मानव संसाधन प्रबंधन

कार्य- मूल्यांकन से आशय | कार्य-मूल्यांकन की विभिन्न पद्धतियाँ | विभिन्न पद्धतियों का मूल्यांकन

कार्य- मूल्यांकन से आशय | कार्य-मूल्यांकन की विभिन्न पद्धतियाँ | विभिन्न पद्धतियों का मूल्यांकन | Meaning of job appraisal in Hindi | Different Methods of Job Appraisal in Hindi | evaluation of different methods in Hindi

कार्य- मूल्यांकन से आशय

कार्य मूल्यांकन क्या है?

(What is Job Evaluation?)

किसी संगठन में कार्यों के लिये भुगतान करते हैं, व्यक्तियों के लिये नहीं” हम इस कथन से पूर्णरूप से सहमत हैं। इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि कार्य-मूल्यांकन द्वारा कार्यों के लिये भुगतान की व्यवस्था की जाती है तथा भुगतान व्यक्तियों के लिये नहीं किया जाता है। दूसरे शब्दों में उपरोक्त कथन निम्नलिखित तथ्यों की ओर संकेत करता है-

सेविवर्गीय प्रबन्ध के क्षेत्र में कार्य-मूल्यांकन को सामान्य एवं विशिष्ट दो अर्थों में लिया गया है। अल्फेर्ड एवं बीटी के अनुसार कार्य-मूल्यांकन का सामान्य अर्थ यह है-“कार्य- मूल्यांकन से आशय मजदूरी एवं प्रशासन के सम्पूर्ण क्षेत्र से है।” किन्तु कार्य- मूल्यांकन का विशिष्ट अर्थ-कार्य-मूल्यांकन का आशय “कार्य दरों के निर्वारण” से होता है। विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गयी प्रमुख परिभाषायें निम्नलिखित है-

(1) फिलिप्पो के अनुसार-“कार्य-मूल्यांकन अन्य कार्यों की तुलना में एक कार्य विशेष के मूल्य को निर्धारित करने की व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध प्रक्रिया है।”

(2) मारिस बी0 कमिंग के अनुसार- “कार्य मूल्यांकन प्रत्येक कार्य का सम्पूर्ण संगठन के अन्य कार्यों की तुलना में मूल्यांकन करने की तकनीक है।”

(3) किम्बाल एवं किम्बाल के अनुसार- “किसी संयंत्र में प्रत्येक कार्य का सापेक्षिक मूल्य मालूम करने तथा ऐसे कार्य के लिये उचित आधारभूत मजदूरी का पता लगाने का प्रयत्न ही कार्य-मूल्यांकन है।”

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि, “प्रत्येक कार्य के लिये दी जाने वाली मजदूरी वेतन या पारिश्रमिक का निर्धारण करना ही कार्य-मूल्यांकन है।”

कार्य-मूल्यांकन की विभिन्न पद्धतियाँ

(Various Methods of Job-Evaluation)

कार्य मूल्यांकन तकनीक का मुख्य उद्देश्य विभिन्न कार्यों का मूल्यांकन करना है। इस कार्य के लिये चार मुख्य पद्धतियाँ अपनायी जाती हैं-

(1) श्रेणी विभाजन पद्धति (The Ranking Method)

यह पद्धति कार्य-मूल्यांकन की सबसे प्राचीन पद्धति है। इस पद्धति के अनुसार सम्पूर्ण संगठन के समस्त कार्यों को उनकी उपयोगिता एवं प्रकृति के अनुसार एक क्रम में व्यवस्थित कर दिया जाता है। यह कार्य या तो किसी विश्लेषक द्वारा अथवा किसी समिति द्वारा किया जाता है। तत्पश्चात् उसी क्रम में उनके वेतन-दरों को निश्चित कर दिया जाता है। वेतन-दरों को निश्चित करते समय विश्लेषक या समिति कार्य के सम्बन्ध में निम्न बातों को ध्यान में रखती हैं-(i) कार्य की मात्रा, (ii) कार्यों में आने वाली कठिनाइयाँ, (iii) कार्य की नीरसता, (iv) कार्य पर उत्तरदायित्व की सीमा, (v) पर्यवेक्षण की आवश्यकता, (vi) कार्य के लिये ज्ञान व अनुभव तथा (vii) कार्य दशायें।

लाभ- इस पद्धति के प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं-

(i) इसमें क्रम निर्धारण का कोई वैज्ञानिक ढंग नहीं है। कार्य-विश्लेषण नहीं किया जाता है।

(ii) इस पद्धति में समय भी सबसे कम लगता है।

(iii) इस पद्धति में विशेष योग्यता एवं ज्ञान की आवश्यकता नहीं है।

(iv) यह पद्धति छोटी इकाईयों के लिये उपयुक्त है।

दोष- इस पद्धति के प्रमुख दोष इस प्रकार हैं-

(i) इसमें क्रम निर्धारण का कोई वैज्ञानिक ढंग नहीं है। कार्य विश्लेषण नहीं किया जाता है।

(ii) इसमें कार्य का क्रम-मूल्यांकनकर्त्ता अथवा समिति द्वारा निश्चित किया जाता है।

(iii) भृति सम्बन्धी किसी विवाद के उठने पर उसके औचित्य को सिद्ध करने के लिये प्रबन्ध के पास कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता।

(iv) इसमें श्रेणी विभाजन व्यक्तिगत निर्णय के आधार पर होता है, अतः किसी कार्य के प्रति पक्षपात की संभावना बनी रहती है।

(2) कार्य वर्गीकरण पद्धति (The Job Classification Method)

इस पद्धति का उद्गम व विकास श्रेणी पद्धति के दोषों को दूर करने के लिये किया गया। इस पद्धति में प्रत्येक वर्तमान कार्य के लिये कार्य विश्लेषण करके कार्य विवरण व कार्य विनिर्देश तैयार किये जाते हैं। तत्पश्चात् इस बात को ध्यान में रखकर कि किस कार्य में कितना लिपिकीय, कितना प्रशासकीय एवं कितना क्रियात्मक कार्य सम्मिलित है, कार्य की श्रेणियों या वर्ग (Classes) अर्थात् प्रथम, द्वितीय, तृतीय श्रेणी आदि बना ली जाती है। यह कार्य भी प्रायः समिति द्वारा किया जाता है। इसके पश्चात् श्रेणी के आधार पर उस वर्ग का अधिकतर व न्यूनतम वेतन निश्चित कर दिया जाता है। इस पद्धति का प्रयोग अधिकतर सरकारी कार्यालयों व विभागों में किया जाता है।

लाभ- इस पद्धति के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-

(i) यह पद्धति भी श्रेणी विभाजन पद्धति की भाँति सरल व मितव्ययी है।

(ii) इसके प्रत्येक कार्य का विश्लेषण कार्य विवरण पर आधारित होता है, अतः इस पद्धति में कार्य की कठिनाइयों का अधिक सही मूल्यांकन हो जाता है।

(iii) यदि कार्य-सूची में कोई नया कार्य शामिल करना हो, तो उसे केवल किसी वर्ग से ही सम्बद्ध करना आवश्यक होता है जो कि अपेक्षाकृत कम कठिन कार्य है।

(iv) यह लघु आकारीय उपक्रमों एवं सरकारी कार्यालयों व विभागों के लिये बहुत ही उपयोगी है।

दोष- इस पद्धति में निम्नलिखित कमियां हैं-

(i) कार्य को श्रेणीबद्ध करते समय उसके वर्तमान स्तर का प्रभाव पड़ सकता है, जबकि वह उससे ऊंचे या नीचे वर्ग में रखा जाना चाहिये। इस प्रकार श्रेणीयन ही त्रुटिपूर्ण हो जाता है।

(ii) श्रेणीबद्ध करने में व्यक्तिगत पक्षपात बहुत महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है।

(3) घटकों की तुलना विधि (Factors comparison Method)

इस पद्धति का अविष्कार सन् 1928 में यूजीन बैंग ने किया था, अतः इसे बैंग योजना (Bange Plan) भी कहते हैं। यह पद्धति इस सिद्धान्त पर आधारित है कि प्रत्येक कार्य में कुछ घटक होते हैं, जो विशेष अपेक्षाओं एवं स्थितियों पर निर्भर होते हैं तथा प्रत्येक कार्य का वेतन इन घटकों के आधार पर निश्चित किया जाना चाहिऐ। ये घटक निम्न 5 हैं-

(i) मानसिक अपेक्षायें, (ii) भौतिक अथवा शारीरिक अपेक्षायें, (iii) चातुर्य, (iv) उत्तरदायित्व की सीमा, तथा (v) कार्य दशायें।

लाभ- इस पद्धति के प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं-

इस पद्धति द्वारा सभी कार्यों का सरलता से मूल्याकंन हो जाता है।

इसमें प्रमुख कार्यों की एक सूची रखी जाती है जोकि भविष्य में नये कार्यों का मूल्यांकन करते समय अथवा समिति के निर्णयों को औचित्यपूर्ण ठहराने के लिये काम में लाया जाता है।

दोष- इस पद्धति के निम्नलिखित दोष हैं-

(i) इस सिद्धान्त में गणितीय क्रिया करनी पड़ती है। अतः जटिल होने के कारण श्रमिकों के लिये इसका समझना आसान कार्य नहीं है।

(ii) इसके लिऐ कुशल एवं अनुभवी विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है। अतः प्रबन्ध को अपने विशेषज्ञों पर निर्भर करना होता है।

(iii) प्रत्येक घटक के लिये न्यायोचित भार प्रदान करना एक कठिन कार्य है।

(iv) इसमें समय अधिक लगता है, क्योंकि प्रत्येक कार्य के लिये विभिन्न घटकों से अलग-अलग तुलना करना होता है। इसमें श्रम व धन भी अधिक लगता है।

(4) अंक बिन्दु पद्धति (The Point Method)

इस पद्धति का अधिकार सन 1923 में मेरिल लॉट (Merill Latt) ने किया। वर्तमान में, यह पद्धति सर्वाधिक प्रचलन में है। यह विधि इस मान्यता पर आधारित है कि विभिन्न कार्यों सम्बन्धित घटकों को उनके महत्व के अनुसार अंक प्रदान करना सम्भव होता है। इसके लिए एक मैन्युअल का प्रयोग किया जाता है, जिससे उन समस्त घटकों का उल्लेख होता है जिनके अनुसार कार्य का मूल्याकंन किया जाना है। कार्य को उपकार्यों में भी बाँटा जा सकता है। इसमें प्रत्येक कार्य अथवा उपकार्य में निहित घटकों के लिये उनके महत्व के अनुसार अंक निर्धारित किये जाते हैं। सभी अंकों को जोड़ कार्य का तुलनात्मक चित्र प्रस्तुत करते हैं। अनेक आधार पर अंकों को मौखिक भार देकर वेतनमान निर्धारित कर दिये जाते हैं।

प्रायः प्रत्येक कार्य में निम्नलिखित 5 तत्व अवश्य ही पाये जाते हैं-

(i) भौतिक अपेक्षायें, (ii) मानसिक आवश्यकतायें, (iii) चातुर्य, (iv) उत्तरदायित्व की

सीमा, एवं (v) कार्य दशायें।

लाभ- इस पद्धति के निम्नलिखित लाभ हैं-

(i) इस पद्धति में परिणाम सहज ही प्रकट हो जाते हैं, क्योंकि एक वैज्ञानिक एवं युक्ति संगत पद्धति का प्रयोग किया जाता है।

(ii) एक बार तत्वों का निर्धारण करके अंक बाँट देने से भविष्य में नये कार्यों का मूल्यांकन सरल हो जाता है।

(iii) यह पद्धति बड़े-बड़े औद्योगिक संस्थानों के लिये सर्वाधिक उपयुक्त है।

(iv) यह कार्य-मूल्याकंन का एक वस्तुनिष्ठ अध्ययन प्रस्तुत करती है।

दोष- इस पद्धति में निम्न व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं-

(i) इस विधि में एक अंक पैमाना निश्चित किया जाता है। यदि इसको तैयार करने में थोड़ी भी असावधानी रह जाती है, तो गलती की सम्भावना बनी रहती है।

(ii) यह कार्य का वस्तुनिष्ठ अध्ययन अवश्य प्रस्तुत करती है, लेकिन प्रत्येक कार्य में किसी तत्व की मात्रा निश्चित करने में पक्षपात किया जा सकता है, जोकि एक व्यक्तिगत विभ्रम है।

विभिन्न पद्धतियों का मूल्यांकन

(Evaluation of Various Methods)

कार्य-मूल्याकंन की उपरोक्त चारों विधियों की विवेचना से यह पूर्णयता स्पष्ट है कि इनमें से कोई भी पद्धति दोष-मुक्त नहीं है। अतः किसी भी पद्धति को सर्वश्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता है, लेकिन फिर भी वर्तमान में अंक पद्धति का प्रयोग सर्वाधिक किया जाता है, क्योंकि यह कार्य- मूल्यांकन के लिये एक वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत करती है।

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