अर्थशास्त्र

कर व सार्वजनिक-ऋण में कौन श्रेष्ठ है? | महत्व-विभिन्न परिस्थितियों में कर व सार्वजनिक

कर व सार्वजनिक-ऋण में कौन श्रेष्ठ है? | महत्व-विभिन्न परिस्थितियों में कर व सार्वजनिक

कर व सार्वजनिक-ऋण में कौन श्रेष्ठ है?

कर व सार्वजनिक ऋण में से कौन सा स्रोत श्रेष्ठ है, यह प्रश्न निरर्थक है क्योंकि करारोपण व ऋण दोनों के उद्देश्य अलग हैं। कारारोपण आर्थिक व प्रशुल्क नीति का एक अंग है जिसका उद्देश्य सरकार के लिये आय प्राप्त करना तथा धन के वितरण की विषमता को दूर करना है। सार्वजनिक-ऋण का उद्देश्य आर्थिक विकास एवं आर्थिक संकट का निवारण करना है। दूसरे कर राज्य की आय का एक नियमित स्रोत है जबकि सार्वजनिक-ऋण एक अनियमित स्रोत है। अतः इन दोनों की पारस्परिक तुलना करना उचित नहीं है।

महत्व-विभिन्न परिस्थितियों में कर व सार्वजनिक-

ऋणों को अलग-अलग महत्व है, जैसा कि निम्न विवरण से स्पष्ट है-

(1) प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कर श्रेष्ठ हैं-

प्रशासनिक व्यय की पूर्ति कारारोपण द्वारा ही की जानी चाहिये। कभी-कभी प्रशासनिक व्यय की पूर्ति हेतु सरकार अल्पकालीन-ऋणों का भी सहारा ले सकती है, परन्तु सरकार को ऐसे ऋणों का भुगतान आय से शीघ्रातिशीघ्र कर देना चाहिये। यह व्यय आवर्तक होता है तथा इस व्यय को करारोपण द्वारा ही पूरा करना चाहिये। इसके पक्ष में निम्न तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं-

(i) चालू व्यय का लाभ देश की वर्तमान जनसंख्या को होता है। अतः भार भी उसी पर पड़ना चाहिये। यदि चालू व्यय को ऋण द्वारा पूरा किया जायेगा तो उसका कर-भार भावी पीढ़ी पर पड़ेगा जो उचित नहीं है।

(ii) चालू व्यय को करो द्वारा पूरा करने पर अपव्ययिता पर रोक लगती है। परन्तु चालू व्यय की पूर्ति ऋणों द्वारा करने पर अपव्ययिता को प्रोत्साहन मिलता है।

(2) पूँजीगत व्यय की पूर्ति के लिये ऋण श्रेष्ठ है-

पूँजीगत व्यय अनावर्तक व्यय कहलाता है। इसके द्वारा स्थायी सम्पत्ति (जैसे; सड़क, रेले, सिंचाई व विद्युत-शक्ति के साधन आदि) का निर्माण होता है। इन सब कार्यों के लिये आश्यक विपुल धन-राशि करों द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती। अतः पूँजीगत व्यय की पूर्ति के लिये सार्वजनिक-ऋण लेना ही निम्न कारणों से उत्तम है-

(i) सार्वजनिक-ऋण द्वारा भारी मात्रा में धन एकत्रित किया जा सकता है जबकि कारारोपण द्वारा अधिक धन एकत्रित करना सम्भव नहीं है।

(ii) पूँजीगत परिसम्पत्तियों के निर्माण का लाभ भावी पीढ़ियों को प्राप्त होता है अतः उन्हें सार्वजनिक-ऋण द्वारा ही विकसित करना चाहिये क्योंकि सार्वजनिक-ऋणों का भार भावी पीढ़ियों पर ही पड़ता है।

(3) संकटकालीन प्राकृतिक प्रकोपों के समय व्यय की पूर्ति ऋणों द्वारा श्रेष्ठ है-

बाढ़, अकाल, महामारी आदि स्थिति का सामना करने के लिये अधिक धन की आवश्यकता होती है जबकि ऐसे समय में करों द्वारा आय घट जाती है। अतः इन संकटों का निवारण करने के लिये सार्वजनिक-ऋणों का सहारा लेना ही श्रेष्ठ हैं, जिसके निम्नलिखित कारण हैं-

(i) करों द्वारा प्राप्त आय से यदि इस व्यय को पूरा किया तो इसका भार वर्तमान पीढ़ी को सहन करना पड़ेगा जो कि संकटकाल में न्यायोचित नहीं है।

(ii) करों द्वारा तत्काल अधिक आय एकत्र करना सम्भव नहीं।

(4) सामाजिक सेवाओं के लिये करारोपण श्रेष्ठ है-

आजकल लोकतांत्रिक सरकारें अनेक सामाजिक कल्याण के कार्य करता हैं; जैसे शिक्षा, चिकित्सा, स्वास्थ्य तथा आवास व्यवस्था आदि। इन सामाजिक सेवाओं का संचालन करने के लिये ऋण की अपेक्षा करों द्वारा आय प्राप्त करना श्रेष्ठ है। इन सेवाओं से जन-कल्याण होता है जिससे उनकी कार्यक्षमता तथा उत्पादन शक्ति पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। उनकी कर-दान क्षमता बढ़ जाती है। इन योजनाओं से सभी लाभान्वित होते हैं इस कारण इन योजनाओं के व्ययय का भार वर्तमान व भावी दोनों पीढ़ियों पर पड़ना चाहिये। इसके विपरीत दूसरी, विचारधारा यह है कि कुछ सेवाओं के प्रदान करने पर राज्य को भी लाभ होता है। अतः ऐसे व्ययों की पूर्ति के लिये ऋण भी लिये जा सकते हैं। उदाहरण के लिये आवास व्यवस्था से सरकार को आय भी प्राप्त होती है और राजकीय सम्पत्ति का निर्माण भी होता है।

(5) विकासात्मक अथवा उत्पादक व्यय की पूर्ति के लिये ऋण श्रेष्ठ होते हैं-

आर्थिक विकास की दृष्टि से जो योजनायें चलाई जाती हैं वह एक प्रकार से पूँजीगत व्यय-विनियो का ही एक रूप हैं। इनकी पूर्ति करों द्वारा नहीं की जा सकती है, क्योंकि (i) जनता पर करों का भार अधिक हो जायेगा, (ii) अत्यधिक करारोपण जनता की काम करने व बचत करने की शक्ति व इच्छा को घटायेगा, करदाताओं का रहन-सहन का स्तर गिर जायेगा। अतः विकास वित्त के लिये सार्वजनिकृ-ऋण ही उत्तम माने जाते हैं। इसके निम्नलिखित कारण हैं-

(i) ऋण बचत में से दिये जाते हैं जिससे ऋणदाताओं को विशेष कष्ट नहीं होता।

(ii) विकासशील योजनाओं से वर्तमान तथा भावी दोनों पीढ़ियों को लाभ होता है। इस कारण ऋणों का भार भावी पीढ़ी पर टाला जा सकता है।

(iii) ऋण लेने पर व्यक्तियों के काम करने व बचत करने की शक्ति तथा इच्छा कम नहीं होती।

इस प्रकार विकासात्मक या उत्पादक व्यय को पूरा करने के लिये करों की अपेक्षा सार्वजनिक ऋण लेना ही श्रेष्ठ है।

(6) प्रतिरक्षा तथा युद्ध की पूर्ति के लिये कर व ऋण दोनों का सहयोग अपेक्षित है-

यह व्यय दो प्रकार को होता है : (i) सैनिकों के वेतन, भत्ते तथा पेन्शन आदि पर व्यय, (ii) युद्ध-उपकरण व साज-सज्जा पर व्यय। इसके सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों का मत है कि इसकी पूर्ति कर व ऋण दोनों के द्वारा की जानी चाहिये।

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Pankaja Singh

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