इतिहास

इतिहास लेखन में ऐतिहासिक स्रोत | ऐतिहासिक स्रोत इतिहास में कैसे सहायक हैं?

इतिहास लेखन में ऐतिहासिक स्रोत | ऐतिहासिक स्रोत इतिहास में कैसे सहायक हैं?

इतिहास लेखन में ऐतिहासिक स्रोत

भूमिका- मानव की विगत विशिष्ट घटनाओं का दूसरा नाम इतिहास है। आज की प्रत्येक ऐसी घटना कल का इतिहास बन जायेगी। इसी प्रकार अतीत के सभी राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक विकास एवं परिवर्तन, भौतिक तथा आध्यात्मिक उत्थान एवं पुनरुत्थान वर्तमान का इतिहास बनकर प्राचीन मानव तथा उसके कृत्यों की स्मृति दिला रहे हैं। किन्तु, अतीत और वर्तमान का निकट सम्बन्ध स्थापित करने का कोई माध्यम या साधन चाहिए जो युगों की लम्बी दूरी को कम कर सके और पुरातन, नूतन बनकर हमारे सम्मुख उपस्थित हो सके। इस दृष्टि से साहित्यकारों एवं विभिन्न प्रकार के कलाकारों की कृतियाँ ही वह साधन हो सकती हैं जो अतीत की स्मृति दिला सकें। विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं का ज्ञान इन्हीं कृतियों के आधार पर प्राप्त हो सका है। साहित्यकारों की रचनाओं तथा कलाकारों की रचनाओं में केवल इतना अन्तर एक मुखरित है तो दूसरी मूक, पर दोनों ही उपयोगिता निर्विवाद है। मिस्र की प्राचीन सभ्यता का ज्ञान वहाँ के पिरामिडों द्वारा अधिक स्पष्ट हो सका है, यूनान के प्राचीन इतिहास का बोध कराने में हेरोडोट्स की महान् कृति ‘हिस्ट्रीज’ का महत्व विशेष उल्लेखनीय है और इसी प्रकार रोम के इतिहास पर प्रकाश डालने में लिवी के “एनल्स” की उपयोगिता निर्विवाद है।

इतिहास लेखन में ऐतिहासिक स्रोतों की सहायता

(Help of Historical Sources in the writing of History)

किसी भी देश का इतिहास जानने में दो प्रकार के स्रोत सहायक होते हैं-

(I) साहित्यकारों की कृतियाँ (साहित्यिक स्रोत) और (II) विभिन्न कलाकारों की कृतियाँ (पुरातात्विक स्रोत)।

  1. I. साहित्यिक स्रोत–

साहित्यिक सामग्री को सुविधा के लिए दो भागों में विभाजित किया जाता है- (1) धार्मिक साहित्य और (2) इहलोकपरक साहित्य ।

(1) धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत उस देश के विभिन्न धार्मिक ग्रन्थ आते हैं। उदाहरण के लिए, भारत के धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत श्रुति, (वेद, ब्राह्मण ग्रंथ और उपनिषद) तथा स्मृति (रामायण, महाभारत, पुराण तथा स्मृतियाँ) तथा बौद्ध और जैन ग्रंथ आते हैं।

(2) इहलोकपरक साहित्य के अन्तर्गत-ऐतिहासिक, अर्ध-ऐतिहासिक, विदेशी विवरण, जीवनियाँ तथा कल्पना प्रधान एवं गल्प साहित्य आते हैं।

(1) धार्मिक साहित्य- किसी देश के प्राचीन काल का विवरण उस देश के धार्मिक साहित्यिक स्रोतों (कृतियों) से प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए भारत का प्राचीनतम साहित्य सर्वथा धार्मिक है। विद्वानों ने फिर भी अत्यन्त धैर्य और अध्यवसाय से उस साहित्य सागर से बिन्दु-बिन्दु इतिहास ‘बटोरा है। यथा-

(i) वेदों- विशेषकर ऋग्वेद से भारत में आर्यों के प्रसार, उनके अन्तर्संघर्ष और दस्युओं के विरुद्ध युद्धों तथा इस प्रकार के अन्य विषयों पर ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध हुई है। डॉ० राधाकृष्णन ने इन वेदों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए अपनी प्रसिद्ध रचना ‘Indian Philosophy’ में लिखा है कि “जबकि ऋग्वेद साफ चमड़ी वाले आर्यों तथा काले दस्युओं के बीच के संघर्ष के काल को अभिव्यक्त करता है, जिसे भारतीय संस्कृति में देव तथा असुरों के संग्राम के रूप में वर्णित किया गया है, अथर्ववेद उस काल को बताता है जब दोनों का संघर्ष समाप्त हो गया और दोनों पारस्परिक लेन-देन के द्वारा समरसता पूर्ण जीवन जीने का प्रयास कर रहे थे।”

(ii) ब्राह्मणों, उपनिषदों, बौद्ध पिटकों, बौद्ध ग्रन्थों तथा जैन सूत्रों में भी ऐसी सामग्री निहित है जिससे इतिहास की काया संवारी जा सकती है।

(iii) आधुनिक वैज्ञानिक खोज ने ‘गार्गी-संहिता” के ज्योतिष ग्रन्थ कालिदास तथा भास की साहित्यिक रचनाओं, पुर नानूरु, मणिमेकलाई, शिलप्पिकारम्, तिरुक्कुरल आदि अनेक तमिल ग्रन्थों तक से ऐतिहासिक सामग्री संकलित की है।

(iv) रामायण तथा महाभारत में भारत की तात्कालिक धार्मिक और सामाजिक स्थितियों का रुचिकर संग्रह हुआ है। यद्यपि राजनीतिक घटनाओं के क्रमबद्ध इतिहास के रूप में ये नितान्त असन्तोषप्रद है।

(v) पुराणों में यद्यपि घटनाओं का तिथिक्रम नितान्त उलझा हुआ है तथापि पुराणों में कुछ काम की सामग्री भी है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। पुराण उस अन्धकूप में आलोकरश्मि का काम करते हैं। पुराण इतिहास की प्रचुर सामुग्री उपस्थित करते हैं। वे प्राचीन काल से लेकर गुप्तकाल तक के इतिहास से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं का परिचय करा देते हैं, जिनकी प्रामाणिकता के लिए हमें अन्य साक्ष्यों का सहारा लेना पड़ता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि किसी देश के धार्मिक साहित्य के इतिहास के लिए आवश्यक सामग्री प्राप्त होती है, कहीं-कहीं कुछ घटनाओं के माध्यम से ऐतिहासिक अंधकार में रोशनी पड़ती है, जिसके आधार पर आगे के प्रमाण जुटाये जाते हैं, खोजें की जाती हैं और इतिहास क्रम को क्रमबद्ध करने के प्रयास किये जाते हैं। इसक साथ ही इस साहित्य से तात्कालिक सामाजिक और आर्थिक स्थिति का ज्ञान होता है जो राजनीतिक स्थिति को जानने में सहायता करता है-

(2) इहलोकपरक साहित्य- इहलोकपरक साहित्य पाँच प्रकार का होता है-(i) ऐतिहासिक ग्रन्थ (ii) अर्द्ध-ऐतिहासिक ग्रंथ (iii) विदेशी विवरण (iv) जीवनियां (v) विशुद्ध साहित्य ।

(i) ऐतिहासिक ग्रन्थ- जो साहित्यिक ग्रंथ नजाओं तथा उनके उत्तराधिकारियों का वर्णन, शासन प्रबन्ध तथा अन्य राजनीतिक परिस्थितियों का वर्णन करते हैं, उन्हें ऐतिहासिक ग्रन्थ कहा गया है। इन ग्रन्थों में काल्पनिक कथाओं के साथ-साथ ऐतिहासिक तथ्यों का भी समावेश हुआ है जिनकी सहायता से इतिहास लेखन क्रमबद्ध तथा प्रामाणिक बनाया जाता है। कुछ उदाहरणों से इसे स्पष्ट किया जा सकता है-

कल्हण कृत राजतरंगिणी-इसकी रचना 1149-50 ई० में हुई थी। इसमें कश्मीर का पूर्ण इतिहास लिखा गया है। यद्यपि इस ग्रंथ में कुछ काल्पनिक कथाओं का समावेश है, लेकिन सातवीं शताब्दी ई० के पश्चात् का जो कश्मीरी इतिहास इस पुस्तक में वर्णित है, उस पर पूर्ण विश्वास किया जा सकता है।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र- इस ग्रंथ में मौर्यकालीन भारत की शासन-पद्धति, राजनीतिक व्यवस्था सामाजिक व आर्थिक जीवन का विशद विवेचन है।

अन्य ग्रन्थ- इसी प्रकार शुक्रनीतिसार, कामन्दकीय नीतिसार, बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र जैसी पुस्तकों में भी ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन मिलता है।

(ii) अर्द्ध-ऐतिहासिक ग्रंथ- ये वे ग्रन्त हैं जिनके लेखकों का उद्देश्य यद्यपि ऐतिहासिक न था, पर जिस मार्ग का अनुसरण करके ग्रन्थ रचना हुई, वह इतिहास के समानान्तर है। अतः इन ग्रन्थों में ऐतिहासिक घटनाओं का प्रतिबिम्ब आभासित होता है। इन ग्रन्तों में पाणिनी की अष्टाध्यायी, गार्गीसंहिता, पातंजलि का माहभाष्य, कालिदास का मालविकाग्निमित्रम् तथा विशाखदत्त का मुद्राराक्षस विशेष महत्वपूर्ण हैं। पाणिनी के अष्टाध्यायी से मौर्य पूर्व तथा मौर्यकालीन राजनीतिक अवस्था पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है, गार्गीसंहिता में यवण-आक्रमणों का उल्लेख किया गया है। इसी ग्रन्थ से, कुछ अन्य साक्ष्यों को लेकर हम प्रथम शताब्दी के लगभग या इसके आसपास भारत पर यवनों का आक्रमण होना जानते हैं। मालविकाग्निमित्रम् नाटक से शुंगवंश तथा उसके पूर्ववर्ती राजवंशों की समकालीन राजनीतिक परिस्थिति का बोध होता है। राजकुलों के आन्तरिक जीवन का तो यह दर्पण है।

(iii) विदेशी विवरण- विदेशी यात्रियों, धर्मनिष्ठ तथा भ्रमणशील विद्यार्थियों तथा विदेशी इतिहासकारों की रचनाओं से इतिहास सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का बोध होता है। विदेशी विवरण का महत्व भारतीय इतिहास का तिथिक्रमानुसार अध्ययन करने में सर्वमान्य है। ये ऐतिहासिक सामग्री की कमी की पूर्ति भी करते हैं। भारत में जहाँ हिन्दू, जैन या बौद्ध ग्रन्थ मौन हो जाते हैं, वहाँ ये विदेशी विवरण ही इतिहासकार को कुछ प्रकाश दे पाते हैं। इनकी सहायता से कितनी ही बार भारतीय राजाओं की समसामयिकता विदेशी राजाओं से स्थापित हो गई है और इन विदेशी राजाओं के काल निश्चित होने के कारण भारतीय तिथिक्रम भी ठीक कर लिया गया है। ग्रीक सेन्द्रोकोत्तस (Sandrokottos) और चन्द्रगुप्त मौर्य की एकता स्थापित हो जाने से ही भारतीय तिथिक्रम का आरंभ हुआ।

  1. पुरातत्व संबंधी सामग्री-

पुरातात्विक सामग्रियों को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया गया है- (1) अभिलेख (2) प्राचीन स्मारक और (3) मुद्राएँ। ये सामग्री इतिहास लेखन में ऐतिहासिक स्रोतों को अधिक प्रकाश (स्पष्टता व प्रामाणिकता) प्रदान करते हैं तथा एक सच्चे ऐतिहासिक चित्र के निर्माण में सहायता करते हैं। यथा-

(1) अभिलेखों की इतिहास निर्माण में सहायता- जहाँ साहित्यिक सामग्री मूक या अस्पष्ट है, वहाँ अभिलेखों से बड़ी सहायता मिलती है। तिथियाँ स्थापित करने और साहित्यिकों तथा अन्य सामग्रियों को शुद्ध तथा पूर्ण करने में इनकी सहायता असामान्य सिद्ध होती है। उदाहरण के लिए इनके अभाव में खारवेल और समुद्रगुप्त (जिनका ज्ञान हमें क्रमशः हाथी गुम्फा और प्रयाग स्तंभ के लेख से हुआ) जैसे शक्तिमान सम्राटों की कीर्ति पर परदा पड़ा रहता और मध्यकालीन हिन्दू राजकुलों का हमारा ज्ञान नितान्त अपूर्ण रह जाता।

कभी-कभी विदेशी अभिलेखों से भी हमें भारतीय इतिहास के निर्माण में सहायता मिलती है। एशिया माइनर में वोगज कोई का अभिलेख, जिसमें ऋग्वैदिक देवताओं का उल्लेख है, संभवतः आर्यों के संक्रमण का साक्षी है।’

साहित्यिक सामग्री की भाँति प्रायः उनमें प्रक्षिप्तांश नहीं हो सकते। भाषा-विशेष से अभिलेखों का काल भी स्पष्ट हो जाता है। कुछ अभिलेख तो ऐतिहासिक श्रृंखला को स्थापित करने में बहुत आवश्यक हुए हैं।

भारत में अभिलेख का श्रीगणेश अशोक के काल से होता है। इतिहास के विद्यार्थी के लिए ये अभिलेख बहुत महत्व के हैं। अशोककालीन सभ्यता तथा संस्कृति पर इन अभिलेखों से बहुत अधिक प्रकाश पड़ता है। स्वयं अशोक ही भारतीय इतिहास का महत्वपूर्ण अंग है और इसका पूर्ण इतिहास जानने के लिए हमें उसके अभलेखों का ही सहारा लेना पड़ता है। अतः इन अभिलेखों की उपयोगिता के सम्बन्ध में विद्वानों में कोई विवाद नहीं है।

अभिलेख संस्कृत, प्राकृत अथवा मिश्रित, तमिल, तेलुगु तथा कन्नड़ आदि भाषाओं में खुदे हुए हैं। इन विभिन्न कोटि के अभिलेखों के अध्ययन से केवल किसी विशेष राजा के विषय में ही जानकारी नहीं होती है, अपितु इनकी भाषा के आधार पर तात्कालीन शक्तिशाली अथवा प्रचलित भाषा की लोकप्रियता अथवा उसकी शक्ति का पता चलता है। साथ ही तत्कालीन साहित्यिक शैली एवं साहित्य की प्रगति का भी बोध होता है। कला के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डालने में ये अभिलेख अधिक महत्वपूर्ण हैं। दानपत्रों से राज्य की सीमाओं का बोध होता है। राजा तथा प्रजा के बीच भूमि-सम्बन्धी समझौते का भी पता इन अभिलेखों से मिलता है।

(2) प्राचीन स्मारक- प्राचीन इमारतें और उनके भग्नावशेष भारतीय इतिहास के निर्माण में कुछ कम महत्वपूर्ण प्रमाणित नहीं हुए हैं। मन्दिर, स्तूप और विहार राजा और प्रजा दोनों के समान रूप से धार्मिक विश्वासों के प्रतीक हैं और काल-विशेष की वास्तु और शिल्प शैलियों पर भी वे प्रकाश डालते हैं।

पुरातत्ववेत्ताओं को प्राचीन स्मारकों के अध्ययन में कठिनाई का सामना अवश्य करना पड़ता है, किन्तु उस अध्ययन से सभ्यता तथा संस्कृति के जिस पहलू पर जितना प्रकाश पड़ता है, उतना अन्य किसी साक्ष्य से नहीं।

साहित्यिक सामग्री किसी काल-विशेष की किसी विशेष कला की शैली के विषय में बतला सकती है, पर उसका जीता-जागता उदाहरण हमें प्राचीन स्मारकों के रूप में ही प्राप्त होता है। विभिन्न प्रकार के भवन, राजप्रासाद, सार्वजनिक हाल, जनसाधारण के घर, विहार, मठ, चैत्य, स्तूप, समाधि आदि असंख्य वस्तुएँ अपने मूल रूप में या भग्नावशेष रूप में हमारे पिछले इतिहास को प्रकाशित करती हैं। कला के ज्ञान के साथ-साथ इनके अध्ययन से, तात्कालिक धार्मिक अवस्था का ज्ञान प्राप्त होता है। पूजा-पद्धति तथा धार्मिक विश्वासों को जानने के लिए जितना सहायक प्राचीन स्मारक हुए हैं, उतना संभवतः अन्य कोई सामग्री नहीं।

संस्कृति के अध्ययन के लिए हमें पूर्णत साहित्यिक स्रोतों पर ही आश्रित नहीं रहना चाहिए, क्योंकि साहित्यकार अपने कल्पना जगत में बहुत कुछ निर्मित कर जाता है। किन्तु प्राचीन स्मारक में अत्युक्ति कहां, वह तो जितनी कलाकार की शक्ति थी, उसका सर्वोत्कृष्ट  उदाहरण है।

भारत में प्राचीन स्मारकों को प्रकाशयुक्त करने में पुरातत्व विभाग ने अधिक धैर्य एवं साहस से काम लिया है। फलस्वरूप मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, तक्षशिला, मथुरा, सारनाथ, पाटलिपुत्र, नालन्दा, राजगिरि, साँची, लक्ष्मणेश्वर, तालकड़, मास्को आदि में जो खुदाइयां हुई हैं, उनसे इतिहास के कतिपय अन्ध युगों का ज्ञान प्राप्त हुआ है।

(3) मुद्राएँ- पुरातात्विक सामग्री में ऐतिहासिक सूचना प्राप्त करने में मुद्राओं का विशेष स्थान है, क्योंकि

(i) मुद्राएँ निष्पक्ष होती हैं। इनमें किसी सम्प्रदाय विशेष या किसी मत-विशेष का पक्ष लेकर पक्षपातयुक्त तथ्य का सम्पादन नहीं होता। ये पूर्णतया राजकीय होती हैं। इनसे जो कुछ सूचनाएँ मिलती हैं, वे विश्वसनीय होती हैं।

(ii) ये राजाओं की वंश-परम्परा का बोध कराती हैं।

(iii) तिथि एवं नामयुक्त मुद्राओं का तो इस क्षेत्र में अत्यधिक महत्व है। इनसे हमें इतिहास की उलझी हुई तिथियों का बोध होता है।

(iv) जिन मुद्राओं में तिथियां नहीं भी दी गयी हैं, उनकी तकनीक के आधार पर उनके समय का निर्धारण कुछ अन्वेषण के पश्चात् किया जाता है।

(v) इनसे राजाओं के साम्राज्य विस्तार का भी कुछ ज्ञान प्राप्त होता है।

(vi) इस प्रकार स्पष्ट है कि मुद्राओं से देश की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है। इसके अतिरिक्त मुद्राएँ आर्थिक परिस्थिति पर भी कुछ प्रकाश डालती हैं। उनकी धातुओं के आधार पर तत्कालीन आर्थिक अवस्था का ज्ञान होता है। इसके अतिरिक्त मुद्राएं सम्राट-विशेष के धर्म तथा उसकी रुचि की ओर भी परिलक्षित करती हैं।

(vii) मुद्राओं से भारत में राज्य करने वाले कुछ विदेशी शासकों जैसे हिन्द बैक्ट्रियन तथा हिन्द-यूनानी राजाओं के बारे में जानकारी मिलती है।

(viii) इनसे शासकों के धार्मिक विश्वासों पर प्रकाश पड़ता है।

(ix) इनसे शासकों की व्यक्तिगत रुचियों पर भी प्रकाश पड़ता है।

(x) सिक्कों पर उत्कीर्ण विभिन्न देवी-देवताओं के चित्रों से तत्कालीन धर्म के विषय में जानकारी मिलती है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मुद्राएँ ऐतिहासिक सामग्री प्रदान करने के साधनों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।

निष्कर्ष-

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि ऐतिहासिक स्रोत साहित्यिक तथा पुरातात्विक इतिहास के निर्माण में परस्पर पूरकता का कार्य करते हैं। साहित्यिक स्त्रोत जहाँ इतिहास की प्रचुर सामग्री प्रदान करते हैं, वहां पुरातात्विक सामग्री साहित्यिक स्रोतों की अस्पष्टता को दूर करती हैं, उन्हें कालक्रम की स्पष्टता प्रदान करती हैं, तिथिक्रम का निर्धारण करने में सहायता प्रदान करती हैं, राज्य विस्तार की सूचना देती हैं, भाषा के आधार पर सामाजिक परिस्थितियों को स्पष्ट करती हैं साहित्यिक स्त्रोतों की कल्पना को दूर कर उसमें यथार्थ तत्वों का समावेश कर इतिहास को प्रामाणिकता तथा क्रमबद्धता देती हैं।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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Pankaja Singh

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