अनुसंधान क्रियाविधि

द्वितीयक समंकों की जाँच | द्वितीयक समंकों का प्रयोग | द्वितीयक समंकों को ग्रहण करने से पूर्व की सावधानियाँ

द्वितीयक समंकों की जाँच | द्वितीयक समंकों का प्रयोग | द्वितीयक समंकों को ग्रहण करने से पूर्व की सावधानियाँ | Verification of Secondary Data in Hindi | Use of secondary data in Hindi | Precautions before receiving secondary data in Hindi

द्वितीयक समंकों की जाँच और प्रयोग

(Security and Use of Secondary Data)

द्वितीयक समंकों का प्रयोग करने से पूर्व आलोचनात्मक जाँच द्वारा उनका विस्तृत सम्पादन कर लेना नितान्त आवश्यक है। द्वितीयक सामग्री में कई कमियाँ होती हैं अतः उसका उपयोग सावधानीपूर्वक कर लेना चाहिये। कौनर के अनुसार, “समंक, विशेष रूप से अन्य व्यक्तियों द्वारा एकत्रित समंक, प्रयोगकर्त्ता के लिये अनेक त्रुटियों से पूर्ण होते हैं।” ये त्रुटियाँ अनेक कारणों से हो सकती हैं, जैसे- सांख्यिकीय इकाई में परिवर्तन, सूचना की अपर्याप्तता व अपूर्णता, पक्षपात, उद्देश्य व क्षेत्र की विभिन्नता आदि। अतः प्रयोग करने से पूर्व अनुसंधानकर्त्ता को भली-भांति देख लेना चाहिये कि प्रस्तुत द्वितीयक सामग्री में विश्वसनीयता, अनुकूलता तथा पर्याप्तता आदि आवश्यक गुण पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं या नहीं।

इस प्रकार उपरोक्त गुणों के संतोषजनक होने पर ही द्वितीयक समंकों का प्रयोग किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में डॉ. बाउले का यह कहना ठीक है कि, “प्रकाशित समंकों को जैसे का तैसा स्वीकार कर लेना कभी खतरे से खाली नहीं है। जब तक उनके अर्थ व सीमायें ज्ञात न हों और जो तर्क उन पर आधारित होता है, उनकी आलोचना करना सदैव आवश्यक है।”

सावधानियाँ (Precautions)

द्वितीयक सामग्री का उपयोग करते समय अनुसंधानकर्ता को निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिये

(1) पिछले अनुसंधानकर्त्ता की योग्यता- सर्वप्रथम, यह देखना चाहिये कि द्वितीयक सामग्री पहले किस अनुसंधानकर्ता द्वारा प्राथमिक रूप से एकत्र की गई थी। उसकी योग्यता, ईमानदारी, अनुभव व निष्पक्षता आदि सन्तोषजनक हैं तो उन समंकों का प्रयोग किया जा सकता है।

(2) संग्रहण रीति- संग्रहण की जो रीति पहले अपनाई गई थी वह समंकों के वर्तमान प्रयोग के लिये कहाँ तक उपयुक्त और विश्वसनीय है। यदि प्रतिदर्श अनुसंधान किया गया हो तो यह निश्चित कर लेना चाहिये कि प्रतिदर्श यथेष्ट है और पूर्णरूप से समग्र का प्रतिनिधित्व करता है अथवा नहीं। इन सब बातों के बारे में संतुष्ट हो जाने पर ही द्वितीयक समंकों का प्रयोग करना चाहिये।

(3) इकाई की परिभाषा- यह भी देख लेना चाहिये कि पूर्व अनुसंधान में प्रयुक्त सांख्यिकीय इकाइयों के अर्थ वर्तमान प्रयोग के अनुकूल हैं या नहीं।

(4) तुलना- यदि एक ही विषय पर अनेक स्रोतों से द्वितीयक समंक प्राप्त होते हैं तो उनकी सत्यता की जाँच करने के लिये उनमें तुलना कर लेनी चाहिये। यदि उनमें अन्तर काफी है तो सबसे अधिक विश्वसनीय स्रोत से प्राप्त समंक ही ग्रहण करने चाहिये या फिर नये सिरे से अनुसंधान करना चाहिये।

(5) उद्देश्य व क्षेत्र- यह भी देख लेना चाहिये कि प्राथमिक रूप से जब प्रस्तुत समंक एकत्रित किये गये थे तो अनुसंधान के उद्देश्य व क्षेत्र वही थे, जिनके लिये उनका अब द्वितीयक समंकों के रूप में प्रयोग किया जाना है। यदि उद्देश्य व क्षेत्र में अन्तर है तो समंक अनुपयुक्त और अविश्वसनीय होंगे।

(6) शुद्धता की मात्रा- इस बात पर भी विचार करना आवश्यक है कि प्रस्तुत समंकों में शुद्धता का स्तर क्या रखा गया था और उसे प्राप्त करने में कहाँ तक सफलता प्राप्त हुई। समंकों में जितनी अधिक शुद्धता होगी वे उतने ही विश्वसनीय होंगे। यह भी देख लेना चाहिये कि आँकड़ों में अत्यधिक सन्निकटन (Approximation) तो नहीं किया गया है। जितनी कम मात्रा में सन्निकटन होता है, उतनी ही अधिक शुद्धता होती है।

(7) जाँच का समय और उसकी परिस्थितियाँ- यह भी निश्चय कर लेना चाहिये कि उपलब्ध सामग्री किस समय से सम्बन्धित है तथा किन परिस्थितियों में एकत्र की गई थी। युद्ध कालीन जाँच के समंक शान्तिकाल में प्रयोग नहीं किये जा सकते। आँकड़ों के प्ररम्भिक संग्रहण और उनके उपयोग के समय की परिस्थितियों में अन्तर होने के कारण उनकी उपयोगिता कम हो सकती है। अतः लोगों के रहन-सहन व रीति-रिवाज ध्यान में रखकर ही प्रकाशित समंकों का प्रयोग करना चाहिये।

(8) परीक्षात्मक जाँच- अनुसंधानकर्ता को प्रस्तुत समंकों में से कुछ परीक्षात्मक जाँच करके यह देख लेना चाहिये कि वे विश्वसनीय हैं या नहीं।

इस प्रकार, उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखकर द्वितीयक सामग्री विश्वसनीय, उपयुक्त व यथेष्ट प्रतीत हो तभी उनका प्रयोग प्रस्तुत अनुसंधान के लिये करना चाहिये। जाँच किये बिना द्वितीयक समंकों का प्रयोग करना सर्वथा अनुचित है।

डॉ0 बाउले का कथन है, “प्रकाशित समंकों को ऊपर से ही देखकर उनके वाह्य मूल्य ग्रहण कर लेना कभी सुरक्षित नहीं है, जब तक उनका अर्थ व उनकी सीमायें अच्छी तरह ज्ञात न हो जायें, और यह सदैव आवश्यक है कि उन तर्कों की आलोचनात्मक समीक्षा की जाये जो उन पर आधारित है।”

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Pankaja Singh

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