शिक्षाशास्त्र

दूरस्थ शिक्षा के सिद्धान्त | Principles of Distance Education in Hindi

दूरस्थ शिक्षा के सिद्धान्त | Principles of Distance Education in Hindi

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दूरस्थ शिक्षा के सिद्धान्त (Principles of Distance Education)

हमने देखा कि दूरस्थ शिक्षा अपने विभिन्न रूपों में भारत एवं विदेशों में कार्यरत हैं। इसकी प्रभावकारिता और सफलता निम्नलिखित प्रनियमों पर आधारित है। अतः इन प्रनियमों का ज्ञान एवं अनुपालन दूरस्थ शिक्षा के सफल प्रयोग हेतु आवश्यक है। क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय, भोपाल के डॉ० पी० एल० किरकिरे और डॉ० के० एस० खिची ने दूरस्थ शिक्षा के प्रनियमों की निम्नलिखित सूची प्रस्तुत की है-

(1) प्रस्तुतीकरण में स्पष्टता का प्रनियम (Principle of clarity of Presentation) —

अधिगम की प्रक्रिया में सम्भवतः स्पष्ट प्रस्तुतीकरण ही एकमात्र ऐसा तत्व है जो अधिगमकर्ता को सीखने में लगाये रखता है। जो कुछ बी अनुदेशन देना है उसमें किसी भी प्रकार के अस्पष्ट अर्थ वाले शब्दों और भ्रम उत्पन्न करन वाले विचारों का समावेश नहीं होना चाहिए। शिक्षण की विषय-वस्तु को लिखित या मुद्रित रूप में प्रस्तुत करते समय इस बात की ओर ध्यान देना आवश्यक है कि वह केवल किसी एक विचार या तथ्य या सम्प्रत्यय को एक ही अनुच्छेद में प्रस्तुत करे। कई बार ऐसा न करने से पत्राचार पाठ्यक्रम के लिए बनाये गये पाठ छात्रों के लिए दुरुह और बेकार हो जाते हैं।

(2) अधिकतम अभिप्रेरणा तकनीकी के प्रयोग का प्रनियम (Principle of Using maximum motivation technique) –

दूरस्थ शिक्षा की सफलता के लिए यह आवश्यक है अधिगमकर्ता, जो शिक्षक अथवा प्रशिक्षक अथवा अनुदेशक के सामने उपस्थित नहीं है, उनको शैक्षिक उद्देश्यों की ओर बढ़ने के लिए सतत प्रेरित किया जाय। इस हेतु उपयुक्त अभिप्रेरणा तकनीकों अथवा विधियों का विकास आवश्यक है। अधिगमकर्त्ताओं से बार-बार पत्र द्वारा सम्पर्क स्थापित करना, अधिगमकर्त्ताओं को सुगम एवं उपयुक्त देन कार्य (Assignments) देना और उनका मूल्यांकन कर अधिगमकर्त्ताओं को प्रतिपुष्टि (Feedback) प्रदान कर प्रोत्साहित करना आदि कुछ ऐसी विधियाँ हैं जो दूरस्थ अधिगमकर्ताओं की अभिप्रेरणा को बढ़ावा देती है।

(3) सक्रिय अधिगम का प्रतियम (Principle of active learning) –

स्पष्ट प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि दूर बैठा हुआ अधिगमकर्ता अधिगम की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग ले। अधिगमकर्त्ताओं को सन्दर्भ सामग्रियों को पढ़ने के लिए कहा जा सकता है, कुछ सामग्री एकत्रित करने के लिए लिखा जा सकता है, कुछ विशेष सूचनाओं को एकत्रित कर विश्लेषित करने का कार्य दिया जा सकता है अथवा कुछ विशेष तथ्यों या घटनाओं की व्याख्या करने का कार्य सौंपा जा सकता है। सतत् कुछ न कुछ करते रहने से ही अधिगमकर्त्ता सीख सकते हैं और अपना विकास कर सकते हैं। दूरस्थ अधिगमकर्ता के सामने समुचित् लक्ष्य रखकर उन्हें कार्य देने, उनके कार्यों का बार-बार मूल्यांकन करने, उन्हें पुरस्कार द्वारा पुनर्वलित (reinforce) कर उनको सक्रियता सतत् सोखने में सहायता प्रदान की जा सकती है।

(4) अधिगमकर्त्ता के समाजीकरण का प्रनियम (Principle of socializing The learner) –

दूर-दूर बसे अधिगमकर्त्ताओं को अलग-अलग परिस्थितियों में शिक्षा देना उनके व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए उचित नहीं होगा। इस प्रणाली में भी कुछ ऐसे कार्यक्रमों का समावेश होना चाहिए जिनके द्वारा उनके व्यक्तित्व का समुचित विकास हो। यह तभी सम्भव होगा जब एक-दूसरे से दूर-दूर और अलग-अलग रहने वाले अधिगमकर्त्ताओं को समय-समय पर किसी एक स्थान पर बुलाकर कुछ सामूहिक कार्यक्रम दिये जायें। ऐसे सम्मेलनों में अधिगमकर्त्ता अपने अनुभवों को अभिव्यक्ति और विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। शिक्षा के जनतांत्रिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए समाजीकरण सम्बन्धी ऐसे कार्यक्रम बहुत सहायक सिद्ध होते हैं।

(5) अधिगमकर्त्ता में समुचित सजगना विकसित करने का प्रनियम (Principle of Developing proper awareness among learners)-

दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रमों की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि अधिगमकर्त्ताओं के मन मस्तिष्क में यह बात अच्छी तरह बैठा दी जाय कि जिन उदों और कार्यक्रमों को उनके सामने रखा गया है वे उन्हीं के लाभ के लिए हैं और यदि वे थोड़े उत्साह और अनुशासन के साथ प्रयत्नशील होंगे तो वे उन सभो लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं। दूर बैठे अधिगमकर्ता के मन में इस तरह की मागता निर्मित करना आवश्यक है। ऐसा हम दूरवतो शैक्षिक कार्यक्रमों के समुचित प्रचार द्वारा वर सकते हैं।

(6) पर्यवेक्षण प्रणाली विकसित करने का प्रनियम (Principle of developing Supervisory system)-

पर्यवेक्षण के कार्य के लिए दूरस्थ शिक्षा में सुसंगठित व्यवस्था निर्मित करना अनिवार्य है। वास्तविकता यह है कि किसी भी प्रकार के अनुदेशनात्मक कार्य की सफलता का मूल मंत्र पर्यवेक्षण और परामर्श है। यह भी सत्य है कि दूर दूर बसे हुए अधिगमकर्त्ताओं की कठिनाइयों का निदान और उसके निराकरण के लिए परामर्श देना अत्यन्त कठिन एवं चुनौतियों से भरा हुआ कार्य हैं। इन निमित्त शिक्षाशास्त्रियों को समुचित व्यूह रचना विकसित करनी चाहिए।

(7) जनता में दूरस्थ शिक्षा के प्रति समुचित अभिवृत्ति के विकास का प्रनियम (Principle of development proper attitude among masses towards Distance education) –

दूरस्थ शिक्षा की सफलता के लिए अधिगमकत्ता का सजगता के साथ-साथ जनता में उसके प्रति समुचित एवं सकारात्मक अभिवृत्ति (positive attitude) विकास करना भी आवश्यक है। ऐसा न होने पर जनता दूरस्थ शिक्षा प्रणाली के द्वारा शिक्षित लोगों को घटिया किस्म का शिक्षित समझने लगती है। फलस्वरूप इस प्रणाली की प्रगति बाधित हो जाती है। दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रम की सफलता के लिए इसके प्रति जन-जन में सकारात्मक अभिवृत्ति विकसित करने के लिए समुचित प्रभावकारी विधियाँ विकसत करनी होंगी।

(8) विशेष परीक्षण सेवाओं के उपयोग का प्रनियम (Principle of special Testing services)—

दूर-दूर फैले हुए अधिगमकर्ताओं का मूल्यांकन करना स्वयं में कठिन कार्य है। इनके मूल्यांकन के लिए विशेष विधियों और तकनीकियों का विकास करना होता है। नैदानिक उद्देश्यों के लिए बीच-बीच में ‘स्वमूल्यांकन को व्यूह रचना का प्रयोग आवश्यक है। इस दिशा में शैक्षिक तकनीकी के विभिन्न उपागमों का प्रयोग सहायक होगा।

(9) संगठन के समुचित स्तर को विकसित करने का प्रनियम (Principle of Developing proper level of organisation)-

दूरस्थ शिक्षा को प्रभावकारी और सफल बनाने में कई लोगों को एकजुट होकर कार्यरत रहना पड़ता है। विषय-वस्तु विशेषज्ञों, निर्देशन विशेषज्ञों, मनोवैज्ञानिकों, तकनीकी विशेषज्ञों और मूल्यांकन विशेषज्ञों को एक नेतृत्व के तहत एक सन्तुलित संगठन का निर्माण करना होता है। ऐसा करना दूरस्थ शिक्षा के पर्यवेक्षण और सफलता के लिए अति आवश्यक है।

(10) आवश्यक आधारित पाठ्यक्रम का अधिनियम (Principle of need Based curriculum) –

किसी भी शिक्षा व्यवस्था की तरह दूरस्थ शिक्षा का पाठ्यक्रम भी आवश्यकताओं पर आधारित होना चाहिए। ये आवश्यकताएँ राष्ट्रीय, सामाजिक और वैयक्तिक हो सकती है। इन पर आधारित हुए बिना कोई भी पाठ्यक्रम सफल नहीं हो सकता। दूरस्थ शिक्षा कार्य करते हुए सीखने की व्यवस्था या कार्यप्रणाली है। अतः इसका आवश्यकता आधारित होना भी आवश्यक है। पाठ्यक्रम के निर्माताओं को व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र की आवश्यकताओं आकांक्षाओं और उसकी उन्नति को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए। ऐसे पाठ्यक्रमों का राष्ट्रीय उद्देश्य के साथ समन्वित होना आवश्यक है साथ ही साथ इसे व्यक्ति को आवश्यकताओं के अनुरूप भी होना चाहिए।

(11) दल प्रयास का नियम (Principle of Team Efforts) —

किसी भी कार्यक्रम की सफलता के लिए उसमें कार्यरत सभी सदस्यों के सम्मिलित तथा सामहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। दूरस्थ शिक्षा की जड़ें भी दल-प्रयासों द्वारा ही मजबूत हो सकती है। दल निष्ठा की भावना भारतीय कार्यकर्त्ताओं व अधिकारियों में कम मात्रा में पायी जाती हैं। अतः दूरस्थ शिक्षा के निर्माताओं और प्रवर्तकों को इस दिशा में विशेष प्रयास करने को आवश्यकता होती है। ऐसे कार्यक्रमों की योजना बनानी पड़ेगी जिसके द्वारा निष्ठा विकसित हो।

दूरस्थ शिक्षा औपचारिक शिक्षा का एक प्रभावकारी विकल्प है। इसका क्षेत्र अति व्यापक है। आजीवन शिक्षा से लेकर शिक्षा के सार्वभौमिकरण तक को यह अपनी परिधि में समाविष्ट करता है। निरक्षरता को दूर करने मात्र के लिए ही नहीं अपित उच्च शिक्षा की मांग को सर्वसुलभ बनाने  हेतु भी इसको आवश्यकता है। शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसर की समानता प्रदान करने वाला यह एक सशक्त माध्यम है। गरीब, पिछड़े हुए, निराश एवं वंचित लोगों के लिए यह आशा एवं प्रेरणा का स्रोत है। आता है या प्रजातांत्रिक एवं समाजवादी भारत की संरचना के लिए एक सशक्त नवाचार है।

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