इतिहास

इतिहास में पूर्वाग्रह | इतिहास के सम्बन्ध में यह धारणा है कि यह एक पूर्वाग्रह की विषयवस्तु है

इतिहास में पूर्वाग्रह | इतिहास के सम्बन्ध में यह धारणा है कि यह एक पूर्वाग्रह की विषयवस्तु है

इतिहास में पूर्वाग्रह (Bias in History)

“इतिहास के सम्बन्ध में यह धारणा है कि यह एक पूर्वाग्रह की विषयवस्तु है”

“इतिहास-लेखन का कार्य बड़ा महत्त्वपूर्ण है। यदि इतिहासकार इतिहास की रचना करने वाले के प्रति सत्यनिष्ठ नहीं होता तो सत्य का सही निर्वाह नहीं हो पाता और इसका दंड मानव समाज को भोगना पड़ता है।”

-कमाल अतातुर्क

इतिहास के सम्बन्ध में सामान्य धारणा यह है कि अतीत की बात होने के नाते वह हैअपरिवर्तनीय है। परन्तु वास्तव में इतिहास स्वतः अतीत न होकर अतीत की घटनाओं का लेखा या विवरण है। इसका विवरण प्रस्तुत करने वाला अपने विचारों तथा पूर्वाग्रहों का रंग अपने विवरणों में चढ़ाए बिना नहीं रह सकता। वस्तुतः निष्पक्ष (impartial) और वस्तुनिष्ठ (objective) इतिहास संभव नहीं है। उसका विवरण निम्नलिखित है-

  1. तिथियाँ (Dates)-

बहुधा इतिहास में तारीखों को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है। इसके पक्ष में तर्क यह दिया जाता है कि तारीखें तो गलत हो ही नहीं सकतीं। परन्तु यह बात भी सही नहीं ठहरती। कारण, हमारे पंचांग की यह धारणा कि ईसा का जन्म आगस्टस के शासन के एकतीसवें वर्ष (या इसे सत्राहेसवां वर्ष माना जाय?) में हुआ सही नहीं है। सम्पूर्ण पश्चिमी यूरोप में तारीख और सन् की गणना करने में तीन से लेकर आठ वर्ष तक की यह भूल सदैव मौजूद  रहती है।

अब धार्मिक दुराग्रह की बात सोचिए तो प्रश्न यह उठता है कि सम्पूर्ण संसार में ईसाई संवत् का ही प्रचलन क्यों मान्य हो? क्या इसलिए कि सारी दुनिया पर यूरोपीय सभ्यता का सामाजिक और आर्थिक प्रभाव व्याप्त है? परन्त, इससे श्रेष्ठ और कोई संवत् गणना पद्धति का नितान्त अभाव है। उदाहरणस्वरूप अपने ओलम्पिक खेलों के समय से प्रारम्भ होने वाली यूनानी गणना पद्धति और राम नगर की स्थापना से गिनी जाने वाली रोमन काल सारिणी भी तो संदिग्ध है। इस्लाम जगत् संवत् की गणना 622 ई0 में मोहम्मद की हिजरत से करते हैं। इसमें चन्द्र मास के आधार पर वर्ष-गणना की असुविधा सामने आती है जो हर प्रकार के प्रयत्न के बावजूद भी दूर नहीं हो पाई है। भारत में लगभग एक दर्जन विभिन्न संवत् की गणना पद्धतियाँ प्रचलित रही हैं। अतः अन्य गणना-पद्धतियों की तुलना में ईसाई संवत् की गलती फिर भी नगण्य ठहरती है और इसे प्रामाणिक माना गया है। जो इतिहासकार इसकी उपेक्षा करता है, वह पूर्वाग्रह से ग्रसित समझा जाता है।

  1. पाठ्य-पुस्तकें (Text books)-

पाठ्य-पुस्तकों में भी पूर्वाग्रह मिलते हैं। व्यापक दृष्टिकोण के गिबन या टायनबी या मेकाले—जैसे मान्य लेखकों में भी यह पूर्वाग्रह स्पष्टतः मौजूद है। आकार में पुस्तक जितनी ही छोटी होगी उतनी ही वह पक्षपात की जहर से भरी होगी, क्योंकि छोटी पुस्तक में तथ्यों का चयन अधिक कड़ाई से करना पड़ता है। अतएव स्कूलों की पाठ्य- पुस्तकें आकार में सबसे छोटी होने के कारण सर्वाधिक पक्षपातपूर्ण प्रभाव डालने वाली होती हैं। इतिहास के शास्त्रीय ग्रंथ (Classical Texts) भी पूर्वाग्रह युक्त होते हैं। प्रस्तुत कुछ तथ्यों को छोड़े बिना इतिहास लिखना संभव नहीं है।

  1. राजनीतिक प्रचार (Political Propaganda)-

राजनीतिक प्रचार के लिए इतिहास मनमाने ढंग से तोड़ा-मरोड़ा जाता है। रोमन साम्राज्य की अवनति और पतन (The Decline and Fall of the Roman Empire) से लेकर ‘छोटे अंग्रेज बच्चे’ (Little Arthurs) तक इतिहास की प्रत्येक पुस्तक एक विशेष तथ्य प्रतिपादित करती है जो जान-बूझकर पूर्वाग्रहयुक्त होता है। नाजी, फासिस्ट और कम्युनिस्ट लोगों ने इतिहास-पुस्तकों को जिस प्रकार गढ़ा है उसे हम सभी जानते हैं। वे अपने सिद्धान्त के प्रति निष्ठावान ही नहीं अपितु वचनबद्ध (Committed) होते हैं। अतः उनकी रचनाओं में पूर्वाग्रह की भरमार होती है। जब तक प्रत्येक राष्ट्र अपने आवरण कोष से बाहर निकल कर देखने का और भी ठोस प्रयत्न नहीं करता तब तक हमारी इतिहास पुस्तकों में परम्परागत गलतियों और असंतुलित मूल्यांकन की संभावनाएँ बनी रहेंगी। पूर्वाग्रह का जन्म इन्हीं परिस्थितियों में होता है।

  1. काल-विभाजन (Periodization)-

पश्चिमी यूरोप में इतिहास की तीन सुस्थिर काल-निर्धारण किया गया है. प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक। प्राचीन काल की सीमा रोमन साम्राज्य के अंत (475 ई0) तक मानी जाती है। आधुनिक काल पुनर्जागरण (Renaissance) के समय से प्रारम्भ होता है और मध्यकाल इन दोनों के बीच में आता है। परन्तु आधुनिक काल की परिधि 17वीं शताब्दी से और आगे खिसकती चली जाती है। अतः यह नामकरण दिन-प्रतिदिन निरर्थक होता जा रहा है। कम्यूनिस्ट यूरोप में इतिहास का विभाजन तीन के स्थान पर दो में ही करने की प्रथा चल पड़ी है। इन दोनों कालों की विभाजन रेखा उन्होंने  इंग्लैंड के गृह युद्ध को ठहराया है। इसका कारण प्रायः यह बतलाया जाता है कि इंगलैंड के गृह युद्ध के परिणामस्वरूप शासन सत्ता कुलीन के हाथों से हटकर मध्य वर्ग के हाथों में आ गई। कम्यूनिस्ट दृष्टिकोण से यही इतिहास का मध्य युग है। यह पूर्वाह नहीं तो और व्या है?

  1. असंतुलन (Imbalance)-

इतिहास की विषय-वस्तु असंतुलित होने के कारण इसमें पूर्वाग्रह का समावेश हो जाता है। केवल राजनीतिक स्तर पर ही विचार करने से इतिहास नितान्त असंतुलित हो जाता है। आज इतिहास का क्षेत्र काफी बढ़ गया है। यह राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, विधिक, राजनयिक, सैनिक, विश्व इतिहास आदि में बँट गया है। इतिहास के उच्च और खोजपूर्ण ग्रंथों में भी बाइजेंटिनम, पोलैंड और तुर्की के बारे में स्वल्प उल्लेख ही मिलते हैं। पश्चिम को तुलना में पूर्व के इतिहास की आधारभूत सामग्री ही उपलब्ध नहीं है और यह तब तक प्राप्त नहीं हो सकती जब तक कि कई पीढ़ियों तक धैर्यपूर्वक अध्ययन और अनुसंधान न किया जाय। कहने का तात्पर्य यह है कि इतिहास के जिस स्वरूप से यूरोप में लोग परिचित हैं वह नितान्त असंतुलित है। इसका कारण यह है कि संसार के अधिकांश भाग का इतिहास अभी लिखा ही नहीं गया है। जो कुछ लिखा गया है वह भी असंतुलित है।

  1. सत्य का निरूपण (Interpretation of Truth)-

सत्य स्वतः छलना (deceptive) है और वह हमारी पकड़ के बाहर है शोध के आधार पर निरूपित सत्य का समावेश पाठ्य-पुस्तकों में नहीं हो पाता है। पुनः बहुधा एक शोध के बाद दूसरां शोध पहले से ठीक विपरीत तथ्य का निरूपण कर बैठता है। जिन विभिन्न युद्धों में ब्रिटिश, फ्रेंच, जर्मन और रूसी लोग एक-दूसरे के विरुद्ध लड़े हैं उनके आधारभूत कारणों के सम्बन्ध में इन देशों के इतिहास लेखक परस्पर सर्वथा भिन्न मतं प्रकट करते हैं। कारण यह है कि अपने से भिन्न पक्ष सम्बन्धी ऐतिहासिक तथ्यों से सर्वथा अपरिचित रहते हैं और कभी-कभी तो वे स्वयं अपने पक्ष के तथ्यों की भी जानकारी नहीं रखते। दूसरे, जब तक इतिहास लेखक विदेशी भाषाओं को पढ़ने और समझने में अपनी भाषा जैसी ही दक्षता नहीं प्राप्त कर लेते तब तक किसी भी विवादग्रस्त प्रश्न के सम्बन्ध में वे सत्य का निरूपण नहीं कर सकते। अतः इस पूर्वाग्रह से बचने के लिए टायनबी कहता है, “हमें अपने में ऐसी मानसिक या आध्यात्मिक चेतना विकसित करनी है जिससे हम अंग्रेज, फ्रेंच, जर्मन व अमरीकी भावना के बन्धनों को तोड़कर सत्य का निरूपण कर सकें।”

  1. संकुचित मनोवृत्ति (Narrow Mindedness)-

हमारी संकुचित मनोवृत्ति पूर्वाग्रह को जन्म देती है। यह सांस्कृतिक ‘परम्पराओं से हमें विरासत के रूप में मिलती है। हम घिसी- पिटी मान्यताओं को दुहराते हैं। हम पूर्वी देशों के धोखेबाजी के व्यवहार की बात कहते हैं जैसे कि पश्चिम के देश इस प्रकार के व्यवसाय से सर्वथा अपरिचित ही रहे हैं। हम ‘देशी’ (Native), ‘अश्वेत’ या ‘नीग्रो’ जैसे विशेषणों का प्रयोग करके अपनी घृणा का भाव व्यक्त करते हैं। ब्रिटेन में ‘डेमोक्रेसी’ शब्द का भाव श्रेष्ठता के तत्त्वों से युक्त है परन्तु और देशों में यह अयोग्यता का भाव व्यक्त करता है। कला के क्षेत्र में हेलेनिक’ शब्द श्रेष्ठता की भावना व्यक्त करने वाला और ‘हेलेनिस्टिक’ हीनता का भाव व्यक्त करने वाला है।

  1. राष्ट्रीयता (Nationalism)-

राष्ट्रीयता की भावना भी पूर्वाग्रह को जन्म देती है। कभी- कभी तो यही अन्धी राजभक्ति या उन्माद का रूप धारण कर लेती है। इससे ऐतिहासिक तथ्यों में तोड़-मरोड़ आ जाता है। हम राष्ट्रीयता के भावना से ओत-प्रोत होकर साम्राज्यवाद की निन्दा करने लगते हैं, यहाँ तक कि उसकी कुछ विशेषताओं को भी भूल जाते हैं। हम यह भी भूल जाते हैं कि साम्राज्यवाद ही राष्ट्रवाद का जनक है। आज एशिया-अफ्रीका के अनेक देश साम्राज्यवाद के चंगुल से मुक्त हो रहे हैं और नए ढंग से अपने देश का इतिहास लिख रहे हैं। यहाँ राष्ट्रीयता को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता है। भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम की प्रत्येक पुस्तक में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की निन्दा की गई है। ऐसी कृतियों में राष्ट्रवादी इतिहासकारों के पूर्वाग्रह की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

  1. दलगत भावना (Party Spirit)-

दलगत भावना तो राष्ट्रीयता से अधिक जहरीली होती है। जब कोई सरकारी या दरबारी इतिहासकार अपने दल के नेता या अपने प्रश्रयदाता का इतिहास लिखता है तो वह केवल उसकी प्रशंसा का पुल बाँधता है। यही कारण है कि हरिषेण कृत समुद्रगुप्त की दिग्विजय या प्रयाग प्रशस्ति, वाणभट्टकृत हर्षचरित, चन्दवरदाई कृत पृथ्वीराज रासो व अबुल फजल कृत अकबर नामा की शत-प्रतिशत ऐतिहासिकता पर सन्देह प्रकट किया जाने लगा है। वस्तुतः इतिहासकार भी सिद्धान्ततः मोर्चे पर काम करने वाला श्रमिक है और ऐतिहासिक समस्याओं का मूल्यांकन करने में मुख्यतः दल की दृष्टि या आश्रयदाता की दृष्टि से देखता है। इसे हम एकाध उदाहरण द्वारा और भी स्पष्ट कर सकते हैं।

  1. संयम (Moderation)-

इतिहासकार जब अपना धैर्य और संयम खो देता है तो उसकी कृतियों में पूर्वाग्रह का समावेश हो जाता है। एशिया में यूरोपीय देशों के प्रभुता विस्तार तथा उपनिवेशवाद पर जितना लिखा गया है उसकी तुलना में महान एशियाई सभ्यताओं के सम्बन्ध में बहुत कम ध्यान दिया गया है। कई पुस्तकों में भारत के इतिहास की कहानी केवल ब्रिटिश उपनिवेशों की स्थापना के इतिहास तक ही सीमित है। भारत में विदेशी शासन द्वारा दमन और शोषण के दृष्टान्त बहुत कम पुस्तकों में मिलते हैं। इसके प्रतिकूल इस प्रकार का चित्र प्रस्तुत किया गया है कि भारत में ब्रिटिश शासन काल के अन्तर्गत जो कुछ भी किया गया उसका उद्देश्य भारत की भलाई करना था। अनेक अंग्रेजी पाठ्य-पुस्तकों में भारत में ब्रिटिश शासन की सुदीर्घ तथा गौरवपूर्ण गाथा की प्रशस्ति की गयी है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि इतिहास में पक्षपात या पूर्वाग्रह की संभावना है। इतिहास- लेखन का प्रथम चरण विषय का चयन होता है। इतिहासकार का पक्षपात उसी समय स्पष्ट हो जाता है जब वह अपनी रुचि के अनुसार विषय का चयन करता । विषय के चयन के साथ वह अपनी रुचि के अनुसार तथ्यों का चयन करता है और उसके अनुसार वह अपनी रचना को स्वरूप प्रदान करता है। ऐसा इसलिए कि प्रत्येक इतिहासकार अपने समाज की उपज होता है। सामाजिक वातावरण का प्रभाव उसके मस्तिष्क पर पड़ता है। अतः पूर्वाग्रह मुक्त इतिहास की कल्पना करना ही बेकार है। यह इसलिए कि इतिहास रसायन व भौतिक शास्त्र की भाँति विज्ञान नहीं अपितु समाज विज्ञान, अर्थशास्त्र व मनोविज्ञान की तरह एक सामाजिक विज्ञान है। एक सामाजिक वैज्ञानिक की भाँति इतिहासकार सामाजिक कृतियों-विकृतियों को अपनी दृष्टि से देखता है। अतः इतिहास में पूर्वाग्रह की प्रत्येक संभावना बनी रहती है।

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Pankaja Singh

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