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हिटलर की विदेश नीति के आधार | हिटलर की विदेश-नीति के उद्देश्य | हिटलर की विदेश नीति | हिटलर की विदेश नीति और द्वितीय विश्व युद्ध

हिटलर की विदेश नीति के आधार
हिटलर की विदेश नीति के आधार

हिटलर की विदेश नीति के आधार | हिटलर की विदेश-नीति के उद्देश्य | हिटलर की विदेश नीति | हिटलर की विदेश नीति और द्वितीय विश्व युद्ध

हिटलर की विदेश नीति के आधार

हिटलर की मान्यता थी कि प्रथम महायुद्ध में जर्मनी की पराजय नहीं हुयी थी, वरन् साम्यवादियों, यहूदियों और देश के अयोग्य व पराजयवादी राजनीतिज्ञों ने सेना के पीठ में छुरा घोंप दिया था। वर्साय की सन्धि को निरस्त करना हिटलर और उसके नाजी दल का मुख्य उद्देश्य था। हिटलर जर्मनी के गौरव की पुनः स्थापना करना चाहता था, किन्तु समझौते या वार्ता द्वारा नहीं, वरन् शक्ति के द्वारा । उस जर्मन जाति की श्रेष्ठता पर अटूट विश्वास था और वह उसका जन्मसिद्ध अधिकार समझता था कि वह संसार की निम्न स्तर की जातियों पर शासन करे।

जर्मनी की पुरानी सीमाओं की प्राप्ति के साथ-साथ वह जर्मनी की बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए नवीन प्रदेशों की प्राप्ति का भी इच्छुक था। वह पूर्व की ओर बढ़कर रूस के यूक्रेन आदि प्रदेशों को जर्मन साम्राज्य में मिलाना चाहता था। किन्तु उसका यह भी विश्वास था कि फ्रांस को पहले समाप्त करना आवश्यक है, क्योंकि वह जर्मनी का मित्र कभी भी नहीं बन सकता। हिटलर की मित्रता रखना चाहता था। किन्तु आवश्यकता पड़ने पर उससे लड़ने को भी तैयार था। हिटलर साम्यवाद को अपना शत्रु नम्बर एक समझता था, अतः उसने इटली और जापान जैसे साम्यवाद के विरोधी देशों से घनिष्ठ मित्रता कर ली ।

हिटलर की विदेश-नीति के उद्देश्य

हिटलर की विदेश नीति के उद्देश्य निम्न प्रकार थे

(1) पेरिस की सन्धियों को निरस्त करना- हिटलर वर्साय की सन्धि को अपमानजनक एवं अन्यायपूर्ण मानता था। अतः उसने वर्साय की सन्धि को निरस्त कराने का वचन दिया।

(2) वृहत्तर जर्मनी का निर्माण- हिटलर वृहत्तर जर्मनी का निर्माण करना चाहता था। वह जर्मन भाषा बोलने वाले प्रदेशों को जर्मन साम्राज्य में मिलाना चाहता था।

(3) जर्मन साम्राज्य का विस्तार करना- हिटलर जर्मन साम्राज्य के विस्तार के लिए कटिबद्ध था। वह पूर्वी यूरोप की ओर बढ़ना चाहता था। वह पोलैण्ड, रूस आदि पर भी जर्मनी का अधिपत्य स्थापित करना चाहता था।

(4) जर्मनी को विश्व की महानशक्ति बनाना- हिटलर जर्मनी को विश्व की एक महान शक्ति बनाना चाहता था, अतः वह अधिक से अधिक उपनिवेश प्राप्त करना चाहता था।

(5) युद्ध को अवश्यम्भावी मानना- हिटलर यह भली भाँति जानता था कि अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये उसे फ्रांस, रूस आदि के विरोध का सामना करना पड़ेगा, अतः वह युद्ध को अवश्यम्भावी मानता था।

हिटलर की विदेश नीति

30 जनवरी, 1933 के दिन हिटलर जर्मनी का चांसलर बना । सत्ता में आने के बाद उसकी विदेश नीति निम्नलिखित रही-

  1. राष्ट्रसंघ छोड़ना- 1932 में जनेवा नगर में निःशस्त्रीकरण सम्मेलन चल रहा था, जिसमें जर्मन प्रतिनिधि भाग ले रहे थे। 1933 में हिटलर ने यह माँग रखी कि उसे भी अन्य देशों के बराबर अस्त्र-शस्त्र निर्माण करने का अधिकार दिया जाय। फ्रांस और इंग्लैण्ड ने जर्मनी की माँग स्वीकार नहीं की, अतः हिटलर ने जर्मनी को राष्ट्रसंघ से बाहर कर दिया।
  2. युद्ध हर्जाने की रकम न देना- 1932 से ही जर्मनी ने युद्ध हर्जाने की किश्तें अदा करना बन्द कर दिया था। हिटलर ने घोषणा कर दी कि जर्मनी भविष्य में भी कोई किश्त नहीं देगा। फ्रांस ने हिटलर के इस कार्य का तीव्र विरोध किया, किन्तु इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि ने इस सम्बन्ध में हिटलर का विशेष विरोध नहीं किया।
  3. जर्मनी और पोलैण्ड का अनाक्रमण समझौता- यद्यपि वर्साय की संधि के समय से पोलैण्ड और जर्मनी के सम्बन्ध अत्यन्त कटुतापूर्ण थे, परन्तु हिटलर ने 1934 में पोलैण्ड के साथ अनाक्रमण समझौता करके समस्त विश्व को आश्चर्य में डाल दिया। इस समझौते के अनुसार दोनों देशों ने एक-दूसरे की सीमा पर 10 वर्ष तक आक्रमण न करने का वचन दिया। यह हिटलर की कूटनीतिक सफलता थी।
  4. सार प्रदेश की प्राप्ति- 1935 में राष्ट्र संघ के तत्वावधान में जनमत संग्रह कराया गया कि सार का प्रदेश फ्रांस के अधीन रहना चाहता है या जर्मन साम्राज्य में मिलना चाहता है। जनमत संग्रह के अनुसार 90 प्रतिशत जनता ने सार के प्रदेश को जर्मन-साम्राज्य में सम्मिलित करने के पक्ष में मतदान किया। 11 मार्च, 1935 को सार का प्रदेश जर्मनी में सम्मिलित कर लिया गया।
  5. वर्साय की सन्धि की शर्ते तोड़ना- वर्साय की सन्धि ने जर्मनी की नदियों के सम्बन्छ में अन्तर्राष्ट्रीय प्रबन्धक की व्यवस्था की थी। हिटलर ने इस व्यवस्था को समाप्त कर नदियों पर पूर्ण जर्मन अधिकार स्थापित कर लिया। 1935 तक जर्मनी में गुप्त रूप से शस्त्रीकरण होता रहा, किन्तु अब खुले रूप से किया जाने लगा। अनिवार्य सैनिक सेवा फिर लागू कर दी गई और वायु सेना का निर्माण जोर-शोर से होने लगा। सन्धि की अवहेलना करने में हिटलर का साथ दिया। 1936 में जर्मन सेना राइनलैण्ड में प्रविष्ट हो गई और वहाँ किलेबन्दी कर ली। 1937 में हिटलर ने घोषणा कर दी कि वह वर्साय सन्धि की युद्ध-दोष सम्बन्धी धारा को नहीं मानेगा।
  6. इटली और जापान से मित्रता- हिटलर को ऐसे मित्रों की तलाश थी जो कि उसकी तरह सैनिकवाद और साम्राज्यवाद में विश्वास करें। उसने इटली के साथ सन्धि की जो रोम- बर्लिन धुरी के नाम से प्रसिद्ध है। बाद में जापान भी इसमें सम्मिलित हो गया। हिटलर ने साम्यवाद विरोधी मोर्चा भी स्थापित किया जिसमें इटली और जापान के अतिरिक्त स्पेन, हंगरी आदि देश भी सम्मिलित हो गये।
  7. आस्ट्रिया का जर्मनी में विलय- हिटलर की हार्दिक इच्छा थी कि आस्ट्रिया का जर्मनी में विलय हो जाए, क्योंकि वहाँ के निवासी जर्मन थे। 1934 में आस्ट्रिया के नाजियों ने जर्मनी के साथ मिलने का अपना आन्दोलन उग्र कर दिया, वहाँ अनेक दंगे हुए और वहाँ के चांसलर डाल्फस की हत्था कर दी गई, लेकिन इटली, इंग्लैण्ड और फ्रांस के विरोध के कारण हिटलर उस समय आस्ट्रिया लेने में सफल नहीं हो सका, परन्तु मार्च, 1938 में हिटलर ने आस्ट्रिया को जर्मनी में मिला लिया। उसके इस कार्य का कोई विशेष विरोध नहीं हुआ क्योंकि उस समय इटली जर्मनी का मित्र बन चुका था और जर्मनी बहुत शक्तिशाली बन चुका था। वैसे भी आस्ट्रिया की अधिकांश जनता जर्मनी में अपना विलय चाहती थी।
  8. चेकोस्लोवाकिया का अंग-भंग- वर्साय की सन्धि द्वारा चेको-स्लोवाकिया ने नवीन राज्य का निर्माण किया गया था। जिसके सुडेटनलैण्ड प्रदेश में लगभग 35 लाख जर्मन निवास करते थे। इस प्रकार की व्यवस्था आत्म-निर्णय के सिद्धान्त के प्रतिकूल थी। हिटलर ने मांग की सुडेटनलैण्ड का प्रदेश जर्मनी को वापस किया जाय, उसकी यह माँग न्यायसंगत थी। इस सम्बन्ध में इंग्लैण्ड के शासकों और जनता की सहानुभूति जर्मनी के साथ ही थीं। फ्रांस की चेकोस्लोवाकिया के साथ सन्धि थी, किन्तु वहाँ भी जर्मनी की माँग को न्यायसंगत समझने वाले बहुत-से लोग थे और फिर बिना इंग्लैण्ड की सहायता से फ्रांस जर्मनी से लड़ भी नहीं सकता था।

विवाद का शान्तिपूर्ण हल निकालने के लिये इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री स्वयं हिटलर से मिलने जर्मनी गया और अन्त में जर्मनी म्यूनिख नगर में इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी और इटली ने वार्ता द्वारा एक समझौता किया जिसके अनुसार सुडेटनलैण्ड जर्मनी को मिल गया। कुछ महीने बाद हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया को भड़का कर स्वतन्त्र राज्य घोषित करवा लिया और शेष चेकोस्लोवाकिया (बोहेमिया) की सरकार पर दबाव डालकर जर्मनी का संरक्षण स्वीकार करने को राजी कर लिया। इस बार हिटलर ने आम-समर्पण के सिद्धान्त की अवहेलना की और अब इंग्लैण्ड और फ्रांस समझ गये कि हिटलर को कभी सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता है।

  1. मेमल पर अधिकार- 22 मार्च सन् 1939 को हिटलर ने मेमल बन्दरगाह पर अधिकार कर लिया, जहाँ के बहुसंख्यक नागरिक जर्मन थे। वर्साय सन्धि के अनुसार यह लिथुआनिया को दे दिया गया था।
  2. सोवियत जर्मन समझौता- प्रारम्भ में पश्चिमी देशों ने रूस के साथ समझौता करने का प्रयास किया, परन्तु यह समझौता वार्ता असफल हो गई। हिटलर ने इसका लाभ उठाया और 23 अगस्त 1939 को रूस तथा जर्मनी के बीच एक समझौता हुआ जिसके अनुसार दोनों देशों ने एक-दूसरे पर आक्रमण न करने का बचन दिया। इसके अतिरिक्त दोनों देशों ने पूर्वी यूरोप को आपस में बाँट लेने की योजना बनाई। रूस के साथ समझौता हो जाने से हिटलर को पूर्वी मोर्चे पर किसी प्रकार के आक्रमण की आशंका न रही और वह अपनी पूरी शक्ति पश्चिमी मोर्चे पर मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध लगा सकता था।
  3. डेंजिंग की माँग- जब चेकोस्लोवाकिया का राज्य हिटलर ने नष्ट कर दिया तो इंग्लैण्ड की आँखें खुलीं। इन्हीं दिनों हिटलर ने पोलैण्ड से डेंजिंग बन्दरगाह और गलियारे की माँग करना शुरू कर दिया था। यह देखकर इंग्लैण्ड ने पोलैण्ड को आक्रमण के विरुद्ध गारण्टी दे दी। डेंजिंग के सम्बन्ध में भी हिटलर की माँग में औचित्य था। लेकिन वह जिस प्रकार धमकियाँ दे रहा था वह इंग्लैण्ड और फ्रांस को सहन नहीं हुआ। पोलैण्ड ने जर्मनी की माँग ठुकरा दी और यही द्वितीय युद्ध का कारण बन गया।
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Pankaja Singh

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