इतिहास

जर्मनी में नात्सी अधिनायक तंत्र की स्थापना | जर्मनी में नात्सी अधिनायक तंत्र का उदय

जर्मनी में नात्सी अधिनायक तंत्र की स्थापना | जर्मनी में नात्सी अधिनायक तंत्र का उदय

जर्मनी में नात्सी अधिनायक तंत्र की स्थापना

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ही जर्मनी में राजसत्ता के विरुद्ध विद्रोह होने लग गये थे। युद्ध के अन्तिम दिनों में जर्मन जनता के कष्ट बहुत बढ़ गये थे। अभी तक तो विजय की आशा में वह इन कष्टों को सह रही थी, किन्तु जब जर्मनी पराजित होने लगा, तो उनका धैर्य टूट गया। सम्राट विलियम द्वितीय, इस स्थिति को नियंत्रित करने में असमर्थ था। अतः 10 नवम्बर, 1918 को वह सिंहासन त्याग कर हॉलैंड चला गया। सम्राट द्वारा राजसिंहासन त्याग देने से स्थिति और भी गम्भीर हो गयी।

इसी दिन बर्लिन में एक जबरदस्त क्रान्ति हो गयी। इस क्रान्ति ने न तो किसी लेनिन को जन्म दिया और न किसी जर्मन नागरिक ने राष्ट्र गीत की रचना की। यह पूर्णतः जर्मन क्रान्ति थी, जो अनुशासित, स्वयं नियंत्रित, सम्मानित और शिष्ट मध्य वर्ग की क्रान्ति थी। इन्होंने शीघ्र ही जर्मनी को एक गणराज्य घोषित कर दिया । जर्मन चांसलर प्रिंस मेक्स के लिए स्थिति सम्भालना कठिन था, अत: उसने समाजवादी नेता फ्रेडरिक एबर्ट को, जो सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी का अध्यक्ष था, शासन सौंप दिया। उसने एक सामयिक सरकार की स्थापना की। एवर्ट की सरकार ने 11 नवम्बर, 1918 को युद्ध विराम संधि पर हस्ताक्षर करके प्रथम विश्वयुद्ध का अन्त किया।

संविधान सभा का निर्वाचन-एबर्ट की सरकार का जर्मनी में विरोध किया जा रहा था। एक ओर राजसत्तावादी थे, जो जर्मनी में पुनः राजतंत्र की स्थापना का प्रयास कर रहे थे, तो दूसरी ओर जर्मन साम्यवादी लोग देश में रूसी साम्यवादी व्यवस्था के अनुरूप शासन की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे।

क्रेडरिक एबर्ट की सरकार ने राष्ट्रीय संविधान सभा के निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ की। उसने 19 जनवरी, 1919 को राष्ट्रीय संविधान सभा के निर्वाचन की घोषणा की। निश्चित तिथि को निर्वाचन कराया गया, जिसमें कई राजनीतिक दलों ने भाग लिया। चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर सम्पन्न हुआ, जिसमें 3 करोड़ मतदाताओं ने भाग लिया। संविधान सभा के 421 स्थानों में से “सोशल डेमोक्रेटिक” दल को सर्वाधिक 163 स्थान प्राप्त हुए । “कैथोलिक सेन्टर पार्टी” के 38, डेमोक्रेटिक दल के 75, नेशनलिस्ट दल के 42, स्वतंत्र समाजवादी दल के 22 और पीपुल्स पार्टी के 21 सदस्य निर्वाचित हुए। शेष 10 स्थान, 4 अल्पसंख्यक दलों को प्राप्त हुए। इस प्रकार किसी भी दल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ।

अन्तरिम सरकार-

इस सभा का प्रथम अधिवेशन वाइमर (Weimar) नामक स्थान पर हुआ। सभा का कार्य आरम्भ होने से पूर्व एबर्ट की अस्थायी सरकार ने त्यागपत्र दे दिया। चुनाव में किसी भी दुल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था, अत: सोशल डेमोक्रेटिक दल ने, सेन्टर पार्टी एवं डेमोक्रेटिक दल के साथ मिलकर एक अन्तरिम सरकार’ गठित की। इसे ‘वाइमर संघट्ट के नाम से जाना जाता है। इस सभा ने फ्रेडरिक एबर्ट को गणतंत्र का प्रथम राष्ट्रपति चुना तथा उसके सहयोगी फिलिप शीडमेन को प्रधानमंत्री बनाया गया। संविधान का मसौदा अस्थायी सरकार के गृहमंत्री ह्यगो घूस (Hugo Preuss) द्वारा तैयार किया गया। जर्मनी के सभी दलों ने इसे स्वीकार किया था।

वाइमर संविधान-

नवीन संविधान के अनुसार जर्मन साम्राज्य (राइख) 18 संघीय राज्यों का गणतंत्रीय संघ माना गया। जर्मन जनता को राज्य की प्रभुसत्ता का स्रोत माना गया और 20 वर्ष से अधिक आयु के सभी स्त्री-पुरुषों को मताधिकार प्रदान किया गया। एक अधिकार पत्र के द्वारा नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, भाषण और लेखन की स्वतंत्रता तथा धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की गई। प्रधानमंत्री तथा उसके मंत्रिमण्डल को राइखस्टेग या लोकसभा के प्रति उत्तरदायी बनाया गया। मित्रराष्ट्रों के साथ संधि करने का काम सबसे अधिक दुःखदायी सिद्ध हुआ। मई के मध्य में जब वर्साय की संधि की शर्ते जर्मनी सरकार को प्राप्त हुई, तो उसके विरुद्ध जर्मनी के सभी राजनीतिक दलों में बड़ा रोष व्यक्त किया गया। प्रधानमंत्री शोडमेन ने बड़े आवेश में कहा था- वह कौन सा हाथ है, जो इस प्रकार की संधि पर हस्ताक्षर करने से झुलस नहीं जायेगा।” मार्शल हिन्डेनबर्ग तथा कुछ अन्य भूतपूर्व सेनाध्यक्ष तो पुनः युद्ध आरम्भ करने का विचार करने लगे किन्तु जर्मनी पुनः युद्ध करने की स्थिति में नहीं था ऐसी विषम स्थिति में भी संविधान सभा संविधान बनाने का कार्य करती रही। 31 जुलाई, 1919 को राष्ट्रीय सभा ने संविधान के अंतिम प्रारूप को 75 के मुकाबले 262 मतों से पारित कर दिया और 14 अगस्त, 1919 से उसे लागू किया गया।

इस संविधान के अनुसार कार्यपालिका का अध्यक्ष राष्ट्रपति को बनाया गया। संसद के निर्वाचित बहुसंख्यक दल से राष्ट्रपति को अपना मंत्रमण्डल चुनने का अधिकार दिया गया। राष्ट्रपति के कार्यकाल की अवधि 7 वर्ष निर्धारित की गई। वह जल, थल तथा वायु सेना का प्रधान सेनापति भी होता था।

वैदेशिक मामलों में उसे निर्णायक अधिकार प्रदान किये गये। उसके साथ एक मंत्रिपरिषद् रखी गयो, जो कि लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती थी। संसद के दो सदन रखे गये। प्रथम, लोकसभा या राइखस्टेग जिसका निर्वाचन 4 वर्ष के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर किया जाता था तथा दूसरा सदन, राज्यपरिषद् या राइखसाटा (रिहस्टेग) जिसमें संघ के 18 राज्यों के प्रतिनिधियों को स्थान दिया गया था। प्रत्येक राज्य को कम से कम एक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार था। किन्तु बड़े राज्यों को उनकी जनसंख्या के आधार पर अतिरिक्त, प्रतिनिधि भेजने की व्यवस्था थी। गणतंत्र के अंतिम वर्षों में राइखसराट के सदस्यों को संख्या 66 थी। इस सभा के अधिकार सीमित थे और उसका मुख्य कार्य ब्रिटेन की लार्ड सभा के समान, लोकसभा की जल्दबाजी पर रोक लगाना था। इस प्रकार वाइमर संविधान संसार का एक अच्छा संविधान था।

वाइमर गणतंत्र की समस्याएं

जर्मनी के लिए संविधान तो बन गया था लेकिन अगले कुछ वर्षों तक उसको अत्यन्त कठिन समस्याओं का सामना करना पड़ा। वाइमर गणतंत्र की कठिनाइयों को केटलबी ने इन शब्दों में व्यक्ति किया है-“लगभग 12 वर्ष तक वाइमर गणराज्य की समाजवादी लोकतंत्रात्मक सरकार प्रयत्नपूर्वक देश की नैतिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं से लड़ती रही। एक ओर जर्मनी के लोग असंगठित् थे, निराश थे, कष्टकारी अवस्था में थे तथा खिन्न थे, जिन्हें संसदीय शासन के प्रति न तो मोह था और न जिसका उन्हें कोई अनुभव ही जो, दलीय व्यवहार की कठिनाइयों से सर्वथा अपरिचित थे।”

इसके अतिरिक्त भयंकर मुद्रास्फीति के कारण साधारण व्यक्ति की आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ गयी थी और मुद्रा स्फीति के साथ-साथ उद्योगों में भी व्यापक अराजकता छायी हुई थी। जर्मन मुद्रा की कीमत गिरती जा रही थी। पहले एक पौण्ड की विनिमय दर 20 मार्क थी। दिसम्बर, 1921 में एक पोण्ड 700 मार्क के बराबर हो गया। अगस्त 1922 में 3000 मार्क के बराबर तथा दिसम्बर, 1922 में 34,000 मार्क के बराबर हो गया। जर्मनी ने अपनी शोचनीय आर्थिक स्थिति के कारण मित्रराष्ट्रों से दो वर्ष तक क्षतिपूर्ति न लेने का अनुरोध किया, किन्तु फ्रांस, बेल्जियम, इटली ने उसके अनुरोध को ठुकरा दिया। यही नहीं, जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में नये और हिंसक प्रयोग किये जा रहे थे। कुछ उग्रपंथी दल, जिनमें साम्यवादी प्रमुख थे, प्रारम्भ से ही गणतंत्र के विरोधी थे। इसके अतिरिक्त राजसत्तावादी, सैन्यवादी एवं अन्य दक्षिण पक्षीय दल भी गणतंत्र को समाप्त करना चाहते थे।

गणतंत्रीय सरकार ने यद्यपि साम्यवादियों का मन करने में सफलता प्राप्त की थी किन्तु देश में बढ़ती हुई बेरोजगारी और मुद्रा-स्फीति के कारण बढ़ते हुए मूल्यों को रोकने में वह असफल रही। ऐसी स्थिति में 13 मार्च, 1920 को डॉ० वूल्फांग वान केप (Wolfgang Von Capp) तथा वाल्थर वान लुतवित्स ने गणतंत्रीय सरकार को पलटने का असफल प्रयास किया। सरकार ने जनता के सहयोग से इस विद्रोह को दबा दिया। किन्तु इस असफलता से साम्यवादियों का उत्साह कम नहीं हुआ। 1923 ई० में जनरल ल्यूडेनडोर्फ के नेतृत्व में म्यूनिख नगर में राजसत्तावादियों ने गणतंत्र को नष्ट करने के लिए एक दूसरा प्रयास किया, इसमें हिटलर भी उनके साथ था। लेकिन यह प्रयल भी असफल रहा। ल्यूडेनडोर्फ और हिटलर को गणतंत्रवादियों ने गिरफ्तार कर दण्डित किया।

लेकिन इस समय जर्मन गणतंत्र के सामने सबसे विकट समस्या आर्थिक संकट की थी । प्रथम विश्वयुद्ध में उसे काफी क्षति पहुंची थी। उसके कई कारखाने बंद हो गये तथा बेकारों की संख्या भी बहुत बढ़ गई । साथ ही क्षतिपूर्ति की बड़ी रकम उस पर गयी। जर्मनी के कई छोटे-बड़े औद्योगिक नगर उससे छीन लिए गए, थे जिससे समस्त थोप दी गयी। जर्मनी के कई छोटे-बड़े औद्योगिक नगर उससे छीन लिए गए, थे जिससे समस्त जर्मन व्यापार चौपट हो गया था।

इस समय अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में जर्मनी के साथ अछूतों जैसा व्यवहार हो रहा था। वर्साय संधि के द्वारा उसे घोर अपमान सहन करना पड़ा। उस पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाये गये। अन्त में 1925 ई० लोकानों संधि के द्वारा फ्रांस और जर्मनी के बीच तनाव कम हुआ। इससे जर्मनी की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति में सुधार हुआ। 1926 ई० में जर्मनी को राष्ट्रसंघ का सदस्य भी बना लिया गया। वस्तुतः लोकानों समझोता सम्पन्न करना तथा जर्मनी का राष्ट्र संघ में प्रवेश, स्ट्रेसमान की विदेश नीति की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि मित्रराष्ट्रों का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास करते हुए भी उसने रूस और जर्मनी की मित्रता को बनाये रखा, जबकि मित्रराष्ट्रों को साम्यवादी रूस फूटी आँख नहीं सुहाता था।

लेकिन जर्मनी की कठिनाइयों का अभी अन्त भी नहीं हुआ था कि 1929 ई० में विश्वव्यापी आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया । जर्मनी पर इसका बहुत गहरा असर पड़ा। कई कारखाने बन्द करने पड़े। लाखों श्रमिक बेरोजगार हो गये। ऐसी स्थिति में क्षतिपूर्ति की किस्त चुकाना उसके लिए असम्भव था। अमेरिका ने भी इस स्थिति में ऋण देना अस्वीकार कर दिया। इससे जर्मनी की स्थिति और अधिक बिगड़ गयी। हिटलर का अभ्युदय तथा जर्मनी में नात्सी क्रान्ति इसी ऐतिहासिक पृष्ठधारा में हुई थी।

हिटलर एवं नात्सी दल का उत्कर्ष-

नेशनल सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष एडोल्फ हिटलर का जन्म 20 अप्रैल, 1889 को आस्ट्रिया के एक छोटे शहर वानो में एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। बचपन से ही वह उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहता था किन्तु गरीबी के कारण यह सम्भव नहीं हुआ। हिटलर के सम्बन्ध, न तो अपने पिता से अच्छे थे और न अपने अध्यापकों से | 1908 ई० में वियना की ललित कला अकादमी में प्रवेश न मिलने के कारण उसने मकानों पर रंग-रोगन करने का काम शुरू किया। जब कभी भी उसकी नौकरी छूट जाती थी (बहुधा ऐसा होता रहता था), तब वह इसके लिए यहूदियों व समाजवादियों को दोष देता था। प्रथम विश्वयुद्ध के समय वह साधारण सैनिक के रूप में जर्मन सेना में भर्ती हो गया। सैनिक के रूप में उसने बड़ी बहादुरी और कर्तव्यपरायणता से काम किया। 1918 ई० में उसे वीरता के लिए प्रथम श्रेणी का आयरन क्रास (Iron gross, First class) प्रदान किया गया। युद्ध के अन्तिम महीनों में जब वह घायल होकर सैनिक अस्पताल में पड़ा हुआ था, तभी उसे जर्मनी की पराजय और उसके पश्चात् कैसर विलियम के सिंहासन परित्याग तथा जर्मनी में नई गणतंत्रीय सरकार की स्थापना के समाचार मिले जिससे उसको बड़ा आघात लगा। सैनिक अस्पताल से निकल कर राजनीति में प्रवेश करने का दृढ़ निश्चय करके, हिटलर पुनः म्यूनिख पहुँचा। मई, 1919 में, हिटलर को क्षेत्रीय सेना के अन्तर्गत सूचना एवं प्रसारण विभाग में कार्य करने का अवसर मिला। उसका मुख्य कार्य विभिन्न राजनीतिक दलों की गतिविधियों की सूचना उच्च अधिकारियों को देना तथा समाजवादी विचारों के प्रचार को रोकना था। इसी सिलसिले में वह एन्टन ड्रेक्सलर द्वारा स्थापित, ‘जुर्मन वर्क्स पार्टी के सम्पर्क में आया। इस पार्टी की स्थापना 1918 ई० में की गयी थी और इस समय इसके सदस्यों की संख्या केवल 20-25 थी। हिटलर ने इस पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और उत्साह से पार्टी की सदस्य संख्या को बढ़ाने हेतु कार्य करने लगा। अप्रैल, 1920 में इस पार्टी का नाम बदल कर “राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन श्रम दल” या संक्षेप में ‘नाजी दल’ रख दिया गया। इसी वर्ष उसने दल के संस्थापक ड्रेक्सलर को दल से निष्कासित करवा दिया और सम्पूर्ण शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित कर ली। उसने हेस, गोरिंग, राजनवर्ग, गोबल्स आदि लोगों की सहायता से दल को शक्तिशाली बनाया । उसके प्रयासों से लोग इस दल की ओर आकर्षित होने लगे। इस दल का अपना विशेष प्रतीक चिन्ह ‘स्वस्तिक अपना गीत अपना अभिवादन अपने नारे और अपनी रैलियां थीं। मुसोलिनी की तरह हिटलर की भी अपनी निजी सेना थी, भूरी कमीज वाली (Brown Shirt) | इनका मुख्य कार्य प्रदर्शन करना, दलीय सभाओं की रक्षा करना तथा विरोधी दलों, विशेषकर, सोशल डेमोक्रेट और साम्यवादियों की सभाओं को बलपूर्वक भंग करना था। एक विशेष सैनिक दस्ता उसकी रक्षा के लिए था, जो खोपड़ी के चिन्ह वाली काली कमीज (Black shiri) पहनता था। 1923 ई० में हिटलर और जनरल ल्यूडेनफोर्ड के नेतृत्व में नाजी लोग जर्मन गणतंत्र का तख्ता पलटने का असफल प्रयास कर चुके थे। हिटलर के इस प्रयल के कारण उसे जेल जाना पड़ा। उसने कारावास की अवधि का उपयोग ‘मीन कैम्फ’ (Mein Kampa नामक पुस्तक लिखने में किया। हिटलर के अधिनायक बनने के बाद इस पुस्तक को पढ़ना प्रत्येक नागरिक के लिए आवश्यक हो गया। मीन कैम्फ वस्तुतः नाजी जर्मनी का निर्माण करने के लिए और संसार पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए हिटलर का कार्यक्रम था।

नात्सी दल का पुनर्गठन तथा विस्तार-

यद्यपि हिटलर को पाँच वर्ष के कारावास की सजा दी गयी थी परन्तु वह 1924 ई० के अन्त में ही मुक्त कर दिया गया। उस समय नात्सी दल की स्थिति अच्छी नहीं थी। नवम्बर, 1923 में उसके दल को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया था। उसकी अनुपस्थिति में दल के सदस्यों में मतभेद उत्पन्न हो गया। 1925 से 1929 ई० तक वह अपने विचारों के आधार पर अपने दल को संगठित एवं विस्तृत करने का प्रयास करता रहा। सर्वप्रथम, उसने ऐसे सभी लोगों, जो उसके नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी, को नाजी पार्टी से निष्कासित कर दिया। इससे नाजी दल पर उसका व्यक्तिगत नियंत्रण मजबूत हो गया। दूसरा काम था सशस्त्र सैनिक दलों का गठन, जिसकी दो शाखायें थीं। प्रथम शाखा आक्रामक सशस्त्र दलों की थी, जिन्हें एम० ए० के नाम से सम्बोधित किया जाता था। इन टुकड़ियों के सदस्य भूरे रंग की कमीज पहनते थे तथा अपनी बाहो पर स्वस्तिक चिन्ह वाले पट्टे लगाते थे। इनका मुख्य कार्य था प्रदर्शन करना, दलीय सभाओं की रक्षा करना तथा विरोधी दलों की सभाओं को बलपूर्वक भंग करना।

दूसरी शाखा, सुरक्षा सैनिकों की थी, जिसे एस. एस. (Schuiz Stafflen) कहा जाता था। इसमें कुछ चुने हुए सैनिक थे, जो खोपड़ी के चिन्हू वाली काली कमीज पहनते थे। ये लोग मुख्य रूप से दलीय नेताओं के अंगरक्षक होते थे और कभी-कभी विशिष्ट कार्यों को सम्पन्न करने के लिए भेजे जाते थे। उसके इस कार्य में उसे प्रमुख सहयोग गोबेल्स (Goebbels), का प्राप्त हुआ। इस समय जर्मनी की स्थिति भी उसके अनुकूल थी। राष्ट्रीय दल के लोग अधिकतर उच्चवर्गीय थे। वर्साय की संधि तथा फ्रांस को संतुष्ट करने की नीति के विरोध में वे उससे सहमत थे। मध्यमवर्ग के लोग, जो 1922-23 ई० के जर्मन आर्थिक संकट में नष्ट हो गये थे और बाद में पनप नहीं सके, आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से सर्वहारा वर्ग में परिणत हो गये थे और राजनीतिक दृष्टि से उग्रवादी बन गये थे। परन्तु वे न तो समाजवादियों में शामिल हो सके क्योंकि उनके विचार में उनके विनाश का एकमात्र कारण वे ही थे और न ही वे साम्यवादियों में शामिल हो सकते थे, जिनके ‘लाल’ अतिवाद् (Extremism) से उन्हें भय लगता था। ऐसे लोगों के लिए नात्सी दल में सम्मिलित होना स्वाभाविक ही था, जो राष्ट्रीय पुनरुद्धार के लिए प्रयत्न कर रहा था, जिसकी सहानुभूति श्रम करके आजीविका कमाने वालों के साथ थी और जो विशेषाधिकारयुक्त वर्गों के प्रतिकूल था। 1928 ई० में नात्सी दल ने केन्द्रीय संगठन की दो शाखाएँ स्थापित की। पहली शाखा का कार्य था, वर्तमान सरकार की नीतियों की आलोचना करना। इस शाखा के अधीन मुख्यतः विदेश विभाग, समाचार-पत्र तथा दलीय कार्यालयों के संगठून का कार्य था। दूसरी शाखा का मुख्य कार्य, नात्सी राज्य की स्थापना के लिए पृष्ठभूमि तैयार करना था। इसके अन्तर्गत कृषि, प्रजाति, गृह, विधि एवं श्रम विभाग थे। प्रचार विभाग का कार्य गोबेल्स को सौंपा गया। हिटलर ने दल की ओर से वाल किश्वर विओवेक्टर (Volkischer Bcobachter) नामक समाचार-पत्र भी प्रकाशित किया। सम्पूर्ण जर्मनी में प्रत्येक स्थान पर नात्सी दल की शाखाएं स्थापित की।

हिटलर ने मध्यम वर्ग के कुछ पूँजीपतियों को भी अपनी ओर आकृष्ट किया। इस समय विश्वव्यापी आर्थिक संकट के कारण गणतंत्र की सरकार की कठिनाइयाँ बढ़ गयी थीं। इसका लाभ भी नात्सी दल को प्राप्त हुआ। हिटलर ने जनता के समक्ष घोषणा की कि जर्मनी की समस्त कठिनाइयों का एकमात्र कारण गणतंत्रीय पद्धति है। उसने जनता को नात्सी दल को समर्थन देने की अपील की और कहा कि वह जर्मनी के राष्ट्रीय सम्मान व् समृद्धिकी पुनर्स्थापना करेगा। मई, 1928 के राइखस्टेग के निर्वाचन में नात्सी दल के केवल 12 सदस्य निर्वाचित हो के प्रयासों से 1930 ई० राइखस्टेग के निर्वाचन में उसके सदस्यों की संख्या 12 से बढ़कर 107 हो गयी। इस निर्वाचन में उसे 64.4 लाख (20 प्रतिशत) मत प्राप्त हुए। यह एक नये दल के लिए महत्वपूर्ण बात थी। मार्च, 1932 में जर्मन राष्ट्रपति के लिए चुनाव हुए। इस पद के लिए तीन उम्मीदवार थे-मौजूद राष्ट्रपति हिन्डेनबर्ग, एडोल्फ हिटलर और साम्यवादी नेता अटै थालमान। हिन्डेनबर्ग को 49.6 प्रतिशत, हिटलर को 30.1 प्रतिशत और थालमान को 13 प्रतिशत मत प्राप्त हुए । यद्यपि इस चुनाव में हिटलर को सफलता प्राप्त नहीं हुई किन्तु उसने 30 प्रतिशत मत प्राप्त किये इससे उसकी लोकप्रियता बढ़ गई । इसी वर्ष संसद के चुनाव में 576 स्थानों में से 230 स्थान नात्सी दल को प्राप्त हुए। बहुमत तो अभी भी प्राप्त नहीं हुआ था किन्तु अन्य दलों के मुकाबले उन्हें सबसे अधिक स्थान प्राप्त हुए थे, हिटलर ने कुछ ही समय में अपनी सर्वसत्तावादी सरकार स्थापित कर ली।

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Pankaja Singh

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