उद्यमिता और लघु व्यवसाय

कोषों को जुटाने से आशय | कोषों को जुटाने के स्रोत | Meaning of Raising Funds in Hindi | Sources of Raising Funds in Hindi

कोषों को जुटाने से आशय | कोषों को जुटाने के स्रोत | Meaning of Raising Funds in Hindi | Sources of Raising Funds in Hindi

कोषों को जुटाने या एकत्रित करने से आशय

(Meaning of Raising Funds)

किसी नवीन उद्यम की स्थापना का निर्णय लेने के पश्चात् उसके लिए आवश्यक कोषों अर्थात् वित्त की आवश्यकता होती है। कितनी मात्रा में कोषों की आवश्यकता होगी तथा इसका ढाँचा कैसा होगा, इसके बारे में निर्णय लेने एवं उन्हें जुटाने की क्रिया को ही कोषों का जुटाना कहते हैं।

कोषों को जुटाने के स्रोत

(Sources of Raising Funds)

कोषों को जुटाने का निर्णय लेने के पश्चात् एक उद्यमी कोषों को जुटाने की क्रिया की ओर अग्रसर होता है। यह कार्य वह विभिन्न प्रकार की प्रतिभूतियों का निर्गमन करके करता है। उद्यमी विनियोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए विभिन्न प्रकार की प्रतिभूतियों का निर्गमन करता है। कोषों के जुटाने के प्रमुख स्रोत निम्नलिखित हैं-

(I) अंशों के निगमन द्वारा

(Raising Funds Through Issue of Shares)

भारतीय कम्पनी अधिनियम, 2013 के अनुसार केवल दो प्रकार के अंश हो सकते हैं.

(अ) पूर्वाधिकार अंश (Preference Shares) तथा तथा (ब) साधारण अंश अथवा सामान्य अंश (Ordinary Shares or Equity Shares) |

(अ) पूर्वाधिकार अंश (Preference Shares) –

अर्थ (Meaning)- समता अंशों की तुलना में ऐसे अंशों पर अंशधारी  को कुछ विशेष अधिकार मिलते हैं जिसे पूर्वाधिकार अंश कहते हैं। धारा 85 के अनुसार पूर्वाधिकार अंश से अभिप्राय उस अंश से है जिसके सम्बन्ध में निम्न दो पूर्वाधिकार प्राप्त हों-

(i) लाभांश सम्बन्धी पूर्वाधिकार (Preference as to Dividend)- ऐसे अंशों पर अंशधारी को कम्पनी के लाभ में पूर्व निश्चित दर से लाभांश पाने का पूर्वाधिकार होता है। इन्हें लाभांश देने के पश्चात् ही समता अंशों पर लाभांश दिया जा सकता है।

(ii) पूँजी के पुनर्भुगतान सम्बन्धी पूर्वाधिकार (Preference as to Repayment of Capital)- कम्पनी के समापन की अवस्था में जब कम्पनी की पूँजी लौटाई जाती है तो ऐसे अंशधारियों को अपनी प्रदत्त पूँजी को वापस पाने का भी पूर्वाधिकार होता है। इनकी पूँजी लौटाने के पश्चात् ही समता अंशधारियों को पूँजी लौटाई जा सकती है।

(ब) समता अंश (Equity or Ordinary Shares) –

समता अंश किसी भी (उद्यम) के वित्तीय ढाँचे का आधार स्तम्भ होते हैं। साधारणतया कम्पनियाँ अपनी पूंजी का एक बड़ा भाग इस प्रकार के अंशों के निर्गमन के द्वारा प्राप्त करती हैं। इस प्रकार के अंशों के धारकों को पूर्वाधिकार अंशधारियों का लाभांश का भुगतान करने के बाद किया जाता है। कम्पनी के समापन की दशा में समता अंशधारियों को पूंजी की वापसी भी पूर्वाधिकार अंशधारियों के बाद की जाती है। इस प्रकार कम्पनी की आय एवं सम्पत्तियों में समता अंशधारियों का अधिकार समस्त ऋणदाताओं एवं पूर्वाधिकारी अंशधारियों के दावों को चुकाने के पश्चात् उत्पन्न होता है। इसी कारण कहा जाता है कि समता अंश अधिक जोखिमपूर्ण होते हैं किन्तु व्यवसाय को नियन्त्रित करने का सामान्य अंशधारियों का अधिकार कम्पनी में उनकी स्थिति को महत्वपूर्ण बना देता है। चूँकि कम्पनी की अन्तिम जोखिम इन्हीं के कन्धों पर रहती है, इसलिए कम्पनी प्रबन्ध में इनका हस्तक्षेप अधिक सक्रिय एवं प्रत्यक्ष होता है। कम्पनी के होने के नाते इन्हें अंशधारियों के सामान्य सभा में उपस्थिति होने तथा मत देने का अधिकार रहता है। इन अंशधारियों को कम्पनी संचालकों को नियुक्त करने तथा उन्हें हटाने का पूरा अधिकार होता है।

(II) ऋण-पत्रों के निर्गमन द्वारा

(Raising Funds Through Issue of Debentures)

अंशों के अतिरिक्त औद्योगिक पूँजी प्राप्त करने का दूसरा महत्वपूर्ण साधन ऋण-पत्रों (Debentures), बन्धों (Bonds), का निर्गमन है। ऋण-पत्र रक्षित (Secured) तथा अरक्षित (Unsecured) दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं। अमेरिका में अरक्षित बन्धों को ही ऋण पत्र कहते हैं किन्तु भारत में इस प्रकार का कोई भेद नहीं किया जाता है। यहाँ बन्धों तथा ऋण-पत्रों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया जाता है। अंग्रेजी भाषा के शब्द Debenture की उत्पत्ति लैंटिन भाषा के शब्द ‘Debere’ से हुई जिसका अर्थ है-ऋणी होना। कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 2(30), के अनुसार, “ऋण पत्र में ऋण-पत्र, स्कन्ध, बॉण्ड तथा कम्पनी की अन्य प्रतिभूतियाँ सम्मिलित हैं, चाहे वे कम्पनी की सम्पत्तियों पर प्रभाव उत्पन्न करती हों या नहीं।” (यह परिभाषा अस्पष्ट तथा अपूर्ण है।) सरल शब्दों में, “ऋण-पत्र कम्पनी द्वारा प्राप्त ऋण का एक स्वीकृति पत्र है जो कम्पनी की मुहर अथवा सार्वमुद्रा के अन्तर्गत निर्गमित किया जाता है। इस पर उन शर्तों का उल्लेख रहता है जिसके अधीन कम्पनी ऋण लेती है।”

(III) केन्द्र स्तरीय वित्तीय संस्थानों से ऋण लेकर

(Raising Funds Through Loans from Centre Level Financial Institutions)

केन्द्रीय सरकार ने उद्योगों (उद्यमों) को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिये केन्द्रीय स्तर पर विभिन्न वित्तीय संस्थानों की स्थापना की है। उनमें से अखिल भारतीय स्तर पर कार्यरत प्रमुख वित्तीय संस्थान निम्नलिखित हैं-

(1) भारतीय औद्योगिक वित्त निगम लिमिटेड (IFCI),

(2) भारतीय औद्योगिक साख एवं विनियोग निगम लिमिटेड (ICICI),

(3) भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (IDBI),

(4) भारतीय औद्योगिक पूँजी निवेश बैंक लिमिटेड (IIBI),

(5) राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (NABARD),

(6) भारतीय औद्योगिक पुनर्निर्माण बैंक (IRBI),

(7) भारतीय यूनिट ट्रस्ट (UTI),

(8) भारतीय निर्यात एवं आयात बैंक (EXIM Bank),

(9) भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC),

(10) राष्ट्रीय औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड (NIDC),

(11) भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (SIDBI),

(12) जोखिम पूँजी एवं प्रौद्योगिकी वित्त निगम लिमिटेड (RCTFCL),

(13) भारतीय स्कन्ध धारिता निगम लिमिटेड (SHCIL),

(14) राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम लिमिटेड (NSICL) |

(IV) जन निक्षेप द्वारा वित्तीय

Raising Funds Through Public Deposits

भारतीय कम्पनियों के अर्थ-प्रबन्ध के लिये सार्वजनिक निक्षेप स्वीकार करना इस देश के औद्योगिक विकास में एक अद्वितीय घटना है। प्रारम्भ में बैंकों में जनता का अधिक विश्वास था जिसके कारण कम्पनियों को पर्याप्त मात्रा में सार्वजनिक निक्षेप प्राप्त हो जाते थे। मुम्बई, अहमदाबाद तथा कुछ सीमा तथा शोलापुर की सूती वस्त्र निलों तथा बंगाल और असम के चाय के बागानों ने सार्वजनिक निक्षेप द्वारा ही अपनी स्थायी पूँजी का संचय किया है अर्थात् उन्होंने सीधे जनसाधारण से निर्धारित अवधि के लिये निश्चित ब्याज दर पर निक्षेप स्वीकार किया है। सार्वजनिक निक्षेप छः महीने से लेकर बारह-पन्द्रह साल के लिये लिये जाते रहे हैं और उत्पाद की ब्रिकी के होते ही उनका भुगतान कर दिया जाता है।

(V) अर्जित आय का पुनः विनियोग अथवा लाभों का पुनर्विनियोजन

Ploughing Back of Earned Incomes or Profits

प्रत्येक प्रगतिशील उद्योग के भावी विकास के लिये पर्याप्त मात्रा में पूँजी चाहिये। यदि वह पूँजी बाहरी लोगों से ली जाये तो उसमें अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। अतः लाभ के हिस्से का पुनः विनियोग करना विस्तार एवं उन्नति की सर्वश्रेष्ठ विधि है। इस पद्धति के अनुसार कम्पनी अपनी सम्पूर्ण आय का वितरण लाभांश के रूप में न करती हुई उसका एक भाग बचाकर संचय कोष में रख लेती है और इस संचय कोष का प्रयोग कम्पनी की भावी विकास योजनाओं में करती है। कम्पनी के इस प्रकार के अर्थ-प्रबन्ध को ‘अर्जित आय का पुनः विनियोग’ अथवा ‘आन्तरिक अर्थव्यवस्था’ कहते हैं। यह पद्धति कम्पनी की आर्थिक दृढ़ता के लिये अधिक लाभकर है क्योंकि ऋण से विकास योजनाओं की पूर्ति करने से कम्पनी पर ब्याज के भुगतान का बोझ बढ़ता है और यदि इन ऋणों का भुगतान अचानक एक साथ माँग लिया जाये तो कम्पनी की आर्थिक स्थिति शिथिल पड़ जाती है। अतः जो देश औद्योगिक उन्नति कर रहे हैं, उनमें पूँजी बढ़ाने के लिये यह पद्धति बड़ी व्यापकता से अपनाई गई है। पाश्चात्य देशों के औद्योगिक विकास में इस पद्धति का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रहा है, उस दशा में, जबकि पूँजी का प्राप्त करना कठिन हो, यह पद्धति अत्यन्त लाभदायक सिद्ध हो सकती है।

(VI) राज्य स्तरीय वित्तीय संस्थानों से ऋण लेकर

(Raising Funds Through Loans from State Level Financial Institutions)

राज्य स्तर पर छोटे एवं मध्यम श्रेणी के उद्योगों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिये विभिन्न राज्यों में 18 राज्य निगमों की स्थापना की जा चुकी है। राज्य वित्त निगमों की अधिकतम अधिकृत पूँजी 50 लाख रुपये से बढ़ाकर 100 करोड़ रुपये कर दी गयी है।

वित्तीय सहायता के प्रारूप- राज्य वित्त निगम उद्यमियों को छोटी एवं मध्यम श्रेणी की औद्योगिक इकाइयों के लिये निम्न प्रारूपों में वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं-

(i) औद्योगिक इकाइयों को अधिक से अधिक 20 वर्षों की अवधि के लिये ऋण प्रदान करना या उनके ऋण-पत्र क्रय करना।

(ii) औद्योगिक इकाइयों द्वारा निर्गमित अंशों, ऋण-पत्रों, बॉण्डों व स्कन्ध का अभिगोपन करना।

(iii) औद्योगिक संस्थाओं को प्राप्त होने वाले ऋणों की गारण्टी करना।

(iv) पूँजीगत माल के क्रय के सन्दर्भ में स्थापित भुगतानों के लिये गारण्टी देना।

(v) किसी भी औद्योगिक संस्था को ऋण प्रदान करने या उसके ऋण-पत्रों के क्रय करने में केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार अथवा औद्योगिक वित्त निगम के रूप में कार्य करना।

(vi) विशिष्ट अंशपूँजी वाले कोषों से औद्योगिक संस्थाओं के अतिरिक्त अंशों एवं ऋण- पत्रों में अभिदान करना।

राज्य वित्त निगम कम्पनियों तथा सहकारी समितियों को 60 लाख रुपये तक का ऋण दे सकते हैं। फर्मों व एकाकी उद्यमियों को 30 लाख रुपये से ऋण स्वीकार किये जा सकते हैं।

(VII) व्यापारिक बैंकों से ऋण लेकर

Raising Funds Through Loans from Commercial Banks

व्यापारिक बैंकों से आशय उन बैंकिंग संस्थानों से है जो उद्यमों की लघु एवं मध्यम श्रेणी की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। कई राष्ट्रीयकृत बैंक, निजी क्षेत्र की बैंक और यहाँ तक विदेशी व्यापारिक बैंक भी भारतीय उद्यमियों के लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्योगों के लिये पर्याप्त मात्रा में वित्तीय सहायता प्रदान कर रहे हैं। व्यापारिक बैंक सामान्यतः निम्न प्रारूपों में वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं-

(i) अधिविकर्ष (Order draft)

(ii) नकद साख (Cash credit)

(iii) ऋण एवं अग्रिम (Loans and Advances),

(iv) विपत्रों, हुण्डी तथा अन्य व्यापारिक प्रलेखों को भुनाना एवं क्रय करना (Dis- counting and Purchasing Bills, Hundies and Other Commercial Documents),

(v) माल के बन्धक पर ऋण (Loan on Mortgage of Goods)

(VIII) कोषों को जुटाने के अन्य श्रोत

(Other Sources of Raising Funds)

कोषों को जुटाने के अन्य स्रोत निम्न हैं-

(1) देशी बैंकर्स (Indigenous Bankers) से ऋण- यद्यपि देशी बैंकरों का औद्योगिक अर्थ-प्रबन्धन में बहुत कम हाथ रहता है किन्तु इन्होंने देश के आन्तरिक व्यापार को महत्वपूर्ण साख-सुविधायें प्रदान की हैं। ये गत कुछ वर्षों से अहमदाबाद तथा मुम्बई में सूती मिलों, असम तथा बंगाल के चाय उद्योगों में, तेल, चमड़े और चावल आदि मिलों में साख-सुविधायें प्रदान कर रहे हैं किन्तु इनकी अत्यधिक ब्याज दर (जोकि 16% से 24% तक होती है), रूढ़िवादी नीति, समीति आर्थिक साधन तथा व्यापारिक बैंकों की प्रतियोगिताओं के कारण धीरे-धीरे इनका लोप होता जा रहा है। इतना होते हुये भी देशी बैंकर उन उद्योगों के लिये अत्यन्त लाभदायक हैं जो अपनी पूँजी साधारण जनता से प्राप्त नहीं कर सकते जिनके यहाँ सार्वजनिक निक्षेप उपलब्ध नहीं हैं जहाँ पर आधुनिक बैंकिग का विकास नहीं हुआ है तथा जो जमानत के नियमों का कठोरता से पालन नहीं करते। यदि देखा जाये तो भारत में देशी बैंकर ही एकमात्र ऐसी संस्था है जोकि व्यक्तिगत जमानत पर ऋण देने को तत्पर है। छोटे-छोटे उद्योगों में देशी बैंक पर्याप्त मात्रा में आर्थिक सहायता देते हैं। सहकारी साख समितियों की स्थापना से इनके व्यवसाय को भारी क्षति पहुँचती हैं।

(2) ह्रास कोष (Depreciation Fund)- मशीनों और यन्त्रों की मरम्मत तथा उनको पुनर्स्थापन करने के लिये ह्रास कोष की व्यवस्था की जाती है। इससे कम्पनी का कार्य सुचारु रूप से चलता रहता है। मशीनों की कार्यक्षमता में वृद्धि हो जाती है। रिजर्व बैंक आफ इडिया की खोज के अनुसार भारत में पिछले कुछ वर्षों से ह्रास कोष द्वारा अर्थ-प्रबन्धन का महत्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है।

(3) व्यापारिक उधार (Trade Credit)- व्यापारिक उधर कार्यशील पूँजी प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण साधन है। इसके अन्तर्गत विक्रेता फर्म क्रेता फर्म को कच्चा माल, अर्द्ध-निर्मित माल एवं निर्मित माल उधार देती है और एक निश्चित अवधि (सामान्य रूप में 30 दिन से 45 दिन तक) के पश्चात् अथवा विक्रय होने पर भुगतान प्राप्त करती है। उधार की मात्रा एवं अवधि दोनों ही क्रेता फर्म की वित्तीय स्थिति और ख्याति पर निर्भर करता है। व्यापारिक उधार की उपलब्धि विक्रेता फर्म के आर्थिक साधन, माल के स्टॉक, शीघ्र बेचने की क्षमता, बाजार की प्रतिस्पर्धा, क्रेता फर्म की ख्याति, उत्पाद की किस्म एवं मात्रा और मुद्रा बाजार की स्थिति पर निर्भर करती है।

(4) सरकारी सहायता एवं ऋण (Government Loan and Assistance)- आजकल केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारें भी औद्योगिक व्यावसायिक इकाइयों को वित्तीय सुविधायें उपलब्ध कराती हैं। ये वित्तीय संस्थायें निम्न प्रकार से उपलब्ध कराई जाती हैं-

(i) प्रत्यक्ष अनुदान देकर, (ii) ऋण देकर, (iii) अंशों तथा ऋण पत्रों को क्रय करके, (iv) गारण्टी देकर तथा (v) विदेशी सहयोग में सहायता प्रदान करके।

(5) ग्राहक अग्रिम (Customer’s Advance)- कुछ व्यावसायिक एवं औद्योगिक कम्पनियाँ अपनी अल्पकालीन वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति अपने उत्पादों के आदेश के साथ ही ग्राहकों एवं वितरकों से अग्रिम राशि के रूप में करोड़ों रुपये एकत्रित कर लेती हैं। यह कार्यशील पूँजी प्राप्त करने का आजकल महत्वपूर्ण स्रोत बन गया है किन्तु इस स्रोत का उपयोग प्रायः ऐसी व्यावसायिक एवं औद्योगिक इकाइयाँ करती हैं जिनके उत्पाद की बाजार में भारी माँग होती है अथवा लगभग एकाधिकार की स्थिति होती है, जैसे- मारुति कार उद्योग, बजाज ऑटो, रसोई गैस कम्पनियाँ (जैसे-इण्डियन ऑयल कम्पनी, भारत पेट्रोलियम कम्पनी आदि)।

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Pankaja Singh

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