लेनिन का पूँजीवादी साम्राज्यवाद का सिद्धान्त | Lenin’s Theory of Capitalist Imperialism in Hindi

लेनिन का पूँजीवादी साम्राज्यवाद का सिद्धान्त | Lenin’s Theory of Capitalist Imperialism in Hindi

लेनिन का पूँजीवादी साम्राज्यवाद का सिद्धान्त

लेनिन ने साम्राज्यवाद की विशद व्याख्या की है। उसने साम्राज्यवाद से सम्बन्धित सिद्धान्त का प्रतिपादन अपने ग्रन्थ इम्पीरियलिज्म : दा हाइएस्ट स्टेज ऑव कैपिटलिज्म (1916) में किया गया है। अपने इस ग्रंथ में लेनिन यह बताता है कि पूँजीवादी विकास राष्ट्रीय सीमाओं को पार कर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवाद का रूप धारण कर लेता है। इसी दृष्टि से वह कहता है कि साम्राज्यवाद पूँजीवाद की सर्वोच्च अवस्था है। वह यह सिद्ध करने का प्रयास करता है कि जिस प्रकार पूँजीवाद अपने अन्तर्विरोधों के कारण नष्ट होता है उसी प्रकार साम्राज्यवाद भी अपने अन्तर्विरोधों के कारण नष्ट होगा और इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर साम्यवाद की स्थापना का मार्ग प्रशस्त होगा। इस ग्रन्थ का अध्ययन करने से स्पष्ट होगा कि ग्रंथ एक एक ओर लेनिन द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि 1914 का युद्ध दोनों ओर से साम्राज्यवादी था।” दूसरी ओर और वह उसके ग्रंथ का प्रमुख उद्देश्य है-यह एक निरूपित करना चाहता था कि साम्राज्यवाद सामान्य पूँजीवाद के आधारभूत तत्त्वों का निस्तार क्रम है।’ साम्यवादियों का विश्वास है कि लेनिन की साम्राज्यवाद की व्याख्या मार्क्सवादी दर्शन की एक मौलिक देन है। जार्ज सेबाइन की भी यही धारणा है। उनका मत है-“इसमें कोई संशय नहीं कि लेनिन का सिद्धान्त मार्क्स के पूँजीवाद के विश्लेषण का एक योग्य पूरक एवं विस्तार था।” लेकिन कैर्यू हंट का मत इसके विपरीत है।

कैयूँ हर का विचार है कि लेनिन का साम्राज्यवाद का सिद्धान्त मार्क्सवादी अर्थशास्त्र में कोई नवीनता नहीं जोड़ता। इस सम्बन्ध में उसका कथन है कि, “वास्तव में, यह किसी सैद्धान्तिक मौलिकता का कार्य नहीं है, यह केवल जे०ए०हॉबसन के इम्पीरियलिज्म (1902) और रुडोल्फ हिल्फरडिंग के फाइनेन्स केपिटल (1910) का लौकिकीकरण है जिसमें कि लेनिन ने अपने स्वयं के कुछ व्यावहारिक राजनीतिक निष्कर्षों को जोड़ दिया है। कैयूं हंट का यह मत लेनिन के प्रति न्याय नहीं करता। सत्य यह है कि लेनिन ने पूँजीवाद से साम्राज्यवाद और साम्राज्यवाद से समाजवाद तक के विकास की सैद्धान्तिक स्तर पर व्याख्या की है जो अवश्य ही एक मौलिकता का कार्य है। पूँजीवाद के विकास की द्वन्द्वात्मक प्रणाली के आधार पर व्याख्या कर यह सिद्ध करना कि उसके अन्तर्विरोध साम्राज्यवाद को जन्म देंगे और साम्राज्यवाद अपने अन्तर्विरोधों के फलस्वरूप चकनाचूर होकर विश्व-स्तर पर साम्यवाद की स्थापना करेगा, निश्चय ही लेनिन की यह एक मौलिक सैद्धान्तिक एवं व्याख्यात्मकं धारणा है। मार्क्स ने पूँजीवाद के विश्लेषण को जहाँ छोड़ा है, लेनिन ने इस सूत्र को साम्राज्यवाद के विश्लेषण तक पहुँचाया है।

मार्स ने केपिटल के दूसरे भाग में उन सिद्धान्तों का विश्लेषण किया है जो ‘सम्पूर्ण सामाजिक पूँजी’ के संग्रह को नियंत्रित करते हैं, और उन परिस्थितियों का भी अध्ययन प्रस्तुत किया है कि जिनके अधीन उपभोक्ता माल का ‘विस्तारित पुनरुत्पादन’ प्राप्त किया जाता है। मार्क्स की धारणा थी कि पूँजीवादी समाज में पूँजी का सतत संग्रह होता जायेगा, अत्यधिक उत्पादन से आर्थिक संकट उपस्थित होंगे और वर्ग-संघर्ष तीव्र होगा। लेकिन 1871 से 1914 तक की घटनाओं ने मार्क्स की इन भविष्यवाणियों को पुष्ट नहीं किया। इस काल में बुर्जुआ और श्रमिकों में संघर्ष होने की अपेक्षा पूँजीपति वर्ग ने सर्वहारा वर्ग को राजनीतिक एवं सामाजिक अधिकार प्रदान किये, श्रमिकों की आर्थिक स्थिति में उन्नति हुई, और 1914 का युद्ध आरंभ होने पर समाजवादी नेताओं और समर्थकों ने पूँजीवाद एवं युद्ध की भर्त्सना नहीं की किन्तु वे देशभक्ति की धारा में बह गये और उन्होंने राष्ट्रीय सरकारों का समर्थन कर श्रमिक आन्दोलन के साथ ‘विश्वासघात’ किया। अतः लेनिन के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह उन विकासों की द्वन्द्वात्मक प्रणाली के आधार पर व्याख्या करे एवं भविष्य के विकास की दिशा को स्पष्ट करे। इस पृष्ठभूमि पर लेनिन ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि “साम्राज्यवाद पूँजीवाद की उच्चतम अवस्था है।” लेनिन के इस सिद्धान्त को ‘साम्राज्यवादी पूँजीवाद’ के नाम से संबोधित किया गया है। उसने दृढ़ता से यह मत प्रस्तुत किया कि मार्क्स का पूँजीवाद का सिद्धान्त पूर्णतः सही है और उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन अथवा संशोधन करने की कोई आवश्यकता नहीं है। लेनिन इस स्थिति से दो कदम आगे बढ़ कर यह कहता है कि मार्क्स ने पूँजीवाद के विकास सम्बन्धी जो निष्कर्ष निकाले थे वे मूलरूप से सही है, केवल कुछ घटनाओं के कारण वे परिणाम हक से गये हैं। ‘एकाधिकार वित्त पूँजीवाद’ (‘monopoly finance capitalism’) और साम्राज्यवाद की उत्पत्ति इस प्रकार की घटनाएं हैं। लेनिन यह बताता है कि साम्राज्यवाद अन्ततोगत्वा पूँजीवाद का ही विस्तार है और पूँजीवाद की भाँति उसका विनाश भी अनिवार्य है तथा जिस विनाश के बाद समाजवाद का उदय होगा।

पूँजीवाद से साम्राज्यवाद का आविर्भाव किस प्रकार एवं किन प्रक्रियाओं के द्वारा होता है, लेनिन ने इस विकास का सविस्तार वर्णन किया है। पूँजीवाद से साम्राज्यवाद के विकास को लेनिन निम्नांकित शब्दों में प्रस्तुत करता है-“साम्राज्यवाद विकास की स्थिति का वह पूँजीवाद है जिस स्थिति में एकाधिकारवादी आधिपत्य एवं वित्तीय पूँजी का प्रादुर्भाव होता है, जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय ट्रस्टों के द्वारा विश्व का विभाजन प्रारंभ हो जाता है, और जिसमें संसार के समस्त भू-प्रदेशों का बड़े से बड़े पूँजीवादी देशों द्वारा बँटवारा पूर्ण कर लिया जाता है।”

इन शब्दों का आशय है कि ‘औद्योगिक’ अथवा ‘प्रकर्षोन्मुख’ पूंजी का प्रथम चरण अपने अन्तर्निहित विरोधों के कारण द्वितीय ‘मरणोन्मुख’ चरण को स्थान देता है जिसमें उद्योगपतियों के हाथों से शक्ति बड़े-बड़े बैंकों एवं वित्तीय समुदायों के हाथों में चली जाती है। विकास की पहली अवस्था स्वतन्त्र प्रतियोगिता की होती है। लेकिन दूसरी अवस्था में कार्टेल, सिन्डीकेटों तथा ट्रस्टों के हाथों में एकाधिकारी नियंत्रण चला जाता है। लेनिन यह बताता है कि पूँजीवादी विकास में ऐसी अवस्था आ जाती है जब पूँजी का देश के बाहर निर्यात होना अनिवार्य हो जाता है। तब पूँजीपति मिल कर ट्रस्ट, कार्टेल और सिंडीकेटों का निर्माण करते हैं और दुनिया के पिछड़े देशों को अपना उपनिवेश बना कर उन देशों को पूँजी का निर्यात करते हैं। प्रारम्भ में ये एकाधिकारी नियंत्रण वाली आर्थिक शक्तियाँ दुनिया को ‘सौहार्द ‘भाव’ से आपस में बाँटना शुरू करती है लेकिन अन्त में वे पारस्परिक कलहों में उलझ जाती है। केवल युद्ध के द्वारा उस बँटवारे में उलट फेर की जाती है। इस प्रकार साम्राज्यवाद अथवा ‘एकाधिकार पूँजीवाद’ का जन्म होता है। लेनिन कहता है कि साम्राज्यवाद का इस प्रकार का विकास पूँजीवाद का अन्तिम सोपान है जिसके आगे उसका और विकास संभव नहीं होता।

इस प्रकार साम्राज्यवाद द्वन्द्वात्मक रूप से नष्ट हो कर समाजवाद को स्थान प्रदान करेगा। लेनिन के साम्राज्यवाद सम्बन्धी इन विचारों का विवरण सेबाइन के द्वारा किया गया है। सेबाइन का कथन है कि, “जब उद्योग की इकाइयाँ स्वतः आकार में बढ़ती हैं औरस एकाधिकारपूर्ण हो जाती है तब एक ऐसी अवस्था आ जाती है जब एकाधिकार सम्पूर्ण अर्थ-व्यवस्था में महत्वपूर्ण रूप से छा जाता है। इस समय बाजार विश्वव्यापी हो जाता है और वस्तुओं की तथा मजदूरी की कीमतें विश्व बाजार में निर्धारित होने लगती हैं। राष्ट्रीय इकाइयों के भीतर प्रतियोगिता का प्रायः अन्त हो जाता है और स्वतन्त्र प्रतियोगिता वाला पूँजीवाद एक प्रकार से समाप्त हो जाता है। लेकिन इसके साथ ही राष्ट्रीय एकाधिकारिओं के बीच अधिकाधिक प्रतियोगिता तथा प्रतिस्पर्धा होने लगती है। आयात-निर्यात शुल्क नवीन उद्योगों का पोषण करना बन्द कर देते हैं और वे राष्ट्रीय वाणिज्य उद्योगों का काम आने वाले शस्त्र बन जाते हैं। औद्योगिक संघों के निर्माण के साथ ही उद्योगों का नियंत्रण वस्तुओं के उत्पादकों के हाथों से निकल पूँजी लगाने वालों एवं बैंकरों के हाथों में चला जाता है। वाणिज्यिक पूँजी अब बैंकिग पूँजी के साथ एकाकार हो जाती है और उस पर थोड़े से वित्तीय धनाढ्यों का एकाधिकार हो जाता है। पूँजी स्वयं निर्यात की एक महत्त्वपूर्ण वस्तु बन जाती है। अब एक ओर तो यह आवश्यक होता है कि कच्चा माल प्राप्त हो। इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति पिछड़े हुए प्रदेशों तथा उपनिवेशों से ही संभव हो सकती है। परिणामस्वरूप, संसार के विभिन्न उन्नतिशील राष्ट्रों में इस बात पर होड़ लग जाती है कि वे अविकसित प्रदेशों तथा पिछड़े हुए राष्ट्रों पर अधिकार करें। अब अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह हो जाता है कि शोषण योग्यं प्रदेशों तथा लोगों का किस प्रकार विभाजन किया जाय। आन्तरिक राजनीति में पूँजीपति राजनीतिक संस्थाओं का प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं और संसदीय उदारतावाद धोखा मात्र रह जाता है। इस दृष्टि से 1914 का साम्राज्यवादी युद्ध जर्मन पूँजीपतियों के सिण्डीकेटों तथा फ्रांस और इंग्लैण्ड के सिण्टीकेटों के बीच अफ्रीका के नियंत्रण के लिए संघर्ष था-एकाधिकार और वित्त पूँजीवाद स्वतन्त्र प्रतियोगितापूर्ण पूँजीवाद का स्वाभाविक परिणाम है। राजनीतिक साम्राज्यवाद एकाधिकारवादी पूँजीवाद का नैसर्गिक फल है और युद्ध पूँजीवाद का स्वाभाविक परिणाम है। साम्राज्यवाद पूँजीवाद की सर्वोच्च अवस्था है। यह उस प्रक्रिया का अंग है जिसके द्वारा एक अधिक उच्च पूँजीवाद-विहीन अथवा साम्यवादी समाज एवं अर्थ-व्यवस्था का निर्माण हो रहा है।”

जिस प्रकार मार्क्स ने पूँजीवादी विकास सम्बन्ध में कुछ निष्कर्ष निकाले थे, लेनिन ने भी साम्राज्यवाद के सम्बन्ध में कुछ निष्कर्ष निकाले हैं। लेनिन ने भी साम्राज्यवाद सम्बन्धी विचारों को प्रस्तुत करके उनके आधार पर कुछ प्रमुख निष्कर्ष निकाले हैं। लेनिन के साम्राज्यवाद सम्बन्धी इन विचारों को यहाँ सविस्तार प्रस्तुत किया जाता है।

  1. साम्राज्यवाद में पूँजी का अविरल संचयन होता रहता है। इसका कारण यह है कि साम्राज्यवादी देश अपने उत्पादित माल को पिछड़े देशों को बेचते हैं और साथ ही साथ इन देशों से सस्ते भाव पर कच्चा माल भी प्राप्त करते रहते हैं। इस अवस्था में साम्राज्यवादी देशों में श्रमिकों की आर्थिक हालत कुछ सुधर जाती है और यह ऐसी स्थिति है जो मार्क्स की इस भविष्यवाणी के विरुद्ध जाती है कि श्रमिकों की स्थिति बद से बदतर हो जायेगी। लेनिन कहता है कि पिछड़े देशों के लोगों का शोषण करके पूँजीवाद स्वदेश में एक नवीन एवं समृद्ध सर्वहारा वर्ग का निर्माण कर देता है। यह वृद्धि सम्पूर्ण सर्वहारा के भाग्य में नहीं होती लेकिन थोड़े से कुलीन श्रमिकों के भाग्य की बात होती है। साम्राज्यवादी लाभ की लूट का कुछ हिस्सा इन श्रमिकों को अधिक मजदूरी के रूप में दिया जाता है। जिससे कि ये ‘समृद्ध श्रमिक’ बुर्जुआ के साथ सन्धि कर क्रान्तिकारी आन्दोलन से विमुख हो जाएँ।

लेनिन के इस सिद्धान्त में अधिक सत्य नहीं दिखाई देता। स्वीडन और डेनमार्क जैसे देशों में श्रमिकों की आर्थिक समृद्धि बहुत विकसित हुई है, लेकिन इन देशों में कभी उपनिवेशवाद या पिछड़े देशों का आर्थिक शोषण नहीं किया है। दूसरी ओर फ्रांस और बेलजियम जैसे उपनिवेशवादी देशों में श्रमिकों की आर्थिक स्थिति अधिक उन्नत नहीं रही है।

  1. साम्राज्यवाद के सम्बन्ध में लेनिन का दूसरा निष्कर्ष यह है कि यह अन्तर्विरोधों से भरा रहता है और इसलिए इसका अन्त और भी शीघ्र करेगा। इसमें विश्व-बाजारों के लिए संघर्ष होता है तथा संसार के देशों को शोषक और शोषितों के बीच बाँट दिया जाता है इससे उत्पादकीय शक्तियों में जो नये परिवर्तन होते हैं उनके परिणामस्वरूप उत्पादकीय सम्बन्धों में भी परिवर्तन आते हैं और पिछड़े देशों के मेहनतकश मजदूरों में से नये सर्वहारा वर्ग का उदय होता है। इसके कारण क्रान्ति का संघर्ष एक देश तक सीमित न रहकर विश्व के शोषक और शोषित देशों के बीच में फैल जाता है। इसके अतिरिक्त, यद्यपि किसी पिछड़े देश का औद्योगिक विकास परिपक्व स्थिति को प्राप्त करे या न करे, फिर भी पूँजीवादी शोषण से ग्रस्त वह देश क्रान्ति के लिए परिपक्व हो जाता है।
  2. साम्राज्यवाद में ‘असमान विकास का नियम’ और भी तीव्र हो जाता है। पूँजीवाद में उत्पादित वस्तुओं का निर्यात होता है, पूँजी का निर्यात नहीं होता। पूँजीवादी देशों की सापेक्ष शक्ति प्रायः स्थायी रहती है। लेकिन वित्तीय पूँजीवाद के उदय के साथ कुछ देश दूसरे देशों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं, क्योंकि उनके अधीन उपनिवेश और नये-नये बाजार होते हैं। इस प्रतिस्पर्धा के कारण पूँजीवादी खेमे में स्थायित्व नहीं रहता और विश्व-शान्ति खतरे में पड़ जाती है।
  3. उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर लेनिन इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि साम्राज्यवाद युद्धों को जन्म देता है। वह लिखता है कि युद्ध साम्राज्यवाद का तार्किक परिणाम है। लेनिन ने ‘प्रथम विश्वयुद्ध का मूल्यांकन इसी दृष्टिकोण से किया था और उसके अनुयायी द्वितीय महायुद्ध को भी साम्राज्यवाद का भी अनिवार्य परिणाम मानते हैं।

इस विश्लेषण के आधार पर लेनिन साम्राज्यवाद का अन्त होने की घोषणा करता है। जिस प्रकार पूँजीवाद के अन्तर्विरोध उसे अनिवार्य रूप से ध्वस्त कर देते हैं उसी प्रकार द्वन्द्वात्मक प्रणाली साम्राज्यवाद को उसके अन्तर्विरोधों के कारण ध्वस्त कर देगी। लेनिन साम्राज्यवाद के अन्तर्विरोधों की चर्चा करते हुए बताता है कि इसमें पूँजी और श्रम का विरोध रहता है। साम्राज्यवाद में बैंकों, ट्रस्टों और सिण्डीकेटों का एक ओर प्रभुत्व बढ़ता जाता है और दूसरी ओर श्रमिक की गरीबी और शोषण तथा साम्राज्यवाद में औद्योगिक देशों की पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता संघर्षों को जन्म देती है और साम्राज्यवादी युद्ध उसके स्वाभाविक परिणाम हैं। साम्राज्यवाद का तीसरा अन्तर्विरोध शोषक देश और शोषित देश के बीच होता है। इससे भी संघर्ष पैदा होता है।  उपनिवेशवादी शोषक देश अपने उपनिवेश में शोषण के लिये आवागमन के साधनों एवं कल- कारखानों इत्यादि की स्थापना करता है। इन परिवर्तनों से उपनिवेशों में राष्ट्रीय आन्दोलनों को बल मिलता है और साम्राज्यवादी देश के विरुद्ध क्रान्ति का प्रादुर्भाव होता है। लेनिन कहता है कि दुनिया के मजदूर इस प्रकार संगठित होंगे और क्रान्ति द्वारा साम्राज्यवाद का ध्वंस करेंगे। केवल साम्राज्यवाद के ध्वंस होने पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समाजवाद की स्थापना होगी। लेनिन कहता है कि समाजवाद की स्थापना पूँजीवाद के अन्त के साथ न होकर साम्राज्यवाद की समाप्ति के बाद होगी।

लेनिन के साम्राज्यवाद सम्बन्धी सिद्धान्त के प्रयोजनों को हमने पहले ही स्पष्ट किया है। वह यह सिद्ध करना चाहता था कि विश्व युद्ध मूलतः साम्राज्यवादी युद्ध है और समाजवादी समाज की स्थापना के लिये आवश्यक है। जैसे संत ऑगस्टाइन ने मध्ययुग में रोम के पतन को ईश्वरीय राज्य की स्थापना में एक आवश्यक विकास माना था, लेनिन भी अपने अनुयायियों को विश्वास दिलाता है कि पूँजीवाद के बाद साम्राज्यवाद का अनिवार्य रूप से विकास होगा और उसके पतन के बाद समाजवादी समाज की स्थापना होगी।

आलोचकों का कथन है कि लेनिन का साम्राज्यवाद का यह सिद्धान्त इतिहास की घटनाओं से मेल नहीं खाता। इस सिद्धान्त के अनुसार सर्वहारा वर्ग की क्रान्ति इंग्लैण्ड जैसे उपनिवेशवादी एवं औद्योगिक देश में पहले होनी चाहिए थी और रूस जैसे कृषि प्रधान देश में उसके बाद। लेकिन घटना-क्रम कुछ और ही रहा है। औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े देशों रूस और चीन में क्रान्ति हुई है, इंग्लैण्ड या अमेरिका जैसे पूँजीवादी देशों में नहीं।

लेनिन के साम्राज्यवाद सम्बन्धी उपर्युक्त विचारों का दूसरा दोष यह है कि उसमें आर्थिक विकास की वास्तविकताओं की अवहेलना की गई है। उदाहरणार्थ, लेनिन का विचार था कि जब ट्रस्ट, कार्टेल, सिण्डीकेटों आदि का संगठन होता है तो साम्राज्यवाद का विस्तार होता है। लेकिन इंग्लैण्ड जैसा देश 19वीं शताब्दी में ही साम्राज्यवादी हो गया था और वहाँ ट्रस्ट, कार्टेल या सिण्टीकेट जैसे वित्तीय संगठनों का निर्माण साम्राज्यवाद की स्थापना के बाद बीसवीं शताब्दी में होता है।

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