नगरों में आर्थिक नियोजन | आर्थिक नियोजन की विशेषताएँ | ग्रामीण नगरीय सातत्य प्रक्रिया | Economic Planning in Cities in Hindi | Features of Economic Planning in Hindi | Rural urban continuum process in Hindi
नगरों में आर्थिक नियोजन-
परिचय- आर्थिक नियोजन युद्धोत्तर विश्व के आर्थिक जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग बन गया है। वैज्ञानिक प्रगति, औद्योगिक विकास, जनसंख्या की वृद्धि तथा अन्तर्राष्ट्रीय निर्भरता के कारण आधुनिक आर्थिक जीवन की जटिलतायें इतनी बढ़ गई हैं कि बिना नियोजन के इन समस्याओं से निपटना कङ्गिन है। यही कारण है कि राजनीतिक और आर्थिक प्रणालियों की भिन्नता के बावजूद, संसार के लगभग सभी देश आर्थिक नियोजन के महत्व को स्वीकार करने लगे हैं।
आर्थिक नियोजन : अर्थ एवं परिभाषा- आर्थिक नियोजन (Economic Planning) के अन्तर्गत राष्ट्रीय संसाधनों का पूर्व निर्धारित उद्देश्यों के लिये विचारपूर्वक प्रयोग किया जाता है। आर्थिक नियोजन में, केन्द्रीय नियंत्रण के अधीन सभी आर्थिक पहलू एक दूसरे से इस प्रकार सम्बन्धित कर दिये जाते हैं ताकि पुनरावृत्ति एवं प्रतिस्पर्द्धाजन्य बरबादी को समाप्त किया जा सके। इस प्रकार आर्थिक नियोजन एक ऐसी विवेकपूर्ण व्यवस्था होती है जिसमें न्यूनतम साधनों के प्रयोग से अधिकतम आर्थिक कल्याण प्राप्त करने की चेष्टा की जाती है। इस सम्बन्ध में कुछ प्रमुख परिभाषायें निम्न प्रकार हैं-
(1) लुईस लार्डविन (Lewis Lordwin) के अनुसार- “आर्थिक नियोजन का अभिप्राय एक ऐसे आर्थिक संगठन से है जिसमें सब अलग-अलग कारखाने तथा औद्योगिक संस्थाओं को एक समन्वित इकाई के रूप में संचालित किया जाता है और जिसका उद्देश्य एक निश्चित अवधि में समस्त प्राप्त साधनों के प्रयोग द्वारा अधिकतम आवश्यकताओं की सन्तुष्टि प्राप्त करना होता है।”
“A system of economic oraganisastion in which all individual and separate plants enterprises and industries are treated as a coordinated single whole for the purpose of utilizing all available resources to achieve the maximum satisfaction of the needs of people within a given internal of time.”
(2) एच.डी. डिकनसन (H.D. Dickinson) ने आर्थिक नियोजन की परिभाषा देते हुए उत्पादन एवं वितरण पर अधिक जोर दिया है। इनके अनुसार-
“क्या और कितना उत्पादन किया जाये, कहाँ और कैसे उत्पादन हो और उसका वितरण किस प्रकार से किया जाये के सम्बन्ध में निश्चित अधिकारों द्वारा समस्त व्यवस्था का व्यापक परीक्षण करने के उपरान्त महत्वपूर्ण आर्थिक निर्णय करने को ही आर्थिक नियोजन कहते हैं।”
“Economic panning is the measure of economic decisions, what and how much is to be produce, how when and where it is to be produce and to whom it is to be allocoated by the conscious decisions of determinate authority on the basis of a comprehensive survey of the economic system as a whole.” –
आर्थिक नियोजन की विशेषताएँ –
आर्थिक नियोजन (Economic Planning) की निम्न विशेषताएँ प्रगट होती हैं-
(1) केन्द्र नियोजन तथा नियंत्रण- आर्थिक नियोजन (Econoic Planning) के अन्तर्गत सरकार का आयोजन का समसत कार्य एक केन्द्रीय नियोजन को सौंप देती है। इस प्रकार अर्थ-व्यवस्था का संचालन एवं निर्देशन केन्द्रीय नियोजन अधिकारी द्वारा किया जाता है। नियोजन सत्ता (Planning Authority) निर्धारित उद्देश्यों एवं उपलब्ध साधनों के मध्य समन्वय स्थापित करती है तथा विविध योजनाओं के क्रियान्वयन की व्यवस्था करती है।
(2) पूर्वनिर्धारित उद्देश्य एवं प्राथमिकताएँ- नियोजन सत्ता विचारपूर्वक तथा जान- वूझकर उद्देश्यों को निर्धारित करती है। चूंकि साधन सीमित होते हैं। अतः उद्देश्यों के बीच प्राथमिकताओं (Priorities) का भी निर्धारण किया जाता है।
(3) निर्धारित लक्ष्यों को एक निश्चित समयावधि में प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।
(4) संरचनात्मक परिवर्तन- विकास प्रेरित नियोजन का उद्देश्य केवल अर्थ-व्यवस्था के विभिन्न अंगों का समन्वय ही नहीं बल्कि आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने के लिए संरचनात्मक परिवर्तन भी किये जाते हैं।
(5) दीर्घकालीन स्वरूप- आर्थिक नियोजन एक निरंतर तथा दीर्घकालीन प्रक्रिया (Process) है। नियोजन का वास्तविक लाभ तभी मिल सकता है जबकि नियोजन दीर्घकालीन हो। इस हेतु अल्पकालीन योजनाओं का दीर्घकालीन नियोजन से उचित समन्वय करना आवश्यक है।
(6) नियोजन का लोचदार होना आवश्यक है जिससे कि नियोजन की प्रक्रिया में होने वाले कुसमंजनों (maladjustment) को सुधारा जा सके।
(7) आर्थिक नियोजन का उद्देश्य अधिकतम सामाजिक कल्याण प्राप्त करना होता है। यही कारण है कि नियमों के द्वारा रोजगार (employment) के अवसरों की वृद्धि, आर्थिक असमानताओं को दूर करना तथा राष्ट्रीय आय (national in come) की वृद्धि के प्रयास किये जाते हैं।
(ड.) ग्राम-नगर सातत्य : ग्रामीण नगरीय सातत्य की अवधारणा ग्रामीण तथा नगरीय विशिष्टताओं की निरन्तरता पर ही आधारित है। ग्रामीण नगरीय विभिन्नता की प्रकृति जितनी स्पष्टतः भौगोलिक तथा भौतिक है, उतनी समाजशास्त्रीय नहीं है, क्योंकि समाजशास्त्रीय विश्लेषण में ग्रामीण तथा नगरीय व्यवस्थाओं में समाजशास्त्रीय दृष्टि से मौलिक भेद करना अत्यन्त कठिन है। इसी कारण समाजशास्त्रियों ने ग्रामीण नगरीय अखण्डता की अवधारणा का सूत्रपात किया है।
ग्रामीण नगरीय सातत्य का अभिप्राय है कि ग्रामीण लक्षण पूर्ण रूप से एक सिरे पर पाये जाते हैं और नगरीय लक्षण दूसरे सिरे पर। फिर भी दोनों प्रकार के लक्षण कम या अधिक मात्रा में सभी क्षेत्रों में पाये जाते हैं। वरट्रेण्ड ने इसी तथ्य पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि- “अनन्त के सिद्धान्त का प्रस्ताव रखने वाले महसूस करते हैं कि ग्रामीण शहरी अन्तर सम्बन्धित यात्रा में एक श्रृंखला है जो ग्रामीण और नगरीय दो इकाइयों के रूप में विचार में आती है।”
ग्रामीण और नगरीय सातत्य का मुख्य अभिप्राय यही है कि अति ग्रामीण से प्रारम्भ होकर अति नगरीय तक यह सातत्य चलता है। इस सातत्य के पैमाने के किसी भी बिन्दु पर कोई समुदाय हो सकता है।
यद्यपि अमेरिका में ग्रामीण समाजशास्त्रियों ने ग्रामीण समाजशास्त्र की अवधारणा और अध्ययन पद्धतियों का स्वतन्त्र रूप से विकास किया है। इस दृष्टि से अपने अध्ययन क्षेत्र को विशिष्ट बनाये रखने की दृष्टि से उन्होंने ग्रामीण समाजों और नगरीय समाजों में भेद करने के लिए विभिन्न आधारों की सृष्टि की है। इन प्रामीण समाजशास्त्रियों में सोरोकिन, जिम्मैन तथा गाल्बिन के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
फगयुडट्ट ने उत्तरी अमेरिका के कृषकों का अध्ययन करके यह प्रकट किया है कि 1960 ई० में 70 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या का नगरों से कोई सम्बन्ध नहीं था। इस सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है – यदि ग्रामीण और नगरीय समाजशास्त्र को अपने संरक्षक अनुशासन के विशिष्ट उपक्षेत्र को निरन्तर रखना है। तो एक नवीन दिशामान की आवश्यकता स्वतः प्रमाणित है।
इस दिशामान से तात्पर्य ग्रामीण नगरीय सातत्य की अवधारणा से ही है। इस प्रकार ग्रामीण नगरीय सातत्य ग्रामीण नगरीय समाजशास्त्र की भिन्न-भिन्न विशिष्टताओं, अखण्डता पर बल देने सम्बन्धी अवधारणा है। ग्रामीण नगरीय सातत्य की अवधारणा विकास करने की दृष्टि से अमेरिका में विभिन्न समाजशास्त्रियों ने कार्य किये हैं।
ग्रामीण नगरीय सातत्य की अवधारणा और पद्धतिशास्त्र का विकास करने की दृष्टि से डेवी बीनेट और हाउसर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
ग्रामीण नगरीय अखण्डता को स्पष्ट करने की दृष्टि से भी विभिन्न समाजशास्त्रियों ने ग्रामीण श्रेणियों का विकास किया है। इनमें बीफर, दुखम, मैन रेडफील्ड, स्पेन्सर तथा वेबर प्रमुख हैं। वस्तुतः ग्रामीण नगरीय सातत्य की अवधारणा प्रामीण नगरीय समुदायों की ध्रुवीय अतिरेकों, ग्रामीण तथा नगरीय के मध्य एक श्रृंखला में विकसित होते हैं।
ग्रामीण नगरीय सातत्य प्रक्रिया –
ग्रामीण नगरीय प्रक्रिया शास्त्र का अध्ययन करने की दृष्टि में विभिन्न समाजशास्त्रियों ने प्रयास किये है। डॉ० डी०एन० मजूमदार ने ‘कास्ट एण्ड कम्यूनिकेशन इन इण्डियन क्लेिजेज’ में ग्राम विसिपारा का अध्ययन किया है। इसमें यह प्रतिपादित करने की चेष्ट की गयी है कि ग्रामीण मूल्यों और नगरीय मूल्यों अन्तर किया जा सकता है।
बैली ने भी ग्रामीण नगरीय संस्कृति में महान अन्तर बताये हैं। परन्तु मिचेल आदि ने बताया है कि ग्रामीण विशिष्टताएं नगरीय अवसान की प्रक्रिया में समाप्त हो जाती है।
पाहल ने लिखा है- भूतकाल से ग्रामीण नगरीय सातत्य की अवधारणा वस्तुतः नगरीकरण की प्रक्रिया के रूप में समझी जाती रही है। इसका प्रमुख आधार भौतिक एवं जनसंख्यात्मक था। स्पष्टतः प्रक्रिया के विश्लेषण में कालगत तत्व का पूरी तरह से उपभोग नहीं होता था। इसलिए भूतकाल में प्रमुख रूप प्रकारशास्त्र की दृष्टि से ही इस प्रक्रिया के मूल्य पर ग्रामीण नगरीय सातत्य की अवधारणा का विश्लेषण किया जाता था।
ग्रामीण नगरीय सातत्य की दृष्टि से यदि भारतीय परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाये तो प्रतीत होगा कि आधुनिक समय में यह अवधारणा यहाँ स्पष्ट रूप से प्रचलित नहीं है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त से भारत में ग्रामीण विकास की विभिन्न योजनाएँ कार्यान्वित की गयी हैं। इन योजनाओं को प्रभावित करने की दृष्टि से अधिकांशतः नगरीय व्यक्तियों को इस कार्य में संलग्न किया गया है।
ग्रामों के विकास की प्रक्रियाएँ प्रधानतः उनके रहन-सहन में उन्नति करने से सम्बन्धित रही हैं, परन्तु परोक्ष रूप से वहाँ नगरीयता के तत्वों का विकास हुआ है और दूसरी ओर इन प्रक्रियाओं से नगरीय तत्वों का प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों में निरन्तर अग्रसर हो रहा है। सामुदायिक विकास योजनाओं के प्रभाव के कारण ग्रामों में कृषि सम्बन्धी प्रक्रियाओं का आधुनिकीकरण हो रहा है, जिससे समाज व्यवस्था परिवर्तन की ओर उन्मुख है।
भविष्य में ऐसी सम्भावनाएँ विकसित हो रही हैं कि ग्राम और नगरों की विभिन्नताएँ शीघ्र ही समाप्त हो जायेंगी। पश्चिमीकरण की प्रक्रियाओं का भारत में भी प्रभाव बढ़ता जा रहा है, जिस प्रकार पश्चिमी समाजों में ग्रामीणता लुप्तप्राय हो रही है। उसी भाँति भारत में भी यह प्रभाव दृष्टिगोचर होता हैं। नगरों में भी ग्रामीणता अपना प्रभाव बढ़ाती जा रही है। इससे कालान्तर में वह अपना विशिष्ट स्वरूप नगरीयता में परिणित कर रही है। आज जो ग्रामीण और नगरीयता का सम्मिलन हमें दृष्टिगोचर होता है, वह भविष्य में भी ग्रामीण नगरीय सातत्व के रूप को समाप्त कर देगा। इस प्रकार कालान्तर में ग्रामीण नगरीय सातत्य पूरी तरह से भारत में विलीन हो जायेगा और ग्रामीण नगरीय विभेद लगभग समाप्त प्राय हो जायेगा।
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