राजनीति विज्ञान

ग्रीन के अधिकार सम्बन्धी विचार | अधिकारों के सम्बन्ध में ग्रीन के विचारों का परीक्षण

ग्रीन के अधिकार सम्बन्धी विचार | अधिकारों के सम्बन्ध में ग्रीन के विचारों का परीक्षण

ग्रीन के अधिकार सम्बन्धी विचार

(Green’s View on Rights)

ग्रीन की अधिकारों की धारणा’ उसकी स्वतन्त्रता की धारणा का तार्किक परिणाम है। उसके अनुसार राज्य का स्वाभाविक विकास हुआ.है। उसके अनुसार राज्य का उद्देश्य विशुद्ध रूप से नैतिक है। मीन यह मानता है कि व्यक्ति के अधिकारों का जन्म किसी समझौते के परिणामस्वरूप नहीं हुआ। वरन् वे स्वतन्त्र नैतिक इच्छा की आवश्यक दशायें हैं तथा कानून के रूप में स्वतन्त्र नैतिक इच्छा द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाता है।

ग्रीन की ‘अधिकारों की धारणा’ उसके इस कथन में मिलती है कि “मानव चेतना स्वतन्त्रता की मांग करती है, स्वतन्त्रता में अधिकार निहित होते हैं और अधिकार राज्य की माँग करते हैं।”Human consciousness postulates liberty, liberty involves rights and rights demand the siatc.) | ग्रीन के अनुसार यह ‘मानव चेतना’ ‘आत्मचेतना’ (Self Consciousness) होती है जो प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर विद्यमान रहती है। इस आत्मचेतना को केवल अपने को ही नहीं पहचानना चाहिए वरन् उस “आदर्श उद्देश्य” (Ideal objects) को प्राप्त करने का प्रयत्न भी करना चाहिए जिसके साथ इसने अपना तादात्म्य स्थापित कर लिया है। परन्तु स्व (Self) न केवल अपने प्रति ही चैतन्य है वरन् यह दूसरे ‘स्व’ के प्रति भी चैतन्य रहता है। अर्थात् समाज में दूसरे लोगों की भी सामाजिक प्रकृति तथा इच्छा एवं सामान्य उद्देश्य होते हैं। अतः हम कोई भी कार्य करें अथवा किसी भी वस्तु का उपयोग करें तो हमें उसे सामूहिक रूप से करना चाहिये। यह ‘स्व’ न केवल अपने कल्याण की इच्छा रखता है वरन् ‘पर’ के कल्याण की भी इच्छा करता है। इस प्रकार की व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति के ‘आदर्श उद्देश्यों’ (Ideal objects) को प्राप्त करने की शक्ति को मान्यता देता है तथा प्रत्येक व्यक्ति यह दावा करता है कि उसकी उस शक्ति को समाज के सभी सदसय मान्यता प्रदान करेंगे क्योंकि प्रत्येक की प्रकृति अन्य सब व्यक्तियों के समान है तथा सभी के उद्देश्य भी समान हैं। प्रो० बार्कर के अनुसार, “इस प्रकार के दावों को जब मान्यता प्राप्त हो जाती है तो उन्हें अधिकारों का रूप प्रदान कर दिया जाता और वह मान्यता ही अधिकारों का निर्माण करती है। इस प्रकार यदि हम थोड़ा-सा. अन्तर करें तो हम कह सकते हैं कि अधिकारों के दो पहलू होते हैं-एक ओर तो अधिकार व्यक्ति का अपने आदर्श उद्देश्यों को प्राप्त करने का दावा है जिसका जन्म स्व-चेतना से होता है, दूसरी ओर यह समाज द्वारा उस दावे को प्रदत्त मान्यता है जिसके अन्तर्गत तथा जिसके द्वारा उसे इन उद्देश्यों को प्राप्त करने की एक नवीन शक्ति प्राप्त हो जाती है।”

अधिकारों की विशेषताएँ-

अधिकारों की उपर्युक्त विवेचना से हम ग्रीन की अधिकार संबंधी धारणा के बारे में निम्नलिखित निष्कर्षों पर पहुंचते हैं।

(1) अधिकार व्यक्ति के दावे हैं।

(2) समाज में इस प्रकार के दावे दूसरे व्यक्तियों द्वारा भी किये जाते हैं तथा इन दावों की प्रकृति समान होती है। इसलिए इनमें संघर्ष नहीं होता।

(3) अधिकारों को समाज द्वारा मान्यता प्रदान की जाती है। अधिकार केवल सामाजिक मनुष्यों को ही पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त होते हैं।

(4) ग्रीन के आदर्श अधिकार (Ideal Rights) कानूनी अधिकारों से भिन्न हैं। आदर्श अधिकारों को सामाजिक चेतना द्वारा मान्यता प्राप्त रहती है और इन्हीं को राज्य वैधानिक रूप देता है। ग्रीन ने इन्हें प्राकृतिक अधिकार (Natural Rights) की संज्ञा भी दी है। परन्तु उसके ये अधिकार समाजविहीन एवं राज्य विहीन अवस्था के प्राकृतिक अधिकारों से भिन्न हैं। इन्हें प्राकृतिक अधिकार इसलिए कहा गया है क्योंकि इनका सम्बन्ध मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति से है। इनका अस्तित्व समाज में ही सम्भव है और समाज की स्वीकृति से ही ये अधिकार का रूप धारण करते हैं। ये अधिकार व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए अनिवार्य हैं।

(5) ग्रीन के आदर्श, अधिकारों का सम्बन्ध नैतिकता से है। ये अधिकार नैतिकता की अभिव्यक्ति हैं तथा इन्हें समाज की नैतिक चेतना द्वारा मान्यता प्राप्त होती है। प्रो० बार्कर के शब्दों में, “अधिकार नैतिकता के सापेक्ष इस अर्थ में होते हैं कि वे नैतिक उद्देश्य की प्राप्ति की दशायें हैं। इन्हें नैतिक चेतना द्वारा मान्यता प्रदान की जाती है क्योंकि वह यह जानती है कि वे अपनी इसकी सन्तुष्टि की आवश्यक दशाएँ हैं।”

(6) ग्रीन के अनुसार अधिकार राज्य को जन्म देते हैं। परन्तु व्यक्तियों को राज्य के विरुद्ध अथवा राज्य की अवज्ञा का कोई अधिकार नहीं है। राज्य के अभाव में अधिकारों का अस्तित्व सम्भव नहीं है।

राज्य के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार-

ग्रीन ने अपनी पुस्तक “Lectures on the Principles of Political Obligation” में यद्यपि व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध राज्य की अवज्ञा का अधिकार दिया है परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से इस अधिकार का कोई महत्व नहीं है क्योंकि ग्रीन व्यक्ति को राज्य के कानूनों की अवज्ञा का अधिकार उसी दिशा में देता है जबकि व्यक्ति में सामूहिक चेतना हो और उसे ऐसा तभी करना चाहिए जब उससे सामाजिक हित की वृद्धि हो। परन्तु यदि प्रत्येक व्यक्ति इस आधार पर राज्य के कानूनों की अवज्ञा करे तो अत्यन्त कठिन परिस्थिति उत्पन्न हो जाएगी। क्योंकि ग्रीन ने जिस ‘उच्च सामाजिक हित’ की बात की है उसे प्रत्येक व्यक्ति नहीं समझ सकता। फिर इस बात का निर्णय कैसे होगा कि व्यक्ति उच्च सामाजिक हित से प्रेरित होकर ही राज्य के आदेशों का विरोध कर रहा है। इस प्रकार ग्रीन का राज्य की आज्ञाओं की अवज्ञा करने का अधिकारं व्यावहारिक नहीं है

निष्कर्ष-

ग्रीन की अधिकार सम्बन्धी धारणा राजदर्शन को एक विशिष्ट देन है। इन्हें वह न तो समझौते का परिणाम मानता है और न ही इन्हें कानून की उपज मानता है। उसके अनुसार अधिकारों का जन्म इसलिए होता है कि मनुष्य में नैतिक चेतना होती है और वह सामाजिक हित की भावना से प्रेरित रहता है। इस प्रकार ग्रीन ने अधिकारों को आदर्शवाद के धरातल पर लड़ा करके इनके नैतिक महत्व को प्रतिपादित किया।

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Pankaja Singh

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