इतिहास

कायथा की ताम्र पाषाणिक संस्कृति | मध्यभारत की ताम्र पाषाणिक संस्कृति

कायथा की ताम्र पाषाणिक संस्कृति | मध्यभारत की ताम्र पाषाणिक संस्कृति

कायथा या मध्यभारत की ताम्र पाषाणिक संस्कृति

उज्जैन से पूर्व दिशा में लगभग 25 किमी की दूरी पर चम्बल नदी की सहायक काली सिन्धु नामक सरिता के दाहिने तट पर कायथा (239,30′ उ० अक्षांश 7601 00′ पू० देशान्तर) का पुरास्थल स्थित है। सम्भवतः इसी पुरास्थल को प्राचीन भारतीय वाहङ्मय में वराहमिहिर की जन्मभूमि ‘कपित्थक’ के नाम से अभिहित किया गया है। उत्खनन के फलस्वरूप कायथा में पाँच पुरातात्त्विक संस्कृतियाँ प्रकाश में आई हैं जिनमें से तीन लोहे के ज्ञान के पूर्व की ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियाँ हैं। इस पुरास्थल के सबसे निचले स्तरों से उपलब्ध पुरावशेष कायथा संस्कृति से सम्बन्धित हैं। यद्यपि इस क्षेत्र की प्राचीनतम ताम्र-पाषाणिक संस्कृति कायथा से ही प्राप्त हुई थी तथापि वाकणकर द्वारा किये गये सर्वेक्षण के फलस्वरूप अभी तक लगभग चालीस अन्य पुरास्थल प्रकाश में आ चुके हैं।

नर्मदा और उसकी सहायक ताप्ती एवं माही और यमुना की सहायक चम्बल तथा बेतवा द्वारा सिंचित मालवा का पठार मध्य प्रदेश के अन्तर्गत आता है। इस क्षेत्र के ताम्र-पाषाणिक प्रमुख पुरास्थलों में त्रिपुरी (जिला जबलपुर), एरण (जिला सागर), उज्जैन (जिला उज्जैन तथा कायथा (जिला उज्जैन) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। कायथा की ताम्र-पाषाणिक संस्कृति को भारतीय पुरातत्त्व के इतिहास में प्रतिस्थापित करने का श्रेय वी०एस०वाकणकर को है। सन् 1964 में कायथा के इस पुरास्थल की खोज तथा 1965-67 में उत्खनन-कार्य का संचालन वाकणकर ने किया था।

मृद्भाण्ड परम्पराएँ- 

कायथा संस्कृति की प्रमुख तीनों मृद्भाण्ड परम्पराएँ चाक-निर्मित हैं। प्रथम प्रकार की पात्र-परम्परा की मजबूत तथा पतली गढ़न, भूरे रंग की है जिसके पात्रों पर बारी से लेकर गर्दन तक अथवा यदा-कदा सम्पूर्ण ऊपरी सतह तक लाल अथवा भूरे रंग का गाढ़ा प्रलेप (Slip) मिलता है। इसी प्रलेप के ऊपर बैंगनी रंग के रेखाचित्र बने हुए प्राप्त होते हैं। प्रमुख पात्र प्रकारों में हॉड़ियों, तसलों, कटोरों, घड़ों तथा संग्रह के लिए प्रयुक्त मटकों का उल्लेख किया जा सकता है। बहुसंख्यक पात्रों की पेंदी में वलयाकार आधार मिलता है।

द्वितीय मृद्भाण्ड-परम्परा पाण्डु रंग (Buff Ware) की है जिसका निर्माण अच्छी तरह से तैयार की गई मिट्टी से किया गया है। बर्तन पतले तथा सुन्दर गढ़न के हैं। पात्रों पर लाल रंग से चित्रण अभिप्राय सँजोये गए हैं। प्रमुख ज्यामितीय अलंकरणों में पाश (Loops) बंदनवार (Festoons) जालीदार हीरक एवं तिरछी रेखाएँ आदि हैं। मध्यम आकार के लोटों के अतिरिक्त घड़े तथा तसले अन्य प्रमुख प्रकार हैं।

कायथा ताम्र-पाषाणिक संस्कृति की तीसरी पात्र-परम्परा अनलंकृत लाल रंग की मृद्माण्ड परम्परा (Plain Red Ware) है जिसमें किसी प्रकार के प्रलेप अथवा घोल (Wash) का प्रयोग नहीं किया गया है। कंघी की तरह के किसी उपकरण से इस पात्र-परम्परा के बर्तनों को आरेखित किया गया है। लहरदार तथा रेखांकन युक्त सीढ़ियाँ, हीरक एवं त्रि-अरी (Chevron) आदि आकृतियाँ बर्तनों के केवल कंधे के आस-पास आरेखित मिलती हैं। कटोरे(Bowls) तथा तसले (Basins) प्रमुख पात्र-प्रकार हैं।

इनके अतिरिक्त हस्त-निर्मित रुक्ष मिट्टी के लाल तथा भूरे रंग के बर्तन भी मिलते हैं जिनके ऊपर आरेख एवं चिपकवाँ विधि के अलंकरण-अभिप्राय सँजोये गए हैं। कभी-कभी इन बर्तनों के निचले आधार को खुरदुरा भी किया जाता था।

कायथा संस्कृति के मृद्भाण्डों पर मिलने वाले बहुत से अलंकरण-अभिप्राय आमरी, कोटदीजी और कालीबंगा आदि पुरास्थलों के प्राक्-सैंधव स्तरों से उपलब्ध पात्र-परम्पराओं के चित्रण-अभिप्रायों से मिलते-जुलते हैं। दोनों पोत्र-परम्पराओं में केवल बर्तन के कंधे के आस-पास आरेख मिलते हैं लेकिन कायथा संस्कृति के पात्रों पर प्राप्य आरेखन बहुत गहरे नहीं हैं।

उपकरण तथा अन्य पुरावशेष-

कायथा संस्कृति के लोग ताम्र तथा कांस्य धातुओं से परिचित थे। उत्खनन के फलस्वरूप एक मकान से प्राप्त एक घड़े में ताँबे की दो कुल्हाड़ियां मिली हैं जिनका निर्माण साँचे में ढाल कर किया गया था। इनके अतिरिक्त अट्ठाईस चूड़ियाँ मिली हैं। अगेट (गोमेद), कार्नेलियन, क्रिस्टल (स्फटिक) के क्रमशः 160 और 175 मनकी वाले दो हारों की गणना महत्त्वपूर्ण पुरावशेषों में की जा सकती है। एक घड़े से प्राप्त स्टियटाइट(Steatite) के 40,000 छोटे-छोटे मनकों (Micro-beads) का उल्लेख विशिष्ट पुरानिधियों के रूप में कर सकते हैं। ब्लेड, बेधक, चान्द्रिक आदि लघु पाषाण उपकरणों का भी इस पुरास्थल पर प्रचलन था।

मकान-

यद्यपि कायथा के निचले स्तरों पर उत्खनन का क्षेत्र अधिक विस्तृत नहीं था तथापि इस बात के संकेत प्राप्त हुए हैं कि कायथा संस्कृति के लोग लकड़ी के खम्भे गाड़ कर गोल तथा चौकोर मकान बनाते थे। मकानों की दीवाले बाँस बल्लियोंके टट्टरों से निर्मित होती थीं जिनको मिट्टी के गाड़े प्रलेप से लीप-पोत कर अभीष्ट स्वरूप दिया जाता था। छाजन संभवतः घास-फूस का होता था।

इस प्रकार मालवा में कायथा संस्कृति के लोग इस क्षेत्र के पहले निवासी थे जिन्होंने मकान बना कर स्थायी रूप से यहाँ पर रहना प्रारम्भ किया। चाक निर्मित चित्रकारी से युक्त विकसित पात्र-परम्पराओं, तांबे के उपकरणों तथा मनको आदि के प्रचलन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कायथा संस्कृति का विकास मालवा की भूमि पर नहीं हुआ था अपितु समुन्नत तकनीक के साथ इस संस्कृति के लोग कहीं बाहर से आकर मालवा के क्षेत्र में बस गए थे।

कालानुक्रम-

कायथा संस्कृति के अन्त के बाद यह पुरास्थल कुछ समय तक वीरान रहा क्योंकि इस काल के निक्षेप के ऊपर 15-20 सेमी मोटा पुरावशेष रहित स्तर मिलता है। कायथा के प्रथम सांस्कृतिक काल से तीन रेडियो कार्बन तिथियाँ उपलब्ध हैं। टी०एफ० 680 के अनुसार 3850 + 90 (3965 + 100) बी०पी० अथवा 2150+100 ई०पू० रेडियो कार्बन तिथि है। टी०एफ० 678 के अनुसार 3530 + 100 (3635 + 100) बी०पी० या 1685 + 100 ई०पू० और टी०एफ०-405 की तिथि 3320 + 100 (3413 + 100) बी०पी० अथवा 1463 + 100 ई०पू० है। इन तिथियों में एक मानक विचलन जोड़ कर कायथा के प्रथम सांस्कृतिक काल का कालानुक्रम 2000 ई०पू० से 1800 ई०पू० के मध्य निर्धारित किया जा सकता है।

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Pankaja Singh

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