दर्शन का अभिप्राय | शिक्षा का अभिप्राय | दर्शन और शिक्षा में सम्बन्ध

दर्शन का अभिप्राय | शिक्षा का अभिप्राय | दर्शन और शिक्षा में सम्बन्ध | Meaning of Darshan in Hindi | Meaning of education in Hindi | Relationship between philosophy and education in Hindi

दर्शन और शिक्षा में क्या सम्बन्ध होता है। इसे समझने के पूर्व शिक्षा और दर्शन से क्या अभिप्राय लिया जाता है इसे जान लेना चाहिए जिससे कि दोनों को उचित ढंग से जोड़ा जा सके। आधुनिक समय में शिक्षाशास्त्रियों एवं दार्शनिकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण दिये हैं। इन्हें यहाँ प्रकट कर देने से शिक्षा और दर्शन का सम्बन्ध जाना जा सकता है।

दर्शन का अभिप्राय

‘दर्शन’ शब्द का अभिप्राय है ‘जो कुछ देखा गया हो।’ यह देखना दो ढंग से होता है, एक तो आँखों से और दूसरा बुद्धि, तर्क, ज्ञानचक्षु से; इसी कारण दर्शन का तात्पर्य  संसार की विभिन्न चीजों पर गूढ़तम और अन्तिम चिन्तन तथा निर्णय होता है। (Because of this philosophy means thinking decisively of all things of the world in the innermost and ultimate manner).

ऐसा विचार आधुनिक दार्शनिकों का है। प्रो० माथुर ने लिखा है कि “दर्शन मानव जीवन में काम आने वाली चीजों के सम्बन्ध में उचित तर्कपूर्ण ढंग से अनवरत विचारने की कला है।”

इस दृष्टि से दार्शनिक जीवन के सभी प्रश्नों का सत्यता, तर्क, सुसंगठित और दृढ़ता के साथ अन्तिम और निर्णयात्मक उत्तर देता है। अब स्पष्ट हो जाता है कि दर्शन जीवन की समस्याओं के समाधान हेतु चीजों को देखने, स्वीकार करने, अपनाने और आगे बढ़ने का एक निश्चित दृष्टिकोण होता है। ऐसा संकेत हमें प्रो० पार्ट्रिज के शब्दों में मिलता है।

“वास्तविक दर्शन वह है जिसमें युवकों को जीवन के प्रति उचित दृष्टिकोण को अपनाने के लिए प्रेरित करने और सम्पूर्ण समाज में शिक्षा के उचित विचारों को ग्रहण करने की शक्ति होती है, चाहे उस दर्शन के उद्देश्य या विशेषताएँ कुछ भी क्यों न हो।”

प्रो० राधाकृष्णन ने कुछ थोड़ा सा अन्तर नताते हुए कहा कि “दर्शन वास्तविकता के स्वरूप को तर्कपूर्ण ढंग से जाँच करना है।”

इस कथन से दर्शन भी एक तर्कपूर्ण प्रक्रिया है जो संसार की समस्त चीजों की वास्तविकता का युक्ति-युक्त ढंग से जानने, बताने और व्याख्या करने का प्रयत्न करती है। दर्शन मानव के दृष्टिकोण, उस दृष्टिकोण के आधार पर संसार की समस्त वस्तुओं, स्थितियों और अनुभूतियों का ज्ञान तथा उस ज्ञान की स्पष्ट एवं निर्णयात्मक व्याख्या का विवेचन है।

शिक्षा का अभिप्राय

शिक्षा से अभिप्राय सीखने-सिखाने, ज्ञान लेने-देने और इसके फलस्वरूप व्यक्तिगत रूप से और सामाजिक तौर पर जीवन के आदर्शों, लक्ष्यों, परिवर्तनों एवं विकासों को धारण करना होता है जिसकी सहायता से देश, समाज, मानवता का कल्याण किया जाता है। इस दृष्टि से शिक्षा मानव विकास की एक प्रक्रिया है।

पेस्टॉलोजी ने बताया है कि “शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक समरस और प्रगतिशील विकास है।”

फ्रोबेल ने लिखा है  कि “शिक्षा एक प्रक्रिया है जिससे बालक अपनी आन्तरिक शक्तियों को बाहर प्रकट करता है।”

प्रो० झा ने कहा है कि “शिक्षा एक प्रक्रिया है, एक सामाजिक कार्य है जो समाज अपने हितों के लिए करता है।”

प्रो० अदावाल ने लिखा है कि “शिक्षा वह सविचार प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति के विचार तथा व्यवहार में परिवर्तन और परिवर्द्धन होता है, उसके अपने एवं समाज के उन्नयन के लिए।”

इन सभी उक्तियों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शिक्षा से हमारा अभिप्राय मनुष्य की उस सविचार प्रक्रिया से है जिसके कारण उसके विचार एवं व्यवहार में वैयक्तिक एवं सामाजिक उन्नयन अपनी तथा समाज की दृष्टि से होता है।

दर्शन और शिक्षा में सम्बन्ध

जो भी विचार विद्वानों ने दिए हैं उनसे हमें दर्शन और शिक्षा का सम्बन्ध मालूम  होता है। इन विचारों से यह भी ज्ञात होता है कि इन दोनों में घनिष्ठ और एक-दूसरे से  भविच्छिन्न सम्बन्ध होता है और दर्शन एक प्रकार से शिक्षा के लिए आधार है तथा उसका प्रभाव शिक्षा पर इतना अधिक पड़ा है कि बिना दर्शन के शिक्षा की क्रिया पूर्णरूपेण हो नहीं सकती है। अतएव हमें पहले विभिन्न विचारों की ओर देखना चाहिए :-

(i) दर्शन शिक्षा का सामान्य सिद्धान्तवाद है- जॉन डीवी ने कहा है कि “अपने सामान्यतम रूप में दर्शन शिक्षा का सिद्धान्तवाद है।”

चूँकि दर्शन में सोच-विचार के बाद निष्कर्ष निकालते हैं इसलिए वह एक प्रकार से सिद्धान्तवाद बनता है। शिक्षा में इसे प्रयोग किया जाता है। अतएव दर्शन और शिक्षा में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।

(ii) दर्शन सिद्धान्तवादी और चिन्तनशील तथा शिक्षा व्यवहारशील- प्रो० बटलर ने लिखा है कि “दर्शन सिद्धान्तवादी और चिन्तनशील है और शिक्षा व्यावहारिक है।”

इसका तात्पर्य यह है कि दर्शन में चिन्तन ही होता है और शिक्षा में क्रिया होती है। दर्शन ‘क्या’ का उत्तर देता है और शिक्षा ‘कैसे’ का उत्तर देती है।

(iii) दर्शन और शिक्षा सिक्के के दो पहलू- प्रो० रॉस ने लिखा है कि, “दर्शन और शिक्षा सिक्के के दो पहलू के समान हैं, एक चीज के दो विभिन्न दृश्य उपस्थित करते हैं, तथा एक दूसरे से अभिप्रेत होता है।”

इस कथन से हमें दर्शन और शिक्षा में अभिन्नता मालूम होती है, फिर इनके द्वारा एक ही वस्तु दो ढंग से प्रकट की जाती है।

(iv) दर्शन का सक्रिय पक्ष शिक्षा-प्रो० ऐडम्स ने बताया है कि “शिक्षा दर्शन का गत्यात्मक पक्ष है। यह दार्शनिक विश्वास का सक्रिय पक्ष है।”

इस कथन में यह संकेत मिलता है कि मनुष्य जो कुछ विचार करता है उसे वह कार्य में लगाता है और यदि ऐसा न हो तो उन विश्वासों का कोई मूल्य नहीं। इस दृष्टि से दर्शन का मूल्य शिक्षा के क्षेत्र में प्रकट किया जाता है।

(v) दर्शन द्वारा शिक्षा की कला को पूर्णता देना- प्रो० फिश्टे ने जोर दिया कि “दर्शन के बिना शिक्षा की कला स्वतः पूर्ण स्पष्टता को कदापि प्राप्त नहीं कर सकेगी।”

इस कथन से यह मालूम होता है कि दर्शन शिक्षा की बातों की स्पष्ट व्याख्या करता है और उन्हें पूर्णरूपेण तभी समझा जा सकता है जब दर्शन की सहायता ली जाती है।

(vi) दर्शन शिक्षा का आधार-आधुनिक विचारकों ने बताया है कि शिक्षा की क्रिया को मजबूत बनाने के लिए दर्शन का आधार होना चाहिए। इस कथन से स्पष्ट होता है कि दर्शन और शिक्षा दोनों एक दूसरे के साथ गहरा सम्बन्ध रखते हैं।

(vii) दर्शन शिक्षा की समस्या का हल- प्रो० हरबर्ट ने लिखा है कि “शिक्षा को उस समय तक फुरसत नहीं जब तक कि दार्शनिक प्रश्न हल नहीं होते हैं।”

इससे दर्शन की उपादेयता के साथ-साथ शिक्षा के साथ उसका अटूट सम्बन्ध भी मालूम होता है। दर्शन की दृष्टि से प्रश्नों व समस्याओं को हल करने की ओर होती है। ऐसी समस्याएँ क्रिया करते समय उठती हैं। अतएव स्पष्ट है कि दर्शन शिक्षा की सहायता करता है, मार्ग स्पष्ट करता है।

(viii) दर्शन की समस्या शिक्षा की समस्या- शिक्षाविदों ने कहा है कि “शिक्षा की सभी समस्याएँ अन्ततोगत्वा दर्शन की समस्याएँ हैं।” (All the problems of education are ultimately problems of philosophy) । इस कथन से हमें ज्ञात होता है कि शिक्षा एक सविचार, चिन्तनशील प्रक्रिया है अतएव इसके बारे में दार्शनिक तौर से सोचना-समझना जरूरी है। यदि ऐसा नहीं होता तो समस्याओं का समाधान नहीं होता है। अब स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा और दर्शन में कैसा सम्बन्ध पाया जाता है।

(ix) दर्शन और शिक्षा के तथ्य समान- दर्शन मनुष्य और संसार की सभी चीजों के प्रति एक निश्चित दृष्टिकोण में पाया जाता है। शिक्षा भी मनुष्य के जीवन से सम्बन्धित होती है, वह भी संसार की सभी चीजों के बारे में ज्ञान अनुभव देती है। दर्शन मनुष्य की आत्मा, मूल्य, आदर्श मानक स्थापित करता है, इनके बारे में खोज करता है और शिक्षा भी इस खोज की क्रिया रूप में रहती है। अतएव दोनों के तथ्य एक ही हैं तथा दोनों में गहरा सम्बन्ध है।

(x) दर्शन और शिक्षा दोनों मानव जीवन के अभिन्न अंग- दर्शन जीवन में सत्यं शिवं सुन्दरं की खोज करता है और शिक्षा जीवन के सर्वोत्तम की अभिव्यक्ति है, जीवन की पूर्णता का प्रकाशन है। सत्यं शिवं सुन्दरं में ही जीवन की पूर्णता पाई जाती है। वस्तु दर्शन और शिक्षा जीवन के अभिन्न अंग होने के नाते परस्पर सम्बन्धित माने जाते हैं।

(xi) दर्शन शिक्षा का निर्देशक-कथन है कि दर्शन शिक्षा का निर्देशक है (Philosophy is the guide of education) । शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, साधन, विद्यालय, शिक्षक, विद्यार्थी सभी के लिए दर्शन का महत्व होता है और दर्शन ही इन्हें निर्देशन (Guidance) देता है। यदि ऐसा न हो तो शिक्षा अंधकार में टटोलती फिरे और पथभ्रष्ट भी हो जावे, सभी चीजें अस्त-व्यस्त रहें।

(xii) दार्शनिक शिक्षक- प्राचीन काल से आज तक सभी दार्शनिक शिक्षक हुए हैं (All philosophers have been educators) । सुकरात, प्लेटो, रूसो, डीवी, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, अरविन्द, टैगोर-सभी एक और दार्शनिक हैं तो दूसरी ओर शिक्षा देने वाले शिक्षक के रूप में दार्शनिक जीवन में विकास और सफलता को उत्तरदायी कहा जाता है। अतएव दोनों में कितना घनिष्ठ सम्बन्ध है।

ऊपर के विचारों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि दर्शन और शिक्षा में बहुत समीपी सम्बन्ध पाया जाता है। शिक्षा की सफलता दर्शन पर निर्भर करती है, दर्शन के अभाव में शिक्षा की योजना अन्धकार में रहती है, शिक्षा की खोज दर्शन के द्वारा होती है, शिक्षा की प्रयोगशीलता एक सच्चे दर्शन के कारण ही सम्भव होती है। दर्शन यदि सत्य सिद्धान्त प्रस्तुत न करें तो शिक्षा किसे काम में लावे? ऐतिहासिक साक्ष्य इसके पक्ष में हैं। भारत में वशिष्ठ, विश्वामित्र, वाल्मीकि, बुद्ध, गांधी सभी ने शिक्षा दी जिसमें अपने दर्शन के मूल सिद्धान्त बताए। अतएव दर्शन और शिक्षा अविच्छेद्य हैं। (Philosophy and education are insepaable) |

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