लेनिन के साम्यवादी दलों की व्यूहकला तथा रणनीति | The Strategy and Strategies of Lenin’s Communist Parties in Hindi
लेनिन के साम्यवादी दलों की व्यूहकला तथा रणनीति
लेनिन के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि वह एक क्रान्तिकारी विचारक भी था और एक संगठनकर्ता भी। संगठनकर्ता के नाते उसने इस प्रश्न की व्याख्या की है कि साम्यवादी दल की कार्य करने की रणनीति क्या होनी चाहिए। लेनिन का उद्देश्य साम्यवादी आन्दोलन का संगठन केवल रूस में ही करने का नहीं था। एक क्रान्तिकारी नेता के नाते उसका दृष्टिकोण व्यापक था। अतः उसने दुनिया के दूसरे देशों में साम्यवादी दलों की स्थापना की योजना बनाई तथा वहाँ क्रान्ति में सफलता प्राप्त करने के लिए दलीय व्यूहकला तथा रणनीति के निर्देश देना आवश्यक समझा। दॉ स्टेट एण्ड रेवोलुशन में प्रस्तुत किये गये विचारों के द्वारा लेनिन का अभी तक का उद्देश्य दक्षिणपंथियों पर प्रहार करना ही रहा था। लेकिन अप्रेल थीसिस के द्वारा अपने वामपंथियों को भी सँभाला। लेनिन के प्रयासों से विश्व के साम्यवादी दलों के संगठन ‘तृतीय इण्टरनेशनल’ की स्थापना की गई क्योंकि उसकी मान्यता थी कि विश्व-श्रमिक-आन्दोलन के लिए एक सच्चे क्रान्तिकारी संगठन की आवश्यकता है। लेनिन का एक परोक्ष उद्देश्य यह भी था कि अन्तर्राष्ट्रीय क्रान्तिकारी संगठन के अभाव में रुसी क्रान्ति को प्रतिक्रियावादियों द्वारा दबाने का प्रयास किया जायेगा। लेकिन उसका प्रत्यक्ष उद्देश्य यह था कि दुनिया भर में फैले साम्यवादी दलों की नीतियों को संचालित किया जाय, उन्हें निर्देश दिए जाएँ कि वे अपने-अपने देशों में क्रान्ति को लाने के लिए किस प्रकार से कार्य करें।
साम्यवादी दल की व्यूह रचना और उसकी रणनीति किस प्रकार की होनी चाहिए जिससे कि दल अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर सके, इस प्रश्न के बारे में लेनिन ने पार्टी के सदस्यों को अनेक प्रकार की हिदायतें दी हैं। इस प्रकार की हिदायतें देते हुए वह कहता है कि साम्यवादियों को अपनी संकीर्णता को छोड़ना पड़ेगा। उन्हें हर अवसर की खोज में रहना चाहिए जिससे कि दल के जनता के साथ सम्बन्ध बढ़ सकें और सत्ता को प्राप्त किया जा सके। यह कार्य तभी संभव होगा जब वे सरकारों में प्रवेश करें एवं ट्रेड यूनियनों जैसे संगठनों में घुसे। लेनिन बताता है कि साम्यवादियों को केवल ‘अमूर्त साम्यवाद’ तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि उन्हें बुर्जुआ राजनीति में प्रवेश करना चाहिए तथा उनकी सरकारों को अपने हाथों में लेकर बुर्जुआ वर्ग को परास्त करना चाहिए। लेनिन समझौतेवाद की उपयोगिता को स्वीकार करता है। वह कहता है कि “समझौते को सिद्धान्त के नाम पर अस्वीकार करना बचपना है।” क्रान्ति समीप लाने के लिये आन्दोलन और प्रचार पर्याप्त नहीं है। जनता को राजनीतिक अनुभव की आवश्यकता है, जैसा कि उन्होंने रूस में सीखा है।
अतः साम्यवादी दलों को सत्ता प्राप्ति के सतत प्रयास में रहना चाहिए और इस लक्ष्य की प्राप्ति में उन्हें जानना चाहिए कि “साम्यवादी विचारों के प्रति पूर्ण वफादारी रखते हुए किस प्रकार व्यावहारिक समझौते करने की योग्यता प्राप्त की जाय, कैसे प्रहार किया जाय, कैसे समझौते किये जाएँ और टेढ़े-मेढ़े रास्ते अपनाएँ जाएँ तथा कैसे इनसे पीछे हट जाया जाय।” लेनिन बताता है कि जो क्रान्तिकारी इन समझौतों के लिए तत्पर नहीं है वे बहुत बुरे क्रान्तिकारी हैं। क्रान्ति का आरम्भ हो जाने पर क्रान्तिकारी बनकर आन्दोलन में सम्मिलित हो जाना सरल है लेकिन क्रान्ति की परिपक्व परिस्थितियों का निर्माण करना कठिन कार्य है और इसके लिए हर प्रकार के कार्य करना आवश्यक है। उपर्युक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए साम्यवादी दलों को चुनाव में भाग लेना होगा, अपने प्रत्याशियों को खड़ा करना होगा तथा ‘संयुक्त मोर्चा’ का निर्माण करना होगा जिससे कि दूसरे दलों के नेताओं और अनुयायिओं पर भी दल का प्रभाव डाला जा सके। आर्थिक क्षेत्र में इस तरह की रणनीति को अपनाने के सम्बन्ध में लेनिन दिशा निर्देश देता है कि साम्यवादी कार्यकर्ताओं को यथासंभव ट्रेड यूनियनों में घिस कर उनका नियंत्रण अपने हाथों में लेना चाहिए। ट्रेड यूनियनों के श्रमिकों की ‘अधूरी माँगों’ का पूरा फायदा उठाना चाहिए। यदि उनकी माँगे अथवा शिकायतें थोड़ी हैं तो उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत करना चाहिए और यदि नहीं है तो उनका निर्माण करना आवश्यक है। यदि दूसरे दल उनका समर्थन न करें तो जनता में उसे नीचा दिखाना होगा। मोर्चों का संगठन गैर-राजनीतिक क्षेत्रों में भी किया जाना आवश्यक है। लेखक, वैज्ञानिक वकील, स्त्री वर्ग तथा युवा वर्ग के बीच भी ‘फ्रन्ट’ संगठनों का गठन शान्ति की रक्षा के लिए किया जाए जिससे समाज का प्रगतिशील जनमत आकर्षित किया जा सके।
उपर्युक्त विचार लेनिन की व्यावहारिक बुद्धि को दर्शाते हैं। दार्शनिक एवं क्रान्तिकारी मार्क्स श्रमिक दलों को इतने विस्तार पूर्वक निर्देश देने की कल्पना नहीं कर सका। लेनिन ने इस कार्य को पूरा किया। इन विविध आदेशों के पीछे एक सत्य छिपा दिखाई देता है कि लेनिन की रुचि श्रमिकों की स्थिति सुधारने में इतनी नहीं थी जितनी की क्रान्तिकारी परिस्थितियों का निर्माण करने में थी। इसीलिए लेनिन के लिए यह कहा जाता है कि वह श्रमिक नेता पहले था और सिद्धान्तकार बाद में।
राजनीति विज्ञान – महत्वपूर्ण लिंक
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