राजनीति विज्ञान

लेनिन के क्रांति की व्यूहकला एवं रणनीति का सिद्धान्त | Lenin’s theory of strategy and strategy of revolution in Hindi

लेनिन के क्रांति की व्यूहकला एवं रणनीति का सिद्धान्त | Lenin’s theory of strategy and strategy of revolution in Hindi

लेनिन के क्रांति की व्यूहकला एवं रणनीति का सिद्धान्त

रूस में 1905 और 1917 में जो राज्य क्रान्तियाँ हुई थीं उनके सिद्धान्तों का प्रतिपादन लेनिन के द्वारा किया गया था। 1905 की क्रान्ति का मार्गदर्शन करने का लेनिन को यद्यपि अवसर नहीं मिल सका, क्योंकि उस समय वह रूस से दूर था, लेनिन बोलशेविक गुट का मार्गदर्शन करते हुए उसने 1905 के बाद की परिस्थितियों एवं घटनाओं को अपने सिद्धान्तों के आधार पर समझाने का प्रयास किया। हम पहले यह बता चुके हैं कि 1903 के बाद बोलसेविकों और मेनशेविकों के बीच विचार-द्वन्द्व चल रहा था। दोनों गुटों की मान्यता थी कि 1905 की क्रान्ति मध्यमवर्गीय क्रान्ति है जिससे रूस का औद्योगिक विकास सच्ची क्रान्ति के एक चरण और पास आयेगा। लेकिन मेनशेविकों की धारणा थी कि क्रान्ति के उपरान्त सर्वहारावर्ग की तानाशाही का शासन नहीं होना चाहिए। केवल बुर्जुआ को सत्ता संभालनी चाहिए और समाजवादियों को विपक्षी दल के रूप में कार्य करना चाहिए। लेनिन भी मेनशेविकों से एकमत था कि तत्कालीन परिस्थितियों में बुर्जुआ-प्रजातन्त्रीय क्रान्ति ही संभव है। उसका विचार था कि क्रान्ति की प्रथम आवश्यकता है कि बुर्जुआ को उदारवादी होना चाहिए लेकिन रूस में इस प्रकार की स्थिति नहीं है इसलिए सर्वहारा को ‘क्रान्ति का नेतृत्व’ करना चाहिए। टू टेस्टिक्स में उन्होंने “सर्वहारा एवं कृषकों के एक क्रान्तिकारी प्रजातन्त्रीय अधिनायकवादीशासन का प्रतिपादन किया था। इस शासन-प्रणाली में प्रजातन्त्रीय व्यवस्था स्वतः ही रहेगी।

लेनिन के विचारानुसार “जो कोई भी समाजवाद के मार्ग को राजनीतिक प्रजातन्त्र के बिना अपनाते हैं वे अनिवार्य रूप से अनुपयुक्त एवं प्रतिक्रियावादी निष्कर्षों पर पहुंचेंगे।” फिर भी लेनिन ने बताया था कि बुर्जुआवादी प्रजातन्त्रीय क्रान्ति को सर्वहारावर्गीय क्रान्ति में बदलने का शीघ्रातिशीघ्र अवसर ढूँढ़ा जाना चाहिए। 1905 की क्रान्ति की असफलताओं के उपरान्त भी लेनिन ने उसके महत्त्व को स्वीकार किया है। अपने ग्रन्थ लेफ्ट विंग कम्युनिज्म (1920) में उन्होंने घोषणा की कि ”1905 के पूर्वाभ्यास के बिना अक्टूबर-क्रान्ति की सफलता असम्भव होती है।” अतः 1905 की क्रान्ति से उन्होंने महत्त्वपूर्ण पाठ सीखे और उनके आधार पर भविष्य के मार्गदर्शन के लिए कुछ निष्कर्षों का निरूपण किया। उनके निष्कर्ष इस प्रकार थे केवल जनता के क्रान्तिवादी संघर्ष के द्वारा ही कुछ प्राप्त किया जा सकता है, क्रान्ति काल में सर्वहारावर्ग का कार्य उत्कृष्ट था, फिर भी कम, विकसित श्रमिकों की उसे आवश्यकता थी, जारशाही को दुर्बल बनाना ही पर्याप्त नहीं है, उसका विनाश करना परमावश्यक है। कृषक वर्ग ने भी क्रान्ति में सहयोग दिया लेकिन यह देरी से हुआ और उसकी अपनी दुर्बलताएँ थीं, उदारवादियों ने दोनों शिविरों के प्रति अपनी निष्ठा बनाये रखी लेकिन लड़ाई के अवसर पर उन्होंने श्रमिकों को धोखा दिया। लेकिन अब अन्त में सर्वहारा वर्ग की शक्ति जागृत होती है और उसे समुचित सहयोग प्राप्त होता है तब संसार की कोई शक्ति उसका प्रतिकार नहीं कर सकती।

मार्च, 1917 की क्रान्ति के बाद की ‘अस्थायी सरकार’ से बोलशेविकों के द्वारा सत्ता को 25 अक्टूबर 1917 (7 नवम्बर नई तिथि के अनुसार) को अपने हाथों में ले लिया था और इसका अधिक श्रेय लेनिन के दाव पेंचों को ही दिया जाता है। निष्कासन काल से 16 अप्रैल, 1917 को पीट्रोग्राड वापस आकर लेनिन ने अप्रेल थीसिस के द्वारा अपने अनुयायियों को निर्देश दिया कि वे अस्थायी सरकार को समर्थन नहीं देंगे और सोवियत गणतन्त्र की स्थापना करेंगे जो अन्त में सर्वहारा की सरकार बन जाएगी जो कृषकों के लिये भूमि का राष्ट्रीयकरण करेंगे। इसी आदेश के द्वारा लेनिन ने संसदात्मक प्रणाली का पूर्ण विरोध किया और ‘सोवियतों को सम्पूर्ण शक्ति’ (all power to the Soviets) देने के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। लेकिन जुलाई 1917 की छठवीं पार्टी कांग्रेस में लेनिन ने ‘सोवियतों को संपूर्ण शक्ति’ की घोषणा को बदल कर सर्वहारा वर्ग एवं निर्धन कृषक वर्ग की तानाशाही का नारा दिया। लेनिन ने घोषणा की कि क्रान्ति तभी संभव होती है जब निम्न वर्ग पुराने तरीकों को नहीं चाहते थे और जब उच्च वर्ग पुराने तरीकों के अनुसार चल नहीं सकते। यही स्थिति 25 अक्टूबर, 1917 को आ चुकी थी जब लेनिन के नेतृत्व में अस्थायी सरकार के हाथों से बोलशेविकों के हाथों में राज्य की सत्ता रक्तहीन क्रान्ति के द्वारा आ गयी।

इन घटनाओं के दौरान अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए लेनिन ने अपनी सैद्धान्तिक स्थिति यह रखी कि वह रूस में मार्क्सवाद के मौलिक सिद्धान्तों को साकार रूप दे रहा है। मार्क्स का विचार था कि आधुनिक सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का पहले पूर्ण विनाश किया जाना चाहिए और तत्पश्चात् सर्वहारा का अधिनायकत्व स्थापित किया जाना चाहिए। लेनिन इस उद्देश्य को साकार करने के लिए कटिबद्ध था, भले ही उसे इसके लिए क्रान्ति के सिद्धान्तों से विमुख होना पड़े। लेनिन ने अपने विचारों को इस आधार पर पुष्ट किया कि मार्क्स का लक्ष्य पाश्चात्य औद्योगिकी समाज में पूँजीवाद को नष्ट करने का था, लेकिन उसने भिन्न परिस्थितियों में क्रान्ति करने की मनाही नहीं की थी।

1905 और 1917 की विशिष्ट क्रान्तियों के सन्दर्भ में लेनिन ने अपने जिन विचारों का प्रतिपादन किया है उनकी आधार भूमि में उसकी क्रान्ति से सम्बन्धित सैद्धान्तिक धारणाएँ हैं। एक व्यावहारिक राजनीतिक के नाते वह अवसर और परिस्थितियों के अनुकूल सैद्धान्तिक धारणाओं में परिवर्तन करते हुए भी सदैव यह दिखाने का भरसक प्रयास करता है कि उसने मौलिक मार्क्सवाद का मार्ग नहीं छोड़ा है। मार्क्सवाद को मूलतः एक क्रान्तिकारी सिद्धान्त स्वीकार करते हुए यह कहता है कि “आधुनिक काल में पूँजीपति अथवा श्रमिक आन्दोलन के भीतर मार्क्सवाद को वर्णसंकर बनाने का अवसरवादी लोग प्रयास कर रहे हैं। वे मार्क्सवाद के क्रान्तिकारी पक्ष को, उसकी क्रान्तिवादी आत्मा को भुला रहे हैं, धूमिल कर रहे हैं अथवा उसे नष्ट कर रहे हैं।- ऐसी परिस्थितियों में जब कि मार्क्सवाद को इतना भ्रष्ट किया जा रहा है, राज्य के विषय में मार्क्स की वास्तविक शिक्षाओं की पुनः प्रतिष्ठा करना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है।” वे लोग जो मार्क्सवाद को विकासवादी सिद्धान्त घोषित कर राज्य के शनैः शनैः समाप्त होने की बात कर रहे थे, उनका निराकरण करते हुए लेनिन ने यह विचार प्रस्तुत किया कि पूँजीवादी व्यवस्था को बलपूर्वक क्रान्ति द्वारा नष्ट किया जायेगा। राज्य का अन्त क्रान्ति द्वारा होगा, विकास की प्रक्रिया से नहीं। यदि श्रमिक आन्दोलन क्रान्तिवादी नहीं है तो वह कुछ भी नहीं है। केवल क्रान्ति द्वारा पूँजीवाद नष्ट होगा और श्रमिकों के द्वारा समाजवाद की स्थापना होगी। लेनिन की धारणा थी कि जो समाजवादी क्रान्ति के परिपक्व होने की प्रतीक्षा करता है वह अवसर को हाथ से खो देता है। यही कारण है कि लेनिनवाद को श्रमजीवी क्रान्ति का, विशेष रूप से श्रमजीवी तानाशाही का सिद्धान्त कहा गया है। लेनिनवाद सर्वहारावर्गीय क्रान्ति के साधनों और पद्धति का सिद्धान्त है। मार्क्स के क्रान्ति के सूत्र संक्षिप्त थे, लेनिन ने उन सूत्रों की विशद व्याख्या की है।

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Pankaja Singh

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