य एक ‘बुर्जुआ राज्य ही होगा जिसमें बुर्जुआ-वर्ग का अस्तित्व नहीं होगा।’ सर्वहारा का अधिनायकत्व जनता के लिये पहली बार जनतंत्र की स्थापना करेगा। हाँ, इतना अवश्य है कि यह जनतंत्र संसदीय प्रणाली का नहीं होगा क्योंकि संसदीय शासन बुर्जुआ प्रजातंत्र का ही दूसरा नाम है। “बुर्जुआ लोकतंत्र झूठा एवं पाखण्डी होता है, धनिकों का स्वर्ग, लेकिन निर्धनों के लिए बन्धन एवं प्रवंचना है।” लेकिन सर्वहारावर्गीय शासन-जनतंत्र का ही दूसरा नाम है।

वास्तविक जनतंत्र, और केवल इसके माध्यम से ही, पूँजीवादी अवस्था की समाप्ति से साम्यवाद की स्थापना के लिए बीच का संक्रमण काल पार किया जा सकता है। लेनिन का कथन है कि श्रमिकों के लिए पूँजीपतियों से मुक्ति पाने के संघर्ष में प्रजातन्त्र का बहुत महत्त्व है। लेकिन प्रजातन्त्र ऐसी सीमा नहीं है जिसका उल्लंघन न किया जाय, सामन्तवाद से पूँजीवाद और पूंजीवाद से साम्यवाद के मार्ग में आने वाली विकास की अवस्थाओं में से प्रजातन्त्र एक अवस्था है। सर्वहारा का अधिनायकत्व वह शक्ति है जिसे सर्वहारा वुर्जुआ से जीत कर अपने हाथों में लेते हैं और जिसका प्रयोग वे बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध करते हैं। लेनिन के ही शब्दों में “सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व पुराने समाज की शक्तियों और परम्पराओं के विरुद्ध एक सतत चलने वाला संघर्ष है। यह ऐसा संघर्ष है जो रक्तपूर्ण भी है और रक्तहीन भी, हिंसात्मक है और शान्तिपूर्ण भी, आर्थिक भी है, और सैनिकवादी भी तथा शिक्षात्मक और प्रशासकीय भी।” यह शक्ति विधियो से अनियंत्रित रहती है। लेनिन यह भी बताता है कि सर्वहारा वर्गीय जनतंत्र को चलाने के लिए ‘एक-दलीय व्यवस्था’ आवश्यक है। संक्रमणकालीन समाज में और उसके बाद भी एक से अधिक दल की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि परस्पर विरोधी राजनीतिक दल विभित्र आर्थिक वर्गों के प्रतीक होते हैं। लेनिन का कथन है कि जिस प्रकार एक व्यक्ति के लिए एक ही सिर आवश्यक है, दो नहीं, उसी प्रकार इस समाज में एक ही दल की आवश्यकता है, इससे अधिक की नहीं।

लेनिन के द्वारा यह प्रतिपादित कर दिये जाने के बाद कि क्रान्ति के पश्चात् सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवादी शासन होगा, वह उन विस्तृत व्यवस्थाओं का भी वर्णन करता है जिनके द्वारा संक्रमणकालीन राज्य का प्रशासन चलाया जायेगा। 1917 की क्रान्ति के अवसर पर लेनिन ने ‘सोवियतों को सब शक्ति’ का जो नारा लगाया था, अब सोवियतों को पीछे धकेल कर वह दल और दलीय शासन को आगे ला खड़ा करता है। क्रान्ति के पूर्व लेनिन प्रशासन का अर्थ “हिसाब खाता तथा नियंत्रण’ ही लगाता था। उसकी धारणा थी कि क्रान्ति के पश्चात् नौकरशाही की आवश्यकता नहीं रहेगी। राज्य के कर्मचारियों का कार्य केवल पंजीयन करना, फाइलें व्यवस्थित रखना और परीक्षण करना है और इसके लिए उन्हें विशेष वेतन देने की आवश्यकता नहीं। कोई भी थोड़ा पढ़ा-लिखा श्रमिक भी इन कार्यों को कर सकता है अतः कर्मचारियों का वेतन भी ‘श्रमिकों की मजदूरी’ के स्तर पर ला दिया जायेगा। लेकिन संक्रमणकालीन राज्य की व्याख्या करते हुए लेनिन के विचारों में अब परिवर्तन दिखाई देता है। अब वह कहता है कि समाजवाद के संक्रमण के लिये ‘विशेषज्ञों’ की आवश्यकता है। विशेषज्ञ’ मूलतः बुर्जुआवादी होते हैं फिर भी संक्रमणकाल में उनकी आवश्यकता होगी। लेनिन के अनुसार “राज्य के संगठन कार्य के लिये हमें उन लोगों की आवश्यकता है जिन्हें राज्य और व्यवसाय का अनुभव है और इसके लिए हमें पुराने वर्ग की ओर ही देखना पड़ेगा। हमें उन लोगों के सहारे से प्रशासन चलाना होगा जिन लोगों के वर्ग का तख्ता हमने पलट दिया।”

लेनिन के ‘सर्वहारा वर्ग की तानाशाही’ सम्बन्धी विचारों का विश्लेषण करने के बाद हम कुछ निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। संक्रमणकाल में राज्य का क्या स्वरूप होगा, लेनिन कहता है कि राज्य शक्ति एवं दमन का एक माध्यम होगा। इस राज्य में सर्वहारा वर्ग एक शासक वर्ग की भाँति संगठित होकर गैर-सर्वहारा पर अपने उद्देश्यों को लागू करने के लिए हिंसा एवं शक्ति के माध्यमों का निर्माण एवं प्रयोग करता है। बुर्जुआ वर्ग की समाप्ति के लिए सर्वहारा को दीर्घावधि के लिये जीवन-मरण का संघर्ष करना होगा और इसके लिये अडिग निश्चय एवं शक्ति प्रयोग की आवश्यकता होगी। इस दृष्टिकोण से देखने पर सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद के दो प्रमुख उद्देश्य दिखाई देते हैं-(1) जब पूंजीपति वर्ग को सत्ताहीन कर दिया जाता है तो उनकी प्रतिरोध की शक्ति कई गुना बढ़ जाती है और तब इस शोषक वर्ग को नियंत्रित करना और इनकी क्रान्ति विरोधी चेष्टाओं को रोकना आवश्यक होगा। (2) इसका उद्देश्य नवीन सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था का संगठन करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक कठोर, सुसंगठित दल की आवश्यकता है। लेनिन के इस सिद्धान्त ने एक ओर सर्वहारा वर्ग के नाम पर गैर-सर्वहारा के दमन के लिए दल को असीम शक्ति प्रदान की है तो दूसरी ओर श्रमिक वर्ग के सदस्यों पर भी अधिनायकवादी शासन की शक्ति का प्रयोग करने का अधिकार दल के नेताओं को व्यवहार में प्रदत्त किया है। वेपर के शब्दों में, “सर्वहारा वर्ग की तनाशाही गैर-सर्वहारा वर्ग के ऊपर लादी गयी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही होनी चाहिए।” दल का विरोध करने का अर्थ है विरोधियों के विचार-स्वातन्त्र्य का दमन। लेनिन जिस सत्य को रेखांकित करना चाहता है वह यह है कि सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व एक राज्य है और राज्य होने के नाते वह एक वर्ग के हाथों में दूसरे वर्ग के दमन का साधन है-श्रमिक वर्ग के हाथों में बुर्जुआ के दमन का साधन है और जब तक सर्वहारावर्गीय अधिनायकत्व एक राज्य है तब तक स्वतन्त्रता और प्रजातन्त्र का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता।

प्रसंगवश हम लेनिन के प्रजातंत्र सम्बन्धी विचारों का यहाँ अध्ययन कर सकते हैं। मार्क्स की भाँति लेनिन यह मानता है कि बुर्जुआ समाज की सर्वोच्च सरकारी व्यवस्था ‘प्रजातन्त्रीय गणतंत्र’ की है। लेकिन सर्वहारा के लिए यह निरर्थक है और इसके दमन के लिए क्रूरता की आवश्यकता है। बुर्जुआ प्रजातन्त्र पूँजीवादी शोषण के सीमित दायरे से जकड़ा रहता है, यथार्थ में यह अल्पसंख्यक धनिकों का शासन होता है। जिस प्रकार यूनानी गणतन्त्रों में वास्तविक स्वतन्त्रता दास-स्वामियों की थी, उसी प्रकार आधुनिक पूँजीवादी समाज में स्वतन्त्रता केवल पूँजीपतियों की ही होती है। लेनिन लिखता है कि “आधुनिक युग के मजदूर दास गरीबी से इतने पिसे रहते हैं कि उनके लिए प्रजातन्त्र कुछ भी नहीं है”, क्योंकि समाज का यह बहुसंख्यक वर्ग सामाजिक और राजनीतिक जीवन में भाग लेने से वंचित रखा जाता है। अतः लेनिन के विचारानुसार “सर्वहारावर्गीय जनतंत्र पूँजीवादी जनतंत्र से श्रेयस्कर एवं श्रेष्ठ है।”

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