हिन्दी

कबीर की सामाजिक चेतना | कबीर की रहस्यवादी भावना | कबीर की भाषा | जायसी की सौन्दर्य चेतन | घनानन्द की विहर अनुभूति | घनानन्द की प्रेम की पीर

कबीर की सामाजिक चेतना | कबीर की रहस्यवादी भावना | कबीर की भाषा | जायसी की सौन्दर्य चेतन | घनानन्द की विहर अनुभूति | घनानन्द की प्रेम की पीर

(1) कबीर की सामाजिक चेतना एवं रहस्यवादी भावना

लोक-कल्याण की भावना- कबीर को समाज में दो प्रकार के तत्व दिखाई देते थे- समाजोपयोगी तथा समाजविरोधी। उन्होंने उपयोग तत्व की प्रशंसा की और अनुपयोगी अथवा अहितकारी तत्वों से बचने का उपदेश दिया। उनका उपदेश अथवा उनकी किसी व्यक्ति विशेष को सुधारने के लिए नहीं है। उन्होंने जो कुछ कहा है, समाज को पतन की ओर जाने से रोकने के लिए ही कहा है। उनके विचार से अहंकार से समाज विशृंखल होता है। वे मदांध व्यक्तियों को बार-बार समझाते हैं और कहते हैं कि-

दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।

मुई खल की सांस सौं, सार भसम ह्वै जाय॥

कबीर के जीवन-दर्शन ने जीवन गढ़ने का प्रयत्न किया। जिस जीवन को वह गढ़ना चाहते थे, वह जीवन अभी तक पूरी तरह गढ़ा नहीं जा सका, परन्तु इस अनगढ़े जीवन के प्रति हम पूर्ण उल्लास के साथ देख तो सकते हैं, जिस प्रकार कबीरदास अनगढ़िया देवता को देखते हैं-

अनगढ़िया देवा, कौन करै तेरी सेवा।

गढ़े देव को सब कोई पूजै, नित की लावै मेवा॥

इसी अनगढ़िया देवता, अनगढ़िया समाज, अनगढ़िया सामान्य मानव-भूमि और धर्म- भूमि की झांकी हमें कबीर के काव्य में मिलती है।

कबीर एक पूर्ण एवं सच्चे रहस्यवादी- सच्चे रहस्यवाद के मुख्य तत्व ये हैं- परमतत्व, परमतत्व में विश्वास, उस विश्वास के दर्शन की लगन, आप्त वचनों पर विश्वास, स्वानुभूति तथा यथार्थवादिता। कहने की आवश्यकता नहीं है कि कबीर के रहस्यवाद में तात्विक चिन्तर धारा के अतिरिक्त जायसी की-सी मार्मिक विरह की व्यंजना के साथ मिलन की अनुभूति को वाणी एवं स्वरूप देने का प्रबल प्रयोग भी हैं इसलिए पश्चिमी आलोचक उन्हें सबसे अधिक रोचक रहस्य मानते हैं। कवीन्द्र-रवीन्द्र ने भी इनके सौ पदों का अंग्रेजी में अनुवाद किया है।

(1) उसमें प्रेम की धारा अबाध रूप से बहनी चाहिए। कबीर के अनेक कथन ऐसे हैं, जिनके माध्यम से रहस्यवादी प्रेम के सहारे ईश्वर की अभिव्यक्ति हुई है। यथा-

गुरु प्रेम का अंक पढ़ाय दिया, अब पढ़ने को कछु नहिं बाकी।

(2) उसमें आध्यात्मिक तत्व हों। उस आध्यात्मिक तत्व में आत्मा और परमात्मा की अभिन्नता स्पष्ट हो तथा अनन्त से मिलाप की प्रधानता रहनी चाहिए। इस प्रकार के कथन कबीर में पग-पग पर मिलते हैं। शंकर की माया जहाँ एकान्त प्रेममूलक है, वहाँ कबीर की माया चंचल छद्मवेषी कामिनी तीनों लोकों को लूट चुकी है।

(2) कबीर की भाषा

‘कबीर वाणी’ के सम्पादक डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘कबीर वाणी’ की भूमिका में कबीर के द्वारा विशेष रूप से लक्ष्य किये गये पहलू के विषय में इस रूप से स्पष्ट किया है-

“कबीरदास बहुत कुछ अस्वीकार करने का साहस लेकर अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने तत्काल प्रचलित नाना साधन-मार्गों पर अग्र आक्रमण किया है। कबीरदास के इस विशेष दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से हृदयंगम कराने के लिए मैंने उसकी ओर पाठक की सहानुभूति पैदा करने की चेष्टा की है। इसीलिए कहीं-कहीं पुस्तक में ऐसा लग सकता है कि लेखक भी व्यक्तिगत भाव से किसी साधन मार्ग का विरोधी है, परन्तु बात ऐसी नहीं है। जहाँ कहीं भी अवसर मिला है, लेखक ने इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया हैं। फिर भी यदि कहीं पर भ्रम का अवकाश रह गया हो तो वह इस वक्तव्य से दूर हो जाना चाहिए। कबीरदास ने तत्कालीन नाथपंथी योगियों की साधन क्रिया पर भी आक्षेप किया है। यथास्थान उसकी चर्चा की गयी है, पुस्तक के अधिकांश स्थलों में योगी शब्द से इन्हीं नाथपंथी योगियों तात्पर्य है। समाधि के विरुद्ध जहाँ कहीं कबीरदास ने कहा है, वहाँ पर उजड़ी समाधि अर्थ समझना चाहिए।

(3) जायसी की सौन्दर्य चेतन

प्रकृति-सौन्दर्य का वर्णन- जायसी ने वैसे तो पद्मावती के सौन्दर्य वर्णन में अलंकारों के प्रयोग में प्रकृति के पर्याप्त अंगों का उल्लेख किया है। वास्तव में वह प्रकृति के सौन्दर्य का वर्णन है। इसके अतिरिक्त सिंहलद्वीप वर्णन खण्ड में भी प्रकृति के सौन्दर्यभाव पर ध्यान दिया है-

फरे आँब अति सघन सोहाये, औ जस फरे अधिर सिर ना।

कटहर डार पींड सन पाके, बड़हर सो अनूप अति ताके।

खिरनी पाकि खाँड असिमीठी, जामुन पाकि भंवर असि डी।

नरियर कटे, फरी फरहरी, फूरै जानु इन्द्रासन पुरी।

पुनि महुआ चुअ अधिक मिठासू, मधु जस ठीठ, पुहुप जस बासू।

और सिंहलद्वीप की फुलवारी का वर्णन भी प्रकृत के सौन्दर्य के अन्तर्गत ही आता है-

पुनि फुलवारि लागि चहुँपासा, बिरिछ वेधि चन्दन भई बासा।

बहुत झूल फूलीं घनबेली, केवड़ा चम्पा कुन्द चमेली।

नागमती को जो विरह-वर्णन हुआ, वह बारहमासा के अन्तर्गत आता है। इसमें बारहों महीने की प्रकृति की शोभा का वर्णन किया है, यह अलग बात है। इसी प्रकार पद्मावती और रतनसेन के विवाह के बाद जायसी ने ‘बसन्त वर्णन खण्ड’ लिखा है, इसमें भी प्रकृति की शोभा का समावेश है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि जायसी ने मानव-सौन्दर्य और प्राकृतिक सौन्दर्य दोनों का पर्याप्त वर्णन किया है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि जायसी सौन्दर्य के अनुपम चितेरे थे।

जायसी के पद्मावत में मानवीय सौन्दर्य का वर्णन- जायसी ने मानवीय सौन्दर्य के रूप में पद्मावती की माता का वर्णन सबसे पहले किया है। पद्मावती की माता चम्पावती राजा गन्धर्वसेन की पटरानी थी। उसके रनिवास में पद्मिनी श्रेणी की सोलह-सौ रानियाँ थीं। उनमें से कोई भी चम्पावती की समानता नहीं कर सकती थी। उसकी युवा अवस्था के रूप और गुण में कोई भी उसकी समानता नहीं कर पाती थी। वह पलंग पर बैठी रहती थी। सभी रानियाँ उसे नमस्कार करने आती थीं।

बरनौं राजमन्दिर कविलासू, जनु अछरीन भरा कावलासू।

सोरह सहस पद्मिनी रानी, एक-एक तै रूप बखानी।

अति सरूप और अति सुकुँवारी, पानफूल के रहैं अधारी।

तिन्ह ऊपर चम्पावती रानी, महा सुरूप पाट परधानी।

पाट बैठि रह किये सिंगारू, सब रानी ओह करहिं जुहारू।

निति नौरंग सुरंगन सोई, प्रथम बैस नहिं सखी कोई।

सकल दीप महँ जेती रानी, तिन्ह महँ दीपक बारह बानी।

कुँवरि बतीसौ लच्छनी, इस सब माँहे अनूप।

जावत सिंहलदीप  के, सबै बखानें रूप॥

(4) घनानन्द की विहर अनुभूति एवं प्रेम की पीर

रीतिकालीन कविता की बाहरी तड़क-भड़क के बाहर सच्चे प्रेम की पीर को व्यक्त करने वाले घनानन्दजी शाही दरबार से सम्बन्धित होते हुए भी अन्त में विरक्त होकर निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित होकर कृष्ण-भक्त हो गये। इन्होंने अपने को वृन्दावन तथा कृष्ण में तल्लीन कर दिया। इनका जन्म संवत् 1746 और मृत्यु संवत् 1796 में नादिरशाही के समय में हुई। इनके ग्रन्थों में ‘सुजान-सागर’, ‘विरह-लीला’ ‘रसकेलिवल्ली’ इत्यादि प्रसिद्ध हैं। इनकी भाषा विशुद्ध, सरस तथा शक्तिशालिनी ब्रजभाषा होते हुए भी स्वाभाविक, सुव्यवस्थित और स्पष्ट है। लौकिक प्रेम के द्वारा यह अलौकिक प्रेम में तन्मय हुए, क्योंकि सुजान नामक वेश्या से इनका प्रेम-सम्बन्ध था। बाद में इसका व्यवहार उन्होंने कृष्ण के लिए किया। संयोग तथा वियोग का मार्तिक चित्रण प्रेम की दशाओं की व्यंजना तथा भावनाओं की अनूठी अभिव्यक्ति हम इनकी रचना में पाते हैं संयुक्त और क्लिष्ट व्यंजन इनकी रचना में बहुत कम आये हैं, इससे वह और भी श्रुति-सुखद बन गयी है।

अनन्य प्रेम में जड़-चेतन का ध्यान नहीं रहता हैं प्रेम का क्षेत्र ही अतयन्त विशाल हैं। तुलसी के राम भी सीता के विरह में खग, मृग तथा मधुकर स्त्रेनी से इधर-उधर पूछते फिरते थे। ‘मेघदूत’ में कालिदास ने मेघ को दूत बनाया है। इसी प्रकार घनानन्द की नायिका कभी पवन से अपने प्यारे नायक की पग-रज को लाने के लिए विनय करती है तो कभी प्रियतम को अपना स्मरण दिलाने के लिए मेघ से प्रियतम के आँगन में जल को ले जाकर बरसाने को कहती है-

परकाजहिं देह धारै फिरौ, परजन्य जथारथ है दरसौ।

निधिनीर सुधा के समान करौ, सबही विधि सज्जनता सरसौ।

घनआनन्द जीवनदायक हौ, कछू मेरियौं पीर हियें परसौ।

कबहूँ वा विसासी सुजान के आँगन, मो असुआनहिं लै बरसौ॥

हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!