विक्रय प्रबंधन

क्रेता व्यवहार के आदर्श सिद्धांत | भावात्मक तथा विवेकात्मक क्रय-प्रेरणाओं में अन्तर | क्रय सम्बन्धी भावात्मक तथा विवेकपूर्ण प्रेरणाओं से आशय

क्रेता व्यवहार के आदर्श सिद्धांत | भावात्मक तथा विवेकात्मक क्रय-प्रेरणाओं में अन्तर | क्रय सम्बन्धी भावात्मक तथा विवेकपूर्ण प्रेरणाओं से आशय | Ideal Principles of Buyer Behavior in Hindi | Difference between affective and rational purchasing motivations in Hindi | Meaning of affective and rational motivations of purchase in Hindi

क्रेता व्यवहार के आदर्श सिद्धांत

ग्राहक एक विशेष प्रकार का व्यवहार क्यों करता है? उसके द्वारा सदैव एक-सा व्यवहार क्यों नहीं किया जाता है? विपणन प्रबंधक को यह जानना बहुत आवश्यक हो जाता है। कोई भी विपणन प्रबंधक इन बातों के अध्ययन के लिए निम्न सिद्धांतों का सहारा लेता है-

(I) स्वाभाविक एवं सीखे हुए क्रय व्यवहार

  1. स्वाभाविक क्रय व्यवहार- स्वाभाविक क्रय व्यवहार से आशय ऐसे व्यवहार से है जो व्यक्तित्व में अन्तर्निहित आवश्यकताओं से प्रेरित होता है, जैसे- भूख लगना। इन आवश्यकताओं से प्रेरित होकर वस्तु के क्रय को स्वाभाविक क्रय कहा जायेगा। इनकी पूर्ति के लिए एक चक्र चलता रहता है। सर्वप्रथम, आवश्यकता का अनुभव होता है, फिर इसकी पूर्ति के लिए प्रयत्न किये जाते हैं और अन्त में पूर्ति का लक्ष्य प्राप्त कर लिया जाता है। यदि इन प्रेरणाओं की पूर्ति नहीं की जाती तो व्यक्ति में तनाव उत्पन्न हो जाता है।
  2. सीखे हुए क्रय व्यवहार- इस क्रय व्यवहार का आशय ऐसे क्रय व्यवहार से है जिसे व्यक्ति अपने वातावरण तथा सामाजिक परिवेश में सीखता है, जैसे- एक शिशु जन्म के समय भूख लगने पर रोता है। अतः रोना एक स्वाभाविक व्यवहार है, लेकिन जहाँ रोने की क्रिया बार-बार होती है तो बच्चे को इस बात का ज्ञान होता है कि रोना भोजन प्राप्ति का साधन है। अतः रोना अब सीखा हुआ व्यवहार है। लेकिन जब बच्चा बड़ा होता है तो उसके व्यवहार को उसका ज्ञान प्रभावित करता है और ज्ञान का बोध समाज करता है। जैसा समाज होगा व्यक्ति वैसा ही व्यवहार करेगा। इस सिद्धांत को पावलोव मॉडल भी कहते हैं। इस मॉडल के परिणामों को मानवीय व्यवहार के उत्तेजना उत्तर मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

(II) भावात्मक एवं विवेकात्मकं क्रय व्यवहार

  1. भावात्मक क्रय व्यवहार- भावात्मक क्रय व्यवहार का आशय ऐसे व्यवहार से है जो हृदय से सम्बन्धित क्रियाओं से प्रभावित होता है अर्थात् इन्हीं क्रियाओं से प्रेरित होकर क्रेता क्रय के लिए तैयार हो जाता है। इसमें अहंकार, सुविधा, प्रतिष्ठा, गौरव, ईर्ष्या, शत्रुता, प्रेम जैसी क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। उदाहरण के लिए, जब एक बिस्कुट उत्पादक अपने किसी बिस्कुट का विज्ञापन इन शब्दों में देता है, “देश के चोटी के खिलाड़ियों का सबसे अधिक लोकप्रिय बिस्कुट” तो उसका उद्देश्य छात्र एवं खिलाड़ी जगत् की भावनात्मक प्रेरणाओं को ही उकसाने का होता है।
  2. विवेकात्मक क्रय व्यवहार- इनसे आशय ऐसे क्रय व्यवहार से होता है. जिनके अन्तर्गत क्रेता क्रय की जाने वाली वस्तु की कीमत, उपभोग, स्थिरता, सेवा और विश्वसनीयता आदि अनेक तत्वों पर विचार करके ही क्रय करने का निर्णय लेता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति जान-बूझकर एक नीची शुद्ध लागत का उत्पाद खरीदने का निश्चय करता है तो इसे विवेकात्मक क्रय माना जायेगा। इस विवेकात्मक क्रय प्रेरणा में विवेक बुद्धि अर्थात् मस्तिष्क की प्रधानता रहती है।

भावात्मक तथा विवेकात्मक क्रय-प्रेरणाओं में अन्तर

भावात्मक एवं विवेकात्मक क्रय व्यवहारों में निम्न आधारों पर अन्तर किया जाता  है-

  1. 1. प्रधानता- भावात्मक क्रय व्यवहार में क्रेता आन्तरिक भावना को प्रधानता देता है, जबकि विवेकात्मक क्रय व्यवहार में क्रेता विवेक एवं बुद्धि को प्रधानता देता है।
  2. समय- भावात्मक क्रय व्यवहार में क्रेता को निर्णय लेने के लिए अधिक समय एवं ध्यान की आवश्यकता नहीं रहती, जबकि विवेकात्मक क्रय व्यवहार में क्रेता को निर्णय लेने के लिए अधिक समय एवं ध्यान की आवश्यकता होती है।

विपणन में महत्त्व — विपणन प्रबंध में उपर्युक्त दोनों प्रेरणाओं के अध्ययन का विशेष महत्त्व है। विपणनकर्ता इस प्रकार के अध्ययन से यह पता लगाता है कि क्रेता उसकी वस्तु को किस प्रकार की प्रेरणाओं से प्रेरित होकर क्रय कर रहे हैं, इसकी जानकारी प्राप्त करने के पश्चात् वह अपने विपणन कार्यक्रम में आवश्यक समायोजन करता है। जैसे—यदि वस्तु का क्रय भावात्मक प्रेरणा के आधार पर किया जा रहा है तो उसे अपने विज्ञापन में भावात्मक प्रेरक को प्रयोग करना चाहिए। यदि वस्तु का क्रय विवेकपूर्ण प्रेरणाओं से प्रेरित होकर किया जा रहा है तो उसे विज्ञापन में विवेकपूर्ण प्रेरकों पर महत्त्व देना चाहिए, यदि वस्तु का क्रय दोनों प्रेरणाओं से प्रेरित होकर किया जा रहा है तो विज्ञापन में दोनों प्रकार के प्रेरक तत्त्वों का प्रचार करना चाहिए।

(III) मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक क्रय व्यवहार या प्रेरणाएँ

  1. मनोवैज्ञानिक क्रय व्यवहार या प्रेरणाएँ- प्रत्येक क्रय की जाने वाली वस्तु का वास्तविक चयन मुख्यतः दो मनोवैज्ञानिक तत्त्वों पर निर्भर करता है- (A) उपभोक्ता का व्यक्तित्व एवं (B) उत्पाद की विशेषताएँ। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति खाने के लिए इसलिए अभिप्रेरित हो सकता है, क्योंकि उसको भूख लगी है या उसके भोजन का समय हो गया है, लेकिन वह क्या चीज खायेगा यह इस अभिप्रेरण की पहुँच के बाहर है। वह अपने भोजन में क्या-क्या कितनी मात्रा में खायेगा यह उसकी आदत, पसंद, आय, प्रथा, वस्तु के गुण पर निर्भर करता है।
  2. सामाजिक क्रय व्यवहार या प्रेरणाएँ- उपभोक्ता एक सामाजिक प्राणी होता है अर्थात् उसका किसी न किसी वर्ग से सम्बन्ध अवश्य होता है। (यद्यपि कुछ उपभोक्ता इसके अपवाद भी हो सकते हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम होती है)। उपभोक्ता का क्रय व्यवहार सामाजिक तत्त्वों से बहुत अधिक प्रभावित होता है। कोई भी उपभोक्ता अपने समाज से पृथक् निर्णय लेने में संकोच करता है। वह अपने निर्णय लेने से पहले इस बार पर अवश्य विचार करता है कि समान परिस्थितियों में उसके समाज के अन्य लोग क्या निर्णय लेते हैं और यदि वह भिन्न निर्णय ले ले तो उसकी सामाजिक प्रतिक्रिया क्या होगी। अतः विपणनकर्ता को इस तथ्य की भी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए कि सम्भावित क्रेता सम्भावित समाज के किस वर्ग से सम्बन्धित है।

(IV) उपभोक्ता व्यवहार को निर्धारित करने वाली स्व-छवि

उपभोक्ता की स्व-छवि की अवधारणा के आधार पर भी उपभोक्ता व्यवहार की व्याख्या की जा सकती है। उपभोक्ता की स्व-छवि से अभिप्राय कोई व्यक्ति अपने आपको किस दृष्टिकोण से देखता है, समझता है और दूसरे व्यक्ति उसको किस रूप में देखते हैं, समझते हैं, समझते हैं या उसे क्या महत्व देते हैं, से हैं। अतः स्व-छवि की अवधारणा मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रतिबिम्ब है। इस स्व-छवि पर उसकी आर्थिक स्थिति, सामाजिक और भौगोलिक तत्त्वों का प्रभाव पड़ता है।

किसी उपभोक्ता की स्व-छवि की पहचान करना या वर्गीकृत करना एक अत्यन्त कठिन कार्य है, क्योंकि यह एक जटिलतम अवधारणा है। जिसमें विभिन्न तत्वों का मिश्रण होता है। विभिन वर्गों के उपभोक्ता भिन्न-भिन्न छवि रखते हैं। स्व-छवि का अनुमान उपभोक्ता के क्रय उद्देश्यों द्वारा लगाया जा सकता है। अतः स्व-छवि इसी रूप में क्यों है तथा विभिन्न व्यक्तियों की स्व-छवि भिन्न-भिन्न क्यों होती है? विपणनकर्ता की उपभोक्ताओं की स्व-छवि का अध्ययन करना चाहिए और उसके आधार पर महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकालकर अपनी विपणन नीतियों में समायोजन करने चाहिए।

(V) समूह प्रभाव

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह एकांत में निवास नहीं करता है। अतः उस सामाजिक समूह का, जिसका वह सदस्य है, उसके आचरण पर अवश्य प्रभाव पड़ता है। उपभोक्ता का समाज में सम्बन्ध, स्थिति, ख्याति प्राप्त करने की इच्छा आदि उसके व्यवहार को निर्देशित करती है। अतः एक विपणनकर्ता को उपभोक्ताओं के समूहों का अध्ययन करना चाहिए और यह पता लगाना चाहिए कि उपभोक्ता समूहों में कौन-कौन से ऐसे व्यक्ति हैं जो कि समूह के अन्य सदस्यों को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार समूह प्रभाव से साधारण उपभोक्ता भी उत्पाद को खरीदने लगते हैं।

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Pankaja Singh

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