गुहा वास्तु | अशोक के राज्यकाल में निर्मित गुहा वास्तुकला | शुंग व सातवाहन काल में गुहा वास्तुकला | गुप्त काल में गुहा वास्तुकला का विकास
गुहा वास्तु (Cave Architecture)
भारत में गुहावास्तु की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। प्रागैतिहासिक काल की अनेको गुफायें, लहोरियादह नामक ग्राम के निकट आज भी विद्यमान है। “लहोरियादह” नामक स्थान, मिर्जापुर से लगभग 45 मील दूर है। इन गुहाओं में पाँच-पाँच हजार वर्ष पूर्व की गयी चित्रकारी आज भी देखी जा सकती है। अनेक बौद्ध सम्राटों ने भिक्षुसंघों के लिये अनेक गुहाओं को वनवाया। प्रमुख गुफाओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है-
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अशोककालीन गुहाये—
अशोक एवं उसके पौत्र दशरथ ने बौद्ध भिक्षुओं हेतु अनेक गुहाओं को बनवाया था। अब तक, अशोक एवं दशरथ द्वारा निर्मित सात गुफाओं का पता लगा चुका है। इनमें से ‘बराबर’ पहाड़ी में चार गुहायें तथा “नागार्जुनी पहाड़ी’ में तीन गुहायें हैं।
‘बराबर’ पहाड़ी गुहाओं में प्राप्त गुहा लेखों से यह ज्ञात होता है कि, इन गुहाओं को सम्राट अशोक ने बनवाया था। बराबर पहाड़ी की गुहायें विशाल कक्षों के रूप में निर्मित हैं। इन कमरों की अन्दर की दीवारों पर अत्यन्त भव्य चमकीला ‘वज्रलेप’ है, इसमें कहीं-कहीं तो मुँह भी देखा जा सकता है। बराबर पहाड़ी की गुहाओं में, कर्म चौपला गुहा, लोमश ऋषि गुहा तथा सुदामा गुहा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन तीनों गुफाओं में से सुदामा गुहा सर्वाधिक प्राचीन मानी जाती है। इस गुफा में अशोक का एक ‘गुहा लेख’ भी है। इस गुहा का निर्माण सम्राट अशोक ने अपने शासनकाल के 12वें वर्ष में आजीविकों के रहने के लिये करवाया था। इस गुहा में दो कक्ष हैं। बाह्य कक्ष की लम्बाई व चौड़ाई क्रमशः 32 फुट 9 इंच तथा 19% फुट है। इसेक पीछे 19 फुट 11 इचx 19 फुट का सम्भवतः एक गोलाकार कक्ष है। बाहा कमरा सम्भवतः सभा भवन हैं। यह कमरा 12 फुट 3 इंच ऊँचा है। इस कमरे की छत ढोलक के आकार की है। इस गुहा का मुख्य द्वार, लकड़ी द्वारा निर्मित द्वार के समान दो ढालू स्तम्भों पर टिका हुआ प्रतीत होता है।
कर्ण चौपला गुहा में उत्कीर्ण लेख के अनुसार इस गुहा का निर्माण अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 19वें वर्ष में करवाया था। इस गुहा का सभाभवन आयताकार हैं तथा इसकी लम्बाई 33V फुट व चौड़ाई 14 फुट है। इसकी छत 4 फुट 8 इंच ऊँची है।
सुदामा गुहा, कर्ण चौपला गुहा तथा लोमश ऋषि गुहाओं में से सर्वाधिक सुन्दर लोमश ऋषि की गुहा है। गुहा के प्रवेश द्वार को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि किसी राजप्रासाद का विशाल प्रवेशद्वार हो। इस द्वार को, पर्णशालाओं के अनुरूप निर्मित किया गया है। ऐसा परिलक्षित होता है कि लकड़ी द्वारा निर्मित द्वार को आदर्श मानकर इसको बनाया गया है। अन्दर की ओर झुके हुए स्तम्भ तथा नुकीले मेहराब, लकड़ी के द्वार की स्मृति दिलाते हैं। इस गुहा के प्रवेश द्वार पर हस्तियों द्वारा, स्तूप पूजा का एक भव्य दृश्य अंकित है। इन हाथियों की सजीवता एवं भक्ति देखने योग्य है। मेहराब में जालीयुक्त कार्य भी अत्यन्त सराहनीय है। अन्दर की भित्तियों पर चमकीली पॉलिश है। लोमश ऋषि गुहा में कोई गुहालेख उत्कीर्ण नहीं है। पर इसकी दीवारों की चमकीली पॉलिश तथा निकटस्थ गुहाओं से समानता के आधार पर, इस गुहा को अशोक द्वारा निर्मित माना जाता है।
‘नागार्जुनी’ पहाड़ियों का निर्माणकर्ता, अशोक का पौत्र, दशरथ था। इस तथ्य की पुष्टि, गोपी गुहा के द्वार पर उत्कीर्ण गुहा लेख से होती है। ‘गोपी’ गुहा का आकार चौड़ी सुरंग के सदृश्य है। इस गुहा की लम्बाई, चौड़ाई एवं ऊंचाई क्रमशः 44 फुट, 19 फुट, 10 फुट है। शिल्प सौन्दर्य की दृष्टि से गोपी गुहा कोई विशेष महत्त्व की नहीं है।
खंपराखोड़िया नामक गुहाएँ भी जो जूनागढ़ में है, अशोक के समय की मानी जाती है। ‘ऊपर कोट’ की गुहा में दो खण्ड है। ऊपर के खण्ड में एक सरोवर है, जिसके चतुर्दिक गलीनुमा मार्ग है। इस गुहा के स्तम्भ पर चमकीली पॉलिश है। डॉ0 वराजेस का कहना है कि संभवतः ऐसे स्तम्भ कहीं भी वहीं है। गिरिनार पर्वत की ओर जाने हेतु ‘वागेश्वरीद्वार’ पर बनी ‘बाबाप्यारा’ नामक गुहाओं को भी अशोकयुगीन ही माना जाता है।
अशोकयुगीन ‘गुहा वास्तु’ के अध्ययन के उपरान्त, निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है तत्कालीन गुहायें दो प्रकार की हैं—(1) चैत्य। (2) विहार। पर्णशालाओं व लकड़ी के शिल्प को आदर्श मानकर इन गुहाओं का निर्माण किया गया है। ये गुहायें प्रायः दो-दो कक्षों की हैं। इन गुहाओं में अलंकरण का अभाव है। अधिकांशतः गुहाओं में ‘गुहालेख’ उत्कीर्ण हैं, जिनसे गुहाओं के निर्माणकर्ता का तथा उस गुहा को निर्माण कराने के उद्देश्य का ज्ञान होता है।
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शुंग-सातवाहनकालीन गुहायें-
इस युग में ‘गुहावास्तु’ अपनी प्रगति के चरम शिखर पर पहुंच गयी थी। मौर्ययुगीन गुहायें लघु आकार की थीं, परन्तु इस युग में गुहाओं का आकार विशाल हो गया। इस युग में पर्वत को काटकर, उसके भीतर, विशाल गुहायें खोदी गयी हैं। उड़ीसा की गुहाओं का आकार लघु है, लेकिन उनमें भी एक नवीन शैली परिलक्षित होती है। इन गुहाओं की विशेषता है—गुहाओं के सामने स्तम्भों पर आधारित छोटे-छोटे प्रकोष्ठ एवं दो मंजिले। इन गुहाओं में पूजा हेतु किसी प्रकार के मन्दिर, चैत्य अथवा स्तूप नहीं हैं।
उदयगिरि एवं खण्डगिरि की पहाड़ियाँ, उड़ीसा में भुवनेश्वर से 5 मील दूर उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित हैं। उदयगिरि पहाड़ी की गुहाओं की संख्या 19 है तथा खण्डगिरि में 16 गुहायें हैं। उदयगिरि की मुख्य गुहाये हैं रानीगुप्फा, गणेश गुम्फा, हाथीगुम्फा, व्याघ्रगुम्फा, मंचापुरी गुम्फा। इनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण हाथी गुम्फा है। हाथी गुम्फा में कलिंग नरेश खारवेल का ब्राह्मी लिपि में एक लेख उत्कीर्ण है। यह लेख खारवेल ने अपने शासन के 13वें वर्ष अर्थात् 155 ई.पू. में उत्कीर्ण कराया था। हाथीगुम्फा अभिलेख में खारवेल के जीवन चरित्र एवं उपलब्धियाँ का वर्णन किया गया है। इसी अभिलेख से यह भी पता चलता है कि खारवेल ने अपने राज्याभिषेक के 13वें वर्ष में जैन साधुओं के रहने हेतु कुमारी पर्वत अर्थात् उदयगिरि खण्डगिरि पर अनेक गुहायें बनवायी थीं।
उदयगिरि की गुहाओं में द्वितीय प्राचीनतम गुहा है….मंचापुरी गुहा। मंचापुरी गुहा में खारवेल की रानी एवं राजा वक्रदेव श्री के गुहा लेख प्राप्त हुए हैं। वक्र देव श्री, खारवेल के ही वंश का था। यह गुहा दो मंजिल की है। नीचे की मंजिल में अनेक कक्ष एवं स्तम्भ युक्त बरामदा है। नीचे की मंजिल में उत्कीर्ण लघुलेखों से यह पता चलता है कि इस गुहा के मुख्य में निकट के कक्षों को, खारवेल के परवतीं वक्रदेव श्री ने बनवाया था। ऊपरी मंजिल में केवल स्तम्भयुक्त बरामदा है। बरामदे में ही खारवेल की रानी के लेख उत्कीर्ण हैं। इन गुहाओं में उच्च कोटि की कला परिलक्षित नहीं होती है। इसके अतिरिक्त, जय-विजय गुम्फा, अलकापुरी गुम्फा, गणेश गुम्फा इत्यादि गुहायें भी निम्न श्रेणी की गुहाओं के अन्तर्गत आती हैं।
खण्डगिरि की अलंकृत गुहाओं में से अनन्त गुम्फा, विशेष महत्वपूर्ण है। अनन्त गुम्फा केवल एक मंजिल की है, इसके भीतर स्तम्भ युक्त बरामदा तथा अनेक कक्ष हैं। इसके प्रवेश द्वार अलंकृत मेहराबों से शोभित हैं। मेहराबों के सामने के भागों पर विभिन्न चित्र अंकित किये गये हैं यथा—पशु-पक्षी, तीन फन वाले सर्प, उड़ते हुए गन्धर्व इत्यादि। यहाँ पर चित्रित पद्मासन लक्ष्मी का चित्र भी देखने योग्य है। लक्ष्मी के दोनों ओर हस्ति बने हुए हैं। एक स्थान पर चार घोड़ों के रथ में विराजमान सूर्य का चित्र है।
उड़ीसा की गुहाओं में से सर्वाधिक बड़ी एवं सबसे अधिक अलंकृत गुहा है—“रानी गुम्फा।” इस गुहा के चित्रों में यथार्थता, तेजस्विता एवं प्रभावोत्पादकता विद्यमान है। प्रथम मंजिल में बने चित्र सुन्दर नहीं हैं। ऊपर की मंजिल में निर्मित चित्र, गान्धार कला से प्रभावित हैं। भवन विजेता तथा शेर के चित्रों में, पश्चिमी एशिया की कला परम्परा परिलक्षित होती है। निचली मंजिल पर बने रक्षकों के चित्र पूर्णरूपेण भारतीय हैं। इस उगहा की दोनों मंजिलों का निर्माण काल भी अलग-अलग प्रतीत होता है। नीचे की मंजिल ऊपर की मंजिल से प्राचीन है।
महाराष्ट्र की गुहाओं में से विशेष उल्लेखनीय गुहायें हैं— नासिक, भाजा, कार्ले, अजन्ता तथा पीतखोरा की गुहायें। महाराष्ट्र की ये समस्त गुहायें बौद्ध धर्म से सम्बन्धित हैं।
गोदावरी के तट पर बसे नासिक नगर से लगभग 5 मील दूर, आगरा-बम्बई पथ पर, सड़क के दायीं ओर “त्रिरश्मि” नामक एक पहाड़ी है। इस पहाड़ी पर 23 गुहायें बनी हुई हैं। इन गुहाओं को ‘पाथुलेण’ गुहायें कहा जाता है। इन गुहाओं में 3 अथवा 4 चैत्य हैं, शेष समस्त ‘विहार’ हैं। ये गुहायें बौद्ध धर्म के हीनयान सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं। इन गुहाओं में बुद्ध अथवा बोधिसत्व की कोई मूर्ति नहीं मिली है। लेकिन महात्मा बुद्ध के स्मारक के रूप में उनकी उर्णीष इत्यादि प्रतीक अवश्य प्राप्त हुए हैं। इनमें से अधिकांश गुहाएँ आन्ध्र वंश के राजाओं द्वारा निर्मित हैं तथा कुछ गुहायें शकों, पार्थियनों एवं यवनों के द्वारा भी निर्मित करवायी गयी है।
नासिक की सबसे प्राचीन गुहायें लघु आकार की है, लेकिन बाद में इन गुहाओं का आकार विशाल किया गया है। नहपान विहार के अन्दर का मण्डप 40 वर्ग फुट का है। मण्डप के तीनों ओर कुछ लघु कक्ष हैं। सामने मुख मण्डप में 6 स्तम्भ हैं। इस मुख मण्डप के दोनों सिरों पर एक-एक कक्षा बना हुआ है। गौतमी पुत्र शातकर्णी द्वारा निर्मित बिहार भी वास्तु कला की दृष्टि से नहपान-विहार के सदृश ही है। यज्ञ श्री शातकर्णी द्वारा बनवाया गया विहार 61 फुट लम्बा है। यह विहार बाहर की ओर से 37।। फुट तथा अन्दर की ओर से 44 फुट चौड़ा है। मण्डप के पृष्ठ भाग में अलंकृत स्तम्भों में एक गर्भगृह है। इसके तीन ओर कोठरियाँ बनी हुई हैं। पाण्डुलेण नामक चैत्यगृह तत्कालीन वास्तुकला का सबसे उत्तम उदाहरण है।
ऐतिहासिक दृष्टि से, नासिक की इन गुहाओं का अत्यन्त महत्व है। इन गुहाओं में उत्कीर्ण अभिलेखों से, उस समय के इतिहास का पता चलता है तथा साथ ही तत्कालीन, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक स्थिति की वास्तविकता का भी ज्ञान होता है।
कार्ले की गुहाएँ भी भोरघाट पहाड़ियों में स्थित हैं। यह बम्बई-पूना रेल मार्ग पर मलवली स्टेशन से लगभग 3 मील दक्षिण पूर्व में स्थित हैं। यहाँ पर गुहाएँ पर्वत के मध्य में लगभग 2 फलांग ऊँचाई पर निर्मित हैं। कार्ले की गुहाओं में एक भव्य चैत्य-गृह तथा अनेक विहार हैं। यहाँ के विहारों की वास्तुकला अत्यन्त सामान्य है। विहार नम्बर दो त्रिभूमिक है तथा विहार नम्बर ‘चार’ हरफान नाम के एक पारसी द्वारा निर्मित है।
कार्ले के चैत्य की वास्तुकला अत्यन्त उच्च श्रेणी की है। इस चैत्य के मुखमण्डल पर उत्कीर्ण एक लेख के अनुसार यह चैत्य सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में सबसे श्रेष्ठ था। इस चैत्यगृह की लम्बाई 124 फुट तथा 10 फुट चौड़े प्रदक्षिणा पथ सहित 45।। फुट चौड़ा है। इसकी छत ढोलाकार है। इस छत की ऊँचाई 45 फुट है। चैत्य का मुखमण्डप दो मंजिल का है। प्रथम मंजिल दो स्तम्भों पर तथा द्वितीय मंजिल चार स्तम्भों एवं दो छोटे पार्श्व स्तम्भों पर आश्रित है। मुखमण्डप की पृष्ठ भित्ति पर विशाल मिथुन प्रतिमाएँ अंकित हैं। दोनों पार्यों में ऊँचे चत्वरों पर महाकाय हाथी की प्रतिमाएँ खड़ी हैं। दूसरी मंजिल में पीछे की ओर कीर्ति-मुख बना है। अन्दर के मण्डप में दोनों ओर भव्य स्तम्भों की दो पंक्तियाँ हैं। प्रत्येक पंक्ति में 15-15 स्तम्भ बने हुए हैं। प्रत्येक स्तम्भ में एक-एक ऊँची वेदिका है तथा उसके ऊपर आठ पहलू के स्तम्भ हैं। इस स्तम्भ के ऊपर अलंकृत शीर्ष हैं। अन्दर के भाग में दो झुके हुए हस्ति दर्शाये गये हैं, जिन पर एक-एक नारी तथा एक-एक पुरुष बैठा हुआ है, पीछे की ओर एक सिंह एवं एक अश्व है। इन पर एक-एक पुरुष बैठा हुआ है। गर्भ गृह के बीच में एक स्तूप है। इसके दो स्तम्भों में से अब एक ही स्तम्भ-शेष है। यह चार मुख वाला कीर्ति स्तम्भ 50 फुट ऊँचा है।
भारतीय गुहावास्तु की दृष्टि से, अजन्ता की गुहाएँ सर्वोत्तम हैं। गुहावास्तु के अतिरिक्त, चित्र कला एवं मूर्ति-कला की दृष्टि से भी अजन्ता की गुफाएँ अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सत्यादि पर्वत की एक पहाड़ी का नाम अजन्ता है। यह पाचोराजामनेर रेलवे लाईन पर ‘पहूर’ स्टेशन से 7 मील दक्षिण में स्थित है। अजन्ता की अर्द्धचन्द्र के आकार की पहाड़ी में विशाल पर्वत श्रृंखलाओं को काट कर एक मील के अर्द्ध वर्गाकार घेरे में 29 गुफायें बनी हुई हैं। गुफाओं के चतुर्दिक ऊँची-ऊंची दीवारें, सामने बाघोरा नदी तथा निकट ही परिजात के विशाल वन हैं। ऐसेक्षभव्य एवं शान्त वातावरण में ईस्वी पूर्व दूसरी शती से सातवीं शती तक अर्थात् 1,000 वर्षों तक कलाकार (चित्रकार एवं मूर्तिकार) अपनी कला को प्रदर्शित करते रहे। उनके इस अथक परिश्रम के परिणामस्वरूप अत्यन्त भव्य गुफाओं का निर्माण हुआ।
अजन्ता में दो प्रकार की गुहायें हैं—
(1) चैत्य एवं
(2) विहार।
गुफा नम्बर 9, 10, 19 एवं 26 चैत्यगृह हैं तथा शेष समस्त 25 गुहायें विहार हैं। ऐतिहासिक दृष्टिकोण के अनुसार इन गुफाओं को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है— (1)आन्ध्र राजाओं के आश्रय में बनी गुहायें (2) गुप्तकालीन गुहायें। अजन्ता की गुफा नम्बर 8, 9, 10, 12, 13 पहली श्रेणी के अन्तर्गत आती हैं तथा शेष समस्त गुहायें दूसरी श्रेणी अर्थात् गुप्तयुगीन मानी जाती हैं। इन गुफाओं में गुफा नम्बर 1,2, 9, 10, 12, 16, 17, 19 एवं 26 चित्रकला, मूर्तिकला एवं शिल्पकला की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
अजन्ता की गुहा नम्बर 10 सर्वाधिक विशाल एवं सर्वाधिक प्राचीन चैत्यगृह है। इसमें उत्कीर्ण एक गुहा लेख से यह ज्ञात होता है कि वासिदी पुत्र कट्ठादि ने इसको बनवाकर, भिक्षुओं को, दान में दी थी। वह गुहा 961/2 फुट गहरी, 41 फुट 3 इंच चौड़ी एवं 36 फुट ऊँची है। इस गुहा में मण्डप एवं प्रदक्षिणा पथ के बीच में 59 स्तम्भों की पंक्ति बनी हुई है। मण्डप की छत ढोलाकार है। छत में पहले काष्ठ की विशाल बल्लियाँ लगी हुई थीं। इनकी चूलों के छिद्र अभी भी दिखाई देते हैं। चैत्य में स्थापित स्तूप नीचे की ओर से गोल तथा ऊपर की ओर से लम्बोतरा है। चैत्य में स्तम्भों, गवाक्षों एवं भित्तियों पर महात्मा बुद्ध के अनेक मुद्राओं में चित्र अंकित हैं।
अजन्ता की गुहा नम्बर 9 भी चैत्यगृह ही है। इस चैत्यगृह के प्रवेश द्वार के पार्श्व में दो झरोखे हैं। प्रवेश द्वार एवं झरोखे के ऊपर के छज्जों पर एक संगीतशाला है। गुहा के अन्दर एक मण्डप है। यह मण्डप वर्गाकार है। इसी चैत्यगृह के साथ ही गुहा नम्बर 8 भी निर्मित हुई है। यह बौद्ध धर्म की प्राचीन शाखा हीनयान से सम्बन्धित ‘विहार’ है।
12 व 13 नम्बर की गुहा भी इसी समय में निर्मित विहार है। 12वीं गुहा, 10वीं गुहा के चैत्यगृह से सम्बन्धित है तथा गुह नम्बर 13, 12वीं गुहा की ही पूरक है। विद्वानों का यह विचार है कि भिक्षुओं की संख्या बढ़ जाने पर इसको बनवाया गया होगा। प्रो० कृष्ण दत्त वाजपेयी के अनुसार–“गुहा नम्बर 12, विहार वास्तुकला का उत्तम उदाहरण है। उसके सामने का भाग नष्ट हो गया है। भीतरी मण्डप 38 फुट वर्गाकार है। उसके दोनों ओर खम्भों की पंक्ति है, जिसके ऊपर भाग को घुड़नाल शोभापट्टी से सजाया गया है। मण्डप के तीन ओर 4-4 कोठरियाँ हैं। उनमें विश्राम चौकियों के साथ शिरोपधान अथवा तकिये भी बनाये गये थे। भिक्षुओं के इन कक्षों में दरवाजों के किवाड़ काष्ठ के बने थे जो अब नष्ट हो चुके हैं।’ गुहा नम्बर 13 को सम्भवतः भिक्षुओं के निवास हेतु निर्मित कराया गया था, लेकिन बाद में 14 x 17 x 7 फुट का एक मण्डप बनाकर उसे विहार बना दिया गया है।
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गुप्तकालीन गुहायें—
गुप्तयुगीन वास्तु के सर्वोत्तम उदाहरण हैं—अजन्ता, एलोरा, बाघ एवं उदयगिरि की गुहायें। गुप्तयुगीन गुहावास्तु तीन धार्मिक सम्प्रदायों से सम्बन्धित हैं- जैन, बौद्ध और ब्राह्मण। बौद्ध धर्म से सम्बन्धित हैं—अजन्ता एवं बाघ की गुहायें। एलोरा की गुहायें, ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन धर्मों से सम्बन्धित हैं तथा उदयगिरि की गुहायें भागवत धर्म से सम्बन्धित हैं।
अजन्ता की गुहा नम्बर 8, 9, 10, 12, 13 गुहाओं के अतिरिक्त शेष समस्त गुहायें (24) गुप्तकाल में ही बनी थीं। इन 24 गुहाओं में से गुहा नम्बर 19 एवं 26 चैत्य हैं तथा शेष अन्य बिहार। इनमें से गुहा नम्बर 1,2,4, 16, 17 एवं 24 विशेष महत्त्वपूर्ण गुहायें हैं।
अजन्ता की गुहा नम्बर 1, छठीं सदी अर्थात् उत्तर गुप्तकाल में बनी थी। इस गुहा का मुख्य मण्डप वर्गाकार है। यह 64 फुट का है। इसमें बोधिसत्वों के अनेक भव्य चित्रों का चित्रण किया गया है।
पद्मपाणि अवलोकितेश्वर का चित्र तो अत्यन्त निराला है। इस चित्र में अवलोकितेश्वर को मनुष्य के वास्तविक आकार से विशाल एवं निकट में चित्रित अन्य आकृतियों से अत्यन्त विशाल दर्शाया गया है। अवलोकितेश्वर विचार में मग्न हैं तथा आगे झुककर, नीचे की ओर कुछ निहार रहे हैं।
अजन्ता की गुहा नम्बर 2, भी लगभग इसी समय बनी। इस गुहा में बोधिसत्वों के अनेक भव्य चित्र हैं। छत में की गयी चित्रकारी अत्यन्त आकर्षक है। विभिन्न पशु-पक्षियों, पुष्प एवं वृक्षों, गन्धर्व युगलों एवं अनेक आलेखनों में पूर्णरूप से अलंकृत यह गुहा अन्य समस्त गुहाओं से बड़ी है। यह गुहा 87 फुट वर्ग की है। इस गुहा की छत 28 स्तम्भों पर आश्रित है। इस स्तम्भों की भव्यता देखने योग्य है।
गुहा नम्बर 16 से गुप्तयुगीन है। इस गुहा में महात्मा बुद्ध के जीवन की अनेक घटनाओं का अंकन किया गया था, लेकिन आज ये चित्र बहुत कम संख्या में उपलब्ध हैं। इसमें दो चित्र विशेष उल्लेखनीय हैं। ये चित्र हैं (1) मरणासन राजकुमारी का चित्र–इस चित्र में राजकुमारी की दयनीय स्थिति एवं निकटस्थ व्यक्तियों की वेदना से प्रभावित होकर, जेम्स ग्रिफिथ ने कहा था–“This Picture I consider, cannot be surpassed in the history of art.” दूसरा चित्र है- महात्मा बुद्ध का महाभिनिष्क्रमण- इस दृश्य में सिद्धार्थ गृह त्याग करने से पूर्व निद्रारत पुत्र एवं पत्नी को अन्तिम बार देख रहे हैं, लेकिन चेहरा ममत्व विहीन हैं। चित्र से अहिंसा, शान्ति एवं वैराग्य ही परिलक्षित होता है।
अजन्ता की गुहा नम्बर 17 वाकाटक राजा, हरिषेण ने बनवायी थी। गुहा नम्बर 16 के समान ही इस गुहा का आकार है। अजन्ता की समस्त गुहाओं में से सर्वाधिक सुन्दर यही गुहा मानी जाती है। इस गुहा में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाओं के अतिरिक्त अनेक लौकिक चित्रों का अंकन भी अत्यन्त भव्य ढंग से किया गया है।
विदिशा के निकट ही, उदयगिरि की गुहाएँ हैं। इन गुहाओं में प्राप्त अभिलेखों से यह ज्ञात होता है कि इन गुहाओं को चन्द्रगुप्त द्वितीय तथा कुमार गुप्त प्रथम के काल में बनवाया गया था। उदयगिरि में कुल 20 गुहाएँ हैं। उनमें से तीन गुहालेख संस्कृत में लिखे हुए हैं। इनमें से दो अभिलेख, चन्द्रगुप्त द्वितीय के हैं। एक लेख में लिखा है.-“सारी पृथ्वी जीतकर चन्द्रगुप्त यहाँ आये तथा उनके सान्धि विग्रहिक मन्त्री वीरसेन साव ने यह अभिलेख खुदवाया।” उदयगिरि की गुहाएँ ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित हैं। यहाँ की प्रत्येक गुहा में वैदिक एक पौराणिक देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ हैं। गुहा नम्बर 5 में वाराह भगवान् की विशाल प्रतिमा देखने योग्य है। वाराह भगवान् वैजयन्ती माला धारण किये हुए अलीढ़ मुद्रा में खड़े हैं, दाहिना हाथ कमर पर है, तथा बायाँ हाथ बायें घुटने पर है, तथा पैर शेष नाग की कुण्डलियों पर रखा हुआ है। एक लघु पृथ्वी मूर्ति दाढ़ पर आश्रित है जिसका वाराह भगवान् ने उद्धार किया था। देवता पंक्तियों में खड़े हैं, शेषनाग अञ्जलिबद्ध सेवा में लग्न हैं। वाराह भगवान् की ऐसी ओजमयी प्रतिमा भारतीय कला में अन्यत्र नहीं है।”
विन्ध्यश्रृंखला में, बाघ नदी के किनारे, बाघ की गुहाएँ स्थित हैं। बाघ एक ग्राम है। यह बाघ नदी के तट पर माहू (मध्य प्रदेश) से लगभग 30 मील पश्चिम में स्थित है। बाघ में कुल 9 गुहाएँ हैं। इनमें से 3 गुहाओं की छत गिर गई हैं। ये गुहायें बौद्ध धर्म की महायान शाखा से सम्बन्धित हैं। ये समस्त गुहायें ‘विहार’ हैं। प्रत्येक गुहा में पीछे की ओर एक लघु चैत्य है तथा समीप में भिक्षुओं के निवास हेतु कोठरियाँ बनी हुई हैं। यहाँ की गुहा नम्बर 2, ‘पंच पाण्डवों की गुहा’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस गुहा का बीच का मण्डप चौकोर है, उनके तीन ओर लघु कक्ष हैं, सामने बरसाती है तथा पृष्ठ में एक स्तूप मन्दिर है। गुहा में महात्मा बुद्ध एवं बोधिसत्वों की अनेक पाषाण प्रतिमाएँ हैं। इन प्रतिमाओं में आठ फुट ऊँची बुद्ध की तथा आठ फुट ऊँची गणेश की सुन्दर प्रतिमा है।
बाघ की गुहाएँ, अजन्ता की शैली में निर्मित एवं चित्रित हैं। यहाँ की गुहाओं में चित्रित अनेक चित्रों का सम्बन्ध महात्मा बुद्ध एवं बौद्ध धर्म से है।
एलोरा के गुहामन्दिर राष्ट्रकूटवंश के समान अर्थात् 600 से 700 ई0 में निर्मित हुए। यहाँ की प्रथम 12 गुहायें बौद्ध धर्म से तथा बाद की 17 गुहायें ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित है तथा अन्तिम 5 गुहाओं का सम्बन्ध जैन धर्म से है। इस प्रकार यहाँ कुल 34 गुहायें हैं। ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित गुहाओं में “कैलास मन्दिर” सर्वोत्तम है। कैलास मन्दिर भारत के समस्त गुहा मन्दिरों में सबसे उत्तम है। इसमें चार खण्डों का एक विशाल भवन एक सम्पूर्ण पहाड़ को छेनियों से काट-काट कर निर्मित किया गया है। मन्दिर के अन्दर भव्य चित्रकारी थी। जो अधिकांशतः अब नष्ट हो चुकी है। मन्दिर का बाह्य भाग अनेक पौराणिक दृश्यों की प्रतिमाओं से सुसज्जित है। इस मन्दिर के अतिरिक्त, ‘रामेश्वर’ एवं ‘सीता की नहानी’ भी देखने योग्य है।
इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक
- गान्धार शैली | गान्धार शैली के विषय | गाधार शैली के विषय क्षेत्र की विवेचना
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