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क्षेत्रीयता | क्षेत्रीयता का अर्थ | क्षेत्रीयता के विकास का कारण | क्षेत्रीयता के दुष्परिणाम | क्षेत्रीयता को रोकने के उपाय

क्षेत्रीयता | क्षेत्रीयता का अर्थ | क्षेत्रीयता के विकास का कारण | क्षेत्रीयता के दुष्परिणाम | क्षेत्रीयता को रोकने के उपाय

क्षेत्रीयता

भारत के आर्थिक एवं सामाजिक पुनर्निर्माण के मार्ग में जो समाज विरोधी तत्व या समस्यायें बाधक सिद्ध हो रही हैं उनमें से क्षेत्रीयता (Regionalism) भी एक उल्लेखनीय समस्या है। यद्यपि क्षेत्रीयता भारत के लिए क्या सभी देशों के लिए कोई नई बात नहीं है किन्तु जिस संकुचित या उग्र रूप में आज इसकी अभिव्यक्ति यहाँ हो रही है वह राष्ट्रीय एकता के लिए अत्यधिक हानिकारक है। क्षेत्रीयता के संकुचित स्वरूप के प्रादुर्भाव के कारण हमारा देश केवल हिन्दुस्तान तथा पाकिस्तान में ही नहीं बल्कि अनेक छोटे-छोटे क्षेत्रों में विभाजित हो गया है और प्रत्येक क्षेत्र के लोग अपने क्षेत्र के स्वार्थों की पूर्ति के लिए दूसरे क्षेत्रों के हितों पर कुठाराघात करने के लिए कटिबद्ध हैं। इस प्रकार आज हमारे देश में क्षेत्रीयता एक गम्भीर समस्या है। अतः समाजशास्त्र के विद्यार्थी के लिए इस समस्या से परिचित होना और इसके समाधान का मार्ग ढूंढना नितान्त आवश्यक हो गया है।

क्षेत्रीयता का अर्थ-

विस्तृत अर्थ में क्षेत्रीयता का तात्पर्य एक क्षेत्र विशेष में निवास करने वाले लोगों की अपने क्षेत्र के प्रति उस अपनेपन की भावना से है जो उस क्षेत्र की कुछ सामान्य विशेषताओं जैसे सामान्य भाषा, सामान्य संस्कृति, सामान्य धर्म आदि के कारण लोगों के मस्तिष्क में स्वाभाविक रूप से विकसित हो.जाती है और जिसकी अभिव्यक्ति वे सामान्य आदर्श, व्यवहार, विचार तथा विश्वास के रूप में करते हैं। इस अर्थ में क्षेत्रीयता राष्ट्रीयता के ही अधीन है और वह राष्ट्रीय एकता तथा राष्ट्रीय हितों पर बल देती है। विस्तृत अर्थ में राष्ट्रीयता की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए श्री लुण्डवर्ग (Lundburg) ने लिखा है, “क्षेत्रीयता उस अध्ययन से सम्बन्धित है जिसमें एक भौगोलिक क्षेत्र तथा मानव व्यवहार के बीच पाये जाने वाले सम्बन्ध पर बल दिया जाता है। इस रूप में क्षेत्रीयता एक प्रकार का विश्व परिस्थितिशास्त्र है क्योंकि इसकी रुचि विभिन्न क्षेत्रों के बीच तथा एक ही क्षेत्र के विभिन्न अंगों के बीच पाये जाने वाले क्रियात्मक सावयवी सम्बन्धी में है।”

क्षेत्रीयता के विकास का कारण

क्षेत्रीयता की भावना एक मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति है। अतः इसके विकास के लिए केवल भौगोलिक कारण ही उत्तरदायी नहीं हैं, बल्कि इसके विकास में अनेक ऐतिहासिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक कारणों का भी योगदान रहता है। यहाँ पर भी हम भारतीय पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में क्षेत्रीयता के विकास के प्रमुख कारणों पर प्रकाश डाल रहे हैं-

(1) भौगोलिक कारण (Geographical Causes) – भारतवर्ष एशिया में एक विशाल उप महाद्वीप (Sub-continent) है जो प्राकृतिक रूप में अग्रलिखित चार स्पष्ट भौगोलिक क्षेत्रों में विभक्त है – 1. उत्तर का पर्वतीय भाग 2. गंगा सिन्धु का विशाल मैदान, 3. दक्षिणी पठार तथा 4. मध्य भारत का रेगिस्तानी क्षेत्रों इन चारों क्षेत्रों की भौगोलिक दशाओं में पर्याप्त अन्तर है जिसका प्रभाव इन क्षेत्रों के निवासियों के जीवन के प्रत्येक भाग पर पड़ा है। इसलिए एक क्षेत्र के सामाजिक रीति-रिवाज, सांस्कृतिक परम्परायें, भाषा, धर्म, पोशाक, आभूषण, खानपान आदि अन्य क्षेत्रों से भिन्न है। इस विभिन्नता ने ही क्षेत्रीयता के विकास में सर्वाधिक योगदान दिया है।

(2) एतिहासिक कारण (Historical Causes) –   विशाल उप-महाद्वीप भारत विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजित होने के कारण प्राचीनकालसे ही विस्तृत प्रादेशिक राज्यों का देश रहा है। यद्यपि कुछ शक्तिशाली सम्राटों या राजाओं ने अखण्ड केन्द्रीय राज्य स्थापित किये किन्तु वे देश की विशालता तथा यातायात के साधनों के अभाव में अधिक दिन तक टिक न सके। जैसे ही केन्द्रीय साम्राज्य शक्तिहीन तथा अस्थिर हुआ वैसे ही अधीनस्थ प्रदेशों या राज्यों के राजाओं और सामन्तों ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर स्थानीय स्वशासन को चालू कर दिया।

(3) राजनैतिक कारण (Political Causes)-  सही माने में यदि देखा जाए तो क्षेत्रीयता के विकास में राजनैतिक तत्वों का सबसे बड़ा हाथ है। हमारे देश में स्वस्थ राजनीति के विकास के अभाव में दलगत स्वार्थों र्को समग्र राष्ट्रों के स्वार्थों से भी अधिक महत्वपूर्ण समझा जाता है और इन स्वार्थों की प्राप्ति की प्रयत्नशीलता में देश की अपेक्षा अधिक संख्या में राजनैतिक दलों का जन्म हो गया। इन राजनैतिक दलों के नेता अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए जनता में क्षेत्रीयता की प्रवृत्ति भड़काने का प्रयास करते हैं।

(4) भाषा या भाषावाद (Language of Linguistic)-  भाषा सम्बन्धी प्रश्न या भाषावाद की समस्या ने क्षेत्रीयता की समस्या को और उग्र बनाने में अत्यधिक योग दिया है। वह कैसे? हम देखते हैं कि एक उप-सांस्कृतिक क्षेत्र (Sub-cultural Region) में बहुत काल से रहने वाला प्रमुख भाषा-भाषी समूह धीरे-धीरे कुछ विशिष्टताओं को प्राप्त कर लेता है और समान भाषा क्षेत्र के हितों पर कुठाराघात करने तक में थोड़ी-सी हिचकिचाहट नहीं होती है। लोग अपनी क्षेत्रीय या प्रादेशिक भाषाओं (Regional Language) को सर्वश्रेष्ठ समझते हुए उसे दूसरे भाषा- भाषी क्षेत्र पर लादने का प्रयास करने लगते हैं। अब न केवल भाषा सम्बन्धी विवाद खड़ा हो जाता है, बल्कि क्षेत्रीयता का भी बीजारोपण हो जाता है।

क्षेत्रीयता के दुष्परिणाम

क्षेत्रीयता के अनेक दुष्परिणाम होते हैं जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-

(1) विभिन्न क्षेत्रों के बीच तनाव तथा संघर्ष के लिए उत्तरदायी (Responsible for tension and conflict between different regions)-  क्षेत्रीयता की प्रवृत्ति आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा मनोवैज्ञानिक तनाव तथा संघर्ष के लिए उत्तरदायी है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक क्षेत्र दूसरे क्षेत्रों के स्वार्थों र्या हिंसा की पूर्ति की चिन्ता में रहते हैं। हमारे प्रदेश की सीमा अमुक स्थानों पर होना चाहिए, अमुक कारखाना अमुक क्षेत्र में न खोलकर हमारे क्षेत्र में खोला जाना चाहिए, विश्वविद्यालय की स्थापना अमुक क्षेत्र में न होकर हमारे क्षेत्र में की जानी चाहिए। इस प्रकार की बातों को लेकर आन्दोलन होते है। इससे विभिन्न क्षेत्रों में न केवल तनाव उत्पन्न होता है। बल्कि उनके बीच भीषण संघर्ष तक छिड़ जाते हैं। क्षेत्रीयता की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों में दबाव डालने वाले क्षेत्रीय समूह (Regional Pressure Group) और स्वार्थ समूहों (Vested Interest Groups) की उत्पत्ति होती हैं जिनके कारण क्षेत्रों के बीच तनाव तथा संघर्ष और बढ़ जाता है।

(2) स्वार्थपूर्ण नेतृत्व तथा संगठनों का विकास (Emergency of Self Centred Leadership and Organizations)- क्षेत्रीयता के परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों में कुछ विशेष प्रकार के नेतृत्व तथा संगठनों का विकास हो जाता है जो जनता की भावनाओं को उभारकर अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इन नेताओं तथा संगठनों के लिए राष्ट्रीय हित तो दूर रहा अपने क्षेत्र के हितों तक का तनिक भी ख्याल नहीं रहता है। उन्हें तो सदैव अपने आर्थिक स्वार्थों की पूर्ति तथा लोकप्रियता को बढ़ाने की चिन्ता लगी रहती है। इसके लिए नेता लोग कभी भाषा के प्रश्न को लेकर तो कभी क्षेत्रीय सीमा निर्धारण के प्रश्न को लेकर हंगामा मचाते हैं। कभी केन्द्रीय सरकार के पक्षपातपूर्ण व्यवहार के विरुद्ध नारा लगाते हुए जनता को झगड़े के लिए उत्तेजित करते हैं चाहे केन्द्रीय सरकार ने पक्षपातपूर्ण व्यवहार न भी किया हो। यद्यपि इस प्रकार के नेताओं एवं संगठनों से किसी का कुछ भी भला नहीं होता है, किन्तु फिर भी क्षेत्रीयता की आड़ में इन्हें पनपने का अच्छा अवसर मिलता रहता है।

(3) भाषावाद की समस्या का अधिक जटिल होना- क्षेत्रीयता की भावना भाषा की समस्या को और अधिक उग्र रूप प्रदान करती है। क्षेत्रीय वफादारी (Regional Loyalty) दर्शाने के लिए लोग अपने क्षेत्र या प्रदेश की भाषा के प्रति विशेष रुचि लेते हैं जिसके परिणामस्वरूप वे अन्य क्षेत्रों की भाषाओं की उपेक्षा कर अपने क्षेत्र की भाषा को आवश्यकता से अधिक महत्व प्रदान करने की भूल कर बैठते हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि विभित्र भाषा-भाषी क्षेत्रों के बीच भाषा के प्रश्न को लेकर संघर्ष एवं तनाव बढ़ता चला जाता है। इस प्रकार क्षेत्रीयता की भावना भाषा की समस्या को सुलझाने की बजाय उसे और जटिल बना देती है।

क्षेत्रीयता को रोकने के उपाय

क्षेत्रीयता के उपर्युक्त दुष्परिणामों को सामने रखते हुए इसे रोकने क अति आवश्यकता है। इनको निम्नलिखित उपायों से सुलझाया जा सकता है

(1) सभी क्षेत्रों के आर्थिक विकास पर बल- केन्द्रीय सरकार का यह परम कर्तव्य है कि वह समस्त उप-सांस्कृतिक क्षेत्रों या प्रदेशों का सन्तुलित आर्थिक विकास करने की चेष्टा करे ताकि विभिन्न क्षेत्रों के बीच पाये जाने वाले आर्तिक तनाव कम हों।

(2) भाषा सम्बन्धी समस्या का समाधान- क्षेत्रीयता को रोकने के लिए भाषावाद की उग्र भावना को समाप्त करना आवश्यक है, क्योंकि इसी के कारण क्षेत्रीयता की प्रवृत्ति उग्र रूप धारण कर लेती है।

(3) राष्ट्रभाषा का प्रचार- क्षेत्रीयता की प्रवृत्ति के विकास को रोकने के लिए राष्ट्रीय भाषा हिन्दी का प्रचार करना अति आवश्यक है। किन्तु यह प्रचार इस ढंग से किया जाय कि विभिन्न क्षेत्रीय समूह स्वतः इसे सम्पर्क भाषा के रूप में स्वीकार करें।

(4) क्षेत्रीय राजनैतिक दलों पर प्रतिबन्ध- जैसा कि क्षेत्रीयता के कारणों पर प्रकाश डालते हुए हमने संकेत किया था कि क्षेत्रीय स्तर के नेता ही क्षेत्रीयता के विकास के लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी हैं। अतः भारत की अखण्डता पर आघात करने वाले इन क्षेत्रीय नेताओं पर कड़ा प्रतिबन्ध लगाने की आवश्यकता है।

(5) विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृतियों की सामान्य विशेषताओं का प्रचार- यद्यपि देश में प्रत्येक उपसांस्कृतिक क्षेत्र की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति है किन्तु इन सभी क्षेत्रों की संस्कृतियों में कुछ सामान्य विशेषताओं का देश के समस्त क्षेत्र या प्रदेशों में प्रचार किया जाये तो निश्चित है कि उनके बीच पाई जाने वाली क्षेत्रीयता की भावना दुर्बल हो जायेगी।

(6) केन्द्रीय सरकार एवं राज्यों के बीच अच्छे संबंध- क्षेत्रीयता की भावना को समाप्त करने के लिए केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों के बीच पारस्परिक सम्बन्धों को अधिकाधिक सौहार्दपूर्ण बनाने की सक्रिय चेष्टा करना चाहिए। इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि दोनों पक्ष इस प्रकार की नीति को अपनायें जिसके कारण वे एक दूसरे पर कीचड़ न उछाल सकें।

(7) केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में सन्तुलित प्रतिनिधित्व- केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल का संगठन इस प्रकार किया जाये कि सभी क्षेत्रों के नेताओं का सन्तुलित प्रतिनिधित्व हो ताकि क्षेत्रीय पक्षपातपूर्ण नीतियों का खण्डन हो सके और किसी केन्द्रीय सरकार की नीति या इरादे में कोई सन्देह न हो।

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Pankaja Singh

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