मानव संसाधन प्रबंधन

कार्य-मूल्याकंन के उद्देश्य | कार्य-मूल्याकंन के कार्य | कार्य- मूल्याकंन प्रक्रिया में बाधा डालने वाले तत्व | कार्य- मूल्याकंन की सीमायें

कार्य-मूल्याकंन के उद्देश्य | कार्य-मूल्याकंन के कार्य | कार्य- मूल्याकंन प्रक्रिया में बाधा डालने वाले तत्व | कार्य- मूल्याकंन की सीमायें | Objectives of job evaluation in Hindi | Job Evaluation Tasks in Hindi | Factors hindering the job evaluation process in Hindi | Job Evaluation Limits in Hindi

कार्य-मूल्याकंन का महत्वपूर्ण लक्ष्य विभिन्न कार्यों की सापेक्षिक योग्यता का पता. लगाना एवं उनका मूल्य निर्धारण करना है, जिससे कि कर्मचारियों को उचित पारिश्रमिक मिल सके। कार्य-मूल्याकंन द्वारा निर्धारित की गयी वेतन नीति से सामान्य श्रम सम्बन्धों को मधुर बनाया जा सकता है।

कार्य-मूल्याकंन के उद्देश्य एवं कार्य

(Purpose and Function of Job-Evaluation)

कार्य-मूल्याकंन द्वारा मुख्य रूप से निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति की जाती है-

(1) वेतन निर्धारण- कार्य-मूल्याकंन का प्रथम एवं प्रमुख उद्देश्य विभिन्न कार्यों के लिये  वेतन निर्धारण करना है। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, “कार्य-मूल्यांकन पद्धतियों में से  अधिकतर पद्धतियों का उद्देश्य एक संयन्त्र तथा उद्योग में विभिन्न कार्यों के लिये सापेक्ष मूल्य निर्धारण करना है जो तर्क के आधार पर सर्वमान्य हो।” अतः वेतन निर्धारण करने के लिये न्यायोचित प्रमाप निश्चित करना कार्य-मूल्याकंन का प्रथम लक्ष्य है। इसीलिये ही तो हम कहते हैं कि हम कार्यों के लिये भुगतान करते है, मनुष्यों के लिये नही (We pay for jobs not for people)|

(2) अच्छे श्रम सम्बन्धों की स्थापना- अच्छे श्रम सम्बन्धों की स्थापना के लिये वेतनों में निहित असंगति का होना सबसे अधिक खतरनाक है। कार्य-मूल्याकंन द्वारा वेतन दरों एवं उनके पारस्परिक सम्बन्धों को एक ही सिद्धान्त के अनुसार निर्धारित करके श्रम सम्बन्धों में सुधार किया जाता है। “अच्छे औद्योगिक सम्बन्धों के लिये किसी फर्म के सामान्य भृति स्तर का जितना महत्व है उतना ही महत्व विभिन्न कार्यों के लिये दी जाने वाली भृत्तियों व वेतनों के पारस्परिक सम्बन्धों का भी है।”

(3) सूचनाओं व तथ्यों के विभिन्न उपयोग- कार्य-मूल्यांकन के लिये कार्य- विश्लेषण, कार्य वर्गीकरण, सामूहीकरण एवं श्रेणीकरण के द्वारा प्राप्त तथ्यों एवं सूचनाओं का प्रयोग सेविवर्गीय प्रबन्ध की विभिन्न समस्याओं, जैसे- गुण मूल्याकंन, कर्मचारियों का चुनाव, प्रशिक्षण, कार्य-दशायें निर्धारित करने, कार्यभार निष्पादित करने, सरलीकरण, प्रेरणात्मक भृत्ति पद्धति को लागू करने एवं श्रम लागत को नियन्त्रिण करने में प्रयोग किया जा सकता है।

(4) भृत्ति सम्बन्धी विवादों को हल करना- कार्य-मूल्याकंन का मुख्य उद्देश्य कर्मचारियों एवं प्रवन्धकों में वेतन सम्बन्धी भ्रान्ति को दूर करना है, क्योंकि कार्य-मूल्याकंन वेतन निर्धारण का एक तर्क-सम्मत प्रमाप प्रस्तुत करता है, अतः वेतन-सम्बन्धी विवादों को सुलझाने के लिये यह एक ठोस आधार प्रदान करता है।

(5) भृत्ति-दरों में सुधार- यदि किसी तकनीकी परिवर्तन अथवा आविष्कार अथवा संगठन व्यवस्था में परिवर्तन होने के कारण किसी कार्य की प्रकृति, उत्तरदायित्व की सीमा अथवा अन्य घटक में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन होता है, तो उन विभिन्न घटकों के विचरण का मूल्याकंन करके भृत्ति-दरों में आवश्यक संशोधन किया जा सकता है। अतः संशोधन का मुख्य आधार कार्य-मूल्याकंन ही है।

कार्य- मूल्याकंन प्रक्रिया में बाधा डालने वाले तत्व अथवा कार्य- मूल्याकंन की सीमायें

(Limitations of Job- Evaluation or Factors tend to Distort Job-Evaluation)

(1) वैज्ञानिक तकनीकी का अभाव (Lack of Scientific Technique)- कार्य- मूल्याकंन एक वैज्ञानिक तकनीक नही है वल्कि एक व्यवस्थित (Systematic Technique) तकनीक है, अतः इसमें वैज्ञानिक सुस्पष्टता का अभाव है। इस विधि में एक कार्य में निहित विभिन्न घटकों की प्रमापित माप सम्भव नहीं है। पर्याप्त सावधानी बरतने पर भी बहुत-सी बातें अंसगतियाँ रह ही जाती है जोकि बाद में विवाद का कारण बन सकती हैं।

(2) कार्य की प्रकृति (Nature of Job)- कार्य-मूल्याकंन करते समय यह मान लिया जाता है कि एक-सी योग्यता या प्रकृति वाले कार्यों के लिए एक ही दर पर पारिश्रमिक मिलना चाहिये, लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं होता है। कुछ कार्यों में प्रगति के अवसर अधिक होने पर श्रमिक कम पारिश्रमिक पर भी आकर्षित हो सकते हैं। इसी प्रकार उपक्रम के बाहर किसी विशेष कार्य में रोजी की सम्भावनायें अधिक होने के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें अपने ही उपक्रम में रोकने के लिये अधिक दर से मजदूरी दी जाये। इसीलिये यह तकनीकी पेशेगत कार्यों जैसे इन्जीनियरिंग व प्रबन्धकीय आदि के लिये उचित नहीं है।

(3) आन्तरिक असंगतियों पर बल (More Reliance on Internal Standard ) – कार्य-मूल्याकंनकर्त्ता प्रायः बाह्य विसंगतियों को ध्यान में नहीं रखते। उनके अनुसार कार्य- मूल्याकंन का उद्देश्य कार्य का मूल्याकंन है न कि भृत्ति नीतियों का निर्माण करना। भृत्ति नीति- निर्माण में तो कार्य-मूल्याकंन एक सहायक यन्त्र के रूप में प्रयोग किये जाने चाहिये एक आधार के रूप में नहीं।

(4) मूल्याकंनकर्त्ताओं की सीमायें (Limitations of Evaluation)- कार्य-मूल्याकंन करते समय मूल्यांकनकर्ताओं की शिक्षा, अनुभव व योग्यता का भी प्रभाव पड़ता है। यदि मूल्यांकनकर्त्ता कार्य का श्रेणीयन, कार्य-मूल्याकंन करने के नियम एवं सिद्धान्तों से परिचित नहीं है, तो वह उनका मूल्यांकन भी उचित रूप से नहीं कर सकता है। इसके अतिरिक्त यदि वह किसी कार्य के सम्बन्ध में पक्षपाती है, तो वह अन्य कार्यों की अपेक्षा उसको अधिक भार देगा।

(5) कर्मचारियों द्वारा विरोध (Opposition by Workers) – इस पद्धति द्वारा सिद्धान्तों के आधार पर मूल्यांकन किया जाता है, उसके परिणामों पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता। इसके अतिरिक्त मजदूरी निश्चित करने में श्रम-संघों की राय नहीं ली जाती है इससे उनकी सामूहिक सौदेबाजी की शक्ति क्षीण हो जाती है। अतः वे इस पद्धति का विरोध करते हैं।

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Pankaja Singh

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