विक्रय प्रबंधन

कमीशन पद्धति | केवल कमीशन विधि | कमीशन विधि के प्रमुख लाभ | कमीशन विधि के दोष

कमीशन पद्धति | केवल कमीशन विधि | कमीशन विधि के प्रमुख लाभ | कमीशन विधि के दोष | Commission Method in Hindi | Commission method only in Hindi | Major advantages of commission method in Hindi | Defects of commission method in Hindi

कमीशन पद्धति/विधि

केवल कमीशन विधि पारिश्रमिक की ऐसी विधि है जिसमें विक्रयकर्त्ता को पारिश्रमिक का भुगतान, विक्रय की राशि अथवा विक्रय की गई इकाइयों के आधार पर किया जाता है। इस प्रकार इस विधि में विक्रय की राशि या विक्रय की गई इकाईयाँ ही पारिश्रमिक का आधार होती हैं। विक्रयकर्त्ता द्वारा लगाये गये श्रम एवं प्रयासों का पारिश्रमिक से कोई सम्बन्ध नहीं होता बल्कि केवल परिणाम एवं पारिश्रमिक में ही सम्बन्ध होता है। विक्रयकर्ता जितना अधिक माल या सेवा बेच सकेगा, उतना ही अधिक पारिश्रमिक प्राप्त कर सकेगा।

कमशीन देने की भी दो विधियाँ प्रचलित हैं-

  1. स्थिति दर विधि
  2. प्रगतिशील दर विधि
  3. स्थिर दर विधि- इस विधि में विक्रयकर्ता को कमीशन सदैव एक निर्धारित दर से दिया जाता है चाहे वह कितना ही विक्रय करे। उदाहरणार्थ- एक संस्था यह निर्धारित करती है कि विक्रयकर्ताओं को विक्रय का 5 प्रतिशत अथवा 5 रु. प्रति इकाई कमीशन दिया जायेगा। यह स्थिर विधि ही है। इसमें कम या अधिक कितना ही विक्रय करे किन्तु पारिश्रमिक की दर समान ही बनी रहती है।
  4. प्रगतिशील दर विधि- इस विधि में पारिश्रमिक की दर क्रमशः बढ़ती जाती है। एक निश्चित राशि या इकाइयों के विक्रय के बाद कमीशन की दर क्रमशः बढ़ती जाती है। यह इस प्रकार हो सकती है। प्रथम 10,000 रु. या इकाइयों तक के विक्रय पर 10% या 10 रु. प्रति इकाई, अगले 20,000रु. या इकाइयों तक के विक्रय पर 12रु. प्रति इकाई, अगले सभी विक्रय या इकाइयों पर 15% या 15रु. प्रति इकाई।

अतः प्रगतिशील दर से पारिश्रमिक देने पर पारिश्रमिक दर निरंतर बढ़ती रहती है अतः विक्रयकर्त्ता जितना अधिक विक्रय करता है उतना अधिक पारिश्रमिक प्राप्त करता है।

लाभ-

पारिश्रमिक की कमीशन विधि के प्रमुख लाभ निम्नानुसार हैं-

(अ) संस्था की दृष्टि से लाभ-

(1) विक्रय वृद्धि- इस विधि के अपनाने से विक्रय वृद्धि करना आसान होता है। विक्रयकर्ता अधिकाधिक पारिश्रमिक कमाने की प्रेरणा से अधिकाधिक विक्रय करने का प्रयास करते हैं। फलतः संस्था का विक्रय बढ़ता है।

(2) निरीक्षण व्यय में कमी- पारिश्रमिक की इस विधि से विक्रयकर्त्ता स्वयं ही पूर्ण लगन से कार्य करते हैं। अतः संस्था को उनके निरीक्षण के लिए व्यय नहीं करना पड़ता है।

(3) कुशल विक्रयकर्त्ताओं की उपलब्धि- इस विधि से पारिश्रमिक देने से संस्था में कुशल विक्रयकर्त्ताओं को आकर्षित किया जा सकता है।

(ब) विक्रयकर्त्ताओं की दृष्टि से लाभ-

  1. उत्पादकता के अनुरूप पारिश्रमिक- विक्रयकर्त्ताओं को अपनी उत्पादकता के अनुरूप पारिश्रमिक मिल जाता है। अतः अच्छे विक्रयकर्त्ता सदैव संतुष्टि अनुभव करते हैं।
  2. सरल एवं समझने योग्य- यह विधि सरल एवं समझने योग्य होती है।
  3. स्वतंत्रता– इस विधि में प्रायः विक्रयकर्त्ताओं को कार्य करने या न करने पर कोई कहने वाला नहीं होता है। वह कार्य करने या न करने का निर्णय स्वतंत्रतापूर्वक कर सकता है।
  4. पक्षपात रहित- इस विधि में किसी भी विक्रयकर्ता के साथ प्रबंधकों द्वारा पक्षपात नहीं किया जा सकता है।

दोष-

(अ) संस्था की दृष्टि से

  1. नियंत्रण में ककठिना- इस विधि में पारिश्रमिक देने पर विक्रयकर्ता अपनी इच्छा से कार्य करने लगते हैं। फलतः उन पर नियंत्रण रखना कठिन हो जाता है।
  2. प्रारम्भिक उच्च दर- नयी संस्थाओं को प्रारम्भ में ऊँची दर से पारिश्रमिक देना पड़ता है। ऐसा न करने पर अच्छे विक्रयकर्ताओं की सेवाओं को प्राप्त करना कठिन होता है।
  3. नये बाजारों के विकास में बाधा- नये बाजार का विकास करने के लिए विक्रयकर्ता को प्रयास अधिक करने पड़ते हैं किन्तु इसके परिणाम लम्बी अवधि के बाद ही आते हैं। अतः कमीशन के आधार पर कार्य करने वाले विक्रयकर्त्ता नये बाजारों का विकास नहीं कर पाते हैं।

(ब) विक्रयकर्त्ताओं की दृष्टि से-

  1. आय की अनिश्चितता- इस विधि में विक्रयकर्ताओं को विक्रय बढ़ने पर अधिक और विक्रय कम होने पर कम पारिश्रमिक मिलता है। फलतः उनकी आय में अनिश्चितता हो जाती है।
  2. नये विक्रयकर्त्ताओं के साथ अन्याय- नये विक्रयकर्त्ता अनुभवहीन होने के कारण अधिक विक्रय नहीं कर पाते हैं। अतः उनको पारिश्रमिक बहुत कम मिल पाता है।
  3. आपसी द्वेष– जब समान संस्था के विभिन्न विक्रयकर्ताओं को भिन्न-भिन्न पारिश्रमिक मिलता है तो उनमें आपसी द्वेष उत्पन्न हो सकता है।
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Pankaja Singh

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