ग्रीन के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार | स्वतन्त्रता तथा अधिकारों पर ग्रीन के विचार
ग्रीन के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार
ग्रीन ने स्वतन्त्रता की विधेयात्मक व्याख्या की है। उसकी धारणा है कि राज्य में कानून तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता परस्पर विरोधी चीजें नहीं हैं। राज्य के कानून व्यक्ति की स्वतन्त्रता, में बाधक न होकर उनमें सहायक होते हैं। राज्य की आज्ञा का पालन करना ग्रीन स्वतन्त्रता की एक शर्त तो मानता है लेकिन वह यह भी कहता है कि केवल राज्य के कानूनों का पालन करने में ही व्यक्तिगत स्वतन्त्रता निहित नहीं है। जैसा कि हीगल का विश्वास था। हीगल स्वतन्त्रता को राज्य के अधीन ही मानता था। ग्रीन ने मिल तथा हीगल के बीच का मार्ग अपनाया है।
स्वतन्त्रता मानवीय चेतना का गुण-
ग्रीन की स्वतन्त्रता की धारणा काण्ट की धारणा से मिलती है। वह काण्ट के समान ही नैतिकता को स्वतन्त्रता का आवश्यक अंग मानता था। उसके विचार से सद्भावना की प्राप्ति मानव का लक्ष्य होना चाहिये क्योंकि सद्भावना ही सर्वश्रेष्ठ वस्तु है।
ग्रीन व्यक्ति को अनैतिक कार्यों को करने की छूट नहीं देना चाहता । काण्ट का विश्वास था कि नैतिक स्वतन्त्रता मनुष्य के अन्तःकरण में निवास करती है और अन्तःकरण के आदेशों का पालन करना ही स्वतन्त्रता का प्रतीक है। इसके विपरीत ग्रीन का मत था कि स्वतन्त्रता की अनुभूति बाह्य जगत में होती है और बाह्य जीवन की अभिव्यक्ति राज्य में ही होती है।
मानवीय स्वतन्त्रता और राज्य-
ग्रीन का विश्वास था कि मानव चेतना विश्व चेतना का एक स्थिरांक है। विश्व-चेतना का गुण स्वतन्त्रता है। अतः मानव चेतना की माँग भी स्वतन्त्रता है। ग्रीन स्वेच्छाचारिता को स्वतन्त्रता नहीं मानता । वह शुभ इच्छा को ही वांछनीय मानता है। व्यक्ति को अपना जीवन प्रकृति के अनुसार बिताना चाहिये और उसे उन्हीं कार्यों को करना चाहिये जो उसके लिए उचित है। ग्रीन ने लिखा है कि कोई व्यक्ति तभी स्वतन्त्र है जब वह उन कानूनों का स्वेच्छा से पालन करता है जिनको पालन करना वह अच्छा समझता है। इस प्रकार ग्रीन यह मानता है कि स्वतन्त्रता समाज में ही रहकर प्राप्त की जा सकती है।
स्वतन्त्रता तथा आत्मविकास-
स्वतन्त्रता आत्म-संतुष्टि को नहीं कहा जा सकता । ग्रीन का कहना है कि जब वह वस्तु जिसमें कि आत्म-तृप्ति खोजी जाती है, ऐसी होती है जो कि आत्म- तृप्ति को रोकती है क्योंकि वह खोजने वाले की पूर्णता की ओर प्रगति की संभावनाओं को रोकती है तो एक बात है और जब यह उसमें योग देती है तो दूसरी बात है।
आत्मविकास नैतिक कार्यों पर आधारित होता है। समाज द्वारा उन कार्यों को मान्यता मिलती है और सामाजिक मान्यता की अभिव्यक्ति राज्य के कानून द्वारा होती है। ग्रीन स्वतन्त्रता को नकारात्मक नहीं मानता । वह व्यक्तिवादियों की इस धारणा की आलोचना करता है कि बन्धनों का अभाव ही स्वतन्त्रता है। उसका कथन था कि स्वतन्त्रता विधेयात्मक होती है। यह उन नैतिक कार्यों को करने में निहित होती है जो व्यक्ति को आत्मा के विकास की ओर ले जाते हैं।
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