राजनीति विज्ञान

संविधानवाद की विभिन्न विचारधाराएँ | संविधानवाद की सोवियत या साम्यवादी विचारधारा | संविधानवाद की पाश्चात्य विचारधारा | संविधानवाद की विकासशील देशों की विचारधारां

संविधानवाद की विभिन्न विचारधाराएँ | संविधानवाद की सोवियत या साम्यवादी विचारधारा | संविधानवाद की पाश्चात्य विचारधारा | संविधानवाद की विकासशील देशों की विचारधारां

संविधानवाद की विभिन्न विचारधाराएँ

(Different Concept of Constitutionalism)

संविधानवाद की विभिन्न विचारधाराएँ हैं, जिनमें मुख्य रूप से तीन प्रचलित हैं-

(1) सोवियत या साम्यवादी विचारधारा,

(2) पाश्चात्य विचारधारा तथा

(3) विकासशील देशों की विचारधारां ।

(1) संविधानवाद की सोवियत या साम्यवादी विचारधारा

(Soviet or Communist Concept of Constitutionalism)

संविधानवाट की सोवियत विचारधारा को समाजवादी विचारधारा भी कहा जा सकता है। सोवियत संविधानवाद का विचार समाजवाद के चारों ओर घूमता दिखाई देता है तथा संविधान द्वारा देखा जा सकता है कि देश कितना समाजवादी हो गया है। इस विचारधारा का कुछ मूल्यों के आधार पर निर्धारण होता है जिसमें मुख्य-मुख्य ‘समाजवादी व्यवस्था’ है।

साम्यवादी विचारधारा के अनुसार समाजवाद में जो देश ने उन्नति की है उसका प्रतिबिम्ब ही संविधान है. और प्रगति के दौरान हुई उपलब्धियों की ही संविधान झलक है। इस प्रकार सोवियत संविधान में समाजवादी संघर्ष तथा उपलब्धियाँ दृष्टिगोचर होनी चाहिए। संविधानवाद के सोवियत दृष्टिकोण से संविधान में पूर्वकालीन तथा वर्तमान विवरण के साथ-साथ भविष्य में क्या करना है, इसका भी संकेत किया है। नियमों के आधार पर बने मार्ग पर चल कर समाजवादी देश उन्नति कर सकता है।

स्टालिन के अनुसार संविधान कोई कार्यक्रम न होकर उस मशीन का निर्माण करता है जो कार्यक्रम लागू करने के लिए आवश्यक है। कार्यक्रम तथा संविधानवाद में बहुत अन्तर है। कार्यक्रम भविष्य में कुछ करने के लिए बनाया जाता है तथा संविधानवाद में अतीत का वर्णन होता है।

सोवियत संविधानवाद में वर्ग-संघर्ष दिखाई देता है। यह संघर्ष की झलक स्टालिन-संविधान में भी थी तथा सोवियत संघ के 7 अक्टूबर, 1977 से लागू हुए इस संविधान में भी दिखायी देती है।

सोवियत विचार के अनुसार संविधान परिवर्तनशील है तथा संविधानवाद भी परिवर्तनशील और गतिशील है। उन्नति के पश्चात् ही संविधान निर्मित होता है। संसार के अन्य देशों में सांविधानिक विधि को विशेष मान्यता प्रदान की जाती है। अन्य प्रकार की विधियाँ मौलिक विधि के अधीन होती हैं। परन्तु रूस में संविधान सर्वोच्च विधि नहीं है। वह सर्वहारा वर्ग के अधेनायकत्व के हाथों का मात्र खिलौना है। वास्तव में रूस में न तो सांविधानिक शासन- पद्धति है और न ही असांविधानिक । किमी क न्यायालय में शासन के किसी कृत्य सम्बन्धी अधिनियम को चुनौती नहीं दी जा सकती तथा शासन द्वारा पारित विधि के अनुसार संविधान भी परिवर्तित हो जाता है।

सोवियत संविधान में मौलिक अधिकारों की अवधारणा में आर्थिक शक्ति का बहुत महत्व है। साम्यवादियों के अनुसार आर्थिक शक्ति नियन्त्रित होने पर ही संविधान को व्यावहारिकता प्राप्त हो सकती है। ऐसी संस्थाओं की स्थापना की अपेक्षा की जाती है जिनसे आर्थिक शक्ति सब व्यक्तियों के हाथ में रहे। सोवियत तथा साम्यवादी विचारधारा के अनुसार पाश्चात्य संविधानवाद केवल औपचारिक होता है। पाश्चात्य देशों में शक्तियों और मौलिक अधिकारों का उपभोग केवल धनिक वर्ग ही करता है। साम्यवादी विचारधारा के अनुसार आर्थिक शक्ति सर्वोत्तम तथा प्रभावशाली है और उस पर नियंत्रण से राजनीतिक शक्ति भी स्वत: नियंत्रित हो जाती है।

संविधानवाद की साम्यवादी विचारधारा का स्पष्टीकरण मुख्य रूप से निम्नलिखित साम्यवादी धारणाओं के विषय में किया जा सकता है:-

(1) सामाजिक की आत्मकथा’ कहा है। गार्नर के अनुसार संविधान के तीन मुख्य तत्व हैं- स्वतन्त्रता, सरकार

(2) आर्थिक शक्ति से सम्पन्न वर्ग का प्रभुत्व तथा

(3) राजनीतिक शक्ति का आर्थिक शक्ति के अधीन होना ।

साम्यवाद की उक्त धारणाओं के अनुसार आर्थिक शक्ति सर्वोपरि है तथा इस शक्ति को सम्पूर्ण समाज में निहित रहना चाहिए। आर्थिक शक्ति को सार्वजनिक सत्ता के अधीन बनाने के लिए साम्यवादी निम्नलिखित संस्थागत व्यवस्था का पक्ष लेते हैं-उत्पादन एवं वितरण के साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व, सम्पत्ति का समान वितरण तथा साम्यवादी दल का नेतृत्व । साम्यवादियों ने सामाजिक मूल्यों, राजनीतिक आदर्शों तथा संस्थाओं को प्राप्त करने के लिए अनेक साधन अपनाने के पश्चात् भी उन सभी ‘औपचारिक संस्थाओं को अपनाया है जो पाश्चात्य विचारधारा के अनुसार राजनीतिक शक्ति को नियंत्रित करने के लिए व्यवस्थित की जाती हैं। ये व्यवस्थाएँ राजनीतिक शक्ति को नियन्त्रित करके उसके दुरुपयोग पर प्रतिबन्ध लगाती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि साम्यवादी राज्यों में ही यथार्थ लोकतंत्र पाया जाता है तथा व्यवहार में संविधानवाद की ठोस व्यवस्था है। साम्यवादी संविधानों में इस प्रकार की व्यवस्थाएँ होती हैं जो पाश्चात्य परम्परा की भाँति नियन्त्रण की शक्ति, नियन्त्रण के प्रतिमान और प्रक्रियात्मक प्रतिबन्ध स्थापित करती हैं। सोवियत संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों तथा स्वतन्त्रता की समुचित रक्षा व्यवस्था होती है, विभिन्न शासन-सत्ताओं के मध्य सम्बन्धों की समुचित व्याख्या है तथा सार्वजनिक नीति के निर्धारण और क्रियान्वयन का प्रक्रियात्मक अनुबन्ध है।

सोवियत और अन्य साम्यवादी संविधानों की व्यवस्थाएँ सराहनीय हैं तथा पाश्चात्य लोकतांत्रिक संविधानों के निकट हैं, परन्तु उनके कहने और करने में अन्तर है। साम्यवादी व्यवस्था आरोपित है कि इसमें संविधानवाद का अनुसरण नहीं हो पाता; क्योंकि शासन तथा शीर्षस्थ नेताओं पर प्रभावशाली नियन्त्रण नहीं होता। शासन-सत्ता को संचालित करने वाली वास्तविक प्रक्रियाएँ सांविधानिक व्यवस्थाओं से पृथक होती ह । संविधान में ही ऐसी धाराएँ होती हैं जिनके द्वारा राज्य तथा शासन सम्पूर्ण रूप से साम्यवादी दल के अधीन रहता है। साम्यवादी विचारधारा के अनुसार साम्यवादी दल का अधिकार सर्वोपरि होता है। दल उन संस्थाओं से भी मुक्त होता है जिनका निर्माण वह स्वयं करता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि साम्यवादी व्यवस्था में सम्पूर्ण राजनीतिक सत्ता का स्रोत साम्यवादी दल है जो स्वेच्छा से राजनीतिक नेताओं को सत्ता देता या छीनता है तथा राजनीतिक नियम निर्धारित और परिवर्तित करता है। पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार साम्यवादी देशों का संविधान एक धोखा है क्योंकि यह कार्यक्रम में परिणत नहीं होता तथा न ही राजनीतिक व्यवस्था का ठीक चित्रण ही करता है। रूस अथवा चीन के संविधान को संविधानवाद का निषेध ही कहा जा सकता है।

सोवियत नेताओं तथा न्यायशास्त्रियों के अनुसार शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त बुर्जुआ लोगों का अस्त्र है। वे अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए ही शक्तियाँ मर्यादित करते हैं। रूसी व्यवस्था के अनुसार समाज में केवल एक वर्ग सर्वहारा वर्ग होता है।

वास्तव में रूस अपने ढंग के संविधानवाद पर अग्रसर है। वह नये तरह के प्रजातन्त्र के निर्माण में सफलतापूर्वक लगा है। वहाँ प्रजा सुखी तथा समृद्धि के पथ पर चल रही है और पाश्चात्य देशों के मुकाबले में शोषण से मुक्त है। सोवियत तथा पाश्चात्य दोनों की ही संविधानवाद की पृथक् व्याख्या है।

समाजवाद संविधानवाद के तथ्यों एवं आधारों से अतीत में पृथक् तथा निराशाजनक होने पर भी आज समाजवाद के सिद्धान्तों को प्रजातन्त्र अथवा संविधानवाद के सिद्धान्तों से मिलाने का प्रयास किया जा रहा है। समाजवाद तथा संविधानवाद के परस्पर विरोधी होना यह धारणा अब अनुपयुक्त है तथा रूस भी निरंकुश राष्ट्र नहीं है। सरकार के स्वरूप की महत्ता के साथ- साथ सरकार की कार्यकुशलता, समाज तथा व्यक्ति की उन्नति आदि का बहुत महत्व है। उक्त दृष्टि के अनुसार रूस की शासन व्यवस्था श्रेष्ठ है। जनता की इच्छा ही संविधानवादी अथवा लोकतन्त्रात्मक शासन का आधार होती है तथा इसके अनुसार रूस की साम्यवादी शासन- व्यवस्था के विरोध में आज तक कोई प्रदर्शन नहीं हुआ है। रूसी साम्यवादी स्वयं ही अपने देश की व्यवस्था को अधिनायकवादी मानते हैं। परन्तु उनके अनुसार वे अधिनायकवादी होते हुए भी लोकतन्त्रीय हैं। रूसी लोकतन्त्र में जनता तथा उसके द्वारा सार्वजनिक कार्यों में भाग लेने पर बल दिया जाता है | रूसी अपने द्वारा निर्वाचित चेहल्क के नियन्त्रण में विश्वास रखते हैं जो सार्वजनिक हित में शासन करता है

(2) पाश्चात्य विचारधारा

(The Western Concept)

(1) मूल्य-मुक्ति व्याख्या तथा (2) मूल्य-अभिभूत व्याख्या । केवल सांविधानिक ढॉचे का वर्णन करते समय उनके साथ कोई मूल्य, आदर्श, मान्यताएँ तथा सिद्धान्त नहीं जोड़े जाने पर व्याख्या मूल्य-मुक्त कहलाती है। वास्तव में कोई भी संविधान मूल्यरहित नहीं होता। क्योंकि प्रत्येक संविधान में कुछ उपयोगिता तथा मूल्य निहित होते हैं। जब राजनीतिक आदर्शों तथा उद्देश्यों के आधार पर संविधानवाद की व्याख्या की जाती है तो यह व्याख्या मूल्य-अभिभूत कहलाती है। इसके अनुसार समानता, स्वतन्त्रता, प्रजातन्त्र आदि आदर्शों पर विचार करने पर ही संविधान की बातें होंगी। तात्पर्य यह है कि मूल्य-अभिभूत व्याख्या के आधार पर ही संविधानवाद की व्याख्या की जा सकती है। इसी मान्यता के आधार पर ही इसका विचार आगे बढ़ता है तथा साध्य एवं साधन की दृष्टि से सोचने के लिए पृष्ठभूमि तैयार होती है। पाश्चात्य विचारकों के अनुसार साध्य और साधन दोनों संविधानवाद के दो पहलू हैं तथा इनमें से एक के भी न होने पर संविधानवाद का सही रूप प्राप्त नहीं किया जा सकता।

पाश्चात्य संविधानवाद उदारवाद का दर्शन कहा जाता है, जिसका अन्तर्भाग प्रतिबन्धों की व्यवस्था है। इन प्रतिबन्धों की व्यवस्था पश्चिमी देशों में शक्ति के संस्थाकरण करके की जाती है। पाश्चात्य समाजों के अनुसार शक्ति का संस्थाकरण हो जाने पर उसका प्रयोग किसी व्यक्ति की स्वेच्छा से न होकर संस्थागत विधियों से होगा। इस प्रकार शक्ति का नियमित प्रयोग होने में का दुरुप्रयोग न होगा। संक्षेप में कहा जा सकता है कि पाश्चात्य संविधानवाद का मूल्य  आधार ‘संस्थागत और प्रक्रियात्मक प्रतिबन्धों से सीमित सरकार है तथा ये प्रतिबन्ध ही पाश्चात्य संविधानवादी धारणा के मूल तत्व होते हैं।

पश्चिमी संविधानवाद के तत्व (Elements of Western Constitutiona- lism )- पाश्चात्य संविधान के दो मूल तत्व हैं- (क) सीमित सरकार की परम्परा तथा (ख) राजनीतिक उत्तरदायित्व का सिद्धान्त।

(क)  सीमित सरकार की परम्परा से तात्पर्य है कि पाश्चात्य संविधानवाद में राजनीतिक शक्ति नियन्त्रित करने की निम्नलिखित विधियां अपनाई गई हैं-

(i) विधि का शासन, (ii) शक्ति का पृथक्करण, (iii) शक्तियों का विकेंद्रीकरण, (iv) शक्ति का विभाजन, (v) मौलिक अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं का प्रावधान, (vi) स्वतन्त्र और निष्पक्ष न्यायपालिका।

(ख) राजनीतिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त से तात्पर्य है कि शासन सत्ता का प्रत्येक अंग तथा अधिकारी स्वयं को लोकमत के प्रति सक्षम उत्तरदायी समझे। इस राजनीतिक उत्तर- दायित्व को व्यवहार में लाने के लिए कई साधनों का प्रयोग किया जाता है। इस उत्तरदायित्व की मुख्य तथा आवश्यक शर्ते निम्नलिखित प्रकार हैं:-

(i) लोकमत, (ii) राजनीतिक दलों का अस्तित्व, (iii) निश्चित अवधि में चुनाव, (iv) परम्पराएँ तथा सामाजिक बहुलवाद तथा (v) समाचारपत्रों की स्वतन्त्रता।

(3) विकासशील देशों में संविधानवाद

(Constitutionalism in Developing countries)

विकासशील देशों में संविधानवाद की विशेष पहचान बताना मुश्किल है। क्योंकि ये देश तथा संविधान प्रक्रिया के गर्भ में हैं। विकासशील देशों के संविधानों में पूर्व विकसित तथा प्रगतिशील देशों के संविधानों में विभिन्नताएँ पायी जाती हैं जो निम्नलिखित प्रकार हैं:-

(i) पूर्व विकसित देशों के संविधान बन चुके हैं तथा विकासशील देशों के संविधान विकसित हो रहे हैं।

(ii) विकासशील देशों की समस्याएँ विकसित देशों की समस्याओं से पृथक् होती हैं।

(iii) विकासशील देशों की आर्थिक स्थिति निम्न होती है।

(iv) विकासशील देशों की राजनीतिक अस्थिरता इनके संविधानवाद के मार्ग की बड़ी बाधा है।

विकासशील देशों में संविधानवाद के दो पहलू दिखाई देते हैं-

(1) विकासशील देशों में मिश्रित संविधानवाद होता है।

(2) कुछ विकासशील देश पाश्चात्य संविधानवाद को अपने अनुरूप नहीं समझते हैं।

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि विकासशील तथा विकसित दोनों देशों के संविधानवाद की पृष्ठभूमि में उनकी अपनी-अपनी समस्याएँ कार्यरत हैं, परन्तु दोनों ही संविधान की मूल्य-अभिभूत व्याख्या में विश्वास रखते हैं।

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Pankaja Singh

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