इतिहास

इतिहास में करणता | कारण का वर्गीकरण | कारण का अर्थ | कारण की अवधारणा

इतिहास में करणता | कारण का वर्गीकरण | कारण का अर्थ | कारण की अवधारणा

इतिहास में कारणता

कारण का अर्थ

‘कारण’ शुद्ध लैटिन के ‘काज’ शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ घटनाओं के बीच संयोजित संबंध है। ‘कारण’ एक अलंकरण-वाक्य है जो किसी ऐतिहासिक घटना की व्याख्या में अनेक कारणों को बतलाता है। प्रो० ओकशाट के अनुसार ‘कारण’ इतिहास के शब्दकोष का अंग नहीं है। ओकशाट का यह कथन सही नहीं है, क्योंकि मनुष्य के कार्यों के कुछ कारण अवश्य होते हैं। मंडेलबाम भी ओकशाट के मत के विपक्ष में कहते हैं- ऐतिहासिक ज्ञान मानवीय मस्तिष्क की प्रक्रिया में निहित है। अतः इतिहास मानवीय कार्य-व्यापार का अध्ययन है। कालिंगवुड का कहना है—कारण वह तत्व है जो मनुष्य को कार्य करने के लिए प्रेरित, प्रोत्साहित तथा बाध्य करता है। ई० एच० कार ने भी लिखा है कि इतिहास का अध्ययन कारणों का अध्ययन है।

कारण की अवधारणा-

सर्वप्रथम अरस्तू ने कहा कि कारणों के अभाव में किसी घटना अथवा कार्य का होना असम्भव नहीं है। इतिहास के जनक हेरोडोट को भी कारण-कार्य सम्बन्ध की अवधारणा में रुचि थी। कालिंगवुड के अनुसार 15वीं सदी तक कारण का तात्पर्य गलत अर्थों में लगाया गया था किन्तु 18वीं सदी में इसे सही अर्थ में व्यक्त किया जाने लगा था। माण्टेक्यू ने भी उत्थान-पतन के लिए नैतिक, भौतिक तथा सामान्य कारणों को उत्तरदायी ठहराया है। रैनियर भी घटना के एक नहीं अपितु अनेक कारणों में विश्वास रखता है। प्रो० कार एवं रोशेनफील्ड ने भी घटनाओं की क्रमबद्धता एवं कारण और परिणाम के पारस्परिक सम्बन्धों को क्रम से प्रस्तुत करने को ही इतिहास कहा है। 20वीं सदी के इतिहासकारों की अवधारणा है कि किसी घटना के कारण क्रमबद्ध होते हैं। कालिंगवुड के अनुसार इतिहास अतीत में मानवीय कार्यों का अध्ययन है। मानवीय कार्य अथवा घटना के कारणों को जानने का एकमात्र उद्देश्य किसी तर्कयुक्त योजना का ज्ञान प्राप्त करना है। अतः इतिहासकार को ऐतिहासिक शोध में घटनाओं को प्रभावित करनेवाले सभी आवश्यक कारणों की व्याख्या करनी चाहिए। यही एडवर्ड मेयर की कार्यकारण सम्नब्धी अवधारणा है। डेविड थाम्सन भी मानते हैं कि इतिहासकार का पवित्र कर्तव्य कारण तथा उसके प्रभाव की समुचित व्याख्या करना है। प्रो0 जी0 बैरक्लाफ का कहना है कि कारणों की व्याख्या की चिन्ता छोड़कर इतिहासकार को मुख्यतः परिणामों पर ही केन्द्रित होना चाहिए। बैरक्लाफ का यह तर्क अनुचित लगता है। वाल्श ने कारणों में से प्रमुख कारण एवं सहायक कारणों को पृथक् करके देखने पर बल दिया है। फ्रेंच इतिहासकार टेने का कहना है कि इतिहासकार कारणों के बिखरे सूत्रों को सूक्ष्म से भी सूक्ष्म दृष्टि से देखकर उसे बुनकर कपड़े के रूप में प्रस्तुत करता है, जैसे पकड़ी अपने जाले को बुनती है। इस कार्य में वह क्रमबद्ध को प्रधानता देता है।

विद्वानों के उपर्युक्त कथनों के आधार पर हमें इतिहास में कारण की अवधारणा के विविध स्वरूप देखने को मिलते हैं। इसकी नियतिवादी अवधारणा का विश्वास है कि जो कुछ घटित होता है उसके एक या अनेक कारण होते हैं और वह किसी कारण अथवा कारणों से भिन्न हुए बिना भिन्न तरीके से घटित नहीं हो सकता।

कार्य कारण सम्बन्ध–

यह सच है कि मनुष्यों के कार्यों के कुछ कारण होते हैं। इतिहासकार कार्यव्याख्या के परिवेश में अन्तर्निहित कारणों को ढूँढ़ता है। सर्वप्रथम अरस्तू ने कहा था कि बिना किसी कारण के किसी कार्य का होना सम्भव नहीं है। जेवी का कहना है कि कारण-कार्य का समीकरण रेल-पटरी की भाँति समानान्तर है। प्रो० वाल्श ने कार्य के अनेक कारण माने हैं। उनके अनुसार कोई एक कारण निर्णायक कारण के रूप में नहीं माना जाना चाहिए। जो भी हो, इतना तो स्पष्ट है ही कि घटित घटना के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए कार्य-कारण सम्बन्धों की विवेचना की जाती है।

कारण परिणाम सम्बन्ध-

क्योंकि कारण की पंक्ति में अन्तर के परिणाम-स्वरूप परिणाम में अन्तर अवश्यम्भावी है, अतएव यह कहा जा सकता है कि कारण के अनुसार ही परिणाम भी होता है। जैसे—अत्यधिक शीत का कारण हिमपात और वर्षा का कारण मानसून होता है। प्राकृतिक कारणों का सम्बन्ध निश्चित तथा पारस्परिक होता है। मनुष्य का कार्य बाह्य तथा आभ्यन्तर प्रभावों का परिणाम होता है। प्रो0 कार ने अतीतकालिक घटनाओं को कुछ कारणों का प्रतिफल बताया है। उनके अनुसार यदि इतिहास अतीत और वर्तमान के मध्य अनवरत परिसंवाद है तो इसे अतीत की घटनाओं और उभरते हुए भावी परिणामों के बीच अनवरत परिसंवाद की संज्ञा दी जा सकती है। वे मानते हैं कि अतीत की घटनाओं को क्रमबद्धता देना तथा कारण और परिणाम के पारस्परिक सम्बन्धों को क्रम से प्रस्तुत करना ही इतिहास है। विलियम जेम्स के अनुसार इतिहासकार निष्कर्ष-प्राप्ति के उद्देश्य से कारण तथा परिणाम की खोज करता है। कारण के अनुसार ही परिणाम होता है। यथा—वर्षा का कारण मानसून तथा शीत का कारण हिमपात है। परन्तु वे यह नहीं मानते कि इतिहास केवल दुर्घटनाओं का ही एक अध्याय है। अधिकांश लोग यही मानते हैं कि कारण एवं परिणाम का अन्वेषण निष्कर्ष की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है। जॉन डीवी के शब्दों में यन्त्र तथा उसकी सहायता से उत्पन्न, वस्तु से यह स्पष्ट हो जाता है कि यन्त्र अथवा मशीन अनुसार, कारण-कार्य का समीकरण रेल-पटरी की भाँति समानान्तर, है, यथा–

कारण——–कारण।

परिणाम——–परिणाम।

कारण कल्पना व अनुमान सम्बन्ध—

कल्पना के अभाव में कारणों की क्रमबद्धता कठिन है। इसीलिए कारणों की व्याख्या में इतिहासकार को परिकल्पनात्मक भूमिका प्रस्तुत करनी पड़ती है। क्रोचे एवं कालिंगवुड ने इसी को स्वीकार करते हुए कल्पना को ऐतिहासिक ज्ञान का मूल स्रोत कहा है। इसी को भारतीय दर्शन में अनुमान कहा गया है। इतिहास-लेखन में अनुमान के योगदान को मोमसेन तथा माइकेल ने स्वीकार भी किया है।

कारण व्याख्या सम्बन्ध

किसी घटना के एक से अधिक कारण हो सकते हैं। इसमें से कुछ मुख्य तो कुछ गौण कारण होते हैं। इतिहासकार अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण से कारणों के औचित्य को सिद्ध करता है। उसकी व्याख्या को राष्ट्रीयता, धर्म, क्षेत्रीयता, जाति जैसे महत्त्वपूर्ण कारण प्रभावित करते हैं। प्रो0 कार का कहना है कि इतिहासकार स्थान तथा समय के सन्दर्भ में कारणों की व्याख्या करता है, यद्यपि यह भी सच है कि काल तथा स्थान के परिवेश में यह सम्भव नहीं है कि सभी इतिहासकार एक कारण को एक स्वर से स्वीकार करें ही। कारणों की व्याख्या का तात्पर्य क्रमबद्धता प्रदान करना होता है। क्रमबद्धता में व्यक्तिगत दृष्टिकोण का निर्णायक तत्व होना स्वाभाविक है। अपनी व्याख्या में इतिहासकार अतीत के अनुभवों का सारतत्व ग्रहण करता है जो उसे तर्कपूर्ण व्याख्या और अनुसंधान के योग्य लगते हैं। कार्ल ए० पापर के अनुसार व्याख्याओं की संख्या अनेक होती है जिनमें कुछ विशिष्ट होती है। कारणों की खोज के साथ-साथ मूल्यों की खोज आवश्यक हो जाती है, इसीलिए ऐतिहासिक व्याख्या को मूल्यसम्पृक्त कहा गया है। व्याख्या के दृष्टिकोण आदि व्याख्या शीर्षक के अन्तर्गत विस्तार से प्रस्तुत हैं, अतएव यहाँ केवल इतना ही बतलाया जा रहा है कि कारण और व्याख्या का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है।

कारण-अवश्यम्भाविता सम्बन्ध–

कालिंगवुड मानते हैं कि कोई घटना अवश्यम्भावी नहीं होती। किन्तु भाग्यवादी तथा धार्मिक अवधारणावाले इसे मानते हैं। गीता में भी धर्म की हानि होने पर अवतार होने का उल्लेख है। विजेरी, मंडेलवाम, एडम स्मिथ, हीगेल आदि सभी ने इसे स्वीकार किया है। मार्क्स ने अपनी पुस्तक क्रिटिक ऑफ पोलिटिकल इकोनॉमी की भूमिका में, टालस्टाय ने अपनी पुस्तक युद्ध और शांति में इसे माना है। बटरफील्ड तथा ई० एच० कार का मत इससे भिन्न नहीं है। किन्तु 20वीं सदी के वैज्ञानिक तथा ज्ञानसापेक्षवादी इतिहासकारों ने अवश्यम्भाविता तथा अनिवार्यता में आस्था रखनेवाले इतिहासकारों की कटु आलोचना की है। रैगियस प्रोफेसर चार्ल्स किंगस्ले ने इसके होने का स्पष्ट रूप से निषेध किया है। प्रो० कार ने एक स्थान पर यह लिखा है कि 1917 की रूसी-क्रांति के बाद वोल्शेविक तथा रूढ़िवादी चर्च के बीच संघर्ष अवश्यम्भावी था। इसे कार ने अपनी भूल माना है और अन्यत्र यह लिखा है कि ‘अवश्यम्भावी’ अथवा अनिवार्य के स्थान पर ‘सम्भाव्य’ लिखा होना अधिक अच्छा होगा। व्यवहारतः किसी घटना को तब तक अवश्यम्भावी नहीं मानना चाहिए जब तक कि वह घटित नहीं हो जाती। इतिहास में कुछ भी अनिवार्य नहीं होता।

कारण-घटना सम्बन्ध-

अन्योन्याश्रित है। अतीत की आधारशिला पर वर्तमान का निर्माण होना सर्वमान्य तो है फिर भी एक इतिहासकार उन अतीत की घटनाओं के पीछे के कारणों का अन्वेषण करता रहता है। स्पष्ट है कि प्रत्येक घटना के कुछ कारण होते हैं जिसे मंडेलबाम ने भी ठीक इसी प्रकार के शब्दों में स्वीकार किया है। “सार्वभौम नियम के अनुसार प्रत्येक घटना के कुछ कारण होते हैं।’ घटना के एक अथवा अधिक कारण हो सकते हैं। प्रत्येक कारण विशेष परिस्थिति की उपज होते हैं। इसे कालिंगवुड ने भी स्वीकार किया है। अतएव यह कहा जा सकता है कि इतिहास में कारण एक घटना अथवा क्रिया होती है। मंडेलबाम के अनुसार किसी घटना के प्रमुख कारण को ‘कारण’ कहते हैं जबकि सम्बद्ध छोटे-छोटे कारणों को ‘परिस्थिति’ कहते हैं। अरस्तू का कहना है कि कारणों के अभाव में किसी घटना अथवा कार्य का होना असम्भव होता है। मान्टेस्क्यू ने लिखा है कि राजवंशों के उत्थान-पतन के पीछे कुछ न कुछ नैतिक, भौतिक तथा सामान्य कारण अवश्य होते हैं तथा सब कुछ उसी के अन्तर्गत घटता है। रेनियर के अनुसार भी कोई घटना एक नहीं अपितु अनेक कारणों का प्रतिफल होता है। ई० एच0 कार ने इसी को मान्य करते हुए यह लिखा है कि अतीत की घटनाओं को क्रमबद्धता देना तथा कारण और परिणाम के पारस्परिक सम्बन्धों को क्रम से प्रस्तुत करना ही इतिहास है। बीसवीं सदी के इतिहासकार भी यही मानते हैं कि किसी घटना के कारण क्रमबद्ध होते हैं तथा एक घटना की परिस्थिति दूसरी घटना की जानकारी के लिए पथ-प्रदर्शक होती है। इस प्रकार कारणों की व्याख्या से इस उद्देश्य की प्राप्ति हो सकती है। कालिंगवुड कहता है कि घटना मनुष्य की प्रक्रिया का परिणाम है और इतिहासकार इस प्रक्रिया के बीच अपने को रखकर घटना के विषय में सोचता है। अतएव यह कहा जा सकता है कि मानवीय कार्य अथवा घटना के कारणों को जानने का एकमात्र उद्देश्य किसी तर्कयुक्त योजना का ज्ञान प्राप्त करना है। एडवर्ड मेयर इसी संदर्भ में निर्देशित करता है कि इतिहासकार को अपने शोध में घटनाओं को प्रभावित करने वाले सभी आवश्यक कारणों की व्याख्या करनी चाहिए। परन्तु वाल्श कहता है कि किसी घटना के अनेक कारणों प्रस्तुत करना ही ऐतिहासिक शोध का उद्देश्य नहीं है। कारणों में एक प्रधान कारण होता है जो घटना का मूलकारक होता है तथा अन्य कारण सहायक होते हैं। यही कारण तथा घटना का सम्बन्ध होता है और ‘व्यक्ति’ सूत्र के साथ ही घटना’ के विषय में बहुत कुछ कहा गया है जो द्रष्टव्य है।

कारण-इतिहासकार सम्बन्ध-

जिस तरह तथ्य और इतिहासकार का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है, इसी तरह से कारण और इतिहासकार भी आपस में निकट से सम्पृक्त हैं। इतिहासकार सामान्य कारणों को भी अपने बलबूते पर विशिष्ट अथवा मुख्य कारण बना डालता है तो दूसरी तरफ कारण भी एक इतिहासकार को लेखन हेतु प्रेरित करते हैं और विधि का ज्ञान कराते हैं। अतएव इतिहासकार तथा कारणों का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित एवं दोहरा होता है। इस सम्बन्ध को ‘इतिहासकार’ शीर्षक के अन्तर्गत भी विस्तार से समझाया गया है जिसे वहीं देखा जा सकता है।

कारण-कारकता तथा कारणत्व का सम्बन्ध-

कारण की कारकता का आशय कार्य- काल सम्बन्ध से है और उसे अन्यत्र प्रस्तुत किया गया है, इसलिए यहाँ इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि कारण को ही कारकता अथवा कारणत्व कहते हैं। जैसे—कारण के सिद्धान्त को कारकता तथा कारणत्व का सिद्धान्त कहते हैं।

कारण का वर्गीकरण-

कारण अथवा कारणों का वर्गीकरण अनेक आधारों पर करते हैं। कुछ आधार आगे अंकित हैं.

  1. प्रमुख तथा गौण कारण- इतिहास की रचना करते समय जितने भी कारण उपस्थित होते हैं उनमें से एक अथवा कुछ को ही मुख्य कारण की श्रेणी में रखा जाता है, जबकि अन्य सभी को सामान्य अथवा गौण श्रेणी दी जाती है। अतएव इस आधार पर कारण प्रमुख तथा गौण, कुल दो प्रकार के होते हैं।
  2. मूल तथा वास्तविक कारण घटना सम्बन्धी अनेक कारणों की व्याख्या में गार्डिनर ने मूल तथा वास्तविक कारणों का नामोल्लेख किया है जिसे एक उदाहरण से संक्षेप में समझा जा सकता है। जैसे किसी बालक ने प्रीतिभोज में मटर पनीर अधिक खा लिया जिससे उसकी पाचनक्रिया खराब हो गयी। इतिहासकार जब इसकी व्याख्या करेगा तो प्रीतिभोज को वास्तविक तथा मटर पनीर को मूल कारण कहेगा।
  3. मौलिक तथा तात्कालिक कारण— घटना के मौलिक कारण दूरवर्ती होते हैं जिनमें किसी घटना के बीज बोये जाते हैं, जबकि तात्कालिक कारण उन घटनाओं की बारूद में केवल दियासलाई का कार्य करते हैं। जैसे—साम्राज्यवाद, सैनिकवाद इत्यादि प्रथम विश्वयुद्ध के समय मौलिक कारण थे, जबकि उस समय किसी भी देश के सत्ताधारी की हत्या यदि कर दी जाती थी तो उसे तात्कालिक कारण नाम से इंगित करते थे।
  4. परिस्थितिजन्य तथा आर्थिक कारण- मंडेलबाम के अनुसार घटना उसे कहते हैं जिसके कारण सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक परिवर्तन होते हैं। इसमें पहले को कारण तथा दूसरे को परिस्थिति की संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार से, कुछ कारण परिस्थितिवश उत्पन्न होते हैं तो कुछ आर्थिक कारणों से। अन्य शब्दों में घटना का कारण परिस्थितिजन्य भी हो सकता है और आर्थिक भी। सभी कारण इनके आधार पर भी वर्गीकृत हो सकते हैं।
  5. विविध कारण– कारणों को कई नामों-उपनामों से भी वर्गीकृत कर सकते हैं, यथा- सामाजिक कारण, पारिवारिक कारण, धार्मिक कारण, जातीय कारण, साम्प्रदायिक कारण, बौद्धिक कारण, राजनैतिक कारण, प्राकृतिक कारण, भौगोलिक कारण, सामयिक कारण, दैवी कारण, आकस्मिक कारण, अवश्यम्भावी कारण, विषय एवं वस्तुनिष्ठ कारण, सार्वजनिक और व्यक्तिगत कारण इत्यादि। इन अनेकशः कारणों के पृथक्-पृथक् कुछ ऐतिहासिक सिद्धान्त भी मिलते हैं जिनको हम आगे देखेंगे।
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Pankaja Singh

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